मंगलवार, 26 नवंबर 2024

151. क्रांतिकारी उग्रपंथ का आरंभ

 राष्ट्रीय आन्दोलन

151. क्रांतिकारी उग्रपंथ का आरंभ


वीर क्रांतिकारी खुदीराम बोस

प्रवेश

स्वदेशी युग के किसी भी पहलू को जीवनी, संस्मरण और ऐतिहासिक कार्यों में क्रांतिकारी आतंकवाद की तुलना में अधिक ध्यान नहीं मिला है। यह अपने अद्वितीय रोमांटिक आकर्षण के कारण चर्चा में रहा है। बंगाल विभाजन के दौरान भारत में एक वर्ग तो वह था, जो उदार और नर्म विचारों वाला था। यह वर्ग (नरमपंथी) सरकार को आवेदन देने और अपील करने की नीति में विश्वास रखता था। दूसरा वर्ग वह था जो आत्मशक्ति द्वारा स्वदेशी की भावना का विकास चाहता था। यह वर्ग (गरमपंथी) बहिष्कार की नीति अपनाकर अंग्रेजी अर्थव्यवस्था और प्रशासन पर चोट पहुँचाना चाहता था। तीसरा वर्ग भी था, जो यह मानता था कि चूंकि ताकत के बल पर अंग्रेजी राज की स्थापना हुई थी, इसलिए उसे शक्ति के बल पर हटाकर ही स्वराज की स्थापना संभव है। इस वर्ग (क्रांतिकारी उग्रपंथी) को नरमपंथियों की उदारता से परहेज था। नरमपंथी राजनीति अव्यावहारिक हो चुकी थी। वहीँ दूसरी तरफ गरमपंथी राजनीति भी सरकारी दमन के आगे असफल सिद्ध हो रही थी। इसलिए यह तीसरा वर्ग अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रान्तिकारी आन्दोलन का सहारा लेने में यक़ीन रखता था। बंगाल में उग्र राष्ट्रवाद के उदय के साथ क्रांतिकारी आन्दोलन का भी विकास हुआ। अंग्रेजी शासन से लोगों में असंतोष तो था ही, उस पर से नरमपंथियों के राजनीतिक संघर्ष के तौर-तरीक़ों से भी लोगों में निराशा व्याप्त थी। सरकार की दमनात्मक कार्रवाइयों ने आग में घी डालने का काम किया। इससे 20वीं शताब्दी के आरंभ में क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों का जन्म हुआ। बंगाल विभाजन ने इस प्रक्रिया को और आगे बढाया।

क्रांतिकारी उग्रपंथ का आरंभ

बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन का प्रागितिहास संभवतः 1860 और 70 के दशक में खोजा जा सकता है, जब हमें राजनीतिक उद्देश्य वाले शिक्षित युवकों के 'अखाड़ों' (व्यायामशालाओं) के साथ-साथ एक प्रकार के 'गुप्त समाजों' का भी उल्लेख मिलता है। रवींद्रनाथ टैगोर ने 1870 के दशक में युवा टैगोर द्वारा खेले गए गुप्त समाज खेल का एक सुप्रसिद्ध विवरण छोड़ा है, जिसमें ज्योतिरींद्रनाथ नेता थे और राजनारायण बसु प्रेरणा के मुख्य स्रोत थे। 1890 के दशक में विवेकानंद की शिक्षाओं ने राष्ट्रीय गौरव को जबरदस्त प्रोत्साहन दिया - जिसे मौन रूप से हिंदू पुनरुत्थान के साथ पहचाना गया - और समाज सेवा की भावना पैदा की। विदेश में घटित घटनाओं का भी प्रभाव था - बोअर युद्ध, जिसने राजनारायण बसु के भतीजे ज्ञानेंद्रनाथ को गुप्त समाजों के बारे में सोचने पर मजबूर कर दिया - और जापान का जबरदस्त उदय; नई सदी के शुरुआती वर्षों में ओकाकुरा और निवेदिता का प्रभाव; और साथ ही कर्जन के अहंकारी तरीकों के प्रति प्रतिक्रिया भी। हालांकि, असली कहानी 1902 के आसपास शुरू होती है, जब चार समूहों का गठन हुआ, तीन कलकत्ता में और एक मिदनापुर में। मिदनापुर गुप्त समाज की स्थापना ज्ञानेंद्रनाथ बेसिल (अपने भाई सत्येंद्रनाथ और हेमचंद्र कानूनगो की सहायता से) ने 1902 की गर्मियों में की थी। उसी वर्ष, सरला घोषाल ने अपने पिता के घर बालीगंज सर्कुलर रोड पर एक व्यायामशाला शुरू की, जिसमें 'प्रोफ़ेसर' मुर्तज़ा द्वारा तलवार और लाठी-खेल का प्रशिक्षण दिया जाता था। तीसरे समूह - आत्मयोन्नति समिति - की उत्पत्ति के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। लेकिन सबसे अधिक महत्व और प्रसिद्धि पाने वाला समूह निश्चित रूप से अनुशीलन समिति था, जिसकी स्थापना 24 मार्च 1902 को सतीशचंद्र बसु ने एक भौतिक संस्कृति सोसायटी के रूप में की थी और इसका मुख्यालय 21 मदन मित्र लेन में था।

