गांधी और गांधीवाद
158.
शिष्टमंडल के सदस्य के तौर पर इंगलैण्ड रवाना
1906
प्रवेश
उस समय ट्रांसवाल ‘क्राउन कॉलोनी’ (शाही उपिनवेश) था। अतः इसके क़ानून, शासन-प्रबंध आदि के लिए बादशाही
सरकार (साम्राज्य) जवाबदेह थी। ट्रांसवाल के भारतीयों के खिलाफ अध्यादेश अभी तक
कानून नहीं बना था और इसलिए इसे पारित होने से रोकने के लिए सभी उपलब्ध साधनों का
उपयोग करने का समय था। अंतिम उपाय के रूप में, ब्रिटिश सरकार से सीधे
अपील करने का निर्णय लिया गया। जो कानून शाही उपिनवेश
की धारासभा पास करे उसके लिए ब्रिटिश सम्राट की सहमति ज़रूरी नहीं होती; कई बार अपनी सहमति देने से इनकार भी कर सकता है। इसके विपरीत, उत्तरदायी शासन
(रिस्पोंसीबल गवर्नमेंट) वाले उपिनवेशों की धारासभा जो कानून पास करती है, उनके लिए सम्राट
की सहमति केवल शिष्टाचार पूरा करने के लिए ही ली जाती थी। ट्रांसवाल एक
विकसित उपनिवेश था; राजा अपने मंत्रियों की सलाह पर कानून बनाने से शाही स्वीकृति
रोक सकता था।
इंग्लैंड
के लिए प्रतिनिधिमंडल
गांधीजी के जोहान्सबर्ग लौटने के तुरंत बाद, भारतीय समुदाय ने फैसला किया कि एक प्रतिनिधिमंडल का इंग्लैंड जाना
जरूरी है ताकि यदि संभव हो तो, अंतरिम सरकार द्वारा
बनाए गए और पारित एशियाई उपाय को शाही मंजूरी मिलने से रोका जा सके। शिष्टमंडल इंग्लैंड जाए और भारतीयों का पक्ष उपनिवेश सचिव लॉर्ड एल्गिन और भारत सचिव लॉर्ड मॉर्ले के सामने रखे। नेटाल भारतीय कांग्रेस
ने भी मिशन पर होने वाले खर्च को पूरा करने के लिए योगदान दिया था। एक प्रतिज्ञा-पत्र बनाया गया जिस पर लोगों ने हस्ताक्षर कर दिए। यह भी निर्धारित
किया गया कि इस शिष्टमंडल में सिर्फ़ गांधीजी और हाजी वज़ीर अली, जो एक धनी और प्रतिष्ठित मिनरल-वाटर निर्माता थे, ही जाएंगे। हाजी वज़ीर अली के पिता
भारतीय मुसलमान थे और मां मलायी थीं, जिनकी मातृभाषा डच थी। अली धाराप्रवाह अंग्रेजी और डच बोल सकते थे। अखबारों में पत्र लिखने की कला का भी उन्होंने विकास कर लिया था। उनका ब्याह एक मलायी लड़की से हुई
थी। वे ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसियेशन के सदस्य थे और लंबे समय से सार्वजनिक कार्य में भाग लेते आ रहे थे।
प्रतिनिधिमंडल
रवाना
3 अक्टूबर, 1906 को, वे केप टाउन में आर.एम.एस. आर्मडेल कैसल में सवार हुए। यह एक घटना रहित यात्रा थी, हालांकि गांधीजी
को दांत दर्द की शिकायत थी और हाजी वजीर अली को गठिया का गंभीर दौरा पड़ा था।
गांधीजी ने उनकी देखभाल की, उन्हें बताया कि उन्हें क्या खाना चाहिए और यह भी सुनिश्चित
किया कि वे गर्म और ठंडे स्नान के नियम का पालन करें और सुबह के समय कुछ भी न
खाएं। हमेशा की तरह, वे समुद्र में जीवन की शांत, व्यवस्थित दिनचर्या, चालक दल की समय
की पाबंदी और विनम्रता, जहाज के अधिकारियों की दक्षता, अंग्रेजी यात्रियों के
अनुशासन और अच्छी समझ से बहुत प्रभावित हुए। ट्रांसवाल के
कार्यवाहक लेफ्टिनेंट गवर्नर सर रिचर्ड सोलोमन जहाज पर यात्रा कर रहे थे और चूंकि
