राष्ट्रीय आन्दोलन
147. लॉर्ड कर्ज़न का कांग्रेस के प्रति विचार
लॉर्ड कर्जन
लॉर्ड कर्ज़न का
प्रशासन अपनी गतिविधियों और कार्यकुशलता के लिए विख्यात रहा है। लॉर्ड कर्जन भारत
के सबसे प्रमुख वायसराय में से एक थे, जिनकी प्रशासनिक नीतियों और सुधारों का भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन और भारत में औपनिवेशिक सरकार की भविष्य की नीतियों पर भी बहुत
प्रभाव पड़ा। वह अपनी कुछ गतिविधियों के कारण कुख्यात भी रहा है। लॉर्ड कर्जन ने 1900 में घोषणा की थी, “कांग्रेस
टूट रही है और लड़खड़ाते हुए अपने पतन की ओर बढ़ रही है। मेरी परम अभिलाषा है कि भारत
में रहते हुए मैं इसके शांतिपूर्ण निधन में सहायता करूं”।
वह कांग्रेस को ‘एक
गन्दी चीज़’
मानता था। उसने निर्णय कर लिया था कि वह कांग्रेस पर कभी ध्यान नहीं देगा। शिक्षित
भारतीयों, जिसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी,
की आकांक्षाओं के प्रति उसका निरंतर वैमनस्य का भाव बना रहा। वह एक सख्त नस्लवादी था
और उसे आश्वासन दिया गया था कि ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार भारत में एक ‘सभ्यता मिशन’
पर थी। उसने सोचा कि भारतीय अपनी क्षमता, ईमानदारी और चरित्र में बेहद हीन हैं।
लॉर्ड कर्ज़न ने भारत के वायसराय
के रूप में लॉर्ड एल्गिन का स्थान लिया था। वह 39 वर्ष की आयु में भारत के
सबसे कम उम्र का वायसराय बना। जब कर्ज़न (1899 से 1905) वायसराय बना उस समय
गरमदल अपनी पूरी गरमी में था। उनके एजेंडे पर सबसे ऊपर स्वशासी सरकार,
शिक्षा की स्वायत्तता और समाचारपत्रों की स्वतंत्रता था। कर्ज़न ने इन्हीं पर
आक्रमण किया। 1899 में उसने कलकत्ता
नगर निगम में भारतीय सदस्यों
की संख्या में कमी कर दी। छात्रों के जुझारूपन पर अंकुश लगाने के लिए 1904 में विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा शैक्षिक सुधार के नाम पर उसने भारतीय
विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया। उसने शिक्षा संबंधी विधेयक लाकर
शिक्षा संस्थानों पर लगाम लगाने का प्रबंध कर दिया था। राष्ट्रवादियों ने विधेयक
का विरोध तो किया लेकिन कोई ख़ास रियायत नहीं मिली।
कर्ज़न ने भारतीय सरकारी गोपनीयता
विधेयक में संशोधन कर समाचार
पत्रों पर पाबंदी लगाने का काम किया। परिणामस्वरूप समाचारपत्र अधिक राष्ट्रीय हो
गए। उसने भारतीय कोषों से अनाप-शनाप खर्च किया। भूमि कर में कोई कमी करने से इनकार
कर दिया। और सबसे प्रमुख 1905 में बंगाल
का विभाजन कर दिया। यह कर्ज़न
का सबसे अलोकप्रिय क़दम था। दिखाने के लिए तो उसने कहा था कि बेहतर प्रशासन देने के
लिए ऐसा किया जा रहा है। असल में इरादा तो फूट डालो और राज करो ही था। कर्जन ने
यह भी आशा व्यक्त की कि बंगाल के विभाजन से पहले भारतीय नागरिकों के बीच मौजूद
राष्ट्रीय एकजुटता को तोड़ने के लिए अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल बहुमत के खिलाफ किया
जा सकता है। विभाजन के माध्यम से कर्जन ने
मुसलमानों में ‘अल्पसंख्यक
