राष्ट्रीय आन्दोलन
149. बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन
प्रवेश
भारत में बीसवीं सदी का उदय स्वदेशी आंदोलन के साथ
हुआ था। इस आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन को बहुत बल मिला। स्वदेशी आंदोलन बंगाल
विभाजन के विरोध में एक आंदोलन के रूप में पैदा हुआ था। दरअसल, उस समय अंग्रेजी सरकार और उसकी नीतियों का विरोध
करने में बंगाल के लोग सबसे आगे थे। बंगाल उस वक्त राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति
का केंद्र था। न सिर्फ बंगाल में बल्कि पूरे देश में यहाँ के प्रबुद्ध वर्ग काफी
प्रभावकारी सिद्ध हो रहे थे। राजनीतिक जागृति ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर रही
थी। कर्ज़न बंगाल में विकसित हो रही राष्ट्रीय भावना को कुचल
देना चाहता था। इसी आवाज को दबाने के लिए हिंदू-मुस्लिम के नाम पर बंगाल को बांटा
गया और राजनीतिक जागृति को कुचलने का काम हुआ। बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद कुछ ही दिनों में लोगों के अन्दर संचित
रोष ने एक संगठित विरोध का रूप ले लिया और 'स्वदेशी एवं
बहिष्कार’ राष्ट्रीय
आन्दोलन का नारा बन गया। बाद के दिनों में स्वदेशी और बहिष्कार आज़ादी की लड़ाई का
एक सशक्त हथियार बन गया। शुरू के दिनों में स्वदेशी और बहिष्कार का उद्देश्य
ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर आर्थिक दबाव डालना था, लेकिन गांधीजी के राष्ट्रीय नेतृत्व में आने के
बाद इसने असहयोग का रूप ले लिया। बंगाल के स्वदेशी आन्दोलन में लगभग सभी वर्गों ने
भाग लिया,
लेकिन छात्रों की इसमें प्रमुख भूमिका रही।
बहिष्कार और स्वदेशी - टाउनहॉल में विशाल जनसभा
जुलाई,
1905 में बंगाल विभाजन की घोषणा की गयी। बंगाल के विभाजन की घोषणा ने
भारतीयों में एकता जागृत कर दी थी। बारीसाल के समाचारपत्र ‘हितैषी’ और कलकत्ता के ‘संजीवनी’ ने विभाजन के विरुद्ध में बहिष्कार का आह्वान
किया। विभाजन का विरोध करने लोग सड़कों पर उतर आए थे। 07 अगस्त 1905 को कलकत्ता के
टाउनहॉल में विशाल जनसभा का आयोजन हुआ। बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग इस
जनसभा में शामिल हुए थे। इसी
सभा में ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ और स्वदेशी आंदोलन की
औपचारिक शुरुआत हुई। 1905 के बनारस अधिवेशन में कांग्रेस ने भी विदेशी वस्त्रों के
बहिष्कार की स्वीकृति दे दी। नेताओं ने लोगों से सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की। बहिष्कार
आन्दोलन में बंगाल का प्रत्येक वर्ग शामिल था। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई।
विदेशी वस्तुओं को लोगों ने हाथ लगाने से मना कर दिया। विदेशी जूतों की जगह
विद्यार्थियों और छात्रों ने नंगे पांव स्कूल जाना शुरू कर दिया। विलायती कागजों
पर लिखने के बजाए छात्रों ने परीक्षा देने से इंकार कर दिया। कई मरीजों ने विदेशी
दवा लेने से मना कर दिया। मोचियों,