कई विचारकों का मानना है कि 20वीं सदी के प्रथम दशक में, देश के राजनीतिक फलक की खाली जगह को भरने हेतु क्रांतिकारी समूहों के उदय के लिए उपयुक्त वातावरण था। क्रान्तिकारी उग्रपंथ के उदय के कई कारण थे। पहला कारण तो नरमपंथियों की विफलता था। उनके द्वारा चलाए गए शांतिपूर्ण आन्दोलन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यहाँ तक कि भारत मंत्री, मॉर्ले, जो लिबरल दल का था, ने बंगाल विभाजन को वापस लेने के बजाय उसे पुष्ट ही कर दिया। इससे उग्रपंथियों में रोष बढ़ गया। दूसरी ओर गरमपंथी जनता को सही नेतृत्व नहीं दे सके। न तो उन्होंने कोई संगठनात्मक ढांचा ही खड़ा किया और न ही आन्दोलन के लिए कोई सुनियोजित कार्यक्रम के तरीके निर्धारित कर पाए। ज़्यादातर समय वे नरमपंथियों की आलोचना करने में गुजारते ताकि कांग्रेस पर अधिकार जमा सकें। दोनों पंथों की असफलता के कारण देश के राजनीतिक फलक में जगह खाली थी। बंगाल का विभाजन, सरकार का दमन और कांग्रेसी नेतृत्व की निष्क्रियता ने उत्साही युवकों को बहुत चोट पहुंचाई। स्वतंत्रता के लिए दृढ़ संकल्पित भारत के युवाओं को पश्चिम से आयात हुए क्रान्तिकारी उग्रपंथ ने काफी आकर्षित किया। कांग्रेसी नेतृत्व के प्रति उनका मोहभंग हुआ। कुछ युवक क्रांतिकारी नेता राष्ट्रवादी नेतृत्व की बुनियादी रणनीति के ऊपर प्रश्नचिह्न लगाने लगे। वे और विकल्पों की तलाश करने लगे। चूंकि न तो नरमपंथियों की आवेदन देने और अपील करने की नीति और न ही गरमपंथियों के बहिष्कार की नीति के कार्य उन्हें आकर्षित कर सके थे, इसलिए वे इस विचार के प्रति आकर्षित हुए कि केवल हिंसक तरीके ही भारत को मुक्त कर सकते हैं। क्रांतिकारी उग्रपंथी जल्दी-से-जल्दी अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराना चाहते थे। उन दिनों भारत का राष्ट्रीय परिदृश्य असामान्य रूप से शांत था। राजनीतिक निष्क्रियता के इस दौर में अन्य विपदाओं की कमी नहीं थी। बंगाल विभाजन के विरोध में हो रहे आंदोलनों पर सरकार ने दमनात्मक कार्रवाइयां तीव्र कर दी। सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगा दिया गया। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। स्वदेशी आन्दोलनकारियों को झूठे केसों में फंसाया जाने लगा। उन्हें कठोर दंड देने और निर्वासित करने की नीति अपनाई गई। छात्रों पर अमानुषिक अत्याचार किया गया। फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर हिन्दू-मुसलमानों के बीच वैमनस्य फैलाकर उन्हें आपस में लड़ाया गया। दमन ने क्रोध को जन्म दिया और क्रोध के कारण राष्ट्रवादियों के एक वर्ग में बेचैनी बढ़ गई। उन्हें लगने लगा कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध के सारे रास्ते बंद हो गए हैं। उन्होंने जुझारू रुख अख्तियार कर लिया। इस वर्ग की अपनी एक विचारधारा थी। वे ब्रिटिश शासकों के अत्याचार का उनकी ही भाषा में जवाब देना चाहते थे। स्वाभिमान की रक्षा उनका प्रमुख लक्ष्य था। साम्राज्यवादियों के अत्याचार के विरुद्ध वे सशस्त्र विरोध करना उचित मानते थे। इस वर्ग ने सरकार के साथ असहयोग की नीति अपना ली। वे अपेक्षाकृत कम समय में परिणाम प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने विदेशी शासन समाप्त करने की क़सम खाई और स्वराज की मांग के लिए जनमत तैयार करने के लिए लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया। उन्होंने लोगों को आत्मबलिदान के लिए तैयार रहने की प्रेरणा दी। उन्होंने बम, पिस्तौल और आतंक के निजी कामों का रास्ता अपनाया। क्रांतिकारियों के विश्वास को अभिव्यक्ति देते हुए अप्रैल, 1906 के एक संपादकीय में ‘जुगांतर ने लिखा था, निदान स्वयं जनता के पास है। दमन के अभिशाप को रोकने के लिए भारत में बसने वाले 30 करोड़ लोगों को अपने 60 करोड़ हाथ उठाना ही चाहिए। निश्चय ही, ताक़त को ताक़त से ही रोकना होगा। इस वर्ग के नेताओं में अरविन्द घोष के अलावा लाल-बाल-पाल का नाम प्रमुखता से आता है। जुझारू राष्ट्रवादिता की भावना को आगे बढाने वालों में बंगाल में बिपिनचंद्र पाल, बंगाल के बाहर बालगंगाधर तिलक और लाला लाजपतराय थे। ये सभी क्रान्तिकारी विचारों में विश्वास रखते थे। अंग्रेजी शासन को अभिशाप मानते थे। जल्द से जल्द इस शासन को समाप्त करना चाहते थे। भले ही इनके विचार क्रांतिकारी थे, व्यवहार में वे संविधानवादी बने रहे। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से, अपने भाषणों और लेखों से जनता में लड़ाकू भावना पैदा की। ‘संध्या, ‘जुगांतर, ‘केसरी और ‘पंजाबी जैसे क्रान्तिकारी समाचारपत्रों से प्रेरणा पाकर संघर्ष में आहूति बनने के लिए युवा वर्ग मैदान में कूद पड़े। उन्होंने ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक गिरोह बनाया। क्रांतिकारियों ने अपने सन्देश का प्रचार करने के लिए पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें भी छपवाईं। बारींद्र घोष ने 1906 में ‘युगांतर नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इसके अलावा भवानी मंदिर, वर्तमान रणनीति, मुक्ति कौन पथे आदि पुस्तकों ने क्रांतिकारी भावना का प्रचार किया। पंजाब के लाजपतराय और अजितसिंह के ‘देश-निकाला में क्रान्तिकारी विचारधाराओं से प्रेरित रचनाएं छापी गईं, जिसे अंग्रेजों ने देशद्रोही रचनाओं की संज्ञा दी और छापने वालों को दण्डित किया। इसके विरोध में आन्दोलन की रफ्तार तेज़ हो गई।

