गुरुवार, 28 नवंबर 2024

156. ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा

 गांधी और गांधीवाद

156. ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा

 


1906

प्रवेश

दक्षिण अफ़्रीका में गुज़ारे  दो दशक गांधीजी के साधना के वर्ष थे। इन वर्षों में उनमें और उनके जीवन के तौर-तरीक़ों में कई मौलिक रूपांतरण हुए। इस रूपांतरण से उनके जीवन में नए नज़रिए का विकास हुआ। स्व-अवलोकन, प्रयोग और मूल्यांकन के आधार पर की गई उनकी साधना के परिणामस्वरूप सन 1906 आते-आते गांधीजी का जीवन इस ढर्रे पर आ चुका था जो मृत्यु पर्यंत उनके जीवन को संचालित करता रहा। वे अब तक भौतिक वस्तुओं के त्याग का निर्णय ले चुके थे। मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति सरलतम तरीक़े से हो इसकी कोशिश उन्हें लगातार रहती थी। वे सह-अस्तित्व में विश्वास रखते थे जिसमें सभी श्रम समान रूप से महत्वपूर्ण था और सारी वस्तुओं पर सबका समान हक़ था। गांधीजी का मानना था कि सेवाधर्म का प्रधान पद देनेवाले को ब्रह्मचर्य का पालन करना ही चहिए। वे यह भी चाहते थे कि सेवाधर्म स्वीकार करने वाले को ग़रीबी को सदा के लिए अपना लेना चाहिए।

जीवन के उद्देश्य पर मनन

बोअर युद्ध और ज़ुलू विद्रोह के समय जब वे घायलों की सेवा-शुश्रूषा का काम कर रहे थे, तो उन्हें जंगलों, पहाड़ों और खाइयों के बीच रहना पड़ रहा था। इंसान के साथ इंसान को दरिंदगी से पेश आता देख इस निर्जन प्रदेश में वे अकसरहां सोच में पड़ जाते। कई वर्षों में पहली बार वह अपने भविष्य, अपने आध्यात्मिक जीवन, अपनी आशाओं और आशंकाओं के बारे में निरंतर चिंतन करने में सक्षम थे। वह जीवन के अर्थ और उद्देश्य पर तथा समाज में मनुष्य के कर्तव्य पर मनन करने लगते। ज़ुलू विद्रोह के दमन के समय घायलों की सेवा-शुश्रूषा के समय उन्होंने इंसान की बदहाली का क्रूरतम रूप देखा। इस समय जीवन की विवेचना करते-करते वे विचलित हो जाते। उन्होंने किसी ऐसे माध्यम की खोज शुरू की जिससे शांति स्थापित हो सके, और जिसके ज़रिए मनुष्य एक दूसरे से स्नेह का संबंध स्थापित कर सके। इस दुर्गम पहाड़ियों और जंगल में पहले जो एहसास बहुत धुंधला था अब एक चकाचौंध के साथ स्पष्ट हो गया। उन्हें लगा, मैं शरीर और आत्मा, दोनों का ध्यान नहीं रख सकता। अगर मेरा जीवन मनुष्यों की सेवा के लिए समर्पित है, और अगर आध्यात्मिक बोध मेरे प्रयासों का लक्ष्य है, तो मुझे शरीर-सुख को हमेशा के लिए त्याग देना होगा। कठोरता के साथ संयम का पालन करना होगा।  विंसेंट शिन लिखते हैंज़ुलू विद्रोह से उनके मन में जो द्वन्द्व उपजा था (नेटाल के मूल निवासियों के प्रति उनके सहानुभूति और राज के प्रति उनकी निष्ठा) उसने उनके निजी असमंजस – ब्रह्मचर्य को सुलझा दिया।

संयम का पालन करना उद्देश्य

जहां एक तरफ़ फीनिक्स आश्रम उनके रचनात्मक कार्य का केन्द्र बना वहीं अपने ख़ुद के जीवन की भी विवेचना के द्वारा अपनी इच्छाओं के ऊपर नियंत्रण के लिए उन्हें उचित वातावरण भी मिला। उन्हें लगा कि उन्होंने कस्तूरबा पर हमेशा अपनी इच्छा थोपी थी। उनका शोषण किया था। गांधीजी को यह सोचकर बहुत ख़राब लगा कि कस्तूरबा को उन्होंने केवल यौन संतुष्टि का माध्यम माना था। विषय भोग के प्रति अपनी आसक्ति को उन्होंने अपनी कमी के रूप में स्वीकार किया।  उन्हें लगा कि सांसारिक आसक्ति का कारण यौन इच्छा ही थी। इससे उन्हें ख़ुद को मुक्त करना चाहिए। जुलू विद्रोह के दौरान सेवा करते समय गांधीजी को शिद्दत के साथ यह महसूस हुआ कि समाज की सेवा और विषय भोग एक साथ संभव नहीं हैं। मन में यह विचार जड़ पकड़ने लगा कि सेवा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। सेवा मार्ग के पथिक के लिए संपूर्ण वसुधा ही एक कुटुंब है। अगर उनका जीवन मनुष्यों की सेवा के लिए समर्पित है और अगर आध्यात्मिक बोध उनके प्रयासों का लक्ष्य है तो उन्हें शरीर सुख का त्याग करना होगा। दूसरों का नेतृत्व करने के लिए उन्हें सभी प्रलोभनों से मुक्त होना था और अपनी सभी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना था। उन्हें कठोरता के साथ संयम का पालन करना होगा। भारतीय धार्मिक परंपरा में विषय भोग पर संयम और ब्रह्मचर्य का बहुत महत्व है और इसे ईश्वर प्राप्त के लिए बहुत जरूरी बताया गया है।