गांधीजी प्रथम श्रेणी में यात्रा कर रहे थे, इसलिए उनसे मिलना और प्रतिबंधात्मक
कानूनों के सवाल पर चर्चा करना आसान था। पहले तो सर रिचर्ड भारतीयों के प्रति
सहानुभूति रखते दिखे और समस्या की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त करने की बात कही, लेकिन फिर
उन्हें वे कहानियाँ याद आईं, जिनमें उन्होंने सुना था कि भारतीय अपने मित्रों को बड़ी
संख्या में ट्रांसवाल में तस्करी करके लाते हैं और उनका मूड अचानक बदल गया। अगले
दिन हाजी वजीर अली ने उनसे मुलाकात की और उन्हें बताया गया कि अगर भारतीय चुपचाप
नए कानून को स्वीकार कर लें, तो यह बहुत बेहतर होगा। निराश होकर उन्होंने गांधीजी को ये
शब्द बताए, जो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कार्यवाहक लेफ्टिनेंट गवर्नर एक
महत्वाकांक्षी व्यक्ति है, जो प्रधानमंत्री बनना चाहता है और इसलिए भारतीयों के लिए कुछ
नहीं करेगा, क्योंकि उसे डर है कि दया का कोई भी काम उसके सिर पर कलंक लगा देगा।
लंदन पहुंचे
लगभग 6000 मील की लंबी
यात्रा के बाद प्रतिनिधिमंडल शनिवार 20 अक्टूबर 1906 को साउथेम्प्टन पहुंचा। प्रतिनिधिमंडल का वाटरलू
रेलवे स्टेशन पर जे.एच. पोलाक, हेनरी पोलाक के पिता, एल.डब्लू. रिच, और दक्षिण अफ्रीका के कुछ
भारतीय छात्र जो लंदन में पढ़ रहे थे, से मुलाक़ात हुई । वाटरलू से वे उपनगरीय ट्रेन से
हाईगेट पहुंचे। वहां वे होटल सेसिल में ठहरे थे। गांधीजी को लंदन इस बार बहुत
महंगा लगा। उनका कहना था, “मैंने सोचा था कि कोई भी व्यक्ति यहां एक पाउंड प्रतिदिन पर रह सकता
है, लेकिन मेरा अंदाज़
ग़लत निकला। एक कमरा 12 शिलिंग में मिलता है और नहाने के इंतज़ाम के लिए अलग से पैसे देने
पड़ते हैं और ये पैसे एक व्यक्ति के लिए हैं। अगर कोई होटल में खाना लेना चाहे तो
उसे 5 शिलिंग देने पड़ेंगे। इसलिए हम लोग शाकाहारी रेस्टॉरेंट में भोजन करते
हैं। हम होटल में तभी भोजन करते हैं जब हम किसी मित्र या विशिष्ट व्यक्ति को भोजन
के लिए निमंत्रित करते हैं।” चूंकि हर कीमत पर यह ज़रूरी था कि
प्रतिनिधिमंडल ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करे, इसलिए होटल सेसिल के दो कमरों को
दफ़्तरों में बदल दिया गया जहाँ सचिव लगातार टाइपराइटर पर क्लिक करते रहते थे; पत्रों की एक अंतहीन धारा, साक्षात्कार के लिए अनुरोध और घृणित
कानून पर घोषणाएँ भेजी जाती थीं। दो अंग्रेज़ सचिवों को नाममात्र के वेतन पर
पूर्णकालिक रूप से नियुक्त किया गया; भारतीय छात्रों ने मदद की; लुई रिच, जो
गांधी के साथ अनुबंधित थे और अब बार की पढ़ाई कर रहे थे, ने
कानूनी सलाहकार और सामान्य नौकरशाह के रूप में काम किया। चालीस दिनों की अवधि के
दौरान पाँच हज़ार पत्र भेजे गए। गांधीजी इतने व्यस्त थे कि उनके पास दांत निकलवाने
का समय नहीं था। भारत-मंत्री के सामने पेश की जाने वाली अरजी तो उन्होंने जहाज
में ही तैयार कर ली थी। इंग्लैण्ड
पहुंच कर उन्होंने उसे छपवा लिया।