धोबियों और रसोइयों ने अंग्रेजों और विदेशी माल का व्यवहार करने वाले भारतीय
मालिकों के यहाँ काम करने से मना कर दिया। मिठाई बनाने वालों ने विदेशी चीनी का
मिठाइयों इस्तेमाल करना बंद कर दिया। पुजारियों ने विदेशी चीजों से पूजा न करने की
क़सम खाई। स्त्रियों ने विदेशी चूड़ियों का इस्तेमाल छोड़ दिया। विदेशी सामान बेचने
वाली दुकानों के सामने धरना दिया जाने लगा। बहिष्कार को प्रभावशाली बनाने के लिए
सामाजिक और धार्मिक दबाव डाले गए। विदेशी सामान बेचने वालों का सामाजिक बहिष्कार
किया गया। विदेशी वस्तुओं का उपयोग करने वालों को सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में
शामिल नहीं किया जाता था। रेल,
पटसन उद्योग और प्रेस से जुड़े श्रमिकों ने बहिष्कार के समर्थन में हड़ताल किया।
1906 तक बहिष्कार आन्दोलन पूरे बंगाल में फैल चुका था।
सिर्फ बहिष्कार ही नहीं स्वदेशी आन्दोलन का भी इस
समय प्रसार हुआ। बंगाल में इसके प्रमुख नेता थे रवीन्द्रनाथ टैगोर, बिपिनचंद्र पाल और अरविन्द घोष। टैगोर ने लेख लिखकर स्वदेशी को प्रोत्साहित करने
की बात की थी। उन्होंने कहा था कि विदेशियों की सहायता लिए बिना भारतीयों को
अपने-आपको संगठित कर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के साथ स्वदेशी उद्योग-धंधे, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वशासन स्थापित करना ज़रूरी
है। बहिष्कार आन्दोलन के विकास के साथ-साथ स्वदेशी की भावना का प्रसार हुआ।
स्वदेशी आन्दोलन के कारण कपड़ा उद्योग को काफी लाभ पहुंचा। हथ-करघा उद्योग और कपड़ों
के कारखाने में वृद्धि हुई। कारखाना स्थापित करने और भारतीयों को तकनीकी रूप से
प्रशिक्षित करने के उद्देश्य से एक कोष की स्थापना की गई। 1905 में बनारस में
रमेशचंद्र दत्त की अध्यक्षता में पहली बार औद्योगिक सम्मेलन आयोजित किया गया।
बंगाल में अनेक कारखाने खोले गए। पी.सी. राय ने प्रसिद्द बंगाल केमिकल्स खोला था। 1906
में दि बंगलक्ष्मी कॉटन मिल्स की स्थापना हुई। इसी वर्ष कलकत्ता पॉटरी वर्क्स, क्रोम टैनिंग, दियासलाई उद्योग और सिगरेट मैनुफैक्चरिंग कंपनियों
की स्थापना हुई। ये उद्यम व्यावसायिक कौशल की अपेक्षा देशभक्ति के उत्साह पर अधिक
आधारित थे। चिदंबरम पिल्लई ने आंदोलन को मद्रास तक फैलाया और तूतीकोरिन
कोरल मिल की हड़ताल का आयोजन किया। उन्होंने पूर्वी तटीय प्रांत के तूतीकोरिन में
स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी की स्थापना की। वी.ओ. चिदंबरम पिल्लई का राष्ट्रीय
जहाज निर्माण उद्यम —स्वदेशी स्टीम नेविगेशन कंपनी—तूतीकोरिन में, ने ब्रिटिश इंडियन स्टीम नेविगेशन कंपनी को एक
चुनौती दी। टैगोर ने भी एक स्वदेशी भण्डार खोलने में सहायता प्रदान की थी। स्वदेशी
भण्डार खोलने में अनेक व्यापारी,
उद्योगपति,
कंपनियाँ और बैंक सामने आए। विदेशी वस्तुओं के आयात में भारी कमी आई।
रामेन्द्र सुन्दर त्रिवेदी ने विभाजन के दिन शोक और विरोध के प्रतीक के रूप
में अरण्डन (चूल्हा न जलाना) मनाने का आह्वान किया। इस आंदोलन ने रचनात्मक कार्यों