क्रांतिकारियों का लक्ष्य

क्रान्तिकारी भारत से ग़ुलामी की समाप्ति चाहते थे। अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाया। वे क्रांतिकारी कार्यों को अंजाम देते थे। ‘स्वदेशी खून यानी राज कर्मचारियों की हत्या और ‘स्वदेशी डकैतियों’ यानी क्रांतिकारी कार्यों के खर्च के लिए की जाने वाली डकैतियां, द्वारा सरकार का तख्ता पलटना उनका उद्देश्य था। इनका सक्रिय वर्ग बहुत छोटा था और उसमें मुख्यतः शिक्षित मध्यम वर्ग के लोग शामिल थे। उन्होंने आयरी आतंकवादियों और रूसी निषेधवादियों के चरण-चिह्नों पर चलना और उन अधिकारियों की हत्या करना बेहतर समझा जो अपने भारत-विरोधी रवैये या अपने दमनकारी कामों की वजह से बदनाम हो गए थे। वे यह चाहते थे कि शासकों के दिल में आतंक पैदा कर दिया जाए, जनता को राजनैतिक दृष्टि से उभारा जाए और अंततः अंग्रेजों को भारत से खदेड़ दिया जाए। इसकी प्रकृति ही ऐसी थी कि योजना, संगठन, भरती और प्रशिक्षण गुप्त ढंग से करना था। सारी कार्रवाइयां भूमिगत होकर करनी थी। बंगाल और महाराष्ट्र में अनेक गुप्त समितियां बनाई गईं।

