गांधी और गांधीवाद
प्रवेश
गांधीजी का ज़्यादातर समय जोहान्सबर्ग में एक प्रैक्टिसिंग
वकील के तौर पर बीत रहा था। वह शहर के एक अमीर आदमी थे, जो सालाना 4,000 से 5,000 पाउंड कमा रहे थे। इस मात्रा में नियमित आय के साथ,
उन्हें पैसे की चिंता नहीं थी।
सार्वजनिक जीवन की परिस्थितियाँ ऐसी हो गईं थीं कि अब गांधीजी को दक्षिण
अफ़्रीका में लंबे समय तक ठहरना पड़ता। फीनिक्स आश्रम की गतिविधियां जब सुचारू रूप
से चलने लगीं, तो गांधीजी को जोहान्सबर्ग लौटना पड़ा। वहां जनसेवा और क़ानूनी पेशे,
दोनों के लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक थी। गांधीजी को इतना कमाना भी ज़रूरी था कि वह न
सिर्फ़ अपने परिवार को ही सहारा दे सकें, बल्कि ‘इंडियन ओपिनियन’ और ‘फीनिक्स
आश्रम’ भी सुचारु रूप से चलता रहे। अब वह परिवार को वापस बुलाने के बारे में विचार
करने लगे। एक साल के बाद वापस लौट आने की बात कस्तूरबा से कह कर गांधीजी दक्षिण
अफ़्रीका आए थे। एक साल से अधिक हो चुका था, किन्तु परिस्थितियां ऐसी बन चुकी थीं कि उन्हें जल्दी भारत
वापस जाने के आसार नज़र नहीं आ रहे थे। उन्होंने अनिश्चित काल तक ठहरने का मन भी
बना लिया था। ऐसे में बा और बच्चों को दक्षिण अफ़्रीका बुला लेने के अलावा कोई
चारा भी नहीं था।
बच्चों को लेकर कस्तूरबा दक्षिण अफ़्रीका के लिए रवाना
गांधीजी से तार प्राप्त
होने पर कस्तूरबा ने बंबई के उपनगर सांताक्रूज में अपना घर छोड़ दिया। उनके लिए प्रथम श्रेणी का टिकट बुक किया गया। और एस.एस.
सुल्ताना स्टीमर में उनके लिए एक केबिन आरक्षित किया गया। स्टीमर ने 1904
की अंतिम तिमाही में बंबई के
बंदरगाह से यात्रा शुरू की। उनके साथ उनके तीन बच्चे, मणिलाल, रामदास और
देवदास थे,
यानी हरिलाल को छोड़कर सभी। 16 वर्षीय सबसे बड़े बेटे हरिलाल भारत में ही रुक गए क्योंकि
वह बम्बई मैट्रिकुलेशन की परीक्षा देने के इच्छुक थे। राजकोट के एक मित्र, वासुदेव दवे ने यात्रा के दौरान उनके अभिभावक और अनुरक्षक
के रूप में काम किया।
बच्चे के
साथ दुर्घटना
जहाज का कप्तान गांधी परिवार को अच्छी तरह से जानता था।
जहाज के अधिकारी बहुत मिलनसार थे और प्रतिष्ठित भारतीय बैरिस्टर की पत्नी और
बच्चों को यथासंभव आरामदायक बनाने की कोशिश करते दिखे। बंबई और डेलागोआ खाड़ी के
बीच एक बंदरगाह पर जहाज ने लंगर डाला। प्रथम श्रेणी के केबिनों तक जाने वाली
सीढ़ियों पर लकड़ी की सुरक्षात्मक रेलिंग थी। कप्तान और जहाज के चालक दल अक्सर
सीढ़ियों का उपयोग करने के बजाय इस रेलिंग से नीचे उतरते थे। गांधीजी के तीसरे बेटे
ने अक्सर उन्हें ऐसा करते देखा था और उन्हें यह बहुत मजेदार लगता था। उसने उनकी
नकल करने की कोशिश की। दुर्भाग्य से, ठीक उसी समय स्टीमर ने झटके के साथ चलना शुरू कर दिया,
