बुधवार, 6 नवंबर 2024

128. महामारी के समय की गई सेवा

 गांधी और गांधीवाद

 128. महामारी के समय की गई सेवा

 19 मार्च, 1904शनिवार

 शनिवार की सुबह (19 मार्च) 6.30 बजे डॉ. पाकेस और जिला सर्जन डॉ. मैकेंजी ने उस स्थान का दौरा किया और रिपोर्ट दी कि उस समय तक मरीजों द्वारा प्रदर्शित लक्षण तीव्र निमोनिया के थे। अभी तक चिकित्सा राय नहीं बनी थी कि लक्षण क्या दर्शाते हैं, लेकिन बीमारी की गंभीरता को देखते हुए डॉ. मैकेंजी बाद में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मरीज जिस बीमारी से पीड़ित थे, वह न्यूमोनिक प्लेग थी।

कुली बस्ती में प्लेग फैल चुका था। गांधीजी और उनके सहयोगी अपनी जान पर खेलकर उन तेईस मरीज़ों की देखभाल कर रहे थे। सरकार की तरफ़ से रैंड प्लेग कमिटी द्वारा अधिकृत रिपोर्ट सुबह-सुबह ज़ारी की गई वह इस प्रकार थी,

At 6.30 a.m. on the 19th, Dr. Mackenzie and the writer visited the location and found some seventeen patients either dead or dying.’’ "19 तारीख को सुबह 6.30 बजे, डॉ. मैकेंज़ी और लेखक ने उस स्थान का दौरा किया और पाया कि लगभग सत्रह मरीज़ या तो मृत थे या फिर मरने की स्थिति में थे।"

टाउन क्लर्क ने भी उसी सुबह गांधीजी से मुलाकात की और उन्हें बताया कि वह मरीजों की देखभाल करने में असमर्थ है। वह टाउन काउंसिल की ओर से कोई वित्तीय जिम्मेदारी भी नहीं ले सकता। हाँ उसने एक बड़े गोदाम, सरकारी एंट्रेपोट को अस्थायी अस्पताल के रूप में इस्तेमाल करने और एक नर्स उपलब्ध कराने का काम ज़रूर किया। उसने गांधीजी को यह भी बताया कि डॉ. मैकेंजी व्यवस्था की देखरेख करेंगे और विस्तृत जानकारी डॉ. गॉडफ्रे को सौंपेंगे। नतीजतन, हर बिस्तर, गद्दा, सभी चिकित्सा सुविधाएं और भोजन और हर चीज को भारतीयों को बिना किसी मदद के तत्काल खोजना पड़ा।

शाम की रिपोर्ट में लिखा गया था,

On Saturday morning, the 19th, the patients had been removed from their homes to a vacant stand No. 36, and temporary arrangements had been made by the Indians themselves for nursing and feeding the sufferers, chiefly through the agency of M.K. Gandhi and his friends.’’ "शनिवार की सुबह, 19 तारीख को, मरीजों को उनके घरों से निकालकर खाली पड़े स्टैंड नंबर 36 पर ले जाया गया, और भारतीयों ने स्वयं ही मरीजों की देखभाल और भोजन के लिए अस्थायी व्यवस्था की, मुख्य रूप से एम.के. गांधी और उनके मित्रों के माध्यम से।"

गांधीजी द्वारा किए गए इस महान कार्य की यह सरकारी रिपोर्ट थी ! मरीज़ और आसपास के लोग काफ़ी परेशान थे। इन मरीज़ों को बस्ती से अलग करना बहुत ज़रूरी था। इस रोग का संक्रमण बहुत तेज़ी से फैलता है। गांधीजी ने म्युनिसिपैलिटी को मदद के लिए पत्र लिखा। टाउन क्लर्क ने गांधीजी के पत्र को पाते ही गांधीजी से संपर्क किया और उनसे कहा, “हमारे पास ऐसी परिस्थिति में अपने-आप अचानक कुछ कर सकने के लिए कोई साधन नहीं है। आपको जो मदद चाहिए, आप मांगिए।  टाउन-काउंसिल जितनी मदद बन सकेगी उतनी वह करेगी।