गुप्त समितियों की स्थापना

सुमित सरकार मानते हैं, ‘समितियों अथवा ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक का उदय स्वदेशी युग की बड़ी उपलब्धियों में से एक है क्रान्तिकारी आन्दोलन के उदय में गुप्त समितियों की स्थापना और उनके संगठन ने प्रमुख भूमिका निभाई। बंगाल ने संभवतः क्रांतिवादी की प्रेरणा पश्चिम से ग्रहण की जहां 19वीं सदी में क्रान्तिकारी आन्दोलन का जन्म हो चुका था। कई आतंकवादी सोसायटी गुप्त रूप से काम कर रहे थे। आयरिश आतंकवादियों, रूसी निहिलिस्टों (विनाशवादियों) और इटली के क्रांतिकारियों से भारतीय क्रांतिकारियों ने प्रेरणा ग्रहण की। अरविन्द घोष ने रूस के आतंकवादी ढंग के आक्रामक प्रतिरोध का निश्चय किया। तिलक ने ‘केसरी में उनके नैतिक समर्थन में लिखा, यदि प्रशासन का रूसीकरण हुआ तो जनता निश्चय ही रूसी तरीक़े अपनाएगी। बदनाम अँग्रेज़ अधिकारियों की हत्या की योजना बनाई गई। उनका मानना था कि इस तरह की हत्या से अंग्रेज़ शासकों का दिल दहल जाएगा। भारतीय जनता को संघर्ष की प्रेरणा मिलेगी। लोगों के दिल से अंग्रेजों का डर ख़त्म हो जाएगा। पकड़े जाने पर जब क्रांतिकारियों को फांसी दी जाएगी तो संघर्ष और जोर पकड़ेगा। बलिदानी युवक आगे आएंगे। देखते ही देखते तमाम युवक इस तरह के आन्दोलन में शरीक हो जाएंगे। 1907-08 तक बंगाल में क्रान्ति की व्यक्तिवादी और उग्रपंथी अवधारणा ने अपनी जड़ें जमा लीं और गुप्त समितियों की स्थापना शुरू हुई। बंगाल विभाजन के बाद पूरे बंगाल में इस तरह की समितियों का जाल बिछ गया। आन्दोलन में तेजी के साथ इन समितियों की संख्या भी बढती गई। 1907 तक कलकत्ता में 19 गुप्त समितियां थीं। इनमें से अनेक समितियां स्वदेशी और बहिष्कार के लिए लोगों को प्रेरित करती थीं। कुछ समितियां राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार में लगी हुई थीं, तो कुछ समितियां क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने का काम कर रही थीं। इन समितियों में से सबसे प्रमुख थी ‘अनुशीलन समिति। नरेन भट्टाचार्य और एम.एन. राय की सलाह पर बैरिस्टर प्रथमनाथ मित्र ने इसकी स्थापना की थी। वे इसके अध्यक्ष थे। चित्तरंजन दास, अरविन्द घोष और सिस्टर निवेदिता ने भी इस समिति को सहयोग प्रदान किया। इसकी स्थापना व्यायामशाला के रूप में हुई थी। यह संस्था नवयुवकों को व्यायाम की शिक्षा देती थी। गुप्त रूप से 1903 से इसने क्रांतिकारी आन्दोलन चलाना अपना लक्ष्य बना लिया। इसकी अनेक शाखाएं पूरे बंगाल में खोली गईं। कलकत्ता और ढाका इसके प्रमुख केंद्र थे। इसने लोगों में क्रांतिकारी भावना का प्रसार किया। इसने भारत की आज़ादी के लिए युद्ध को ज़रूरी बताया। इसने समिति के सदस्यों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण दिया। क्रान्ति का सन्देश पूरे देश में प्रचारित करने के लिए सदस्यों को बिहार, मद्रास और उड़ीसा भेजा। बारीसाल की ‘स्वदेश बांधव समिति, मैमनसिंह की ‘सुहृद समिति’, फरीदपुर की ‘व्रती समिति, मैमनसिंह का ‘साधना समाज, कलकत्ता के युगांतर दल, सावरकर बंधुओं का महाराष्ट्र में ‘मित्रमेग्या आदि उन दिनों की अन्य प्रमुख समितियां थीं। वी.डी. सावरकर के विदेश चले जाने के बाद उनके बड़े भाई गणेश सावरकर ने ‘अभिनव भारत समाज की स्थापना की। स्वदेश बांधव समिति का जनाधार काफी व्यापक था। 1909 में इसकी 175 शाखाएँ थीं। अश्विनी कुमार दत्त इसके नेता थे। अंग्रेजों द्वारा स्वदेशी आन्दोलन के खिलाफ दमन चक्र बढ़ाते ही 1908-09 तक खुली समितियां गुप्त आतंकवादी समितियां बन गईं।