जिससे छोटा रामदास लुढ़क कर
सीढ़ियों के नीचे गिर गया और उसका हाथ टूट गया। जहाज का डॉक्टर तुरंत मौके पर
पहुंचा, लड़के को अपने केबिन में ले गया, उसे क्लोरोफॉर्म दिया और फ्रैक्चर ठीक करने के बाद,
हाथ में स्प्लिंट लगाकर उसे
स्थिर कर दिया। डॉक्टर ने घायल की जांच करने के बाद कस्तूरबाई से कहा कि जो
प्राथमिक उपचार दिया गया था, वह काफी पर्याप्त था, लेकिन वास्तव में ऑपरेशन की जरूरत थी। जोहान्सबर्ग पहुंचने
पर वह अपने पति की मदद से आसानी से इसका प्रबंध कर पाएंगी।
डेलागोआ बे से जोहान्सबर्ग के लिए यात्रियों को ट्रेन से ले
जाया गया। कस्तूरबाई और बच्चों को प्रथम श्रेणी में टिकट उपलब्ध कराया गया।
दुर्भाग्य से,
मणिलाल का अंगूठा खिड़की के शटर
के नीचे दब गया और उसे बहुत पीड़ा हुई। जोहान्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर गांधीजी यह
देखकर चौंक गए कि रामदास का हाथ स्लिंग में बंधा हुआ था और मणिलाल के अंगूठे पर
भारी पट्टी बंधी हुई थी। "यह क्या है? और जब यह सब हो रहा था तब आपका अनुरक्षक किस काम में व्यस्त था?" उन्होंने शांत अनुरक्षक की ओर देखते हुए पूछा जो बिल्कुल
बेफिक्र लग रहा था।
गांधीजी ने रामदास घरेलू उपचार किया
उन दिनों गांधीजी को
मिट्टी के लेप के प्रयोग पर विश्वास था। मणिलाल की पीड़ा को कम करने के लिए उन्होंने उसके अंगूठे पर ठंडी मिट्टी की
पट्टी बाँध दी। इससे दर्द में तुरंत राहत मिली और कुछ दिनों तक रोजाना ठंडी मिट्टी
की पट्टी बांधने से चोट अपने आप ठीक हो गई।
रामदास के मामले में डॉक्टर को डर था कि अगर ऑपरेशन नहीं
किया गया तो गैंगरीन हो सकता है, लेकिन पट्टी हटाने पर सेप्सिस का कोई लक्षण नहीं दिखा। आठ साल के रामदास से गांधीजी
ने पूछा, “तेरे घाव की मरहम पट्टी
यदि मैं ख़ुद करूं तो तू घबराएगा तो नहीं?” हंसते हुए रामदास ने कहा, “आपके रहते हुए मुझे डर कैसा?” कांपते हाथों से गांधीजी ने पट्टी खोली, घाव को पोटेशियम परमैंगनेट के घोल से साफ किया और उस पर साफ़ मिट्टी की
पुलटिस रखकर पट्टी बांध दिया। रोज़ घाव को धोते और उस पर मिट्टी बांधते। एक महीने
में घाव भर गया। स्टीमर के डॉक्टर ने भी एक महीने में ठीक होने की बात कही थी। इस
सफलता ने एक बार फिर से गांधीजी का घरेलू उपचारों के प्रति विश्वास दृढ़ हुआ। घाव, बुख़ार, अजीर्ण, पीलिया आदि रोगों के लिए
मिट्टी, पानी और उपवास के प्रयोग
उन्होंने छोटे और बड़ों पर किया। अधिकांश मामलों में सफल भी रहे।
ट्रोयविले में एक दो मंजिला घर
अपने परिवार के आगमन की प्रत्याशा में,
गांधीजी ने फिर से रिच को श्री
केव से संपर्क करने के लिए कहा, जो एस्टेट एजेंट थे, जिन्होंने उनके लिए एक कार्यालय ढूंढा था।
उन्होंने शहर के पूर्वी हिस्से