प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों का चुनाव
ज़्यादातर लोग वहां दूर-दूर
रहते थे इसलिए उन्हें ट्रांसपोर्ट पर भी काफ़ी ख़र्च करना पड़ता था। कभी वे ट्रेन से
जाते तो कभी बस से। कभी-कभार टैक्सी भी कर लेते। पैदल चलने का तो उन्हें समय ही नहीं मिलता।
इतना सब कुछ करने के बाद भी दो लोगों से अधिक से एक दिन में उनकी भेंट नहीं हो
पाती। कई बार हाऊस ऑफ कामन्स में घंटों इंतज़ार के बाद किसी मेम्बर से भेंट हो
पाती। वे सबसे पहले दादाभाई
नौरोजी से मिले और फिर उनके ज़रिए कांग्रेस की ब्रिटिश कमेटी से मिले। वे
मंचेरजी भावनगरी से भी मिले। यह तय हुआ कि लॉर्ड एल्गिन के पास जो शिष्टमंडल जाए तो उसका नेता किसी तटस्थ और प्रसिद्ध एंग्लो-इंडियन बनाया जाए तो अच्छा
है। इसके लिए सर लेपल ग्रिफ़िन, जो भारत में
पूर्व ब्रिटिश प्रशासक थे और कई वर्षों तक लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के
अध्यक्ष रहे, को चुना गया। गांधीजी सर लेपल ग्रिफ़िन से मिले। सर लेपेल भारत में चल रहे राजनीतिक
आंदोलनों के विरोधी थे, लेकिन उन्होंने गांधीजी का अगुआ बनना मंजूर कर लिया। इस शिष्टमंडल में एल्डरले के लॉर्ड स्टेनली, सर चार्ल्स डिल्के, हेनरी कॉटन, सर मंचेरजी भावनगरी , हेरोल्ड कॉक्स, जे.डी. रीस, सर जॉर्ज बर्डवुड, सर चार्ल्स श्वान और दादाभाई नौरोजी भी शामिल थे। गांधीजी समय-समय पर
संसद भवन के पास दादाभाई के छोटे से कार्यालय में जाते थे - कार्यालय इतना छोटा था
कि दो आदमी मुश्किल से उसमें सीधे खड़े हो सकते थे - और रणनीति पर चर्चा करते थे।
उपिनवेश- मंत्री लॉर्ड एल्गिन से मुलाक़ात
उस समय लॉर्ड एल्गिन उपिनवेश- मंत्री थे और लॉर्ड
मोर्ले भारत-मंत्री थे। 8 नवंबर को लॉर्ड एल्गिन के पास शिष्ट मंडल गया। 8 नवंबर को अपराह्न 3 बजे डाउनिंग स्ट्रीट स्थित
औपनिवेशिक कार्यालय के व्हाइटहॉल में जब प्रतिनिधिमंडल लॉर्ड एल्गिन से मिलने गया, तो सभी औपचारिकताएँ पूरी कर ली गईं। लॉर्ड एल्गिन ने स्वागत भाषण
दिया और उनके करीबी मित्र सर लेपेल ग्रिफिन ने ट्रांसवाल में भारतीयों के लिए
मामला प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश
सरकार से नए अध्यादेश को मंजूरी न देने का आग्रह किया। भारतीयों ने बहुत कुछ सहा
है; यह तर्क से परे है कि उन्हें और अधिक कष्ट सहने
के लिए कहा जाए। उन्होंने भारतीयों को “दुनिया की सबसे व्यवस्थित, सम्माननीय, मेहनती, संयमी जाति, हमारे ही वंश और
रक्त के लोग” के रूप में वर्णित किया। सर लेपेल
ग्रिफिन उन सेवानिवृत्त अधिकारियों में से एक थे जो कभी पूरी तरह से सेवानिवृत्त
नहीं हुए। उन्हें भारत से बेहद प्यार था और उन्होंने भारतीय कला और दर्शन के बारे
में बहुत कुछ लिखा। वह एक किंगमेकर थे, क्योंकि उन्होंने काबुल
के अमीर अब्दुर रहमान के साथ दोस्ती की थी और उन्हें सिंहासन की पेशकश की थी।
गांधीजी के लिए इससे ज़्यादा प्रभावशाली कोई नहीं हो सकता था। अध्यादेश के
प्रावधानों का सारांश देते हुए सर लेपेल ने कहा, "वास्तव में, यहूदियों के
