शनिवार, 23 नवंबर 2024

146. लाला लाजपत राय

 राष्ट्रीय आन्दोलन

146. लाला लाजपत राय


लाल बाल पाल

प्रवेश

पंजाब केसरी लाला लाजपत राय की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। वह स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत थे। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में उग्र राष्ट्रवादी नेताओं में वह प्रमुख थे। बाल (बाल गंगाधर तिलक) और पाल (बिपिन चन्द्र पाल) के सामान लाल (लाला लाजपत राय) ने भी नए राष्ट्रवाद की भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। पाल नये राष्ट्रवाद के सिद्धांतकार थे, लाल उसके पुरुषत्व और साहस के प्रतीक थे तथा बाल उसके हृदय और आत्मा थे। उन्हें 'पंजाब के शेर' की उपाधि भी मिली थी।

जीवन परिचय

लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी, 1865 को पंजाब के लुधियाना जिले में एक छोटे से गांव धुदिके में एक अग्रवाल जैन परिवार में हुआ था हुआ था। वह मुंशी राधा कृष्ण और गुलाब देवी अग्रवाल के छह बच्चों में सबसे बड़े बेटे थे। उनके पिता उर्दू और फारसी के सरकारी स्कूल शिक्षक थे। लाला लाजपत राय को अपने पिता से कर्तव्यनिष्ठा, उत्तरदायित्व, स्पष्टवादिता, ध्येयनिष्ठा, बलिदान की भावना तथा स्वतंत्रता और माता से दानशीलता, विशालह्रदयता, दयालुता और धर्मानुराग जैसे गुण प्राप्त किए। प्रारंभिक शिक्षा 1880 में गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल, रेवाड़ीपंजाब प्रांत में हुई, जहाँ उनके पिता उर्दू शिक्षक के रूप में तैनात थे। 1880 में, उन्होंने कानून की पढ़ाई करने के लिए लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में दाखिला लिया।  शिक्षा समाप्त कर उन्होंने वकालत शुरू की। वकालत करते हुए भी वह राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में दिलचस्पी लेते थे। 1886 में, वे हिसार चले गए और वकालत शुरू की और बाबू चूड़ामणि के साथ हिसार की बार काउंसिल के संस्थापक सदस्य बने। 1914 में, उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए खुद को समर्पित करने के लिए वकालत छोड़ दी।

भारतीय सभ्यता और संस्कृति में विश्वास

उन्हें प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति में गहरा अनुराग था। वह स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे। 1882 में मात्र 17 वर्ष की अल्प आयु में लाला लाजपत राय आर्य समाज में शामिल हो गए थे। लाजपतराय ने आर्य समाज को एक व्यावहारिक सेवा संगठन बना दिया। 1886 में, उन्होंने महात्मा हंसराज को लाहौर की दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज (डी.ए.वी. कॉलेज) की स्थापना में अपना अहम योगदान दिया।

कुशल लेखक

वह एक कुशल लेखक और वक्ता थे। ‘कोहेनूर नामक समाचार पत्र में उनके विचारोत्तेजक लेख छपते थे। उन्होंने स्वयं भी अनेक समाचारपत्रों का प्रकाशन किया। जब तिलक ने महाराष्ट्र में ‘शिवाजी महोत्सव’ मनाया, तो शिवाजी पंथ ने देश के अन्य भागों में भी लोगों की कल्पना को आकर्षित किया। पंजाब में लाला लाजपत राय ने शिवाजी की एक लोकप्रिय जीवनी का उर्दू में अनुवाद किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, द स्टोरी ऑफ़ माई डिपोर्टेशन (1908), आर्य समाज (1915), द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका: ए हिंदूज़ इंप्रेशन्स (1916), यंग इंडिया (1916), इंग्लैंड डेब्ट टू इंडिया (1917), भारत का राजनीतिक भविष्य (1919), भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या (1920), अनहैप्पी इंडिया (1928)। लालाजी ने भगवान श्रीकृष्णअशोकशिवाजीस्वामी दयानंद सरस्वतीगुरुदत्त, मेत्सिनी और गैरीबाल्डी की संक्षिप्त जीवनियाँ भी लिखीं।