में एक सफेद मध्यम वर्ग के आवासीय जिले ट्रॉयविले में उनके लिए किरायेदारी की
व्यवस्था की थी। यह एक दो मंजिला घर था। विला की तरह
का यह आठ कमरों का एक बड़ा घर था। यह जोहान्सबर्ग के सम्पन्न
लोगों के रहने का इलाका था। घर के पीछे एक बड़ा बगीचा था जिसके सामने लॉन की एक पट्टी थी। हमेशा की तरह, उनके साथ उनके कुछ लॉ क्लर्क भी रहते थे। पड़ोस के सारे लोग गोरे थे, और एक भारतीय को अपने पड़ोस में पाकर नाख़ुश थे। 1905 की शुरुआत में उनकी पत्नी और तीन छोटे बेटे उनके साथ
रहने आए। मणिलाल दस साल के थे, रामदास आठ साल के थे, देवदास पाँच साल के थे। कस्तूरबाई को छोड़कर सभी यूरोपीय
कपड़े पहनते थे। गांधीजी हल्की नीली धारी वाला लाउंज सूट,
एक सख्त कॉलर और टाई,
एक काली पगड़ी पहनते थे,
और वे जूते और मोजे के नवीनतम
फैशन के पक्षधर थे। गांधीजी अपने इस बड़े परिवार में "बापू" के नाम से पुकारे
जाते थे। उनके सहकर्मी उन्हें प्यार से "भाई" कहते थे।
शहर से दो मील की दूरी पर
स्थित अल्बेमार्ले स्ट्रीट (Albemarle
Street) के एक छोर पर आठ कमरों वाले इस मकान में जब बा आ गईं तो
हेनरी पोलाक भी अपनी धर्मपत्नी मिली पोलाक के साथ रहने के लिए गांधीजी के घर आ
चुके थे और जोहानिस्बर्ग के उनके घर के एक प्रमुख अंग थे। पोलाक और उनकी पत्नी
तो गांधीजी के परिवार का अंग ही थे। गांधीजी का घर सामुदायिक जीवन का एक
अच्छा नमूना था। उदार हृदय के स्वामी गांधीजी उस परिवार के कर्ता-धर्ता और मुखिया
थे। उस परिवार में उन दिनों बा-बापू के अलावा तीन बालक थे। साथ में गांधीजी की बहन
का लड़का गोकुलदास, तारघर में काम करने वाला
एक अंग्रेज़ नौजवान भी थे। जल्द ही श्रीमती पोलाक कस्तूरबा की करीबी साथी बन गईं,
भले ही शुरुआती भाषा संबंधी
समस्या थी। कुछ ही महीनों में वह बाधा भी दूर हो गई। उनके घर में मिली की उपस्थिति
से कस्तूरबा को स्वाभाविक तरीके से उससे अंग्रेजी बोलना सीखने का अवसर मिला। मिली
पोलाक मणिलाल और उनके दो छोटे भाइयों को अंग्रेजी और अंकगणित की कोचिंग देकर खुश
थीं। मिली पोलाक के शब्दों में, 'श्रीमती
गांधी,
अधिकांश माताओं की तरह, अपने बच्चों पर गर्व करती थीं और उनके लिए महत्वाकांक्षी
थीं,
और, अन्य बातों के अलावा, वह चाहती थीं कि उनके बच्चे अच्छे कपड़े पहनें। उनके अलावा, घर के सभी लोग यूरोपीय कपड़े पहनते थे, इसलिए, जब किसी
लड़के के लिए नए जूते या नया सूट चाहिए होता था और श्री गांधीजी इस ज़रूरत के
प्रति उदासीन दिखते थे,
तो श्रीमती गांधी अक्सर मुझसे
कहती थीं: "आप बापू से पूछिए," और मैं पूछती।'
जोहानिस्बर्ग का उनका यह
घर डरबन के पिछले घर से भिन्न था। परिवार के सभी सदस्यों की सुख-सुविधा का गांधीजी
पूरा-पूरा ख़्याल रखते थे। वे हमेशा ख़ुश रहते और दूसरों को ख़ुश रखते।