इस तरह के व्यवहार ने गांधीजी और उनकी टीम का हौसला बढ़ाया। गांधीजी को खतरे की कोई चिंता नहीं थी। उन्होंने खुशी-खुशी काम में खुद को झोंक दिया और उन्हें जोहान्सबर्ग में विभिन्न दयापूर्ण कामों के लिए साइकिल चलाते हुए देखा जा सकता था। जोहान्सबर्ग की नगरपालिका की ओर से जो खाली गोदाम गांधीजी को सौंपा गया था, जिसे रोगियों के लिए अस्थाई अस्पताल के रूप में उपयोग किया जा सकता था। उस ख़ाली पड़े हुए म्युनिसिपल गोदाम पर गांधीजी ने क़ब्ज़ा जमाया। वह गोदाम काफ़ी गन्दा था। उसके साफ़ करने की जिम्मेदारी म्युनिसिपैलिटी ने नहीं उठाया। उस मैले और गन्दे मकान की साफ़-सफ़ाई गांधीजी ने ख़ुद की। लगभग तीस लोगों ने इस काम के लिए स्वेच्छा से काम किया, और इस जगह को जल्दी से रहने योग्य बना दिया गया। गांधीजी के मार्गदर्शन में स्वयंसेवकों ने नए परिसर की सफाई की, उसे कीटाणुरहित किया और 25 बिस्तर लाए। लोकेशन में रहने वाले भारतीय लोगों की मदद से खटिया आदि की व्यवस्था की गई। देखते-ही-देखते वह गोदाम एक कामचलाऊ अस्पताल में बदल दिया गया। दोपहर 3.30 बजे तक 25 मरीज भर्ती हो चुके थे। किंतु तीमारदारी का चार्ज अब भी डॉ. गॉडफ्रे के हाथ में ही था। डॉ. गॉडफ्रे ग्लासगो से लौटे थे और जोहान्सबर्ग में प्रैक्टिस कर रहे थे। गांधीजी द्वारा मदद के लिए की गई अपील के जवाब में उन्होंने तुरंत सहमति दे दी, हालांकि उन्हें पता था कि उन्हें इस काम के लिए भुगतान नहीं किया जा सकता। सबसे पहले एक मामले में एक युवक को दयनीय हालत में पाया गया, जिसके शरीर पर बहुत कम कपड़े थे। डॉ. गॉडफ्रे ने उस बेचारे के लिए अपना एक स्लीपिंग सूट भेजा और हर संभव चिकित्सा सहायता दी। उन्होंने शुक्रवार (18 मार्च) की रात से लगातार काम किया, खुद को थोड़ा सा खाना खाने का भी समय भी नहीं दिया।

लेकिन डॉ. गॉडफ्रे नर्सों के बिना कुछ नहीं कर सकते थे। कल्याणदास, जो बहुत युवा और बहुत मजबूत नहीं थे, ने शुक्रवार शाम 5 बजे से सोमवार आधी रात तक बीमारों और मरने वालों की देखभाल करते हुए निडरता और समर्पण का एक शानदार उदाहरण पेश किया। उन तीन दिनों और रातों के भयानक दृश्य कठोर लोगों की नसों को भी हिला देने के लिए पर्याप्त थे। बीमारी इतनी भयंकर थी कि प्रलाप की अवस्था के चरम पर रोगी बिस्तर से उठकर कुछ दूर भाग जाता था, जब तक कि या तो कमजोरी या पाँच या छह सहायकों के प्रयासों से वह काबू में नहीं आ जाता। यू.बी. मेहता और नंदलाल शाह ने उन काले दिनों में अस्थायी अस्पताल में शानदार काम किया। गुणवंतराय देसाई और मानेकलाल ने संक्रमित क्षेत्र में आने-जाने तथा डॉक्टरों और नर्सों की सहायता करने में बहुमूल्य सहायता प्रदान की। बहादुर और दयालु, मदनजीत व्यावहारिक अस्पताल की जान और आत्मा थे। उनके व्यक्तिगत उदाहरण ने अन्य नर्सों में साहस और उत्साह का संचार किया, और स्थान पर उनकी उपस्थिति ने लोगों में व्याप्त भय को कम करने में बहुत मदद की। जिस अथक उत्साह और निडरता के साथ युवाओं और सभी ने काम किया, उससे गांधीजी को बहुत खुशी हुई। जैसा कि उन्होंने कहा, "डॉक्टर गॉडफ्रे और सार्जेंट मदनजीत जैसे अनुभवी व्यक्ति की बहादुरी को समझा जा सकता है। लेकिन इन नौसिखिए युवाओं की हिम्मत!" उन्होंने अपने साप्ताहिक इंडियन ओपिनियन में एक अंग्रेज की कलम से लिखा एक लेख प्लेग के नायक शीर्षक से प्रकाशित किया, जिसमें प्लेग के दौरान स्वयंसेवी नर्सों के रूप में इन युवाओं द्वारा प्रदर्शित सेवा और आत्म-बलिदान की भावना की प्रशंसा की गई थी।