को भी अपने हाथ में लिया। जाति प्रथा,
बाल विवाह, दहेज प्रथा, शराबखोरी आदि अनेक सामाजिक कुरीतियों
के ख़िलाफ़ इसने जिहाद छेड़ा।
आत्मनिर्भरता
की दिशा में भी अनेक प्रयत्न हुए। टैगोर ने गांवों के पुनरुत्थान का आह्वान किया। मुक़दमों का निबटारा
पंचायतों द्वारा कराया जाने लगा। स्वदेशी आंदोलन
को स्वयंसेवी संगठनों
का भरपूर साथ मिला। बारीसाल के एक अध्यापक अश्विनी
कुमार दत्त ने ‘स्वदेश बांधव समिति’ गठित
की और स्वदेशी आंदोलन के लिए जनमत तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वदेशी
आंदोलन ने अपने प्रचार के लिए पारंपरिक त्योहारों, धार्मिक
मेलों, लोक परंपराओं, लोक संगीतों और लोक नाट्य मंचों का भी सहारा लिया।
इन सब प्रयासों से इसके संदेश दूर-दराज के इलाक़ों तक पहुँचाए गए।
बंगाल के उग्रवादियों ने ज़िला स्तर पर संगठनों की शृंखला बनाई और श्रमिक असंतोष को
राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया।
राष्ट्रीय शिक्षा
सरकार द्वारा शिक्षण संस्थाओं को अपने नियंत्रण में
लेने के विरोध में राष्ट्रीय शिक्षा के विकास को बढ़ावा दिया गया। समूचे बंगाल में
अनेक राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज खोले गए। 1905 में रंगपुर में पहला राष्ट्रीय स्कूल
स्थापित किया गया। छात्रों पर की जा रही दमनात्मक कार्रवाई के जवाब में
शचीन्द्रनाथ बसु के नेतृत्व में ‘एंटी सर्कुलर सोसाइटी’ की स्थापना की गई। इस संस्था ने बहुत बड़ी संख्या में छात्रों को स्वदेशी
आन्दोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। बंगाल में राष्ट्रीय शिक्षा को
प्रोत्साहित करने में ‘डॉन सोसाइटी’ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1905 में ही ‘राष्ट्रीय शिक्षा परिषद्’ के गठन का निर्णय लिया गया। इसका उद्देश्य राष्ट्रीय, साहित्यिक, वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देना था। 1904
में जोगेन्द्रचंद्र घोष ने एक समिति की स्थापना की जिसका लक्ष्य था विद्यार्थियों
को तकनीकी प्रशिक्षण हेतु बाहर भेजने के लिए धन जुटाना। 1906 में टैगोर के शांतिनिकेतन की तर्ज़ पर ‘बंगाल नेशनल कॉलेज’
की स्थापना की
गई। इसके प्राचार्य बने अरविंद घोष। टैगोर ने
देशी भाषा में शिक्षा देने की वकालत की। इन्हीं दिनों ‘सोसाइटी फॉर प्रोमोशन ऑफ टेक्नीकल एजुकेशन’ एवं ‘बंगाल टेक्नीकल इंस्टीच्यूट’
भी खोला गया।
सांस्कृतिक क्षेत्र में
सांस्कृतिक क्षेत्र में
भी महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए। एक नए प्रकार की कविता, गद्य और पत्रकारिता का जन्म हुआ
जो आवेश और आदर्शवाद से युक्त थी। कई
क्रांतिकारी गीत लिखे गए। टैगोर ने ‘आमार सोनार बांगला’
लिखा था, जो 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना। 1906 में ‘इंडियन सोसायटी ऑफ ओरियंटल आर्ट्स’
की स्थापना हुई।
टैगोर, रजनीकांत सेन और मुकुंद दास के राष्ट्रीय गीतों ने लोगों को राष्ट्रीय