ब्रह्मचर्य रहित जीवन पशुवत

गांधीजी की मान्यता थी कि ब्रह्मचर्य रहित जीवन पशुवत जीवन है और संस्कारित मनुष्य को यह शोभा नहीं देता कि आजीवन विषय भोग में ही फंसा रहे। गांधीजी ने 1924 में लिखा था कि ब्रह्मचर्य को 'पूरी तरह और सही तरीके से समझा जाए तो इसका मतलब है ब्रह्म या ईश्वर की खोज करना।’ उन्होंने आगे कहा कि 'ब्रह्मचर्य' का अर्थ है 'हर समय और हर जगह सभी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना, विचार, वचन और कर्म में।' इस प्रकार इसमें यौन संयम शामिल है, लेकिन उससे परे भी; इसमें आहार, भावनाओं और वाणी में संयम शामिल है। यह घृणा, क्रोध, हिंसा और असत्य को बाहर करता है। यह समता पैदा करता है। यह इच्छाहीनता है। गांधीजी ने लिखा, 'पूर्ण ब्रह्मचारी पूर्णतया पाप रहित होते हैं। इसलिए वे ईश्वर के निकट होते हैं। वे ईश्वर के समान होते हैं।' वे यही चाहते थे। यह आत्म-परिवर्तन की पराकाष्ठा थी।

सार्वजनिक जीवन में अगर निश्चिंत और सेवा भाव से काम करना हो तो ब्रह्मचर्य का     पालन करना अनिवार्य है। उन्हें इस बात का साक्षात्कार तो नहीं हुआ था कि ईश्वर-दर्शन के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य वस्तु है, लेकिन उन्होंने अनुभव किया कि ‘बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना सार्वजनिक सेवा के विरोधी हैं।’ उन्हें यह तो अवश्य ही मालूम था कि सार्वजनिक सेवा तो उनके जीवन में अधिकाधिक आती ही रहेगी और यदि वे भोग-विलास में, संतानोत्पत्ति में और संतति के पालन-पोषण में ही लगे रहे, तो उनसे संपूर्ण सेवा न हो सकेगी। दो नावों की सवारी वे न कर सकेंगे। इसलिए उन्होंने स्वयं को सर्वात्मना सेवा के प्रति समर्पित कर देना चाहा।

साथियों से विचार-विमर्श

गांधीजी को लगा कि ब्रह्मचर्य का व्रत पालन कर वे समाज सेवा का काम अधिक निष्ठा से कर पाएंगे। वे मन-ही-मन अपने इस विचार को पक्का कर रहे थे। इसी बीच ज़ुलू विद्रोह शांत हुआ। उन्हें छुट्टी मिली और दूसरे दिन वे घर लौट आए। उन्होंने इस मुद्दे पर काफी चिंतन किया और अपने साथियों से विचार-विमर्श किया। उन्होंने महसूस किया कि समाज सेवा के लिए ब्रह्मचर्य जरूरी है। फीनिक्स पहुंचकर उन्होंने ब्रह्मचर्य की बात छगनलाल, मगनलाल, वेस्ट आदि लोगों के सामने रखी। सबको यह बात पसंद आई। सबने उसकी आवश्यकता स्वीकार की। पर उन्हें लगा कि इसका पालन बहुत कठिन है। फिर भी उनमें से कुछ ने इसको पालन करने का साहस किया।