गुप्त समितियों की गतिविधियां और प्रभाव

बंगाल-विभाजन विरोधी आन्दोलन के बहुत पहले 1897 में पूना के दामोदर और बालकृष्ण चिपलुणकर बंधुओं ने दो बदनाम अँग्रेज़ अफसरों की हत्या कर दी थी। बंगाल में सबसे पहले क्रान्तिकारी समूहों की स्थापना 1902 में मिदनापुर में ज्ञानेंद्रनाथ द्वारा और कलकत्ता में जतींद्रनाथ बनर्जी और बारीन्द्र नाथ घोष द्वारा ‘अनुशीलन समिति’ के रूप में हुई। 1908 तक इन समितियों ने लोगों में पत्रिकाओं, भाषणों, नाटकों, यात्रा और राष्ट्रीय गीतों द्वारा राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया। शुरू से ही, समितियों ने शारीरिक संस्कृति को नैतिक और बौद्धिक प्रशिक्षण के साथ जोड़ने की कोशिश की। कहा जाता है कि कलकत्ता अनुशीलन में 4000 पुस्तकों का पुस्तकालय था। लेकिन इसके बाद सरकारी दमन के कारण इनमें से अनेक संस्थाएं बंद हो गईं। कुछ ने क्रांतिकारी राह अपना ली। 1908-09 में इन समितियों के ऊपर सरकार टूट पड़ी। स्वदेश बांधव, ब्रती, ढाका अनुशीलन, सुहृद और साधना पर 1909 में प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इनके अनेक सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। अनेक समितियां गैर-कानूनी घोषित कर दी गईं। फिर भी राष्ट्रीय संघर्ष में इनके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। इन गुप्त समितियों के प्रयासों से बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियाँ बढ़ गईं। 1906 में बारीन्द्र कुमार घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त के नेतृत्व में पूर्वी बंगाल के बहुत ही बदनाम लेफ्टिनेंट गवर्नर फुलर की ह्त्या की कोशिश की गई, जो असफल रही। गुप्त रूप से बम बनाने और हथियार इकट्ठा करने के प्रयास किए गए। ‘युगांतर दल’ के सदस्य हेमचन्द्र कानूनगो सैन्य प्रशिक्षण लेने के लिए विदेश गए। उन्होंने पेरिस में एक रूसी प्रवासी से बम बनाने की कला सीखी। जनवरी 1908 में हेमचंद्र क्रांतिकारी सामग्रियों से भरा अपना सामान लेकर लौटे - जिसमें 174 पृष्ठों का बम मैनुअल और क्रांतिकारी संगठनों पर 150 पृष्ठों का ग्रंथ शामिल था - और उनके पास एक अखिल भारतीय नेटवर्क स्थापित करने की योजना थी जो पेरिस के एक गुप्त स्कूल के लिए छात्रों की आपूर्ति करेगा, जहां उनके समाजवादी मित्रों ने मुफ्त शिक्षा देने का वादा किया था। 1908 में इन्होंने कलकत्ता के मानिकतल्ला में बम बनाने का एक कारखाना खोला। महाराष्ट्र में नासिक, बंबई और पूना बम बनाने के केंद्र बन गए। क्रांतिकारी उग्रपंथ की तरफ जनता का ध्यान गंभीरतापूर्वक तब गया, जब खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी नाम के दो युवकों ने मुज़फ्फ़रपुर के ज़िला जज की हत्या का प्रयत्न किया। कलकत्ता का चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड था। वह देशप्रेमियों का महान दुश्मन था। उसने चौदह साल के एक मासूम बच्चे को कोड़े लगाने का आदेश दिया था। 