भावना से ओत-प्रोत कर दिया। स्वदेशी आन्दोलन की उपलब्धियों में देशभक्ति के गीतों का भंडार बहुत
महत्त्वपूर्ण है।
समितियां
स्वदेशी युग की बड़ी
उपलब्धियों में से एक है समितियों का उदय होना। ये समितियां शारीरिक और नैतिक
प्रशिक्षण,
अकाल, महामारी या धार्मिक उत्सवों के समय समाज-कार्य करने में, स्वदेशी का सन्देश फैलाने में, हस्तकलाओं, विद्यालयों, ग्राम सभाओं का संगठन करने में, जैसी गतिविधियों में लगी होती थीं। 1907 तक 19
समितियां अस्तित्व में आ चुकी थीं। ये समितियां अंग्रेजों की आँखों में खटकने लगीं
और स्वदेश बांधव,
ब्रती, ढाका अनुशीलन, सुहृद और साधना जैसी
समितियों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इन समितियों में 8,445
स्वयं सेवक कार्यरत थे। कलकत्ता की ‘एंटी सर्कुलर सोसायटी’ अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए विख्यात थी। इसमें लियाकत हुसैन, अबुल हुसैन, दीदार बख्श और अब्दुल गफूर जैसे
महत्वपूर्ण मुसलमान नेता शामिल थे। ‘स्वदेश बांधव’ की शाखाएं 175 गांवों तक फैली थी। अकाल के दिनों में काम कर इस समिति ने
हिन्दू-मुसलमान दोनों के दिलों में जगह बना ली थी। मुकुंद दास द्वारा स्थापित ‘ढाका अनुशीलन समिति’ स्वयं सेवकों को शारीरिक रूप से प्रशिक्षित करती
थी। अधिकांश समितियों का काम जन-संपर्क स्थापित करना था।
रचनात्मक स्वदेशी
1905 से 1908 के बीच
बंगाल के राजनीतिक जीवन में जो प्रवृत्तियां देखी जा सकती थीं,
उनमें से एक थी ‘रचनात्मक प्रवृत्ति’। रचनात्मक स्वदेशी, स्वदेशी आंदोलन का एक पहलू था। स्वदेशी आंदोलन बहुत
रचनात्मक था और इसमें उद्योगों के ज़रिए स्वयं सहायता की प्रवृत्ति थी। इसके अंतर्गत अपमानजनक ‘भिखमंगी’ नीतियों को त्याग कर स्वदेशी उद्योगों, राष्ट्रीय विद्यालयों और ग्राम सुधार और संगठनों
के माध्यम से स्वावलंबन की बात कही जा रही थी। इस दिशा में प्रफुल्लचंद्र राय और
नीलरतन सरकार ने अपने उद्यमों के माध्यम से योगदान दिया। बंगाल केमिकल्स जैसी
कंपनियों द्वारा स्वदेशी उद्यमों पर जोर दिया। सतीशचन्द्र मुखर्जी की ‘डॉन पत्रिका’ और ‘डॉन सोसायटी’ ने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रवीन्द्रनाथ
टैगोर ने ‘स्वदेशी समाज’ वाला भाषण देकर पारंपरिक हिन्दू समाज के
पुनरुत्थान के माध्यम से रचनात्मक कार्यों की रूपरेखा दी। बारीसाल के अश्विनी
कुमार दत्त की ‘बांधव समिति’ ने न्यायिक समिति के माध्यम से ग्रामीण विवादों का निपटारा किया। आगे के
गांधीवादी स्वदेशी कार्यक्रमों,
राष्ट्रीय विद्यालयों और रचनात्मक कार्यों में इसी तरह की रचनात्मक प्रवृत्ति
मिलती है। ‘रचनात्मक स्वदेशी’ को रवीन्द्रनाथ आत्मशक्ति से अभिलक्षित मानते थे। स्वदेशी आन्दोलन को आगे
बढाने के लिए ‘आत्मनिर्भरता’ या 'आत्म शक्ति' को प्रोत्साहित किया गया। इसका तात्पर्य राष्ट्रीय
गरिमा, सम्मान और आत्मविश्वास और गांवों के सामाजिक और
