राष्ट्रीय आन्दोलन
139. दादाभाई नौरोजी
प्रवेश
गांधीजी कहते थे, “श्री दादाभाई नौरोजी को हिंदुकुश से केप कोमोरिन तक और कराची से कलकत्ता तक
जितना प्यार किया जाता है, उतना भारत में किसी अन्य जीवित व्यक्ति
को नहीं किया जाता।” नौरोजी पालनजी डोरडी और मानिकबाई के पुत्र दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितम्बर, 1825 को मुम्बई में हुआ था। कांग्रेस की स्थापना से अपनी मृत्यु तक वह इस संस्था
से जुड़े रहे। यह भी एक रोचक तथ्य है कि जिस कांग्रेस का नाम ह्युम ने इंडियन नेशनल
यूनियन रखा था, दादा भाई नौरोजी के सुझाव पर इंडियन नेशनल यूनियन का
नाम बदलकर “इंडियन नेशनल कांग्रेस” कर दिया। उन्होंने ने अपना करियर एक शिक्षक के रूप में
शुरू किया। वह एक सफल व्यवसायी हुए। बाद में वह राजनीति और जनसेवा में भाग लेने
लगे। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश
की सेवा में लगा दिया, और पारसी होते हुए भी हिंदू, मुसलमान, ईसाई और सभी
लोग उन्हें उतना ही सम्मान देते हैं जितना कि जोरोस्टर के अनुयायी देते हैं। उन्होंने अपना सारा जीवन और संपत्ति राष्ट्रीय आन्दोलन
को समर्पित कर दिया। देश सेवा के लिए उन्होंने सुख-सुविधा और विलासिता का त्याग कर दिया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे, 9वें
और 22वें अध्यक्ष थे।
जीवन चित्र
दादाभाई
नौरोजी का जन्म नवसारी में एक गुजराती भाषी पारसी परिवार में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बंबई
के एक प्राथमिक विद्यालय में हुई, फिर उन्हें एलफिंस्टन इंस्टीट्यूट स्कूल भेज
दिया गया। 1845 में उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की। दिसंबर
1845 में, उन्हें बॉम्बे के एलफिंस्टन कॉलेज में गणित और प्राकृतिक दर्शनशास्त्र
का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। 1854 में, उन्होंने पारसी अवधारणाओं को स्पष्ट करने और पारसी
सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए एक गुजराती पाक्षिक प्रकाशन, रस्त
गोफ़्तार (सत्य बताने वाला) की स्थापना की। उन्होंने द
वॉयस ऑफ इंडिया नामक एक समाचार पत्र भी प्रकाशित किया। 27 जून
1855 को वे लंदन चले गए और लंदन में स्थापित होने वाली पहली
भारतीय कंपनी कामा एंड कंपनी में भागीदार के रूप में शामिल हो गए।
तीन साल के भीतर, उन्होंने नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया था। 1859 में, उन्होंने
अपनी खुद की कपास ट्रेडिंग कंपनी , दादाभाई नौरोजी एंड कंपनी की स्थापना की। बाद में वे
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में गुजराती के प्रोफेसर बन गए।
1865 में नौरोजी ने लन्दन इन्डिया सोसायटी का शुभारंभ किया , जिसका उद्देश्य भारतीय राजनीतिक, सामाजिक
और साहित्यिक विषयों पर चर्चा करना था। 1866 में इंग्लैण्ड में उन्होंने भारतीय प्रश्नों पर
विचार-विमर्श करने और ब्रितानी जनता के मत को प्रभावित करने के लिए लन्दन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की। इन संस्थाओं के द्वारा अंग्रेजों का
ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर खींचा जाता था। इस एसोसिएशन ने जल्द ही प्रतिष्ठित
अंग्रेजों का समर्थन हासिल कर लिया और ब्रिटिश संसद में काफी प्रभाव डालने में सक्षम हो गया।
बाद में, प्रमुख भारतीय शहरों ( मुंबई, कोलकाता और चेन्नई ) में संघ की शाखाएँ शुरू की गईं। कुछ ही दिनों में
दादाभाई नौरोजी अपने समकालीनों के बीच ‘भारत के
महान वृद्ध पुरुष’ (The Great Old
