राष्ट्रीय आन्दोलन
150. स्वदेशी आन्दोलन के आर्थिक एवं राजनैतिक परिप्रेक्ष्य
प्रवेश
साम्राज्यवाद विकसित पूंजीवाद की उपज है।
हर औद्योगिक पूंजीवादी राष्ट्र बड़े कृषि क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में करके
उन्हें हथियाना चाहता है। अपनी पूंजी की ज़रूरतें पूरी करने के उद्देश्य से
औद्योगिक क्षेत्रों सहित किसी भी जगह वे जाने के लिए तैयार रहते हैं। नए-नए क्षेत्रों
में जाने के लिए साम्राज्यवादी कोई भी खतरा मोल लेने को तैयार रहते हैं। विकसित
शक्तियों के क्षेत्र में पिछड़े हुए क्षेत्रों को मिला लिए जाने की उनकी चाहत होती
है। इसलिए आर्थिक तथ्य के साथ राजनीतिक तथ्य पर भी ध्यान देना ज़रूरी होता है। साम्राज्यवादियों
द्वारा पिछड़े क्षेत्रों में प्रसार की चाहत की वजह से दमन शुरू होता है। भारत में
कृषि ने साम्राज्यवाद के लिए आकर्षक स्थितियां प्रदान की। फौरन ही साम्राज्यवाद
सामंतवाद के साथ तरह-तरह के समझौतों और संघर्ष संबंध के रूप में प्रकट हुआ। यह संघर्ष,
साम्राज्यवाद की गहरी और मूल-भूत शक्तियों के खिलाफ, उपनिवेश-विरोधी मुक्ति के
संघर्ष के रूप में प्रकट हुआ। प्रतिकिया स्वरुप और साम्राज्यवादी विस्तार के लिए
एक राष्ट्रीय दमन की नीति विकसित हुई। इसलिए स्वदेशी आन्दोलन को साम्राज्यवाद की
राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करना ज़रूरी हो जाता
है। साम्राज्यवादियों की तरफ से सामाजिक सुधारों के द्वारा देश में आय के कुवितरण को
ठीक किया जा सकता था। देश के अन्दर ही पूंजी के संचालन के अधिक अच्छे तरीक़े खोजे
जा सकते थे। लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा कुछ किया नहीं, केवल शोषण किया। स्वदेशी आन्दोलन ने कुछ
हद तक प्रतिस्पर्धात्मक पूंजीवाद को सुधारने में मदद की। भारत में तो पूंजीवाद
प्रतिस्पर्धात्मक से एकाधिकार की ओर बढ़ चुका था। इसलिए सिर्फ संरचनात्मक सुधारों
द्वारा साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को रोकना संभव नहीं था। साम्राज्यवाद को सिर्फ
साम्राज्यवाद-विरोधी क्रांति के द्वारा ही रोका जा सकता था। बंगाल विभाजन के विरोध
में स्वदेशी आन्दोलन साम्राज्यवाद-विरोधी क्रांति के रूप में उभरा और देश के
राष्ट्रवादी आन्दोलन को नई दिशा दे गया।
स्वदेशी आन्दोलन का आर्थिक परिप्रेक्ष्य
स्वदेशी की विचारधारा को आर्थिक रूप से देखें तो, स्वदेशी को उस भावना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि स्वदेशी वस्तुओं
को उपभोक्ताओं द्वारा पसंद किया जाना चाहिए, भले ही वे आयातित विकल्पों की तुलना में अधिक महंगी और गुणवत्ता में निम्न हों, और यह कि पूंजी वाले लोगों का देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य है कि वे ऐसे उद्योगों का
नेतृत्व करें, भले ही शुरुआत में लाभ न्यूनतम या न के
बराबर हो। इस प्रकार स्वदेशी शब्द स्वदेशी उद्यम की तुलना में अधिक संकीर्ण दायरे