आर्थिक उत्थान का पुन: दावा करना था। व्यावहारिक रूप में, इसमें सामाजिक सुधार और जाति उत्पीड़न, कम उम्र में शादी, दहेज प्रथा, शराब का सेवन आदि के खिलाफ अभियान शामिल थे। ‘रचनात्मक स्वदेशी’ ने बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन को प्रेरित किया।
राजनीतिक उग्रवाद ने इन्हें अधिक आकर्षित किया। 1906 के बाद बिपिन चन्द्र पाल की ‘न्यू इंडिया’, अरविन्द घोष की ‘वंदे मातरम, ब्रह्म बांधव उपाध्याय की ‘संध्या’ और ‘युगांतर’ जैसी पत्रिकाओं ने स्वराज के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया। बिपिन
चंद्र पाल ने आंदोलन को लोकप्रिय बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई; विशेषकर शहरी क्षेत्रों में। अपने अंतिम लक्ष्य को
हासिल करने के लिए अनेक उग्रवादी नेता काफी कुछ कम लेने पर भी सहमत हो गए। जनवरी
1907 में तिलक ने कहा था, “सारी न मिलने पर आधी रोटी” ही
लेंगे, हालाकि उनका लक्ष्य ‘समय आने पर सारी पा लेने’ का था। आन्दोलन की पद्धतियों को लेकर कुछ उग्रवादी नेताओं में मूलभूत मतभेद
थे। इन्होंने ‘शांतिपूर्ण आश्रमों और स्वदेशीवाद एवं स्वावलंबन’ के आदर्श को अपर्याप्त बताया। इनके अनुसार अंग्रेजी
वस्तुओं,
सरकारी शिक्षा,
न्याय और कार्यकारी प्रशासन का ‘संगठित और निर्मम बहिष्कार’ होना चाहिए। इससे स्वदेशी उद्योगों, राष्ट्रीय विद्यालयों और न्यायालयों को समर्थन
प्राप्त होता। इसमें अन्यायपूर्ण क़ानूनों की सविनय अवज्ञा करने, राजभक्तों का ‘सामाजिक बहिष्कार’ करने और अंग्रेजी दमन के सहन-सीमा से आगे बढ़ जाने
पर सशस्त्र संघर्ष की योजना भी थी। यहाँ भी गांधीवाद के दर्शन होते हैं, केवल अहिंसा संबंधी हठधर्मिता को छोड़कर। हाँ करों
और लगानों की नाअदायगी की बात गांधीजी के कार्यक्रमों में होता था, यहाँ अरविन्द ने इसे स्पष्ट रूप से अस्वीकार किया
था क्योंकि यह बात बंगाल के ज़मींदार समुदाय के विरुद्ध जाती।
आन्दोलन का प्रसार
स्वदेशी आन्दोलन सिर्फ बंगाल तक ही सीमित नहीं रहा।
इसने समूचे राष्ट्र को प्रभावित किया। पूरे देश में स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के कार्यक्रम चलाए
गए। बंबई और मद्रास में आन्दोलन का व्यापक प्रसार हुआ। लोकमान्य तिलक ने स्वदेशी का संदेश पूना और बम्बई तक फैलाया तथा
देशभक्ति की भावना जागृत करने के लिए गणपति और शिवाजी उत्सवों का आयोजन किया।
उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा का उद्देश्य स्वराज
की प्राप्ति है। महाराष्ट्र में तिलक ने वस्त्रों को होली जलाई। उन्होंने सहकारी
दुकानें खोलीं और स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा का नेतृत्व किया। उन्होंने ‘स्वदेशी वस्तु
प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। अनेक सहकारी भण्डार खोले। उन्होंने स्वदेशी को स्वराज
प्राप्ति का मार्ग बताया। लाला लाजपत राय आंदोलन
को पंजाब और उत्तरी भारत तक ले गए। उनके इस उद्यम में सहायता मिली उनके लेख, जो कायस्थ अमाकअर में प्रकाशित हुए, जो तकनीकी शिक्षा और औद्योगिक आत्मनिर्भरता का