चेतना’ की भावना पैदा करने की कोशिश की। कर्ज़न की
प्रतिक्रियावादी नीतियों ने भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं की एक नई भावना को
प्रज्वलित किया और भारतीयों को औपनिवेशिक शासन के असली रंगों के बारे में जागरूक
किया।
गरमदल के बढ़ते प्रभाव से उत्तेजक
गढ़ बन जाने वाले बखारगंज और फरीदपुर को पूर्व बंगाल में हस्तांतरित कर दिया गया। कांग्रेस
ने इस विभाजन को असंगत कहते हुए इसमें सुधार की मांग की, लेकिन कर्ज़न ने विरोध को बंगालियों की खोखली गर्जना कहते हुए ठुकरा दिया। विभाजन विरोधी आन्दोलन की
बागडोर बिपनचंद्र पाल, अश्विनीकुमार दत्त और अरविन्द घोष जैसे गरमदल के
नेताओं ने अपने हाथ में ले ली। 16 अक्तूबर, 1905 को राष्ट्रीय शोक दिवस मनाया गया। सारा देश ‘वंदे मातरम’ के नारे से गूँज उठा।
स्वदेशी और बहिष्कार की भावना से सारा प्रांत ओतप्रोत था। इस कार्यक्रम के कारण नरमदल और गरमदल के मतभेद
उभर कर सामने आए, खासकर बहिष्कार के मामले में। तिलक और अरविन्द का मानना था कि
बहिष्कार मैनचेस्टर पर एक आर्थिक दबाव, साम्राज्य विरोधी आन्दोलन का एक राजनीतिक हथियार और
स्वराज की उपलब्धि के लिए आत्मनिर्भरता का एक प्रशिक्षण, था।
विभाजन विरोधी आन्दोलन जल्द ही स्वदेशी आन्दोलन में विकसित हुआ। लोग निर्भीकता से सरकार की अवज्ञा
करने लगे। वे लाठी खाते, जेल जाते और देश के लिए फांसी की सूली पर चढने के लिए
तैयार थे। तिलक ने केसरी में लिखा था, “हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की
तरह है, जिसका मूल तना स्वराज है और स्वदेशी और बहिष्कार उसकी शाखाएं हैं।” कर्ज़न
की चाल उलटी पड़ गयी। स्वदेशी ने ही स्वराज का
रास्ता दिखाया। इस आन्दोलन ने विभाजन विरोधी प्रदर्शनों से हटकर एक सविनय
अवज्ञा आन्दोलन के रूप में व्यापक होने की दिशा की ओर कदम बढ़ाया।
बहिष्कार सिर्फ ब्रितानी वस्तुओं
का ही नहीं हो रहा था, बल्कि अदालतों, नगरपालिकाओं, विधान परिषदों का बहिष्कार भी आन्दोलन
में शामिल था। इन विरोधों द्वारा ब्रितानी सम्मान की जड़ों पर आक्रमण किया जा रहा
था। आन्दोलन का उद्देश्य था संगठित प्रतिरोध द्वारा प्रशासन को असंभव बना देना।
गरमदल के नेताओं के प्रभाव में
किसान भी आन्दोलन की मुख्य धारा में शामिल होने लगे। यहाँ तक कि बंगाल में हड़ताल
की लहर उठ गयी। न्यू इंडिया, संध्या, युगांतर, केसरी जैसे समाचारपत्रों के द्वारा स्वराज के लिए संघर्ष करने का आह्वान करके युवा वर्ग में जोश भरा गया।
मुसलमानों ने भी बड़ी संख्या में आन्दोलन में भाग लिया। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
अरविन्द घोष से मिलकर क्रांतिकारी गतिविधियों को बंगाल के बाहर चलाने में मदद की।
सरकार के दमन के तरीके ने गरमदल के संघर्ष के संकल्प को और दृढ़ किया। राष्ट्रीय
आन्दोलन के इतिहास में गरमदल वालों ने एक शानदार अध्याय जोड़ा। बंगाल के विभाजन के
कारण व्यापक विरोध हुआ जो न केवल बंगाल तक सीमित था, बल्कि भारत के सभी हिस्सों में भी फैल गया था। इसने भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन को और बढ़ावा दिया। कांग्रेस के सभी वर्गों, अर्थात नरमपंथियों और चरमपंथियों,