गांधीजी के दिन सावधानीपूर्वक व्यवस्थित थे। गांधीजी सुबह के साढ़े सात बजे सायकिल लेकर ड्राइववे से नीचे उतरते और छह मील दूर शहर के बीच अपने ऑफिस जाते। उन्होंने कभी रिक्शा का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि उन्हें पुरुषों को क्रूरतापूर्वक इस्तेमाल किये जाने का विचार नापसंद था। डाक में आये पत्रों को पढ़ने के बाद साढ़े दस बजे तक अपनी सेक्रेटरी सोंजा श्लेसिन को डिक्टेशन देते। फिर वह सड़क पार करके अदालत जाते। एक बजे शाकाहारी रेस्तरां में भोजन के लिए जाते। भोजन में सूखे और ताजे फल शामिल थे और इसे ग्रहण करने में पूरा एक घंटा लग जाता, क्योंकि उनके सहायक और कई मित्र आमतौर पर उनके आतिथ्य और बातचीत में भाग लेने के लिए वहां मौजूद रहते थे। पांच बजे के बाद अपना दफ़्तर छोड़ते और सात बजे तक घर में होते।
उनके ऑफिस की दीवारों पर तीन तस्वीरें देखी जा सकती थी। एक
महान भारतीय समाज सुधारक न्यायमूर्ति रानाडे का था। दूसरी श्रीमती बेसेंट की, जो
हमेशा पिछड़ों की रक्षा करने और अन्याय की निंदा करने के लिए उत्सुक रहती थीं। तीसरी
तस्वीर इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया के संपादक सर विलियम विल्सन हंटर की थी, जो द
इंपीरियल गजेटियर के संपादक थे और भारतीय गिरमिटिया श्रम की व्यवस्था के खिलाफ दि टाइम्स
में बहुत मजबूती से लिखा था और उसे "अर्ध-गुलामी" के रूप में वर्णित
किया था। उनके घर पर दादाभाई नौरोजी की एक बड़ी तस्वीर थी, जो अपने
समय में "भारत के ग्रैंड ओल्ड मैन" के रूप में जाने जाते थे। इन सभी
तस्वीरों में उन लोगों को चित्रित किया गया था जो उत्पीड़ितों की मुक्ति के लिए
लड़ रहे थे और इसीलिए गांधीजी के दिल के प्रिय थे; लेकिन
उसके कमरे के केंद्र में, मसीह का चेहरा था, जब वे
बैठे हुए अपनी मेज पर काम कर रहे होते थे, तो शांति से उसे देखते रहते थे।
सादगी की ओर झुकाव
जोहान्सबर्ग
का घर डरबन के घर से बिल्कुल भिन्न था।
जोहान्सबर्ग का घर बहुत ही किफ़ायती तरीक़े से चलता था। गांधीजी ने डरबन में जो घर
बसाया था, उसमें
सादगी की ओर उनके झुकाव के सारे लक्षण मौज़ूद थे। लेकिन तब युवा बैरिस्टर अपने
पेशे की सामाजिक गरिमा और अपनी स्थिति के प्रति असजग नहीं था। जोहानिस्बर्ग में अब
तक उनके मन में ‘सर्वोदय’ के विचार ने गहरी जड़ जमा ली थी, इसलिए
घर के भीतर काफ़ी परिवर्तन किए गए थे। हां घर एक बैरिस्टर का था, इसलिए
एक बैरिस्टर को जिन चीज़ों की आवश्यकता होती है, वे सब तो करने ही थे। फ़र्निचर
कम थे। घर में कोई नौकर नहीं था। रोटी पकती थी। आटा हाथ से पीसा जाता था। यहां
जीवन बहुत ही सादा था। आटा पिसाई के साथ-साथ बातचीत और ठहाकों का दौर भी चलता रहता