पंजाब नेशनल बैंक

लाला लाजपत राय ने 19 मई 1894 को लाहौर में देश के प्रथम ‘पंजाब नेशनल बैंक की नींव रखी थी। लाला जी और अन्य सभी सदस्य इस बैंक से आखिर तक जुड़े रहे। किंतु भारत विभाजन के खतरे को देखते हुए, स्वतंत्रता से कुछ समय पूर्व ही पंजाब नेशनल बैंक को लाहौर से दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया गया। 


लाला लाजपत राय

देश की सेवा- उनका धर्म

अपनी युवावस्था से ही उन्होंने देश की सेवा को अपना धर्म बना लिया था। सेवा के प्रति उनका प्रेम अतृप्त था। वह अपने देश से प्यार करते थे क्योंकि वह दुनिया से प्यार करते थे। 1888 में वह कांग्रेस में आए। वह कांग्रेस की उदार नीतियों के विरोधी थे। तिलक और बिपिनचंद्र पाल के साथ उन्होंने कांग्रेस में उग्रवादी गुट बना लिया। उनका कहना था कि अगर भारत स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहता है तो उसे भिक्षावृत्ति छोड़कर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा। पंजाब में लाला लाजपत राय  ने गरमदल की नीतियों को आगे बढाया। उन्होंने साहस, त्याग, आत्मविश्वास और बलिदान की भावना की पैरवी की। इनके विचार क्रांतिकारी थे। वे अंग्रेजी राज को अभिशाप मानते थे। वे शीघ्र अंग्रेजी राज की समाप्ति चाहते थे। क्रांतिकारी होते हुए भी वे संविधानवादी बने रहे।  लाला लाजपतराय ने प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन का स्वागत करने के प्रस्ताव का विरोध किया था। लेकिन नरमपंथियों द्वारा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।

1894 में कांग्रेस अध्यक्ष के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल कांग्रेस के प्रस्तावों के साथ वायसराय के पास आया था। लॉर्ड कर्जन ने प्रतिनिधिमंडल को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और कांग्रेस की गतिविधियों को केवल "गड़बड़ी" करने वाला बताया। परिणामस्वरूप गोखले और लाजपत राय को ब्रिटिश जनता के समक्ष भारतीय शिकायतों को रखने के लिए इंग्लैंड भेजा गया। कांग्रेसियों को ब्रिटेन की न्याय भावना पर दृढ़ विश्वास था। 1889 से लंदन में कांग्रेस की ब्रिटिश समिति की स्थापना की गई। गोखले और लाजपत राय ने पूरे इंग्लैंड का दौरा किया, महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मुलाकात की, संपर्क बनाए और सार्वजनिक सभाओं को संबोधित किया। लेकिन वे निराश होकर भारत लौट आए। लाजपत राय ने घोषणा की कि ब्रिटेन अपने स्वयं के मामलों में इतना व्यस्त है कि वह भारत के लिए कुछ भी नहीं कर सकता, ब्रिटिश प्रेस भारतीय आकांक्षाओं का समर्थन करने के लिए तैयार नहीं है, इंग्लैंड में सुनवाई मिलना मुश्किल है और भारतीयों को अपनी स्वतंत्रता हासिल करने के लिए खुद पर निर्भर रहना होगा। लाजपत राय का संदेश दिसंबर 1905 में बनारस के कांग्रेस अधिवेशन में एकत्रित युवा भारतीयों के दिलों में उतर गया। 1920 के कलकत्ता विशेष अधिवेशन में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। उनके नेतृत्व में जालियांवाला बाग़ काण्ड के बाद कांग्रेस ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन का संकल्प लिया। 1921 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। रिहाई के बाद जब वह बहार निकले तब तक असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया जा चुका था। वह मोतीलाल नेहरू द्वारा स्थापित स्वराज पार्टी में शामिल हो गए।