ब्रह्मचर्य एक संपूर्ण दर्शन

यह सब अचानक नहीं हुआ था: यह एक ऐसी प्रक्रिया का परिणाम था जो लंबे समय से चल रही थी। उन्हें पहले से ही यह गहरा विश्वास था कि किसी भी पोषित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति के लिए आत्म-बलिदान ही सफलता की कुंजी है। गांधीजी ने तो ब्रह्मचर्य  का अभ्यास 1901 में शुरु कर दिया था। तब से ही वे हर संभव सामान्य तरीक़े से अपनी कामासक्ति पर क़ाबू पाने का प्रयास करते आ रहे थे। आहार संबंधी उनके अधिकांश प्रयासों का मूल यही बात थी। हालांकि ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय निग्रह है, लेकिन गांधीजी के लिए ब्रह्मचर्य की अवधारणा काम-विमुखता या आत्म-निग्रह से बड़ी थी। वह एक संपूर्ण दर्शन था। इन्द्रियां स्वभाव से विषयों की ओर जाना चाहती हैं। इनकी गति का नियंत्रण आवश्यक है। महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य व्रत का बड़ा व्यापक अर्थ बताया है। उनके अनुसार ‘ब्रह्म’, सत्य या ईश्वर है। चर्य’ उसकी साधना है। अतः ब्रह्मचर्य सत्य की साधना करना या सत्य के मार्ग पर चलना है। इस मार्ग पर चलने के लिए इन्द्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है, क्योंकि इन्द्रियां हमें असत्य की ओर ले जाती हैं। तात्पर्य यह कि इन्द्रियों का पूरी तरह से निरोध ही ब्रह्मचर्य है। ऐसा लगता है कि गांधीजी ब्रह्मचर्य के प्रति भी सत्य और अहिंसा की तरह ही आकर्षित थे।

ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और कर्म तीनों से

साधारणतः हम समझते हैं कि विषय-मात्र का विरोध ही ब्रह्मचर्य है। परन्तु गांधीजी के अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और कर्म तीनों से होना चाहिए। मन का नियंत्रण न करने से मन चंचल हो जाता है। इसमें कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे – लोभ, लालच आदि। वचन का नियंत्रण न होने से मनुष्य प्रलाप, निंदा आदि दोषों का शिकार बनता है। शरीर का नियंत्रण न होने से मनुष्य अस्वस्थ हो जाता है। इस प्रकार इन तीनों का नियंत्रण आवश्यक है। उनके लिए इस व्रत का अर्थ न केवल शरीर की शुद्धि से था, बल्कि यह मन के शुद्धिकरण का भी माध्यम था और वे बरसों तक अपने चेतन या अचेतन मस्तिष्क से कामासक्ति के शारीरिक आनंद के नामो-निशान को मिटाने के लिए संघर्ष करते रहे। जैसे-जैसे समय बीतता गया संघर्ष के बावज़ूद उनका यह विश्वास और गहरा होता गया। उनको लगने लगा कि निःस्वार्थ कर्म की स्थिति में आने और आत्मा के बंधनमुक्त होने का यही एकमात्र रास्ता है। उनके लिए वह एक संपूर्ण दर्शन था। उनका लक्ष्य इस पर मन, वचन और कर्म तीनों से आचरण करना था। सही मायने में तो उनके लिए यह निर्वाण का मार्ग था। उनके अनुसार यह काम-सुख को हमेशा के लिए निर्वासित कर देना था।

आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत

गांधीजी ने ब्रह्मचर्य व्रत लेने का मन बना तो लिया था, लेकिन शादीशुदा व्यक्ति के लिए ऐसा एकपक्षीय निर्णय लेना उचित नहीं था। अर्धांगिनी की सहमति भी अनिवार्य थी। उस समय पति-पत्नी दोनों की उम्र 37 साल की हो चुकी थी। विवाहित जीवन के 23 वर्ष बीत चुके थे। वैसे भी देवदास के जन्म, 1900, के बाद से व्यवहारतः ब्रह्मचर्य का पालन वे कर रहे थे। गांधीजी ने कभी उस अवस्था को प्राप्त कर लेने का दावा नहीं किया। व्रत लेते ही उन्होंने पत्नी के साथ एक शय्या का अथवा एकांत का त्याग कर दिया।