था। गांधीजी ने सुबह का नाश्ता छोड़ दिया था। सुबह-शाम वह घर से दफ़्तर की छह मील की
दूरी पैदल तय किया करते थे। सच्ची सादगी मन की थी, और अपने हाथों से अधिक से
अधिक काम करने का शौक़ बढ़ गया था। इसका प्रभाव बच्चों पर भी पड़ा।
घर का काम सब मिलजुल कर करते
गांधीजी रामायण, गीता से लेकर विदेशी लेखकों की अच्छी-अच्छी पुस्तकें
पढ़ा करते थे। दुनिया की सबसे मूल्यवान वस्तु मित्रत्व को मानते थे। कहते थे ऐसा
सच्चा मित्र बहुत मुश्किल से मिलता है जो बिना किसी संकोच के हमारी ग़लतियां हमें
बताए और सुख-दुख में एक-सा व्यवहार करे। कृष्ण-सुदामा की मित्रता ऐसी ही थी। घर की
दिनचर्या सुबह छह बजे से ही शुरू हो जाती। गांधी परिवार ने बेकरी की रोटी खरीदना बिलकुल बंद कर दिया। बच्चों में कुछ आदतें
डालने के लिए बाज़ार की ख़रीदी गई रोटी की जगह बिना खमीर की रोटी बनाने का काम
शुरू हुआ। खमीर वाली रोटी से बच्चों
की तबियत ख़राब हो जाती थी। इसकी रेसिपी लीपज़िग के दूर-दराज के डॉ. कुहने, जो द न्यू साइंस ऑफ़ हीलिंग के लेखक
हैं, के द्वारा तैयार किया गई थी। मिल के आटे की जगह हाथ से पिसे आटे का प्रयोग शुरू
हुआ। इसके लिए सात पौंड ख़र्च करके हाथ से चलाने की एक चक्की ख़रीदी गई। चक्की के पाट काफ़ी भारी थे, इसलिए उसको चलाने के लिए दो व्यक्तियों की ज़रूरत
पड़ती थी। अकसरहां गांधीजी किसी बालक या पोलाक के साथ ख़ुद चक्की चलाते थे। जब
कस्तूर बाई और मिसेज पोलाक वहां थीं, तो वे भी साथ देती थीं। उन सब के लिए यह एक अच्छा व्यायाम
सिद्ध हुआ। आधे घंटे रोज़ सुबह चक्की चलाने का काम चलता। मिसेज पोलाक ने लिखा है, “पिसाई की आवाज़ में बातचीत और ठहाके भी शामिल होते थे क्योंकि उन दिनों इस घर में ठहाके बड़ी आसानी से उठते रहते थे। कूदफांद अभ्यास का एक और रूप था जिसमें श्री गांधी सिद्धहस्त थे।”
घर की साफ़-सफ़ाई के लिए एक नौकर था, लेकिन उसकी हैसियत घर के सदस्य की तरह थी और उसके काम में बालक भी हाथ बंटाते थे। पाखाना साफ़ करने के लिए म्युनिसिपैलिटी का कर्मचारी आता था, हां घर आदि को धोने का काम नौकर नहीं करता था, यह काम गांधीजी या घर के सदस्य ख़ुद करते थे। कस्तूरबा का काम सुबह से रसोई में शुरू हो जाता। गांधीजी को मेहमानदारी का शौक़ था। रोज़ शाम को दो-चार अपरिचित-परिचित मेहमान भोजन के लिए साथ में होते। इसके लिए उन्हें सुबह से ही काम में लगना होता। कुछ समय के लिए घर के सभी सदस्यों को व्यायाम के रूप में रस्सी कूदना पड़ता था। इस प्रकार आध्यात्मिक कल्याण की एक आवश्यक शर्त के रूप में शारीरिक फिटनेस को हर संभव तरीके से सुनिश्चित किया गया।
अनजान आगंतुक
एक बार कुछ यूरोपियन भोजन
का न्यौता लेकर गांधीजी के घर पर गए। गांधीजी की उनके साथ कोई खास पहचान नहीं थी, और कस्तूरबा तो उन्हें बिल्कुल ही नहीं पहचानती थीं।