1908 में ‘युगांतर दल के सदस्यों ने उसकी हत्या की योजना बनाई। इस काम को अंजाम देने का भार खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को दिया गया। क्रांतिकारियों से बचाने के लिए किंग्सफोर्ड का स्थानान्तरण बिहार के मुज़फ्फ़रपुर कर दिया गया। 30 अप्रैल, 1908 को इन दोनों देशभक्तों ने उसकी बग्घी पर बम फेंककर उसे मारने का प्रयास किया। सौभाग्य से वह बच गया, क्योंकि उस बग्घी में वह नहीं था। इस घटना में उस बग्घी में सवार एक कैनेडी महिला और उसकी पुत्री मृत्यु का शिकार हो गए। वीर क्रांतिकारी खुदीराम बोस पकड़े गए। प्रफुल्ल चाकी ने समर्पण करने के बदले आत्महत्या कर ली। खुदीराम बोस को फांसी की सज़ा दी गयी। बलिदानी देशभक्त खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के ऊपर लोकगीत लिखे गए और पूरे देश की जनता इन्हें गुनगुनाने लगी। इसी तरह मानिकतल्ला के क्रांतिकारियों अरविन्द घोष, उनके भाई बारीन्द्र घोष और अन्य लोगों को गिरफ्तार कर अलीपुर में उन पर षड्यंत्र के आरोप में मुक़दमा चलाया गया, जिसे अलीपुर षड्यंत्र केस के नाम से जाना जाता है। मुक़दमे के दौरान एक क्रांतिकारी नरेन्द्रनाथ गोसाईं सरकारी गवाह बन गया। अलीपुर जेल के अहाते में ही क्रांतिकारी कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्र बोस ने गोली मारकर उस मुखबिर की हत्या कर दी। मुक़दमे की पैरवी कर रहे वकील, पुलिस दारोगा और डिप्टी पुलिस सुपरिंटेंडेंट की भी हत्या कर दी गयी। इससे बहुत सनसनी फैली। अरविन्द घोष तो रिहा हो गए लेकिन अनेक अभियुक्तों को फांसी की सज़ा दी गई। मुखबिर की हत्या करने वाले कन्हाईलाल दत्त और सत्येन्द्र बोस को फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया। बारींद्र घोष को कालापानी की सज़ा दी गयी। अनुशीलन समिति अवैध घोषित कर दी गई। इसके बावजूद क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ गुप्त रूप से चलती रही। रासबिहारी बोस और सचिन सान्याल के नेतृत्व में वायसराय की हत्या की कोशिश हुई। बंगाल में बना एक बम 23 दिसंबर, 1912 को लॉर्ड हार्डिंग्स पर तब फेंका गया जब वह दिल्ली में हाथी पर सवार होकर एक समारोह में प्रवेश कर रहा था। वह घायल हो गया। नासिक के ज़िलाधीश जैकसन को एक विदा समारोह में गोली मर दी गई। मदनलाल धींगरा ने भारतीय युवकों की फांसी और कालापानी की सज़ा के विरोध में इण्डिया ऑफिस, लन्दन के एक अधिकारी कर्ज़न वाइली की हत्या कर दी। उसे मृत्यु दंड मिला। पंजाब का गुप्त संगठन काफी सक्रिय था। लाजपतराय और अजित सिंह का नेतृत्व उन्हें मिलता रहा। कुछ उग्रपंथी क्रान्तिकारी देश के बाहर गए और एक केंद्र की स्थापना की। श्यामजीकृष्ण वर्मा, वी.डी. सावरकर और हरदयाल लन्दन गए। यूरोप में मैडम कामा और अजित सिंह मुख्य थे।