विशेष सेवा करने को तो कुछ था नहीं। दवा-दारू भी नहीं थी। मरीज के मल-मूत्र साफ़ करना और उन्हें आराम देना ही बड़ा काम था। जैसे-तैसे रात कटी। जोहान्सबर्ग में प्लेग का प्रकोप सबसे घातक था। मृत्यु दर लगभग सौ प्रतिशत थी। भर्ती किए गए 25 रोगियों में से केवल 5 ही शनिवार रात को जीवित बचे थे।

यह प्लेग बहुत खतरनाक किस्म का था। शुरू में तो हलका बुखार और सर्दी-खांसी होती थी और वही उच्च तापमान वाले ज्वर में तब्दील हो जाता था। खून की उल्टी होती थी एक दिन के भीतर मरीज को बेहोशी का दौरा पड़ने लगता था। तीसरे दिन तक मृत्यु की संभावना पैदा हो जाती थी। चेहरे का रंग अजीब तरह से उतर जाता है। थूक में छोटे-छोटे उजले-उजले कण भरे होते थे। सांस से घर्र-घर्र की तेज़ आवाज़ आती थी। यह बीमारी काफ़ी संक्रामक भी थी और इसका कोई ज्ञात उपचार भी नहीं था। घातक मामलों की संख्या अचानक बढ़ गई थी। उनमें से ज़्यादातर पहले चरण में ही हो गए थे। जैसे ही भारतीय समुदाय को एहसास हुआ कि क्या हुआ है, उन्होंने पूरी दृढ़ता के साथ इस खतरे को खत्म करने के लिए काम किया। सभी ने अधिकारियों द्वारा जारी किए गए नियमों का पालन किया।

जोहान्सबर्ग का सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग शुरू में अपनी प्रतिक्रिया में धीमा था, लेकिन जब उसे खतरे का अहसास हुआ, तो उसने विशेष प्लेग अधिकारियों को नियुक्त किया, जिन्होंने खतरे से निपटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दूसरे दिन म्युनिसिपैलिटी ने जोहान्सबर्ग जनरल हॉस्पिटल की एक नर्स को भेज दिया। डॉ. पेक्स को प्रभारी बनाया गया। नर्स अपने साथ ब्रांडी की बोतल और कुछ दवाइयों के साथ कुछ अन्य सामान भी लेते आई थी। हालाकि नर्स तीमारदारी के लिए तैयार थी, फिर भी गांधीजी और उनके सहयोगियों ने नर्स को बीमारों को छूने नहीं दिया। उनकी यह कोशिश थी कि उसे किसी संकट में नहीं पड़ने दिया जाए। नर्स दवाई लाती, उन्हें देती और ऊपर की सफ़ाई रखती। उन दिनों प्लेग के रोगियों को नियमित अंतराल पर ब्रांडी देने का प्रचलन था। इसलिए बीमारों को ब्रांडी देने को कहा गया था। रोग की छूत से बचने के लिए नर्स खुद तो थोड़ी-सी ब्रांडी लिया करती ही थी, उसने उन सबों को भी लेने को कहा।