खिलाफ रूसी कानून के अपवाद के साथ महाद्वीप और इंग्लैंड में इसकी तुलना में कोई
कानून नहीं है।"
लॉर्ड एल्गिन ने सहानुभूति जताते हुए कहा कि उन्हें इसमें कोई
संदेह नहीं है कि वास्तव में कोई शिकायत है, लेकिन उनकी समझ
यह है कि भारतीयों का पंजीकरण भारतीयों के लाभ के लिए ही शुरू किया जा रहा है।
गांधीजी ने सर लेपेल ग्रिफिन की तुलना में कम जोरदार लहजे में बात की, जान-बूझकर बयानबाजी से परहेज किया। गांधीजी ने आग्रह किया कि ब्रिटिश
भारतीयों के साथ ब्रिटिश नागरिकों जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। ब्रिटिश भारतीय
समुदाय के लिए कम से कम एक आयोग नियुक्त करना उचित था जो इसमें शामिल सिद्धांत, मौजूदा कानून की
पर्याप्तता और आगे के कानून की आवश्यकता पर विचार करेगा। एक-एक करके समिति के सभी
सदस्यों ने अपने विचार प्रस्तुत किए और फिर अंत में बैठक सर लेपेल ग्रिफिन के एक
छोटे से भाषण के साथ समाप्त हुई जिसमें उन्होंने राज्य सचिव को इतने धैर्यपूर्वक
सुनने के लिए धन्यवाद दिया, "हमें इस मामले
में आपकी पूरी सहानुभूति के बारे में पहले ही आश्वस्त किया गया था," एल्गिन ने सारी बातें ध्यान
पूर्वक सुनी। अपनी हमदर्दी और कठिनाइयों से शिष्ट मंडल को अवगत कराया। फिर भी
जितना हो सकता है करने का वचन दिया।
एल्गिन और किंकार्डिन के नौवें अर्ल विक्टर अलेक्जेंडर ब्रूस
एक रंगहीन अधिकारी नहीं थे। वे 1895 से 1899 के बीच भारत के वायसराय थे और बाद में
उन्हें दक्षिण अफ्रीकी युद्ध के संचालन की जांच करने के लिए शाही आयोग का अध्यक्ष
नियुक्त किया गया था। इसलिए उन्हें भारत और दक्षिण अफ्रीका के बारे में बहुत कुछ
पता था। गांधीजी को लगा कि उन पर न्यायपूर्ण फैसला देने के लिए भरोसा किया जा सकता
है, क्योंकि वे लॉर्ड एल्गिन को न्यायाधीश, खुद को अभियोक्ता वकील और ट्रांसवाल सरकार को कटघरे में खड़ा अपराधी
मानते थे। इस मामले में गांधीजी ने गलती की। लॉर्ड एल्गिन के पास कोई न्यायिक
शक्ति नहीं थी और ब्रिटिश सरकार का ट्रांसवाल सरकार पर बहुत कम नियंत्रण था।
शिष्टमंडल लॉर्ड मॉर्ले से मिला
22 नवंबर को शिष्टमंडल लॉर्ड मॉर्ले से मिला। जॉन मॉर्ले भारत
के लिए राज्य सचिव थे। गांधीजी ने मांग की कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की
शिकायतों की जांच के लिए एक शाही आयोग नियुक्त किया जाए। जॉन मॉर्ले ने जवाब दिया, "मैं कई वर्षों से संसद में हूं,
लेकिन
मुझे ऐसा कोई आयोग याद नहीं है जिसने किसी सवाल का समाधान किया हो।" उन्होंने
बताया कि कुछ ही महीनों में ट्रांसवाल "जिम्मेदार सरकार" के अधीन
आ जाएगा, जिसका मतलब है कि यह अब
उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव द्वारा लिए गए किसी भी फैसले से बंधा नहीं रहेगा।
गांधीजी यह जानते थे, लेकिन फिर भी उन्हें
उम्मीद थी कि ब्रिटिश सरकार के भारी दबाव के कारण ट्रांसवाल के शासक अपना रास्ता