अन्य प्रदेशों में विस्तार

बंगाल के जुझारूपन से बाहर रहते हुए बिहार और उड़ीसा के लिए अलग प्रान्तों की मांग के साथ इन प्रदेशों में आन्दोलन चले। संयुक्त प्रांत में भी क्रान्तिकारी उग्रपंथ का अधिक प्रभाव नहीं हुआ। बनारस में एक क्रान्तिकारी समूह बड़ी तेज़ी से उभरा जिसे मुखदाचरण समाध्याय के द्वारा कलकत्ता से संपर्क बनाए रखा। इस समूह के महत्वपूर्ण नेता थे शचीन्द्रनाथ सान्याल। इन्होंने क्रान्तिकारी उग्रपंथ के कार्यक्रमों को आगे बढाया। अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण बनारस बंगाल और पंजाब के क्रांतिकारियों के समूहों का मिलनस्थल बन गया। बंबई प्रेसिडेंसी के गुजराती भाषी इलाकों में भी उग्रपंथ असफल रहा। लाला लाजपतराय और हरकिशन लाल के क्रिया-कलापों से पंजाब में उग्रपंथ काफी सफल रहा। बाद में शहीद-ए-आजम भगत सिंह के चाचा अजित सिंह का समूह भी इस विचारधारा की ओर झुक गया। उन्होंने लाहौर में ‘अंजुमने-मोहिब्बाने-वतन की स्थापना की और ‘भारत माता नाम से अखबार निकाला। मद्रास प्रेसिडेंसी के आंध्र का मुहाना और तिरुनेलवेली में उग्रवादी विचारधारा काफी प्रभावी थी। महाराष्ट्र में तिलक और उनके सहयोगी काफी सक्रिय थे। उनके नेतृत्व में  जुझारू पत्रकारिता का काफी विकास हुआ। तिलक को राजद्रोह के अंतर्गत मुक़दमा चलाकर 6 साल के लिए देश निकाला का दंड दिया गया। इसकी पूरे देश में भारी प्रतिक्रिया हुई।

क्रांतिकारी उग्रपंथ की असफलता

क्रान्तिकारी उग्रपंथी अपनी नीतियों को अमल में लाने के लिए कोई संगठन नहीं बना सके। इसलिए उनकी विचारधारा का प्रसार सुनियोजित ढंग से नहीं हो सका। आम जनता उनके विचारों से बहुत अधिक प्रभावित नहीं हो सकी। उन्हें प्रभावकारी जन समर्थन नहीं मिल सका। वे व्यापक जनाधार नहीं तैयार कर पाए। व्यक्तिगत वीरता साम्राज्यवाद से कब तक लोहा लेती। गुप्त संगठन होने के नाते वे जनता को अपना विश्वासपात्र नहीं बना सकते थे। अधिकांश गुप्त संस्थाओं की गहन धार्मिकता ने मुसलमानों को न सिर्फ इससे अलग रखा बल्कि वैमनस्य भी उत्पन्न किया। इनके अधिकांश सदस्य मध्यवर्गीय शिक्षित थे, जिनका किसानों और मज़दूरों से कोई संपर्क नहीं था। उन्हें क्रूर सरकारी दमन का शिकार होना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप बिपिनचंद्र पाल और अरविन्द घोष को लंबे समय तक राजनीतिक निर्वासन झेलना पड़ा। सरकार ने अनेक क़ानून बनाकर राष्ट्रीयता की भावना और क्रांतिकारी गतिविधियों को दबाने का प्रयास किया। अनेक लोग गिरफ्तार कर लिए गए। 1910 में हावड़ा षड्यंत्र केस में यतीन्द्रनाथ मुखर्जी सहित अनेक लोगों को गिरफ्तार कर उनपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। ढाका षड्यंत्र केस में पुलिन दास और कई अन्य क्रान्तिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। तिलक के ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें 6 वर्ष की ‘देश निकाला की सज़ा देकर मांडले भेज दिया गया। ‘काल के संपादक परांजपे को 19 महीने की जेल हुई। बंगाल के 9 नेताओं को ‘देश निकाला की सज़ा मिली। मद्रास के चिदंबरम पिल्ले और आंध्र के हरी सर्वोत्तम राव को जेल में बंद कर दिया गया। क्रान्तिकारी संगठनों के विरुद्ध उत्पीड़क कार्रवाइयाँ शुरू कर दी गयी। अरविन्द ने राजनीति से संन्यास ले लिया और पौण्डिचेरी चले गए। पुलिस की दमनात्मक कार्रवाई के सामने क्रांतिकारी बहुत समय तक टिक नहीं सके। प्रमुख नेताओं के नेपथ्य में चले जाने के कारण क्रान्तिकारी उग्रपंथियों का प्रभाव कम पड़ने लगा। उनकी शक्ति धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लगी। अपनी असफलता के बावजूद लोगों में निर्भीकता और बलिदान की भावना उत्पन्न करना इन राष्ट्रवादियों की सबसे बड़ी देन है। उन्होंने पूरे देश के सामने एक नई रणनीति रखी।