गांधीजी को न तो यह अच्छा लगा और न ही उन्हें उसमें कोई दिलचस्पी थी। वे तो बीमारों को भी ब्रांडी नहीं देना चाहते थे। वास्तव में उन्हें विश्वास ही नहीं था कि ब्रांडी से कोई फ़र्क़ पड़ेगा भी। उन्होंने तीन ऐसे रोगी ढूंढ़ निकाले जो उनसे उनका इलाज कराने को तैयार थे। ये तीन मरीज़ ब्रांडी नहीं लेना चाहते थे। डॉ. गॉडफ्रे की इज़ाज़त से और उन मरीज़ों की सहमति से गांधीजी ने मिट्टी की लेप का प्रयोग शुरू किया। उनके माथे और छाती में जहां-जहां दर्द होता था, वहां-वहां मिट्टी की पट्टी रख दी गई। इन तीन में से दो बीमार बचे तीसरे का देहान्त हो गया। लेकिन ब्रांडी से जिन बीस लोगों का उपचार किया जा रहा था, उन सभी का देहान्त तो गोदाम में ही हो गया था।

शनिवार को भर्ती किए गए पच्चीस रोगियों में से, रविवार की रात को केवल पाँच जीवित थे। इसके बाद प्लेग के रोगियों को रीटफोंटेन, लाज़ारेटो ले जाया गया, और श्री गांधी और डॉ. गॉडफ्रे के नेतृत्व में क्लिप्सप्रूट में एक संदिग्ध शिविर बनाया गया। लेज़रेटो संक्रामक रोगों के लिए बीमारों का अस्पताल था, जो जोहान्सबर्ग से सात मील दूर स्थित था। रविवार20 मार्च को दोनों बचे हुए बीमारों को म्युनिसिपैलिटी द्वारा वहां पहुंचाया गया। गांधीजी को इस काम से मुक्ति मिली। कुछ दिनों के बाद गांधीजी को मालूम हुआ कि ब्रांडी के रक्षण में विश्वास करने वाली उस नर्स को भी महामारी ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया और उसकी भी मृत्यु हो गई। गांधीजी ने उसे बीमारों को छूने नहीं दिया था ताकि वह रोग-मुक्त रहे, पर होनी को कुछ और ही मंज़ूर था।

यूरोपीय लोगों के रहने वाले इलाके भी बीमारी से अछूते नहीं थे, इससे विभाग पूरी तरह से जाग गया। निवासी स्थान को खाली करना ज़रूरी हो गया था। गांधीजी ने विभाग की इस चिंता की सराहना की और भारतीय स्थान को खाली करने के लिए नगरपालिका को अपना पूरा सहयोग दिया। इसके सभी निवासियों को शहर से लगभग तेरह मील दूर क्लिप्सप्रूट के एक शिविर में स्थानांतरित कर दिया गया, जहाँ वे पुनर्वास होने तक कैनवास के नीचे रहते थे। खाली होने के तुरंत बाद, स्थान को आग लगा दी गई। कई अन्य उपाय किए गए। जल्द ही महामारी के प्रकोप पर काबू पा लिया गया, हालांकि कुछ समय तक छिटपुट मामले जारी रहे।

हालाँकि यह महामारी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई थी, लेकिन इसका आतंक समाप्त हो चुका था, और आधिकारिक तौर पर यह अधिसूचित किया गया था कि जो कुछ मामले हो सकते थे, वे इतने घातक नहीं होंगे। इसलिए घबराने की कोई आवश्यकता नहीं थी। फिर भी यह भ्रम फैलाया गया कि केवल भारतीय स्थान ही संक्रमित था और प्लेग को भारतीयों पर विशेष प्रतिबंध लगाने और अक्षमताएँ लगाने के लिए आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। पीटर्सबर्ग, क्रूगर्सडॉर्प और पोटचेफस्ट्रूम में भारतीय समुदाय की कठिन परिस्थिति का पूरा फायदा उठाया गया, जैसा कि डॉ. पेक्स ने एक बार सच कहा था, ''प्लेग को रोकने के बजाय भारतीयों को खत्म करने के लिए"। भारतीय उद्यम के प्रति ईर्ष्या को बिना किसी रोक-टोक के पूरी छूट दी गई; प्लेग संबंधी सावधानियों की आड़ में भारतीय व्यापार को बर्बाद कर दिया गया, तथा उनके मार्ग में सभी प्रकार की असुविधाएं उत्पन्न की गईं। क्रुगर्सडॉर्प में प्लेग का एक भी मामला नहीं था। लेकिन अधिकारी अचानक इस नतीजे पर पहुँचे कि उन्हें लोकेशन के सभी निवासियों को क्लिप्सप्रूट कैंप में ले जाना चाहिए। भारतीयों के पास इस अत्याचारपूर्ण कार्रवाई से नाराज होने के सभी कारण थे, लेकिन उनके खिलाफ श्वेत पूर्वाग्रह की उग्रता को देखते हुए, जो प्लेग के प्रकोप के आधिकारिक रूप से सबसे पहले उनके बीच पाए जाने से और भी बढ़ गई थी, गांधीजी ने महसूस किया कि फिलहाल उनके लिए अधिकारियों की इच्छा के अनुसार चलना बेहतर होगा। पीटर्सबर्ग में भी स्थिति लगभग वैसी ही थी। लेकिन, भारतीयों के खिलाफ अघोषित युद्ध में, पोटचेफस्ट्रूम इस सूची में सबसे ऊपर था। पुराने स्थानों से भारतीयों को अचानक हटाने का मतलब था कि उन्हें हजारों पाउंड का नुकसान हुआ।