को एक धरातल पर ला दिया और दोनों ने बंगाल के विभाजन का कड़ा विरोध किया।
कर्ज़न द्वारा उठाए जाने वाले
आक्रामक क़दमों के कारण ब्रिटिश
सरकार की अलोकप्रियता
बढती जा रही थी। दूसरी ओर राष्ट्रवादियों के राजनीतिक गतिविधियों का आधार तेज़ी से
बढ़ता जा रहा था। कर्ज़न की यह धारणा कि कांग्रेस लड़खड़ाते हुए अपने पतन की ओर बढ़ रही
है, हास्यास्पद ही सिद्ध हुई। जिस कर्ज़न की आकांक्षा थी
कि वह भारत में रहते हुए
कांग्रेस की शांतिपूर्ण मृत्यु में सहायता दे, उसे खुद 1905 में भारत छोड़कर ब्रिटेन जाना पड़ा, लेकिन
विभाजन के बाद शुरू हुआ स्वदेशी आंदोलन कई और वर्षों तक जारी रहा, फलता-फूलता रहा।
स्वदेशी आन्दोलन के उद्भव और विकास में कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी भूमिका प्रमुख थी
और परिणाम यह हुआ कि 1911 में, ब्रिटिश सरकार को विभाजन के विरोध में झुकना पड़ा, जब
भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने बंगाल के विभाजन को वापस ले लिया था।
कर्ज़न की नीतियों के कारण
बंग-भंग विरोधी संघर्ष के साथ भारतीय राष्ट्रवाद के इतिहास में एक नए चरण का आरंभ
होता है। स्वदेशी आंदोलन बाद में औपनिवेशिक सरकार के खिलाफ सभी प्रमुख राष्ट्रवादी
आंदोलनों जैसे असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन, आदि का आधार बन गया। कर्ज़न की इच्छा के विपरीत कांग्रेस
का न तो पतन हुआ और न ही शांतिपूर्ण मृत्यु। आने वाले दिनों में यह संगठन गांधीजी
के नेतृत्व में आगे बढ़ा और बढ़ता ही गया। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने
राष्ट्रीय आन्दोलन को गति प्रदान की, लोगों में राष्ट्रवाद का संचार किया और देश को वर्षों
की गुलामी से मुक्त कराया।
लॉर्ड कर्जन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति जो नीति
अपनाई थी वह थी: उसे ख़त्म कर देना। लेकिन हुआ इसके विपरीत। इतिहास के प्रोफेसर और
ब्रिटिश साम्राज्य और कॉमनवेल्थ में विशेषज्ञ डेनिस जुड ने अपनी पुस्तक ‘द लायन एंड द टाइगर : द राइज एंड फॉल ऑफ द ब्रिटिश राज′ में कर्जन के बारे में लिखा है कि, “कर्जन को
ब्रिटिश शासन की निष्पक्षता और प्रभावशीलता का प्रदर्शन करके, भारत को
स्थायी रूप से ब्रिटिश राज के अधीन रहने उम्मीद की थी।
विडंबना यह है कि उसके द्वारा किये गए बंगाल विभाजन और उसके बाद हुए भारी बहिष्कार
या विरोध ने कॉन्ग्रेस को पुनर्जीवित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। आमतौर पर, कर्ज़न ने 1900 के प्रारंभ में कांग्रेस को 'इसके पतन के लिये लड़खड़ाहट या
डगमगानेवाले' के रूप में खारिज कर दिया था। लेकिन आखिरकार, उसने अंततः भारत को
कॉन्ग्रेस के साथ अपने इतिहास में उस समय की तुलना में अधिक सक्रिय और प्रभावी बना
दिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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