उपसंहार

1903-08 का स्वदेशी आन्दोलन जो प्रमुख प्रभाव छोड़ता है, वह है समृद्धि और आशा की भावना, राजनीतिक गतिविधि, सांस्कृतिक उत्कर्ष, विविध धाराओं में फूटती राष्ट्रीय ऊर्जा; और चरमोत्कर्ष की भावना। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में क्रान्तिकारी उग्रपंथियों ने एक शानदार और प्रेरणादायक अध्याय जोड़ा। जैसा कि बिपनचंद्र ने कहा है, अपने खतरनाक कामों, साहसिक योजनाओं, नपी-तुली क्रियाओं और मृत्यु के प्रति नि:संगतता के कारण उन्होंने राष्ट्र की स्मृति में एक स्थाई जगह बना ली। क्रांतिकारी उग्रपंथ का जादू उग्र शिक्षित युवाओं के मन-मस्तिष्क पर एक पीढी से अधिक समय तक बना रहा। इस क्रान्ति ने अंग्रेजों को बुरी तरह डराया। अपने प्राणों की परवाह न करते हुए इन आन्दोलनकारियों ने दुर्लभ दृष्टांत प्रस्तुत किए। इस आन्दोलन ने अनेक रूप धारण किए, जैसे दमनकारी अधिकारियों की हत्या, धन जमा करने के लिए स्वदेशी डकैतियां, हथियारों की खोज में विश्वव्यापी संपर्क स्थापित करने के प्रयास, आदि। इन मुट्ठीभर क्रांतिकारियों ने जिस अदम्य साहस और बलिदान का परिचय दिया, वह आगे चलकर भारत में राष्ट्रीयता को और मज़बूत बनाने में बहुत सहायक हुआ। उन्होंने अपने उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से लोगों के सामने रखा। जनता में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास की भावना जगाई। आन्दोलन में निम्न-मध्यवर्गीय, छात्रों, युवकों और महिलाओं को शामिल करके भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक सामाजिक आधार तैयार किया। हालाकि बम एवं गुप्त समिति तथा सक्रियता एवं बलिदान के माध्यम से प्रचार के विचार मात्र, पश्चिम से आयात हुए थे, फिर भी इनकी गतिविधियों से राजनैतिक संगठन के नए तरीक़े और राजनैतिक संघर्ष की नई विधियों का प्रादुर्भाव हुआ। हालाँकि इस क्रांति से ब्रिटिश प्रशासन को कभी कोई गंभीर खतरा उत्पन्न नहीं हुआ, फिर भी अपनी सीमाओं के बावजूद, उनके युद्धोन्मुखी साम्राज्यवाद विरोध ने राष्ट्र को ठोस बनाने की दिशा में बड़ी छलांग लगाई। उन्होंने पूरे भारत के सामने एक रणनीति रखी। आज़ादी के लिए बलिदान उनका उद्घोष वाक्य था इनका अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और गौरवमय बलिदान भारतीय जनता के लिए प्रेरणा-स्रोत बने। देश को उनके त्याग और बलिदान से प्रेरणा मिली। देश आज भी उन शहीदों को याद करता है जिन्होंने हमारे पौरुष का स्वाभिमान वापस दिया।

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नोट : राष्ट्रीय आन्दोलन को यहाँ विराम देते हुए अब हम फिर से दक्षिण अफ्रीका लौटेंगे और वहाँ की गतिविधियों को आगे बढ़ाएंगे

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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