बदल लेंगे। जॉन मॉर्ले ने वादा किया कि इंडिया ऑफिस मजबूत सिफारिशें करेगा, लेकिन वह इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे।
विंस्टन
चर्चिल से मिले
गांधी ने विंस्टन चर्चिल से 27 नवंबर को संपर्क किया, जो उस समय उपनिवेशों के लिए अवर सचिव थे। यह साक्षात्कार गांधीजी के
दक्षिण अफ्रीका रवाना होने से कुछ समय पहले हुआ था। चर्चिल अच्छे मूड में थे, लेकिन उनके पास तीखे सवाल थे और उन्होंने तीखे जवाब दिए। अगर ब्रिटिश
सरकार अध्यादेश को अपनी सहमति देने से इनकार कर देती, तो क्या होता? निश्चित रूप से
ट्रांसवाल की नई सरकार और भी अधिक प्रतिबंधात्मक कानून पारित करेगी। गांधीजी ने
जवाब दिया कि कोई भी कानून वर्तमान कानून से बदतर नहीं हो सकता है, और भविष्य खुद ही अपना ख्याल रख सकता है। यह एक दोस्ताना मुलाकात थी, और चर्चिल ने वह सब करने का वादा किया जो वह कर सकते थे। यह चर्चिल
और गांधी के बीच एकमात्र मुलाकात थी।
प्रधानमंत्री
सर हेनरी कैम्पबेल बैनरमैन का बयान
एक अधिक आशाजनक संकेत प्रधानमंत्री सर हेनरी कैम्पबेल बैनरमैन
की ओर से आया, जिन्होंने उदारवादी संसद
सदस्यों के एक प्रतिनिधिमंडल से 27 नवंबर को कहा कि "वे अध्यादेश को मंजूरी
नहीं देते हैं और लॉर्ड एल्गिन से बात करेंगे।" मि. अली और गांधीजी ने छह सप्ताह की कड़ी मेहनत के बाद पार्लियामेंट के
दोनों सदनों के सदस्यों को अपनी बात समझाने की कोशिश की। मि. अली की तबियत भी
ख़राब हो गई। उन्हें लेडी मार्गरेट होस्पिटल में भरती कराना पड़ा। जब तबियत कुछ ठीक
हुई तो वे वापस सेसिल होटल रहने आ गए जहां उनकी तीमारदारी एक नर्स कर दिया करती।
साउथ अफ्रीका ब्रिटिश इंडियन कमिटी का गठन
पोलाक का परिवार लंदन में
रहता था। गांधीजी लंदन में हेनरी की मां और उसके पिता जी जे.एच. पोलक और उसकी दोनों बहनें मॉड और सैली से मिले। जे.एच. पोलाक की मदद
से हाउस ऑफ कामन्स के सदस्यों से भी एक मीटिंग हुई। सर विलियम वेडबर्न ने
भारतीय मामलों के लिए हाउस ऑफ कॉमन्स की समिति के लगभग सौ सदस्यों की एक बैठक
गांधी से मिलने के लिए बुलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस यात्रा के दौरान गांधीजी ने महसूस किया कि लंदन में एक स्थाई
कमेटी (साउथ अफ्रीका ब्रिटिश इंडियन कमिटी) होना चाहिए। लंदन में
प्रतिनिधिमंडल के प्रवास के दौरान, यह महसूस किया गया कि प्रवासी भारतीयों के हितों की निगरानी करने और
किसी भी संकट में संसद को प्रभावित करने के लिए एक समिति बनाई जाए। इस काम के लिए कम से कम 300 पाउंड का सालाना ख़र्च आता। ये काम तभी संभव था जब ट्रांसवाल का
भारतीय समुदाय इतना पैसा जुटा पाता। गांधीजी ने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया।
उन्होंने प्रस्ताव रखा कि उनका सहयोगी, एल.डब्ल्यू. रिच, जो उस समय लंदन में अपनी पढ़ाई ज़ारी रखे था, लंदन के ऑफिस को संभाल ले। भारतीय
समुदाय ने पैसे भी इकट्ठा कर लिया। कुछ हफ़्ते में 40 पाउंड सालाना भारे पर एक ऑफिस ले लिया गया। फर्निचर 25 पाउंड में ख़रीदे
गए। एल.