समर्थन करते थे। आर्यसमाज ने इस आन्दोलन को पंजाब में आगे बढाया। बंबई और अहमदाबाद
में अनेक सूती कपड़े के कारखाने खोले गए। जमशेदपुर में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी
ने विदेशी सहायता लेने से इनकार कर दिया। बंबई और मद्रास में जहाजी कंपनियां खोली
गईं। सैयद हैदर रजा ने दिल्ली में स्वदेशी आंदोलन को लोकप्रिय बनाया। लैकत
हुसैन आंदोलन को पटना तक ले गए और 1906 में ईस्ट इंडियन रेलवे हड़ताल का आयोजन किया।
उन्होंने मुसलमानों में राष्ट्रवादी भावनाएं जगाने के लिए उर्दू में उग्र लेख भी
लिखे। अब्दुल हलीम गुज़नवी एक ज़मींदार और वकील थे, जिन्होंने स्वदेशी उद्योग स्थापित किया और अरबिंदो घोष को बंगाल के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियों का
विस्तार करने में मदद की। उन्हें अबुल कलाम आज़ाद ने सहायता प्रदान की। मनिन्द्र नंदी कासिमबाजार के एक जमींदार थे, उन्होंने कई स्वदेशी उद्योगों को संरक्षण दिया। मुहम्मद
शफी और फ़ज़ल-ए-हुसैन पंजाब में मुस्लिम समूह का नेतृत्व करते थे और बहिष्कार
के बजाय रचनात्मक स्वदेशी में शामिल थे।
सरकारी प्रतिक्रिया
अँग्रेज़ अधिकारियों को आशा थी कि स्वदेशी आन्दोलन
जल्द ही ठंडा पड़ जाएगा और तब के आंदोलनों की बंधी-बंधाई लीक से नहीं हटेगा। लेकिन
आन्दोलन 1905 के बाद आश्चर्यजनक तेज़ी से आगे बढ़ता गया, और सरकार ने कठोर नीति अपना ली। लॉर्ड कर्जन किसी भी क़ीमत पर इन आवाज़ों को कुचल देना चाहता था।
सरकार के दमन का सबसे प्रमुख शिकार छात्र हुए। स्कूलों को धमकी दी गई कि यदि
छात्रों को आन्दोलन से अलग नहीं रखा गया तो सरकारी सहायता बंद कर दी जाएगी। वंदे
मातरम को गाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इसके परिणामस्वरूप सरकारी शिक्षा
संस्थानों के बहिष्कार एवं राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना का आन्दोलन उठ खड़ा
हुआ। छात्रों ने स्कूल कॉलेज छोड़ दिया और स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेने लगे।
छात्रों पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। उत्तेजक लेखों पर प्रतिबन्ध लगाया गया।
सभाओं को रोका जाने लगा। जैसे-जैसे सरकारी दमन बढ़ता गया आन्दोलन और बड़ा होता
गया।
आन्दोलन का प्रभाव
बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन को शुरू में थोड़ी सफलता ज़रूर मिली। अगस्त 1905
की तुलना में सितंबर 1906 में सूती थानों के आयात में 22 प्रतिशत, सूत की लच्छी और सूत में 44 प्रतिशत, नमक में 11 प्रतिशत, सिगरेटों में 55 प्रतिशत और जूतों में 48 प्रतिशत
की कमी हुई। मैनचेस्टर के कपड़ों की बिक्री में भारी गिरावट आई। 32,000 गांठों के स्थान पर केवल 2,500 गांठें ही उठीं। स्वदेशी के रुझान ने हथकरघा, रेशम की बुनाई और कुछ अन्य पारंपरिक दस्तकारियों
में नवजीवन का संचार किया। कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला।
आंदोलन के सामाजिक
आधार का विस्तार हुआ और जमींदारी के कुछ वर्गों, छात्रों, महिलाओं और शहरों और कस्बों के निम्न मध्यम वर्ग इसमें