कस्तूरबा के समक्ष घोषणा

रूढ़ियों को तोड़े बिना हम रूढ़ियों को बदल नहीं सकते। उन्होंने ऋषि शुकदेव का अनुकरण करने की कोशिश की। चिंतक-दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल और मनोवैज्ञानिक हैवलॉक अलिस के विचारों से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। 1895 में वे नेटाल में पाइनटाउन के निकट स्थित ट्रैपिस्ट मठ देखने गए। मठ के ब्रह्मचर्य  ने उनके मन पर स्थायी छाप छोड़ी। गांधीजी ने जोर देकर कहा कि कस्तूरबा के साथ उनका अध्यात्मिक प्रेम 1906 के बाद शुरु हुआ। 1906 ई. के जून माह की एक संध्या को गांधीजी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा के समक्ष एक घोषणा की। कहा कि उन्होंने एक शपथ ली है। अब से वे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे। गांधीजी के लिए ब्रह्मचर्य सिर्फ यौनेच्छा का त्याग नहीं था। यह अपनी सभी इन्द्रियों पर नियंत्रण का साधन था। भावना, भाषण, क्रोध, हिंसा, घृणा, आदि पर काबू पाना था। एक इच्छा रहित अवस्था को पाना था। कामनाओं पर विजय की यह पराकाष्ठा थी, एक ऐसी विजय जो अत्यंत ही कठिन थी। उनके ख़ुद के लिए ब्रह्मचर्य भले ही कठिन था, लेकिन उनकी पत्नी कस्तूरबा ने उनके विचार सुने और निर्णय को स्वीकार किया। बा ने कोई विरोध नहीं किया। गांधीजी ने लिखा है, “यह व्रत मेरे लिए बहुत कठिन सिद्ध हुआ। मेरी शक्ति कम थी। मैं सोचताविकारों को किस प्रकार दबा सकूंगाअपनी पत्नी के साथ विकारयुक्त संबंध का त्याग मुझे एक अनोखी बात मालूम होती थी। फिर भी मैं यह साफ देख सकता था कि यही मेरा कर्तव्य है। मेरी नीयत शुद्ध थी। यह सोचकर कि भगवान शक्ति देगामैं इसमें कूद पड़ा।

व्रत एक नई शक्ति का स्रोत

तब से वे दोनों अलग-अलग कमरे में सोने लगे। ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना सैंतीस वर्षीय गांधीजी के लिए कठिन था, लेकिन उन्होंने पाया कि यह व्रत एक नई शक्ति का स्रोत था। गांधीजी कहते हैं, ब्रह्मचर्य व्रत के पालन में बा की तरफ़ से कभी विरोध नहीं उठा। कस्तूरबा के साथ उनके संबंधों ने एक नया और भिन्न स्वरूप ले लिया। उनकी पत्नी उनकी अत्यंत समर्पित मित्र और सहायक बन गईं। इस व्रत से उनके जीवन के कई नए आयाम उनके सामने खुल गए। उन्होंने महसूस किया कि अब उन्हें सांसारिक चीज़ों की कोई चिंता नहीं थी। सांसारिकता का लगभग उन्होंने परित्याग ही कर दिया था। जोहानिस्बर्ग का घर छोड़कर वे फीनिक्स में आश्रम का जीवन जीने लगे। वकालत छोड़कर वैरागी जीवन जीना उनका लक्ष्य बन गया था। यह निर्णय परिवार के अन्य लोगों को सही नहीं लगा। उनके बड़े भाई, लक्ष्मीदास ने परिवार की ज़िम्मेदारियों से भागने के लिए उन्हें फटकारा। इससे गांधीजी आहत हुए। गांधीजी का मानना था कि उनके परिवार में सिर्फ़ भाई, बहन, बच्चे ही नहीं शामिल हैं, बल्कि संसार का हर प्राणी शामिल है। अपनी आमदनी पर वे सिर्फ़ अपना अधिकार न मानते थे, बल्कि इसे तो उन्होंने उसे आम लोगों को समर्पित कर दिया था। मूल रूप से, यह उनके द्वारा अपने भीतर और ईश्वर के साथ की गई एक अटल प्रतिबद्धता थी कि वे अपने शेष जीवन में किस हद तक आत्म-त्याग करेंगे। त्याग और आत्म-अनुशासन ने उन्हें अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में आने वाली सभी कठिनाइयों का सामना करने और अपने विरुद्ध आने वाली बाधाओं से अजेय बने रहने में सक्षम बनाया। इस अर्थ में, ब्रह्मचर्य उनके लिए एक शक्तिशाली मुक्तिदायी शक्ति थी।

उपसंहार

गांधीजी के लिए ब्रह्मचर्य का आंतरिक अर्थ एक आत्म-अनुशासन के रूप में अधिक महत्वपूर्ण था। यह आत्म-शुद्धिकरण का एक साधन है, जो किसी की ऊर्जा को आत्म-चिंता से मुक्त करता है और इसे उच्च लक्ष्यों की ओर पुनर्निर्देशित करता है। यह व्यापक समुदाय की सेवा के लिए किसी की ऊर्जा को मुक्त करने का एक तरीका है, जिसके लिए न केवल शरीर बल्कि विचारों पर भी सबसे अधिक नियंत्रण की आवश्यकता होती है। यह गांधीजी के लिए आजीवन संघर्ष था, लेकिन वह इसे अपनी ताकत का स्रोत मानते थे।

बापू के प्रति” अपने उद्गार प्रकट करते हुए कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है:

तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल

हे चिर पुराण, हे चिर नवीन।

सुख भोग खोजने आते सब,

आये तुम करने सत्य खोज,

जग की मिट्टी के पुतले जन,

तुम आत्मा के, मन के मनोज

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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