Man Of India) के रूप में विख्यात
हुए।
1869
में वह भारत चले आए। 1874 में, वे बड़ौदा के दीवान बने, लेकिन महाराजा से मतभेद होने के कारण
उसी वर्ष इस्तीफा दे दिया। जुलाई 1875 में वे बॉम्बे नगर निगम के सदस्य चुने गए। 1883 में
वह दूसरी बार बॉम्बे नगर निगम के लिए चुने गए। अगस्त 1885 में वे गवर्नर लॉर्ड रे के निमंत्रण पर बॉम्बे विधान
परिषद में शामिल हुए। वे भारतीय राष्ट्रीय संघ के भी सदस्य थे, जिसकी स्थापना सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कलकत्ता से की थी। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की
स्थापना में अग्रणी भूमिका निभाई और 1886, 1893 और 1906 में तीन बार इसके अध्यक्ष बने। 1886 में नौरोजी एक बार
फिर ब्रिटेन चले गए और अपनी राजनीतिक भागीदारी जारी रखी। 1892 के आम चुनाव में फिन्सबरी सेंट्रल में लिबरल पार्टी के लिए चुने गए, वे पहले ब्रिटिश भारतीय सांसद थे। सांसद दादाभाई ने
बिना समय गंवाए संसद में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश शासन एक “दुष्ट” ताक़त है जिसने अपने साथी भारतीयों को ग़ुलाम जैसी स्थिति में रखा है। वह नियम बदलने और भारतीयों के हाथ में सत्ता देने के लिए क़ानून लाना चाहता थे। हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य चुने जाने के तुरंत बाद, वे भारत आए, और जिस उत्साह के साथ उनका स्वागत किया गया, वह केवल उसी
उत्साह के बराबर था, जो कि हमेशा याद किए जाने वाले लॉर्ड रिपन ने अपने
वायसराय पद से सेवानिवृत्त होने के बाद किया था।
1886
में वह कलकत्ता में कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। तब
सामाजिक सुधार कांग्रेस का लक्ष्य नहीं था। उन्होंने कहा था,
“राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने आपको सिर्फ उन सवालों तक ही
सीमित रखना चाहिए, जो सवाल पूरे राष्ट्र से जुड़े हों और जिन सवालों पर सीधी
भागीदारी की गुंजाइश हो। सामाजिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए कांग्रेस उचित मंच
नहीं है। हाँ यहाँ हम एक राजनीतिक संगठन के रूप में इकट्ठे हुए हैं, ताकि
हम अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं से अपने शासकों को अवगत करा सकें।”
लेकिन बाद के दिनों में उन्होंने स्वराज्य प्राप्ति को कांग्रेस का लक्ष्य बताया।
बहिष्कार और स्वदेशी का भी उन्होंने समर्थन किया।
1905 में नौरोजी ने कहा था, “हमारे सामने काम यह है कि
क्रांति की शुरुआत हो, चाहे वह शांतिपूर्ण हो या हिंसक। क्रान्ति कैसी होगी, यह तो
ब्रिटिश सरकार की अक्लमंदी या बेवकूफी और
कार्रवाई पर निर्भर करता है।” राजनीतिक लोकतंत्र के स्वदेशीकरण और जनता की प्रभुसत्ता की वकालत करते
हुए नौरोजी कहा करते थे, “राजा जनता के लिए बने हैं, जनता राजा के लिए नहीं।”
सादगी भरा जीवन
उनकी सरलता की कोई सीमा नहीं थी। दादाभाई एक फकीर की तरह सादगी से रहने वाले
भारतीय थे। फकीर की शैली का मतलब यह नहीं है कि आदमी के पास एक पैसा भी नहीं होना
चाहिए; लेकिन दादाभाई ने उन सुख-सुविधाओं और मानकों को
त्याग दिया था, जिनका आनंद उस समय उनके वर्ग के अन्य लोग उठा रहे
थे। उनकी नियमितता, एकनिष्ठ देशभक्ति, सादगी, तपस्या और निरंतर काम करने की आदत ग्रहण करने की वस्तुएं हैं।
स्वशासन की मांग
बीसवीं सदी की शुरुआत में ही
दादाभाई नौरोजी ने स्वशासन की बात उठानी शुरू कर दी थी। अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में 1904 में भाषण