का शब्द है। जब हम स्वदेशी आन्दोलन के आर्थिक परिप्रेक्ष्य की विवेचना करते हैं, तो पाते हैं कि यह स्वदेशी भावना आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से प्रकट हो
सकती है, जिनमें देशभक्ति का घटक हो।
स्वदेशी आन्दोलन वास्तव में बंगाल-विभाजन
के विरोध के एक आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ। बंग-भंग के दो स्पष्ट उद्देश्य थे, एक हिंदू मुसलमान को लड़ाना और दूसरे नव-जाग्रत बंगाल को चोट पहुंचाना। स्वदेशी आन्दोलन
के नेताओं ने भारतीय जनता से सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की। यह राजनीतिक आंदोलन
के साथ-साथ बड़ा आर्थिक आंदोलन भी था। भारतीय उद्योग के शुद्ध आर्थिक साधन के रूप
में स्वदेशी का उपदेश दिया गया। बहिष्कार तात्कालिक अन्याय से लड़ने का एक विशेष
अस्त्र था। आन्दोलनकारियों के अनुसार भारतीयों की शिकायतों पर अँग्रेज़ तभी ध्यान
देने को विवश होते जब उनकी जेब पर सीधा खतरा आता। स्वदेशी मैनचेस्टर पर एक आर्थिक
दबाव उत्पन्न करता। डॉ. बिपिन चंद्रा ने विस्तार से बताया है
कि कैसे उन्नीसवीं सदी की अंतिम तिमाही में राष्ट्रवादी प्रेस ने भारत की बढ़ती
गरीबी के लिए संप्रभु उपाय के रूप में औद्योगीकरण की आवश्यकता को अपनी केंद्रीय
आर्थिक थीसिस के रूप में अपनाया। यह सच है कि 1905 तक यह अभियान एक भिक्षावृत्ति
वाला झुकाव रखता था, जिसमें असंख्य कांग्रेस प्रस्तावों के माध्यम से सरकार से तकनीकी शिक्षा को
बढ़ावा देने, अपने भंडार खरीद नियमों को संशोधित करने, घरेलू शुल्क के बोझ को कम करने और सबसे
बढ़कर, अपनी भारतीय विरोधी टैरिफ नीति को बदलने का आग्रह किया गया था। 1905 के बाद औद्योगिक
विनाश, आर्थिक क्षय, स्वदेशी और बहिष्कार की आवश्यकता के विषय हर जगह सुनाई देने लगे थे - न केवल
औपचारिक ग्रंथों और समाचार-पत्रों के लेखों में, बल्कि गीतों, नाटकों, जात्राओं और स्थानीय
भाषाओं के पर्चों में भी। 1905 के दिनों में पैदा हुए उत्साह ने स्वदेशी और
बहिष्कार एक दूसरे को "पारस्परिक रूप से प्रेरित" करने लगे, पहला दूसरे के लिए "सुनिश्चित बाजार" तैयार करने लगे । व्यापारी
वर्ग और स्वदेशी कंपनियों के निवेशकों के हाथों में अधिक पैसा होने की वजह से
स्वदेशी निर्माण में निवेश के लिए अधिक पूंजी उपलब्ध हुआ। औद्योगीकरण की रोजगार
सृजन क्षमता स्वदेशी प्रचार का एक अन्य प्रमुख विषय था। प्रफुल्लचंद्र रे द्वारा बंगाल
केमिकल्स की स्थापना के पीछे के उद्देश्यों को इस तरह से समझाते हैं - "हमारे
शिक्षित युवा, जैसे ही कॉलेज से बाहर आते थे, सरकार के अधीन किसी पद या
आसान नौकरी की तलाश में रहते थे... या ऐसा न होने पर किसी यूरोपीय व्यापारिक फर्म
में नौकरी की तलाश में रहते थे।” स्वदेशी के दिनों में
बहिष्कार के नारे ने बंगाल में राष्ट्रवादी विचारों के लगभग सभी वर्गों को एकजुट
कर दिया था। अंग्रेजी वस्तुओं का पूर्ण बहिष्कार
स्पष्टतः कभी भी व्यावहारिक राजनीति नहीं थी; स्वदेशी उद्योगों के विकास ने वास्तव में