डब्ल्यू. रिच को समिति का सचिव, लॉर्ड एम्पथिल को अध्यक्ष और सर मंचेरजी भावनगरी को
कार्यकारी समिति का अध्यक्ष बनाया गया।
एक अप्रिय घटना
लंदन में गांधीजी को एक
अप्रिय घटना का भी सामना करना पड़ा। डॉ. गॉडफ़्रे की चर्चा हम पहले कर आए हैं। प्लेग
के दौरान वे चट्टान की तरह गांधीजी के साथ
खड़े थे। उन्होंने हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्यों को भारतीय मूल के क़रीब 427 सदस्यों की तरफ़
से एक चिट्ठी लिखी कि मोहनदास गांधी एक पेशेवर दंगा फ़साद करवाने वाला व्यक्ति है, और उसे भारतीय
ब्रिटिश नागरिकों की ओर से काम करने के लिए अधिकृत नहीं किया गया है। यह एक गंभीर
आरोप था। लेकिन गांधीजी का काम इतना पारदर्शी था कि उन आरोपों का किसी पर कोई खास
असर नहीं हुआ। गांधीजी ने ब्रिटिश अधिकारियों को बताया कि डॉ. गॉडफ़्रे ने यह पत्र खिन्नतावश किया
है। दरअसल वे शिष्ट मंडल के सदस्य के रूप में लंदन आना चाहते थे। लेकिन शिष्टमंडल
में उनका नाम नहीं था। इसलिए वे नाराज़ हो गए। गॉडफ़्रे के भाई जेम्स और जार्ज, जो उन दिनों लंदन में पढ़ रहे थे, ने भी अपने भाई
के आरोपों का खंडन किया और गांधीजी के साथ खड़े रहे।
टाइम्स ने गांधीजी के पत्र को प्रकाशित की। डेली न्यूज के
संपादक ने भारतीयों के पक्ष में एक बहुत ही सशक्त लेख लिखा, जब गांधीजी ने
उन्हें भारतीयों के हित के बारे में आश्वस्त किया। ट्रिब्यून, मॉर्निंग लीडर
और साउथ अफ्रीका ने उनका साक्षात्कार लिया। इनके अलावा, अन्य पत्रिकाएँ
या तो उदासीन थीं या शत्रुतापूर्ण थीं।
दक्षिण
अफ्रीका के लिए रवाना
गांधीजी लगभग छह सप्ताह तक इंग्लैंड में रहे और उन्होंने अपने
प्रवास के हर एक मिनट का सदुपयोग किया। प्रतिनिधिमंडल का लेखा-जोखा रखने में वे
बहुत सावधान थे, उन्होंने स्टीमर पर सोडा पर खर्च किए गए पैसे जैसी छोटी-छोटी रसीदें
भी संभाल कर रखीं। लंदन में गांधी के लिए और कुछ नहीं था। 29 नवंबर, 1906 की सुबह गांधीजी
ने होटल सेसिल में सुबह की चाय पर आमंत्रित कर उन सभी लोगों का धन्यवाद किया
जिन्होंने उनकी मदद की थी, उन सचिवों का जिन्होंने बिना वेतन के काम किया था, उन प्रतिष्ठित
अधिकारियों का जिन्होंने राज्य के उच्च अधिकारियों के साथ उनकी कई बैठकों के दौरान
उनका साथ दिया था, और फिर 1 दिसंबर, 1906 को स.एस. ब्रिटन द्वारा वे दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना
हो गए। जब जहाज़ मदीरा पहुंचा, तो दो टेलीग्राम उसके इंतज़ार में थे। एक लुई रिच का था, दूसरा
जोहान्सबर्ग का। दोनों टेलीग्राम में कहा गया था कि लॉर्ड एल्गिन ने अध्यादेश को
मंज़ूरी देने से इनकार कर दिया है। यह वास्तव में उनकी उम्मीद से कहीं अधिक था -
एक ऐसी जीत जो उन्होंने पहले कभी नहीं जीती थी, और कई वर्षों तक फिर
नहीं जीतेंगे। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखा: ईश्वर के मार्ग अथाह हैं। अच्छी
तरह से निर्देशित प्रयास उचित फल देते हैं। इस मनोदशा में, चुपचाप उल्लासित
होकर, उन्होंने जहाज पर केपटाउन की अगले दो हफ़्तों की यात्रा के शेष दिन