शामिल हो गए। स्वदेशी का प्रचार करने और उसको अपने जीवन में अपनाने के लिए और
विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों पर धरना देने के लिए छात्रों ने बड़ी संख्या में भाग
लिया। महिलाएं, जो परंपरागत रूप से घर-केंद्रित थीं, विशेष रूप से शहरी मध्यम वर्ग की महिलाओं ने
जुलूसों और धरना में सक्रिय भाग लिया। स्वदेशी आन्दोलन में मुसलमान आन्दोलनकारियों
का एक अत्यंत सक्रिय और निष्ठावान समूह भी मौजूद था। अँग्रेज़ उच्च एवं मध्यवर्गीय
मुसलमानों को स्वदेशी आन्दोलन के विरुद्ध बहकाने में सफल रहे। इसके अलावा, स्वदेशी आंदोलन की प्रकृति, प्रेरणा के लिए हिंदू त्योहारों और देवी-देवताओं को
आन्दोलन में शामिल करना, मुसलमानों को आन्दोलन से दूर रहने को प्रोत्साहित
किया। हिन्दू-मुस्लिम दंगों
ने इस आंदोलन को कमज़ोर किया। कांग्रेस के अंदर भी मतभेद बढ़ने और 1907 के कांग्रेस विभाजन ने स्वदेशी आंदोलन
को बहुत क्षति पहुंचाई।
स्वदेशी का रुझान राजनीति को धार्मिक पुनरुत्थानवाद
से जोड़ने का था। धार्मिक पुनरुत्थानवाद को आन्दोलनकारियों का हौसला बढाने के और
जन-संपर्क साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी स्वदेशी प्रतिज्ञाओं को मंदिर में करवाने वाले
पहले व्यक्ति थे। राष्ट्रीय शिक्षा में भी इसी तरह के तत्व होते थे। बहिष्कार को
पारंपरिक जातिगत आज्ञाओं द्वारा लागू कराया जाता था। 1906 में उग्रवादी नेताओं ने
प्रतिमा पूजा के साथ शिवाजी उत्सव मनाने पर बल दिया। लेकिन वहीँ दूसरी तरफ ‘संजीवनी’ और ‘प्रवासी’
जैसी पत्रिकाएँ इस पोंगापंथी की आलोचना भी कर रही थीं। उन्होंने कहा था जो
देशभक्ति अतीत को गौरव मंडित करते हुए उसे सुधार से परे समझती हो, वह एक व्याधि
है। कृष्णकुमार मित्र की एंटी सर्कुलर सोसायटी ने मुसलमान कार्यकर्ताओं की भावना का आदर करते हुए शिवाजी उत्सव का
बहिष्कार किया था। हेमचन्द्र कानूनगो ने भी प्रचलित धार्मिकता की कड़ी आलोचना की थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी बाद के दिनों में पुनरुत्थानवादी से अपना
नाता तोड़ लिया था।
स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के
आगमन के साथ, कांग्रेस में नरमपंथियों पर गरमपंथी भारी पड़ने लगे थे।
बहिष्कार के प्रश्न पर बनारस अधिवेशन में नरमदल और गरमदल के बीच का विभेद उभर कर
सामने आया। नरमदल वाले बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन को केवल बंगाल तक सीमित रखना
चाहते थे। इसके विपरीत गरमदल वाले इसे पूरे देश में फैलाना चाहते थे। 1907 में
उग्रवादियों के जन-आन्दोलन की योजना को भीतर से ही चुनौती मिलने लगी। विशिष्ट जन की आतंकवादी कार्रवाई की मांग की जाने
लगी। अगस्त 1907 में युगांतर में लिखा गया था, “यदि हम अकर्मण्य होकर बैठे रहे और उठ खड़े होने में तब तक झिझकते रहे जब तक कि
लोग हताश न हो जाएं, तो हम सदा यूं ही बैठे रहेंगे
... अरे देशभक्तों, क्या बिना रक्तपात के देश जागेगा?”