बंग-भंग आन्दोलन

उन्होंने बंग-भंग आन्दोलन का समर्थन किया। बहिष्कार और स्वदेशी का पंजाब में प्रचार किया। 1905 में बनारस कांग्रेस अधिवेशन’ में लाला लाजपत राय ने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बंगाल में हो रहे उग्र आंदोलन को समाप्त करने के लिए अपनाए गए दमनकारी नीतियों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने भारतीय जनमानस से स्वदेशी अपनाने और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आवाहन किया।

राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार

उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार किया। उन्होंने शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की।  उन्होंने लाहौर में नेशनल कॉलेज की स्थापना की। उन्होंने युवा पीढ़ी को भारत की स्वतंत्रता और सम्मान को बनाए रखने का काम सौंपा था। 1921 में, उन्होंने एक गैर-लाभकारी कल्याणकारी संगठनसर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की स्थापना, देश की उन्नति के लिए अपनी कई गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए की थी। सोसाइटी के संबंध में उनकी महत्वाकांक्षा बहुत ऊँची थी। वह चाहते थे कि पूरे भारत में कई युवा एक आम उद्देश्य के लिए एक साथ जुड़ें और एक इच्छा के साथ काम करें।

भारत से निर्वासित

1907 में वह कांग्रेस से अलग हो गए। इसी वर्ष उन्होंने उपनिवेशीकरण अधिनियम के विरोध में पंजाब में एक व्यापक आन्दोलन चलाया। लाला लाजपतराय और हरकिशन लाल के क्रिया-कलापों से पंजाब में उग्रपंथ काफी सफल रहा। वे अपने विचारों को व्यक्त करने में निडर थे। क्रांतिकारी गतिविधियों में भी उन्होंने भाग लिया। इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर भारत से निर्वासित कर दिया गया। उनका राष्ट्रवाद अंतरराष्ट्रीय था। इसलिए यूरोपीय लोगों पर उनकी पकड़ थी। उन्होंने यूरोप और अमेरिका में दोस्तों का एक बड़ा समूह होने का दावा किया। लाला लाजपत राय 1908 में ब्रिटेन चले गए, फिर वहां से लौटकर आए तो अमेरिका चले गए। लाला लाजपत राय को गुप्तचर विभाग के सदस्यों द्वारा इतना परेशान किया गया कि उन्हें देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और उन्होंने अस्थायी रूप से अमेरिका में शरण ली। वहीँ से अंग्रेजी राज-विरोधी गतिविधियों में भाग लेते रहे। उन्होंने इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका की स्थापना की, जिसके प्रथम अध्यक्ष वह स्वयं थे। इस लीग का उद्देश्य भारत में हो रहे होम रूल आंदोलन का समर्थन करना था। 

कांग्रेस की आलोचना

यंग इंडिया में 1916 में लिखे लेख में लाला लाजपत ने सुरक्षा वॉल्व की परिकल्पना का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस पर प्रहार किया उन्होंने कांग्रेस संगठन को लॉर्ड डफरिन के दिमाग की उपज बताया। उन्होंने संगठन की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य भारतवासियों को राजनीतिक स्वतंत्रता दिलाने की जगह पर ब्रिटिश साम्राज्य के हितों की रक्षा और उस आसन्न खतरों से बचाना बताया। उनका कहना था कि कांग्रेस ब्रिटिश वायसराय के प्रोत्साहन पर ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए बनी एक संस्था है जो भारतीयों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।

श्रमिक आन्दोलन

1920 में लाला लाजपत राय भारत वापस आए। 1920 में ही अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई। लाला लाजपत राय इसके पहले अध्यक्ष बने। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा था, भारतीय श्रमिकों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होने में एक क्षण का समय नहीं खोना चाहिए। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पूंजीवाद को साम्राज्यवाद से जोड़कर देखा था और इस गठजोड से लड़ने के लिए मज़दूर वर्ग की भूमिका पर जोर दिया था। उन्होंने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। फिर गिरफ्तार कर लिए गए।