मशीनरी और यहां तक कि कुछ प्रकार के सूती धागे के आयात को भी बढ़ावा दिया। यहां तक कि बंदे मातरम भी 'क्रमिक बहिष्कार' से अधिक कुछ नहीं चाहता था,
जिसमें मैनचेस्टर के सामान,
लिवरपूल नमक और विदेशी चीनी को मुख्य लक्ष्य बनाया गया था, जिसके अतिरिक्त जूते, सिगरेट, एनामेलयुक्त सामान और
विदेशी शराब को भी शामिल किया जा सकता था। सूती वस्तुओं, परिधान, तम्बाकू और शराब में
तीव्र गिरावट देखी गई।
अगस्त 1905 की तुलना में सितंबर 1906 में सूती
थानों के आयात में 22 प्रतिशत, सूत की लच्छी और सूत
में 44 प्रतिशत, नमक में 11 प्रतिशत, सिगरेटों में 55 प्रतिशत और जूतों में 48 प्रतिशत की कमी हुई। मैनचेस्टर के
कपड़ों की बिक्री में भारी गिरावट आई। 32,000 गांठों के स्थान
पर केवल 2,500 गांठें ही उठीं। स्वदेशी के रुझान ने हथकरघा, रेशम की बुनाई और कुछ अन्य पारंपरिक दस्तकारियों में नवजीवन का संचार किया।
कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला। 1906 में हथकरघा उत्पादन भारतीय
मिलों के उत्पादन से दोगुने से भी अधिक होने का अनुमान लगाया गया। स्वदेशी कपड़ा मिलें, माचिस, साबुन, चर्मशोधक और मिट्टी
के बर्तन बनाने के कारखाने जगह-जगह खुले। पी.सी. राय ने ‘बंगाल केमिकल फैक्टरी’ की स्थापना की। दि बंगलक्ष्मी कॉटन मिल्स
की स्थापना की गई। टैगोर की सहायता से स्वदेशी भंडार खुला। टाटा आयरन एंड स्टील ने सरकारी सहायता लेने से इंकार कर दिया। बैंक और
बीमा कंपनियों को खोलने में अनेक ज़मींदारों और व्यापारियों ने मदद की। जहाजरानी
संस्थान शुरू हुए। स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा
के रूप में सहकारी भंडार खोले गए। बंबई के मिल मालिक सस्ते दामों पर धोतियाँ देने
लगे। स्वदेशी बुनाई कंपनी खोली गई। मध्यम वर्ग में अधिक खपत वाली वस्तुओं सिगरेट, जूते आदि के आयात में गिरावट आई। आधुनिक उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए एक
समिति की स्थापना की गई। इसका लक्ष्य था विद्यार्थियों को तकनीकी प्रशिक्षण देने
के लिए जापान भेजने के लिए धनराशि जुटाना था।
उद्योगों के संरक्षक और उद्यमियों में अधिकांश
व्यवसायी बुद्धिजीवी वर्ग से संबद्ध थे। उनके लिए पूंजी की कमी एक बहुत बड़ा अवरोध
थी। ऐसे में व्यापारियों के लिए औद्योगिक उद्यमों में पूंजी लगाकर धन कमाने की
अपेक्षा आयातित वस्तुओं की एजेंसी चलाकर धन कमाना आसान था। मिलें खोलने से अच्छा
था कि पहले एक सुदृढ़ वितरण प्रणाली की स्थापना पर ध्यान दिया जाता। इन कारणों से,
सुमित सरकार कहते हैं कि, “स्वदेशी आन्दोलन बंगाल की अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में
अंग्रेजों के शिकंजे के लिए गंभीर चुनौती कभी नहीं बना।”
स्वदेशी आन्दोलन का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य
बंगाल-विभाजन का फैसला प्रशासनिक कारणों
से नहीं, राजनीतिक कारणों से लिया गया था। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में
राष्ट्रीय चेतना न सिर्फ विकसित हुई, बल्कि उसने जुझारू रुख अख्तियार कर लिया
था। भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केंद्र बंगाल था। अंग्रेजों ने इस राष्ट्रीय चेतना
पर आघात करने के उद्देश्य से बंगाल-विभाजन का निर्णय लिया। अंग्रेजों का उद्देश्य
एक ऐसे केंद्र को समाप्त करना था, जहाँ से
बंगाल और पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का संचालन होता था। वे मानते थे कि
अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताक़त थी, विभाजित होने से यह कमजोर पड़ जाती। बंगाल
के बंटवारे से उनके दुश्मन बंट कर कमजोर पड़ जाते। बंगाल विभाजन योजना में धार्मिक
आधार पर विभाजन भी शामिल था। उनकी योजना थी हिन्दू-मुस्लिम के बंटवारे से
राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना। यह भारतीय आन्दोलन पर एक सुनियोजित हमला था।
राष्ट्रवादियों को विभाजन के पीछे अंग्रेजी हुकूमत के असली मंतव्य का पता चल गया,
वे एकजुट होकर इसके विरोध में उठ खड़े हुए। विभाजन-विरोधी और स्वदेशी आन्दोलन शुरू
हो गया। सारे बंगालियों के बंधुत्व के प्रतीक के रूप में हिन्दुओं और मुसलमानों ने
एक-दूसरे की कलाइयों में राखी बांधी।
बंगाल विभाजन से न केवल बंगालियों में रोष
उत्पन्न हुआ वरन् सम्पूर्ण राष्ट्र ने इसे अपना अपमान समझा। 16 अक्तूबर, 1905 ई. में बंगाल के विभाजन की जब सरकारी घोषणा
की गई तो राष्ट्रीय नेताओं ने सशक्त शब्दों में इसका विरोध किया। सुरेन्द्र नाथ
बनर्जी ने कहा, “बंगाल का विभाजन हमारे ऊपर बम की तरह
गिरा। हमने समझा कि हमारा घोर अपमान किया गया है।” भारतीय जनता ने बंगाल के विभाजन के विरोध
में देश भर में अनेक सभाओं का आयोजन किया। गृह सचिव राइसले ने कहा, “यदि हमने इस विरोध को अभी नहीं दबाया तो
हम बंगाल को कभी विभाजित नहीं कर पाएंगे। विरोध को न दबा पाने का मतलब होगा एक
मज़बूत ताक़त को और मज़बूत होने का मौक़ा देना।” सरकार ने भी क्रूरतापूर्वक दमन चक्र चलाया
जिसका उत्तर जनता ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके तथा स्वदेशी आन्दोलन चलाकर
दिया। स्वदेशी आन्दोलन व बहिष्कार का सन्देश पूरे देश में फैल गया। तिलक ने
विशेषकर पुणे और बंबई में इस आन्दोलन का प्रचार किया। लाला लाजपत राय ने पंजाब और
उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में इस आन्दोलन को पहुँचाया। सैयद हैदर रज़ा ने
दिल्ली में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। चिदंबरम पिल्लै ने मद्रास प्रेसिडेंसी में
इसको नेतृत्व प्रदान किया। बिपिन चन्द्र पाल ने अपने जोशीले भाषणों से इस आन्दोलन
को गति प्रदान की। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इसे अपने कार्यक्रमों में
प्रमुखता दी।
स्वदेशी आन्दोलन में संघर्ष की जितनी भी
धाराएं फूटीं उनमें सबसे अधिक सफलता मिली विदेशी माल के बहिष्कार आन्दोलन को। स्थान-स्थान
पर विदेशी कपड़ों की होली जलायी गयी।
विदेशी वस्तुओं को लोगों ने हाथ लगाने से मना कर दिया। विदेशी जूतों की जगह