अँग्रेज़ों ने आंदोलनकारियों पर तरह-तरह के जुल्म ढ़ाना शुरू कर दिए। कई बड़े नेताओं को या तो निर्वासित कर दिया गया या गिरफ़्तार कर
लिया गया। अरबिंदो घोष और बिपिन चंद्र पाल सक्रिय राजनीति से सेवानिवृत्त
हो गए। इस तरह आंदोलन ही नेतृत्वविहीन हो गया। संगठनात्मक अभाव
के कारण भी आंदोलन कमज़ोर होता गया। इस आन्दोलन ने असहयोग, निष्क्रिय प्रतिरोध, ब्रिटिश जेलों को भरना, सामाजिक सुधार और रचनात्मक कार्य
के रूप में तकनीकों का एक पूरा पैकेज दिया, जो बाद में गांधीवादी राजनीति से जुड़ा
हुआ था लेकिन स्वदेशी अन्दोलनकारी इन तकनीकों पर अनुशासित ध्यान देने में विफल
रहे। आंदोलन ने लोगों के उत्साह को जगाया लेकिन इसके नेतृत्व को यह नहीं पता था कि
नई जारी ऊर्जा का दोहन कैसे किया जाए या लोकप्रिय आक्रोश को अभिव्यक्ति देने के
लिए नए रूपों को कैसे खोजा जाए। बहुत लंबे समय तक उच्च स्तर पर जन-आधारित आंदोलन
को बनाए रखना मुश्किल होता है। 1908 के मध्य तक यह आंदोलन ख़त्म हो गया और फिर से एक बार बंगाल की राजनीति नरमदलीय ‘भिखमंगेपन’ और ‘आतंकवाद’
के दो विरोधी ध्रुवों में सिमट गयी।
उपसंहार
सुमित सरकार मानते हैं कि, “बंगाल में स्वदेशी आन्दोलन का इतिहास एक ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग के आन्दोलन की
सीमाओं को स्पष्ट रूप से दर्शाता है जिसकी आकांक्षाएं मोटे तौर पर बुर्जुवा थीं
किन्तु जिसे तब तक वास्तविक बुर्जुवा समर्थन प्राप्त नहीं था।” इस पर मतभेद हो सकता है, लेकिन इतना तो तय है कि स्वदेशी आन्दोलन में सभी
वर्गों ने भाग लिया और राष्ट्रीय संघर्ष में नए उत्साह का संचार किया। स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलनों ने जहां एक ओर
भारतीयों को आत्मनिर्भर होने की प्रेरणा दी, वहीँ दूसरी ओर नए आन्दोलनों को
गतिशीलता प्रदान की, आवेश और आदर्शवाद से युक्त नए प्रकार के साहित्य और
पत्रकारिता को जन्म दिया। स्वदेशी और बहिष्कार एक-दूसरे के पूरक थे। एक-दूसरे के
बिना कोई सफल नहीं हो सकता था। निष्क्रियता में धीरे-धीरे गिरावट के बावजूद, आंदोलन आधुनिक भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण
मोड़ था। स्वदेशी राष्ट्रीय आन्दोलन में "आगे की छलांग" साबित हुई। अब तक के अछूते वर्गों - छात्रों, महिलाओं, श्रमिकों, शहरी और ग्रामीण आबादी के कुछ वर्गों - ने स्वदेशी
आन्दोलन में भाग लिया। स्वदेशी और बहिष्कार जैसे नए आन्दोलनों और नए प्रकार के
साहित्य और पत्रकारिता ने स्वाधीनता,
स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को आगे बढाया। राष्ट्रीय गरिमा, सम्मान और आत्मविश्वास जैसे 'आत्म शक्ति' से आंदोलन की समृद्धि राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें कला, साहित्य, विज्ञान और उद्योग भी शामिल थे। रचनात्मक स्वदेशी ने समाज के एक बड़े तबके में राष्ट्रीय चेतना विकसित की। इस आन्दोलन ने लोगों को नींद से जगाया। लोगों ने साहसिक राजनीतिक स्थिति
लेना और राजनीतिक कार्यों के नए रूपों में भाग लेना सीखा। उनका संघर्ष भावी आंदोलन की नींव बना। लोगों में देशप्रेम और स्वाभिमान की भावना जगी।
स्वराज की मांग भारतीय राजनीति का ज्वलंत प्रश्न बना गया। स्वदेशी अभियान ने
औपनिवेशिक विचारों और संस्थाओं के आधिपत्य को कमजोर कर दिया। यह अनुभव भविष्य के
संघर्ष में बहुत काम आने वाला था!
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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