बहुआयामी गतिविधियाँ

उनकी गतिविधियाँ बहुआयामी थीं। वे एक उत्साही और प्रभावशाली सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने आर्य समाज के बैनर टेल अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु काम किया। बाद में जब महात्मा गांधी ने ‘हरिजन सेवक संघ के माध्यम से इस क्षेत्र में कार्य करना शुरू किया तो उन्होंने इस संगठन के लिए काम करना शुरू कर दिया। सामाजिक और धार्मिक सुधार के लिए उनका उत्साह राजनीति में भागीदारी की माँग करता था। इसलिए वह राजनीतिज्ञ बने। उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन के आरंभिक चरण में ही देख लिया था कि जिस तरह का सुधार वे चाहते थे, वह तब तक संभव नहीं था जब तक देश विदेशी प्रभुत्व से मुक्त नहीं हो जाता। वह कहते थे ‘विदेशी शासन जहर की तरह है, जो जीवन के हर क्षेत्र को दूषित कर रहा है।’ सन 1912 में लाला लाजपत राय ने एक 'अछूत कॉन्फ्रेंस' आयोजित की थी, जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था। 1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और 'केन्द्रीय धारा सभा’ के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पण्डित मोतीलाल नेहरू से राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने 'नेशनलिस्ट पार्टी' का गठन किया और पुनः असेम्बली में पहुँच गये। असहयोग आन्दोलन को वापस लिए जाने के बाद वह हिन्दू महासभा में शामिल हो गए और हिन्दू एकता की वकालत करने लगे।  1925 में उन्हें 'हिन्दू महासभा' के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। उनका मानना ​​था कि हिंदू समाज को जाति व्यवस्था, महिलाओं की स्थिति और अस्पृश्यता के खिलाफ़ अपनी लड़ाई खुद लड़नी चाहिए। उनका विश्वास था कि हिंदू धर्म के आदर्शवाद, राष्ट्रवाद के साथ मिलकर धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करेगा। गांधीजी कहते हैं, अपने मुसलमान मित्रों के प्रति पूरे सम्मान के साथ मैं यह दावा करता हूँ कि वे इस्लाम के दुश्मन नहीं थे। हिंदू धर्म को मजबूत और शुद्ध करने की उनकी इच्छा को मुसलमानों या इस्लाम के प्रति घृणा से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। वे हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने और उसे हासिल करने के सच्चे इच्छुक थे। वे हिंदू राज नहीं चाहते थे, बल्कि वे पूरी लगन से भारतीय राज चाहते थे; वे चाहते थे कि जो लोग खुद को भारतीय कहते हैं, उन्हें पूर्ण समानता मिले।

निधन

30 अक्तूबर, 1928 को पंजाब के प्रमुख राजनीतिक व्यक्ति पंजाब केसरी लाला लाजपत राय, जो चौसठ वर्ष के थे और जिन्हें गांधी ने 'पंजाब का शेर' कहा था,  के नेतृत्व में एक जुलूस लाहौर में सचिवालय के सामने साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा था। उस पर लाठीचर्ज कर दिया गया। वृद्ध अवस्था में भी लाला लाजपतराय को बुरी तरह पीटा गया। लालाजी उसके बाद कभी स्वस्थ नहीं हुए और 17 नवम्बर, 1928 को उनका देहावसान हो गया। अपने घायल अवस्था में मृत्यु से पूर्व लाला लाजपत राय ने कहा था कि मेरे ऊपर जिस लाठी से प्रहार किए गए हैं, वही लाठी एक दिन ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत में आखिरी कील साबित होगी। लालाजी के देहावसान से सारा देश तिलमिला उठा। महात्मा गांधी ने भी लाला लाजपत राय की मृत्यु पर खेद प्रकट करते हुए कहा था कि भारतीय सौर मंडल का एक सितारा डूब गया है। लाला जी की मृत्यु ने एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है, जिसे भरना अत्यंत कठिन है। वे एक देशभक्त की तरह मरे हैं और मैं अभी भी नहीं मानता हूँ कि उनकी मृत्यु हो चुकी है, वे अभी भी जिंदा है। लालाजी जैसे लोग तब तक नहीं मर सकते जब तक भारतीय आकाश में सूरज चमकता रहे।

लाला लाजपत राय का बलिदान भारतीय इतिहास में सदैव अमर है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

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