नेटाल मर्करी  ने गांधीजी द्वारा विपत्ति के समय में की गई इस सेवा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। गांधीजी ने लोगों को यह बताना आवश्यक समझा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के रखवालों की ओर से किस तरह की चूक के कारण जोहान्सबर्ग में तथाकथित कुली स्थान पर भयावह त्रासदी हुई। जब उन्होंने देखा कि जो कुछ हुआ उसके लिए भारतीयों को दोषी ठहराया जा रहा है तो वे चुप नहीं रह सकते थे। जो लोग भारतीय उद्यम से ईर्ष्या करते थे, वे महामारी का पूरा फायदा उठाना चाहते थे। अधिकारी प्लेग से बचाव के नाम पर भारतीय व्यापारियों को हर प्रकार की असुविधा में डालकर उनकी मदद कर रहे थे। बाहरी जिलों में स्थिति विशेष रूप से खराब थी। गांधीजी नहीं चाहते थे कि ये घटनाएं अनदेखी रहें और उन्होंने इनके बारे में इंडियन ओपिनियन में विस्तार से लिखा। जिस तरह से लापरवाही बरती गई थी, समाचार पत्रों को लिखे गए एक पत्र में गांधीजी ने म्युनिसिपैलिटी को इस महामारी के लिए निर्मम उपेक्षा का दोषी और प्लेग फूटने का जिम्मेदार ठहराया। वह इस बात को लेकर चिंतित थे कि महामारी के बाद की स्थिति को लंदन के अधिकारियों द्वारा जोहान्सबर्ग नगरपालिका की घोर लापरवाही के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जिसके कारण इस शहर के आसपास के क्षेत्रों में प्लेग फैल गया। उन्होंने इस विषय पर एक विस्तृत नोट दादाभाई नौरोजी को भेजा, जिन्होंने इसे उपनिवेशों के राज्य सचिव लिटलटन को भेज दिया, तथा गांधीजी की इस आशंका से उन्हें अवगत कराया कि इस महामारी का इस्तेमाल भारतीयों पर और अधिक प्रतिबंध लगाने के बहाने के रूप में किया जा रहा है। जब औपनिवेशिक कार्यालय ने लॉर्ड मिलनर से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने यह कहते हुए टाल दिया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के खिलाफ लगाए गए आरोप बिल्कुल अनुचित थे। दादाभाई की बात सुनकर गांधीजी ने लॉर्ड मिलनर को सीधे पत्र लिखकर ट्रांसवाल सरकार के खंडन को चुनौती दी और उन्हें यह एहसास दिलाया कि उन्होंने जो कहा था वह एकदम सच था। नौरोजी को उन्होंने स्पष्ट कर दिया: ‘... मुझे अपने पत्र से कुछ भी वापस नहीं लेना है... और मैं अपनी जिम्मेदारी के पूरे अहसास के साथ यह लिख रहा हूँ... अगर मैंने अपने पत्र में जो कुछ भी कहा है, उससे कम कुछ भी कहा होता तो मैं सत्य की सेवा नहीं कर रहा होता... लेकिन जोहान्सबर्ग नगरपालिका की आपराधिक लापरवाही के कारण यह प्रकोप कभी नहीं हुआ होता। मार्च में हुई भयानक मौतों के लिए इसे और केवल इसे ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह बहुत सम्मान की बात है कि स्थिति का एहसास होने के बाद, इसने आपदा से निपटने में पानी की तरह पैसा बहाया, लेकिन यह काम कभी भी अतीत को नहीं बदल सकता।’