बिताए। 18 दिसंबर, 1906 को प्रतिनिधिमंडल केपटाउन में खुशी-खुशी उतरा। गांधीजी और अली
खुश थे कि वे जीत गए थे। उन्हें नहीं पता था, और न ही
उन्होंने अनुमान लगाया था, कि फल कितनी जल्दी धूल और राख में बदल जाएगा। दरअसल लॉर्ड
एल्गिन ने एक 'चाल' चली थी। उसने लंदन में ट्रांसवाल कमिश्नर से कहा था कि राजा पंजीकरण
अध्यादेश को अस्वीकार कर देंगे। लेकिन चूंकि 1 जनवरी, 1907 को
ट्रांसवाल क्राउन कॉलोनी नहीं रह जाएगा, इसलिए वह शाही मंजूरी के
बिना अध्यादेश को फिर से लागू कर सकता है। गांधीजी ने इसे 'कुटिल नीति' करार दिया।
मूल्यांकन
कुछ हद तक प्रतिनिधिमंडल सफल रहा। लंदन में गांधीजी के नेतृत्व में आम जनता का मानस तैयार करने में
डेलिगेशन सफल हो गया। गांधीजी ने लंदन में ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों को उस
अध्यादेश के रूप में उठाए गए क़दम को असाम्राज्यवादी चरित्र का बताया। ब्रिटिश जनता के
सभी वर्गों द्वारा प्रतिनिधियों का बहुत ही विनम्रता से स्वागत किया गया और उनके
प्रयासों का परिणाम यह था कि उन्हें यह आश्वासन मिला कि ट्रांसवाल द्वारा अपनी
संवैधानिक सरकार बनाने तक शाही कार्रवाई में देरी की जाएगी। लेकिन इंग्लैण्ड में उन्हें ज़बानी हमदर्दी के अलावा कुछ नहीं मिला।
ग्रेट-ब्रिटेन की सरकार ने विधेयक पर सम्राट का हस्ताक्षर रोके रखने का खोखला
प्रदर्शन किया। वैसे भी वहां की सरकार और एल्गिन को पता था कि कुछ ही दिनों के बाद
ट्रांसवाल एक स्वशासी उपनिवेश बन जाएगा और फिर उसकी अपनी विधायिका उस विधेयक को
पारित कर देगी। हुआ भी ऐसा ही। गांधीजी के इंग्लैंड जाने के कारण बुरा दिन कुछ
समय के लिए ही टला था। जैसे ही अंतरिम सरकार ने
संवैधानिक सरकार का स्थान लिया, वही अधिनियम, जिसने एशियाई समुदाय को इतना उत्तेजित कर दिया था, संसद द्वारा एक ही बैठक में पारित कर दिया गया और पुनः राजा के समक्ष
प्रस्तुत किया गया। यह विधेयक इतनी जल्दी में पारित किया गया कि इसके प्रावधानों
पर चर्चा तक नहीं की गई और यहां तक कि औपनिवेशिक सचिव भी उनसे परिचित नहीं थे।
एक दिन में तीन बार पढ़ने के बाद मामला पास हो गया और कुछ ही समय में शाही
स्वीकृति दे दी गई। मई 1907 में सम्राट के
हस्ताक्षर से वह क़ानून भी बन गया। एक जुलाई, 1907 से भारतीयों को अपने साथ परमिट रखना अनिवार्य हो गया।
उपसंहार
जेम्स हंट ने अपनी किताब गांधी इन लंदन में लिखा है कि
अभिलेखों से पता चलता है कि ब्लैक एक्ट को अस्वीकृत करने का निर्णय बहुत पहले ही
ले लिया गया था। लेकिन नए ट्रांसवाल विधानमंडल को इस घृणित अधिनियम को पारित करने
का भार उठाने के लिए मजबूर करने के लिए घोषणा में देरी की गई। महामहिम की सरकार को
इस बात की कोई चिंता नहीं थी कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ क्या हुआ। वे
केवल इस बात से चिंतित थे कि महामहिम की सरकार पर कोई आरोप न लगे।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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