करते हुए उन्होंने भारत को ‘स्वशासन’ और दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों की तरह का दर्ज़ा दिए जाने
की मांग की थी। 1905 के बनारस कांग्रेस अधिवेशन में अपने संदेश में उन्होंने कहा
था की “भारत की समस्याओं का
एकमात्र समाधान स्वशासन है।” 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए
उन्होंने ब्रिटेन या अन्य उपनिवेशों की तरह के स्वशासन या स्वराज को हासिल करने को
राष्ट्रीय आन्दोलन का लक्ष्य रखा।
प्रेस की आज़ादी के
लिए संघर्ष
राष्ट्रीय चेतना और जागरूकता की
लहर फैलाने के लिए दादाभाई नौरोजी ने प्रेस की आज़ादी के लिए संघर्ष किया। उनके संपादन में ‘इंडिया (हिन्दुस्तान)’
और ‘एडवोकेट ऑफ इण्डिया’ अखबार अस्तित्व में आए।
आर्थिक नीतियों की
आलोचना
उनकी
सबसे बड़ी देन ब्रितानी शासन का आर्थिक विश्लेषण है। उन्होंने दिखाया की भारत की
गरीबी और आर्थिक पिछडापन स्थानीय स्थितियों में निहित नहीं है,
वरन उसका कारण औपनिवेशिक शासन है जो भारत की पूंजी और संपत्ति को निचोड़ ले रहा था।
उन्होंने सरकारी आर्थिक नीतियों की खुली आलोचना कर सबका ध्यान आकर्षित किया। वह
भारत और ब्रिटेन के बीच उचित आर्थिक संबंध की स्थापना चाहते थे। जब लॉर्ड कर्ज़न ने
यह कहा कि ‘भारत के राष्ट्रीय विकास के लिए विदेशी पूंजी एक अनिवार्य शर्त है’,
तो इसका विरोध करते हुए दादाभाई नौरोजी कहा की “विदेशी पूंजी
भारतीय संसाधनों की लूट और शोषण का ज़रिया है”। भारतीय पूंजी और संपत्ति के भारत से निकास की बात (Drain of
Wealth)
सबसे पहले उन्होंने ही उठाई थी। 1867 में ही उन्होंने कह दिया था कि ब्रिटेन भारत
का खून चूस रहा है। अगले पांच दशकों तक उन्होंने इसके खिलाफ आन्दोलन चलाया। इस
मुद्दे पर उन्होंने लोगों को जागरूक किया। दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी
एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में अंग्रेजों के साम्राज्यवाद के आर्थिक दुष्परिणामों
और धन-निष्कासन की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘भारतवासी
मात्र परजीवी दास’ थे। वे अमेरिकी गुलामों से भी बदतर ज़िन्दगी जी रहे थे,
क्योंकि कम से कम उनकी देखरेख उन अमेरिकी मालिकों द्वारा की जाती थी जिनकी वे
संपत्ति थे। उन्होंने बहुत ही ज़ोरदार तरीके से कहा कि भारतीय संपत्ति और पूंजी का
विदेश में जाना ही भारत की गरीबी का मूल कारण है। यह ब्रिटिश शासन की बुनियादी
बुराई है। वह मानते थे कि विदेशी पूंजी किसी देश का विकास नहीं करती,
बल्कि वहाँ पिछडापन लाती है। उससे देशी पूंजी
पर दबाव पड़ता है। देशी पूंजी का विकास अवरुद्ध हो जाता है। विदेशी पूंजी राजनीतिक
रूप से भी हानिकारक है। देर-सवेर वह प्रशासन पर हावी होने लगती है। उन्होंने घोषणा
की कि ‘ब्रितानी
शासन अनंतकाल तक का बढ़ता, निरंतर बढ़ता हुआ ऐसा विदेशी आक्रमण है, जो
धीरे-धीरे पूरी तरह देश को नष्ट कर रहा है।’ उनके दिमाग में हमेशा यही बात सबसे ऊपर रहती थी कि
भारत कैसे आगे बढ़ सकता है और अपनी आजादी कैसे हासिल कर सकता है। भारत की गरीबी के
बारे में परिचय देते हुए दादाभाई अपनी किताब में कहते हैं
कि हमारे देश में करीब तीन करोड़ लोग आधे भूखे हैं।
समाज सुधारक
कम
उम्र से ही उनका जुड़ाव प्रगतिशील विचारों से रहा। वे उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध
के एक अग्रणी समाज सुधारक थे। वे जाति बंधनों में विश्वास नहीं करते थे और महिलाओं
की शिक्षा के अग्रदूत थे तथा पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कानून के समर्थक थे। 1840 के