भारतीयों में यह प्रकोप केवल नगर परिषद की उपेक्षा के कारण था, यह इस तथ्य से सिद्ध होता है कि बाहरी जिलों में भारतीय लगभग पूरी तरह से स्वस्थ थे। गांधीजी का आरोप अकाट्य था और ऐसे औचित्य और साहस के साथ लगाया गया था कि जोहान्सबर्ग के अनेक गोरे निवासी उनके प्रशंसक बन गए। इनमें से तो अनेक जीवन भर उनके मित्र और सहयोगी रहे। इनमें से एक थे अल्बर्ट वेस्ट। इनके बारे में अलग से लिखा जाएगा। संकट एक महीने तक रहा। उस दौरान जोहान्सबर्ग में मरने वालों की संख्या एक सौ तेरह थी, जिसमें पच्चीस गोरे, पचपन भारतीय, चार "अश्वेत" लोग और उनतीस मूल निवासी शामिल थे। इन दिनों गांधीजी और अन्य सज्जनों के काम के अलावा, एल. डब्ल्यू. रिच ने भी अमूल्य मदद की, जो लंदन में दक्षिण अफ्रीका ब्रिटिश भारतीय समिति के सचिव के रूप में बहुत प्रसिद्ध हुए। उस समय वे गांधीजी के अनुचर थे। अपने जीवन को जोखिम में डालकर उन्होंने प्लेग के रोगियों की देखभाल की और बिना किसी हिचकिचाहट के अपने-आपको भारतीय उद्देश्य के लिए समर्पित कर दिया।

हालाँकि, उन शुरुआती महत्वपूर्ण दिनों के त्वरित उपाय ने इस महामारी की ताकत को तोड़ दिया। जोहान्सबर्ग के शानदार मौसम और ऊँचाई के कारण, नगर परिषद द्वारा उठाए गए सशक्त कदमों के कारण प्लेग को आगे बढ़ने से रोका जा सका और शहर ने एक बार फिर खुलकर सांस लेना शुरू कर दिया। इस बीच, जोहान्सबर्ग अपने रास्ते पर चलता रहा, अपने खतरे से लगभग बेखबर, मुट्ठी भर भारतीयों द्वारा की गई सेवाओं के प्रति बिल्कुल असंवेदनशील। गांधीजी और उनके चार सहयोगी लगातार इन रोगियों के संपर्क में रह रहे थे, लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं हुआ। हालाकि छूत से असंक्राम्यता की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं थी, फिर भी गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं

वे (तीन जिन्हें ‘लेज़रेटो’ भेजा गया) बीमार कैसे बचे और हम (गांधीजी, मदनजीत और अन्य कार्यकर्ता) महामारी से किस कारण मुक्त रहे, सो कोई कह नहीं सकता। पर मिट्टी के उपचार के प्रति मेरी श्रद्धा और दवा के रूप में भी शराब के उपयोग के प्रति मेरी अश्रद्धा बढ़ गई। मैं जनता हूं कि यह श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों निराधार मानी जाएंगी। पर उस समय मुझ पर जो छाप पड़ी थी और जो अभी तक बनी हुई है उसे मैं मिटा नहीं सकता।

जोसेफ डोक कहते हैं, जो लोग जानते हैं, वे एक और कहानी याद करते हैं: "अब वहाँ एक गरीब बुद्धिमान व्यक्ति मिला, और उसने अपनी बुद्धि से शहर को बचा लिया; फिर भी किसी व्यक्ति ने उस गरीब व्यक्ति को याद नहीं किया।" इतिहास खुद को दोहराता है।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।