उन्होंने आते ही घरेलू जीवन के बारे में सीधे-सीधे और असभ्य मानी जाने वाली कुतूहल
वृत्ति के साथ सवाल पूछने शुरू किए। निजी मामलों से संबंध रखने वाले प्रश्नों में
उनके घमंड का भी पता चलता था। लेकिन गांधीजी शांति के साथ जवाब देते जा रहे थे।
आगन्तुक भारतीय क्या करते हैं, क्या नहीं करते, इसके बारे में सुनकर खूब ठटा कर हंस भी रहे थे।
कस्तूरबा को यह सब देखकर काफ़ी गुस्सा आया। वह वहां जाने के बजाए दूसरे कमरे में
ऊपर चली गईं। गांधीजी ने किसी के मार्फ़त उन्हें बुलावा भेजा पर वे नहीं गईं। इस
पर गांधीजी ख़ुद उन्हें बुलाने गए पर उन्होंने नीचे जाने से इंकार कर दिया। गांधीजी
ने लौटकर उनके ग़ैरहाजिरी का थोड़ा सा खुलासा दिया और भोजन करने लगे। इस घटना पर
प्रतिक्रिया देते हुए दूसरे दिन बा ने कहा, “ऐसे निठल्ले लोग घर का
रंग-ढंग देखने आएं और मेरे घर का मज़ाक़ उड़ाएं, यह मुझ से तो नहीं सहा जाता। ऐसे लोगों से मैं तो
हरगिज न मिलूंगी। बापू मिलना चाहें तो भले मिलें।”
भोजन का वातावरण आनंदमय
मेहमान हों न हों, शाम के भोजन का वातावरण बड़ा आनंदमय होता। शाकाहारी
भोजन होता। भोजन में बहुत सादी चीज़ें होतीं, दो या तीन सब्जियां, दाल, कढ़ी, सिंकी हुई रोटी, मुंगफली, रायता, सलाद आदि। दूसरे दौर में दूध और फल या दूध का हलवा होता। अंत में मौसम के अनुसार कॉफ़ी या ठंडा नींबू पानी। मेज पर भोजन परोसा जाता। सब हाथ से खाना खाते। भोजन के समय ख़ूब हंसी-मज़ाक़, गपशप के साथ गंभीर चर्चाएं भी हुआ करतीं। यह कार्यक्रम क़रीब एक घंटे चलता। भोजन संबंधी गूढ़ तत्वों पर गांधीजी का प्रवचन होता और खाने में
नए-नए प्रयोग होते रहते।
भोजन
संबंधी प्रयोग उनके जीवन का अंश थे। गांधीजी के साथ-साथ पोलाक भी इसमें भरपूर
उत्साह रखते थे। दोनों की पत्नियों को उनके इन प्रयोगों से मनोरंजन भी होता,
झुंझलाहट भी होती। शुरू में उन्होंने नमक खाना छोड़ दिया। फिर शक्कर की बारी आई।
फिर अनपके भोजन का दौर आया। भोजन के तत्त्वों पर बहुत ही गंभीरता से बहस होती।
रक्तशोधक के रूप में कच्चे प्याज भोजन में शामिल किए गए। बाद में प्याज को इसलिए
छोड़ दिया गया कि प्याज भावनाओं के लिए ख़तरनाक होते हैं। दूध को भी इसी कारण से
त्याग दिया गया। इन प्रयोगों का अंतिम उद्देश्य तो स्वाद को जीतना था। मसालों का कम
से कम प्रयोग या मसालों का इस्तेमाल बंद कर दिया गया। यह प्रयोग उनके जीवन भर के
आहार की खोज का दौर था, जो मनुष्य के दिमाग को पशु से
ऊपर उठा सके। उनका मानना था कि यदि भोजन के प्रति अपने जुनून पर अंकुश नहीं लगाया,
तो वे क्रोध,
अहंकार और
सेक्स जैसे प्रबल जुनून पर कैसे अंकुश लगा सकते हैं? गांधीजी ने तर्क दिया कि हम