दशक में उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोला जिसके कारण रूढ़िवादी पुरुषों के
विरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन उनमें अपनी बात को सही तरीक़े से रखने की अद्भुत
क्षमता थी। पांच साल के अंदर ही बॉम्बे का लड़कियों का स्कूल छात्राओं से भरा नज़र
आने लगा। नौरोजी के इरादे और मज़बूत हो गए और वह लैंगिक समानता की मांग करने लगे।
नौरोजी का कहना था कि भारतीय एक दिन ये समझेंगे कि “महिलाओं को दुनिया में अपने अधिकारों का इस्तेमाल, सुविधाओं
और कर्तव्यों का पालन करने का उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष को”। धीरे-धीरे, भारत में महिला शिक्षा को लेकर नौरोजी ने लोगों की राय
को बदलने में मदद की। दुनिया भर में नौरोजी जातिवाद और साम्राज्यवाद के विरोधी की
तरह भी जाने जाते थे।
दक्षिण अफ्रीका के
संघर्ष में गांधीजी का समर्थन
अपने सभी प्रयासों के बीच, दादाभाई ने हमेशा दक्षिण अफ्रीका के प्रश्न पर
ध्यान देने के लिए समय निकाला है और वे गांधीजी के उद्देश्य के सबसे उत्साही
संरक्षकों में से एक थे। गांधीजी कहते हैं, “... दादाभाई ने एक ऋषि का जीवन जिया। मेरे पास उनकी कई पवित्र यादें हैं। भारत
के यह महान व्यक्ति उन महान व्यक्तियों में से एक थे, और आज भी हैं, जिन्होंने मेरे जीवन को आकार दिया है...” । गांधीजी बीस वर्षों तक दक्षिण अफ्रीका में रहे
और इस दौरान दादाभाई के साथ सैकड़ों पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। वह उनके उत्तरों
की नियमितता देखकर चकित थे। गांधीजी के पत्र टाइप किए जाते थे, लेकिन शायद
ही कभी उन्होंने कोई टाइप किया पात्र भेजा हो। सभी उत्तर उनके अपने हाथ से लिखे
होते थे। वे स्वयं अपने पत्रों की प्रतियां टिशू पेपर की किताब पर बनाते थे। गांधीजी
बताते हैं, “जब भी मैं उनसे मिलता था तो मुझे प्यार और मिठास के अलावा कुछ नहीं मिलता था।
दादाभाई मुझसे बिल्कुल उसी तरह बात करते थे जैसे एक पिता अपने बेटे से करता है और
मैंने दूसरों से सुना है कि उनका अनुभव भी मेरे जैसा ही था।”
उपसंहार
भारतीय राष्ट्रवाद के जनक महान विभूति दादाभाई नौरोजी का 30 जून 1917 को निधन हो गया। उनकी देशभक्ति का स्वरूप शुद्धतम है और मातृभूमि के प्रति उनके कर्तव्य की भावना से उपजा है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके द्वारा निबाही गयी भूमिका को हम नज़रअंदाज नहीं कर सकते। ब्रिटिश सत्ता भारत की शुभचिंतक है, इस धारणा को ध्वस्त करने में और उसके लिए बौद्धिक ज़मीन तैयार करने का काम बहुत ही प्रखरता के साथ दादाभाई नौरोजी ने किया। उनके सभी राजनीतिक कार्यों के पीछे एक प्रबल धार्मिक पवित्र उत्साह छिपा रहता था। अपने जीवन में आदि से अंत तक वह युवकों के संपर्क में रहे और निरंतर अपने चिंतन और राजनीति को परिवर्तनवादी दिशा में विकसित करते रहे। उनके युवा मित्रों में आरजी भंडारकर, राष्ट्रवादी सुधारक एनजी चंदावरकर, फीरोजशाह मेहता, जीके गोखले, दिनशॉ वाचा और एमके गांधी शामिल थे। ऐसे समय में जब सरकार की आलोचना करना देशद्रोह माना जाता था और शायद ही कोई सच बोलने की हिम्मत रखता था, दादाभाई ने सरकार की सबसे कठोर आलोचना की और प्रशासन की कमियों को साहसपूर्वक उजागर किया। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जब तक भारत दुनिया में एक इकाई के रूप में बना रहेगा, भारत के लोग दादाभाई को स्नेहपूर्वक याद रखेंगे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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