विद्यार्थियों और छात्रों ने नंगे पांव स्कूल जाना शुरू कर दिया। विलायती कागजों
पर लिखने के बजाए छात्रों ने परीक्षा देने से इंकार कर दिया। कई मरीजों ने विदेशी
दवा लेने से मना कर दिया। मोचियों, धोबियों और रसोइयों
ने अंग्रेजों और विदेशी माल का व्यवहार करने वाले भारतीय मालिकों के यहाँ काम करने
से मना कर दिया। मिठाई बनाने वालों ने विदेशी चीनी का मिठाइयों में इस्तेमाल करना
बंद कर दिया। पुजारियों ने विदेशी चीजों से पूजा न करने की क़सम खाई। स्त्रियों ने
विदेशी चूड़ियों का इस्तेमाल छोड़ दिया। विदेशी सामान बेचने वाली दुकानों के सामने
धरना दिया जाने लगा। बहिष्कार को प्रभावशाली बनाने के लिए सामाजिक और धार्मिक दबाव
डाले गए। विदेशी सामान बेचने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। विदेशी वस्तुओं
का उपयोग करने वालों को सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में शामिल नहीं किया जाता था।
रेल, पटसन उद्योग और प्रेस से जुड़े श्रमिकों ने
बहिष्कार के समर्थन में हड़ताल किया। 1906 तक बहिष्कार आन्दोलन पूरे बंगाल में फैल
चुका था। इस आन्दोलन के कारण विशाल जनसभाओं और प्रदर्शनों की बाढ़ आ गई। इससे लोगों में राजनीतिक चेतना का
विस्तार हुआ। स्वराज के लिए लोगों के दिल में हलचल तेज़ हुई।
स्वदेशी साम्राज्यविरोधी आन्दोलन का एक
राजनीतिक हथियार और स्वराज की उपलब्धि के लिए आत्मनिर्भरता का एक प्रशिक्षण था। स्वदेशी
से स्वावलंबन की दिशा में देश आगे बढ़ा। स्वदेशी आन्दोलन ने ‘आत्म-निर्भरता’ का
नारा दिया। सरकार के खिलाफ संघर्ष चलाने के लिए जनता में स्वावलंबन की भावना भरना
बहुत ज़रूरी था। स्वावलंबन और आत्म-निर्भरता का प्रश्न स्वाभिमान, आदर और
आत्मविश्वास से जुड़ा था। इस दिशा में अनेक क्षेत्रों में कई प्रयास किए गए। शिक्षा
के क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा और देशी भाषाओं में शिक्षा देने पर अधिक बल दिया गया। राष्ट्रीय शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया तथा सरकारी शिक्षा संस्थाओं
का बहिष्कार किया गया। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की
स्थापना की गयी। दुखद बात यह है कि, जैसा कि सुमित सरकार मानते हैं, “राष्ट्रीय शिक्षा में नौकरियों के अवसर
नगण्य थे, अतः यह विद्यार्थी समुदाय को आकर्षित
करने में असफल रही।” बाद के दिनों में कुछ विद्यालयों ने तब के राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना
योगदान दिया और क्रांतिकारियों के भरती केंद्र बने। बंगाल विरोधी आन्दोलन ने शिक्षा संस्थाओं
के अतिरिक्त स्वदेशी उद्योगों की स्थापना के भी प्रयत्न किये जिससे व्यापारिक जनता
तथा श्रमिकों में भी राष्ट्रीयता की भावना का विकास हुआ। आत्मनिर्भरता के लिए
स्वदेशी उद्योगों की ज़रुरत महसूस हुई। स्वदेशी कल-कारखाने स्थापित किए गए। कपड़ा
मिलें, साबुन, माचिस के कारखाने, चर्म उद्योग, बैंक, बीमा कंपनियां अस्तित्व में आईं।
स्वदेशी आन्दोलन के कार्यक्रम और