शरीर के लिए भोजन, वस्त्र और आश्रय उपलब्ध कराने के लिए नहीं जीते हैं। हम
जीने के लिए शरीर को भोजन, वस्त्र और आश्रय उपलब्ध कराते हैं। भौतिक वस्तुएँ
आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुँचने का साधन मात्र हैं। जब वे लक्ष्य बन जाते हैं,
एकमात्र
लक्ष्य,
जैसा कि वे
आमतौर पर होते हैं, तो जीवन की संतुष्टि खो जाती है और असंतोष मानव जाति को
ग्रस लेता है। आत्मा को एक अस्थायी निवास की आवश्यकता होती है,
लेकिन एक
साफ मिट्टी की झोपड़ी एक महल की तरह ही काम करेगी, वास्तव में उससे कहीं बेहतर।
शरीर को जीवित रखना चाहिए, लाड़-प्यार नहीं करना चाहिए। आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए,
शरीर को मन
के अनुशासन के अधीन होना चाहिए।
गीता का पाठ
खाने के बाद परिवार के सारे सदस्य शांत बैठते। गांधीजी गीता का पाठ करते और पोलाक श्लोकों का अंग्रेज़ी अनुवाद एडविन ऑर्नॉल्ड की पुस्तक द सॉन्ग सेलेस्टियल से पढ़ते जाते। फिर गांधीजी श्लोकों का अर्थ और गूढ़ मर्म समझाते और फिर व्याख्यान पर चर्चा होती। यदि कभी अतिथि भी रहते, तो अन्य धर्मों और दर्शनों के बीच समानताओं पर बातचीत होती। स्वावलंबन, सहयोग, शारीरिक श्रम और समानता इस स्नेह पूर्ण पारिवारिक जीवन के विशेष गुण थे। यह घर किसी आश्रम के समान था।
उपसंहार
हर दृष्टि से, गांधीजी का जीवन इस समय बहुत ही शानदार और सुव्यवस्थित था।
वे अपने पेशे में आराम से स्थापित थे। वे एक स्वीकृत सार्वजनिक व्यक्ति भी थे।
उनके अंदर के यूटोपियन के लिए, फीनिक्स एक सपना सच होने जैसा था। इसमें टॉल्स्टॉय और
रस्किन से प्रेरित उनके सबसे प्रिय आदर्शों को दर्शाया गया था। यहां तक कि
कस्तूरबा के पास भी अपने आस-पास की हर चीज से खुश होने का कारण था। जहां तक
गांधीजी के व्यक्तित्व का सवाल है, पूरा परिदृश्य इतना शांत था कि उनकी बेचैन आत्मा को लंबे
समय तक रोक पाना संभव नहीं था। गांधीजी के बारे में उनके पहले जीवनी लेखक, जोहानिस्बर्ग के बैपटिस्ट मतावलंबी पादरी, जोसेफ़ डोक जब उनसे पहली बार 1907 में मिले तो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘एम.के. गांधी” में लिखा है, “उनका आध्यात्मिक और
वैचारिक धरातल सामान्य लोगों से बहुत ऊंचा है, और दुनियादारी तो जैसे उन्हें छू भी नहीं गई है। ..
रुपए-पैसे का इन्हें ज़रा भी लोभ नहीं है। .. इन्हें ग़रीबी पसंद है और वे ग़रीब
ही रहना चाहते हैं। लोगों को उनकी अद्भुत निःस्वार्थता पर आश्चर्य होता है, गुस्सा आता है और साथ ही वे इन्हें प्यार भी करते
हैं। वे उन असाधारण व्यक्तियों में से हैं जिनके सत्संग से ज्ञान की वृद्धि होती
है और परिचय से जिनके प्रति प्रेम और भक्ति प्रस्फुटित होती है।”
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।