गतिविधियाँ बहुआयामी थीं। इसने समाज के बहुत बड़े तबके को अपने दायरे में लिया। आम
जनता का बहुत बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय राजनीति में भागीदार बना। राष्ट्रीय राजनीति का
सामाजिक दायरा बढ़ा। जमींदार, निम्न माध्यम वर्ग, छात्र, महिलाएं सब
इसमें शामिल हुईं। पहली बार मज़दूर वर्ग की आर्थिक कठिनाइयों को राजनीतिक स्तर पर
उठाकर उसे राजनीतिक संघर्ष से जोड़ा गया। विदेशी मालिकों के कारखाने में जायज़
मांगों के लिए हड़तालें होने लगीं। स्वदेशी आन्दोलन ने जितने किसानों को आन्दोलन के
लिए तैयार किया या उनमें राजनीतिक चेतना जगाई वह अपने आप में स्वदेशी आन्दोलन की
बहुत बड़ी सफलता थी।
स्वदेशी आन्दोलन के दौरान बंगाल में संघ, समितियां और स्वयंसेवी संगठन बड़ी संख्या और विविधता में फैले। सुमित सरकार मानते हैं कि ‘समितियों’ अथवा ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक’ आन्दोलन का उदय स्वदेशी युग की बड़ी
उपलब्धियों में से एक है। इस अवधि में मुख्य रूप से दो तरह
के संगठन थे,
एक उदारवादियों का राजनीतिक संघ और दूसरा उग्रवादियों का गुप्त समाज। ये समितियां सदस्यों को प्रशिक्षण देकर राष्ट्रीय
आन्दोलन के लिए तैयार कराती थीं। इस समय के दौरान बड़ी मात्रा में राष्ट्रवादी साहित्य की रचना की गयी। रवीन्द्रनाथ टैगोर के स्वदेशी गीतों ने जनता के क्रोध और पीड़ा को अभिव्यक्ति
दी। बंगाली प्रतिरोध करने, दुःख झेलने और त्याग करने के लिए संगठित होकर एक व्यक्ति के रूप में खड़े हो
गए। संवैधानिक आंदोलन और गुप्त समाज दोनों सक्रिय थे। इस संबंध में अनुशीलन समिति, डॉन सोसायटी, एंटी-सर्कुलर सोसायटी और स्वदेश बांधब समिति जैसी
संस्थाएं उल्लेखनीय है। 1905 में प्रमुख और सम्मानित सज्जनों के ढीले-ढाले संघों
के तीन प्रमुख संगठन थे - बड़े ज़मींदारों का ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन, बंगाल लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन और इंडियन एसोसिएशन। इनमें से राजा प्यारेमोहन
मुखर्जी की ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन लगभग पूर्णतः वफादार संस्था बन गयी थी। सुरेन्द्रनाथ
की इंडियन एसोसिएशन ने टाउन हॉल विरोध सभाओं के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभाई। बंगाल
लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन अपने ऊर्जावान सचिव आशुतोष चौधरी के नेतृत्व में कहीं अधिक
सक्रिय और प्रखर थी।
बंगाल के विभाजन से बौद्धिक वर्ग में
जागृति उत्पन्न हुई। कांग्रेस के बुद्धिजीवियों में उग्रता की भावना तीव्र हुई तथा
वे पूर्णतया सरकार विरोधी हो गये। लाल-बाल-पाल राष्ट्रीय जन-नेता के रूप में उभरे।
बंगाल के विभाजन के बाद ही कांग्रेस उदारवादियों तथा उग्रराष्ट्रवादियों में
विभाजित हो गयी। इसके अतिरिक्त देश में उग्रराष्ट्रवादी आन्दोलन भी प्रारम्भ हो
गये। ब्रिटिश शासन के अत्याचारों के विरोध में देश के नवयुवकों ने संगठित होकर
क्रांतिकारी गतिविधियाँ प्रारम्भ कर दी। बंगाल-विभाजन विरोधी आन्दोलन को मिले
व्यापक जन-समर्थन से ब्रिटिश सरकार घबरा गयी, अतः हिन्दू और मुसलमानों को लड़ाने के लिए
मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन देना आरम्भ कर दिया। अन्य शब्दों में, “फूट डालो तथा राज करो” की नीति को शुरू किया। बंगाल-विभाजन के
विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया होने के कारण ब्रिटिश सरकार को इसे 1911 ई. में रद्द करना पड़ा, जिससे कांग्रेस के उग्रराष्ट्रवादियों की प्रतिष्ठा
बढ़ी।
यदि गहराई से देखा जाए तो बंगाल-विभाजन से
ही पाकिस्तान का बीजारोपण हुआ। मुस्लिम लीग के 1906 के अधिवेशन में जो प्रस्ताव पास हुए, उनमें से एक यह भी था कि बंगाल-विभाजन मुसलमानों के लिए अच्छा है और जो लोग
इसके विरुद्ध आंदोलन करते हैं, वे गलत काम करते हैं और वे मुसलमानों को नुकसान
पहुंचाते हैं। बाद में लीग के 1908 के अधिवेशन में भी यह प्रस्ताव पारित हुआ
कि कांग्रेस ने बंगाल-विभाजन के विरोध का जो प्रस्ताव रखा है, वह स्वीकृति के योग्य नहीं। बंगाल विभाजन से पहले, दोनों समुदायों के कई सदस्यों ने सभी बंगालियों के लिए राष्ट्रीय एकता की
वकालत की थी। विभाजन के बाद दोनों समुदायों ने अपने-अपने राजनैतिक मुद्दे विकसित
कर लिए। मुस्लिमों ने भी अपनी समग्र संख्यात्मक शक्ति के बल पर विधानमंडल में
वर्चस्व हासिल किया। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदुओं और मुसलमानों
के लिए दो स्वतंत्र राज्यों के निर्माण की माँग उठने लगी, अधिकांश बंगाली हिन्दू अब हिंदू बहुमत क्षेत्र और मुस्लिम बहुमत क्षेत्र के
आधार पर होने वाले बंगाल के बंटवारे का पक्ष लेने लगे।
उपसंहार
बंगाल-विभाजन और स्वदेशी आन्दोलन के
दूरगामी परिणाम सामने आये जिनके कारण भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक नई दिशा
मिली। कर्जन के छ: वर्ष के लम्बे शासनकाल ने स्वाधीनता आन्दोलन की दिशा वास्तविक
रूप में बदल दी। स्वदेशी आन्दोलन उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारतीयों का पहला सशक्त
राष्ट्रीय आन्दोलन था। इसी के साथ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की नई चेतना का विकास
हुआ। स्वदेशी आन्दोलन वास्तव में भारत में आधुनिक राजनीति की शुरुआत थी। स्वदेशी
आन्दोलन ने बैठकों, जनसभाओं, यात्राओं, प्रदर्शनों आदि के माध्यम से जनता के एक बड़े तबके को आधुनिक राजनीतिक
विचारधारा से परिचित कराया। स्वदेशी आन्दोलन ने समाज के उस बड़े तबके में
राष्ट्रीयता की चेतना का संचार किया, जो उससे पहले राष्ट्रीयता के बारे में
अनभिज्ञ था। इस आन्दोलन ने औपनिवेशिक विचारधारा और अंग्रेजी हुकूमत को आर्थिक और
राजनीतिक क्षेत्र में काफी क्षति पहुंचाई। यह संघर्ष राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव
बना। इस पर भावी संघर्ष की इमारत खड़ी होने वाली थी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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