राष्ट्रीय आन्दोलन
148. बंगाल का विभाजन
प्रवेश
20वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में बंगाल का
विभाजन एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसने भारत में राष्ट्रीयता की भावना को
विकसित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद कुछ ही
दिनों में लोगों के अन्दर संचित रोष ने एक संगठित विरोध का रूप ले लिया। इसके तुरत
बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम ने एक नई दिशा ले ली। स्वदेशी, बहिष्कार, स्वराज और क्रांतिकारी आन्दोलन का युग शुरू हो
गया। आन्दोलन इतना संगठित और उग्र था कि ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और 1911 में
बंगाल विभाजन के आदेश को वापस लेना पड़ा।
बंगाल विभाजन का उद्देश्य
1757 में बंगाल में
अंग्रेजी राज की स्थापना हुई थी। तभी से बंगाल प्रेसीडेंसी राजनीतिक और प्रशासनिक
दृष्टि से भारत का एक प्रमुख केंद्र बन गया था। कलकत्ता के फोर्ट विलियम से
ब्रिटिश सारे देश पर हुकूमत करते थे। बंगाल प्रेसीडेंसी एक बहुत ही विशाल क्षेत्र
था। इसकी जनसंख्या बहुत अधिक थी। इसमें विभिन्न भाषाओं के बोलने वाले लोग रहते थे।
इसमें बंगला भाषा भाषियों की संख्या सबसे अधिक थी। अंग्रेजों के अनुसार इस पूरे
क्षेत्र पर शासन करना बहुत मुश्किल काम था। प्रशासनिक सुविधा के नाम पर बंगाल
प्रेसीडेंसी के पुनर्गठन का प्रयास बहुत दिनों से किया जा रहा था। 1836 में उत्तर
प्रदेश को बंगाल से अलग कर दिया गया था। 1854 में बंगाल प्रेसीडेंसी के प्रशासन के
लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति की गयी। नील विद्रोह के बाद गठित नील आयोग
ने सिफारिश की थी कि इस प्रांत का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। इसके बाद 1874 में बंगाल
के तीन ज़िलों – सिलहट,
ग्वालपाड़ा और कछार को बंगाल प्रेसीडेंसी से अलग कर एक कमिश्नर के अधीन रखा गया।
1892 में लुशाई के पहाड़ी क्षेत्र को असम के साथ मिला दिया गया। इससे आगे बढकर असम
के चीफ कमिश्नर विलियम वार्ड ने 1897 में चटगाँव, ढाका और मैमनसिंह को असम में मिलाने का प्रस्ताव
पेश किया,
जिसे मंजूरी नहीं मिली। इस तरह समय-समय पर बंगाल के पुनर्गठन की बात चलती रही थी। 1899
में कर्ज़न भारत का वायसराय बना। वह घोर साम्राज्यवादी था। हालाकि उसने अनेक
सुधार किए लेकिन उसकी नीतियों का मुख्य उद्देश्य साम्राज्यवाद की जड़ें मज़बूत करना
ही होता था। जब वह भारत आया तब तक देश में राष्ट्रीय भावना काफी विकसित हो चुकी
थी। नरमदल की उदारवादी नीतियों को ‘भिक्षाटन की नीति’की संज्ञा देकर
राष्ट्रवादियों का एक वर्ग जुझारू रुख अपनाने की वकालत कर रहा था। कर्ज़न के
कार्यों से देश में भयंकर असंतोष था। कर्ज़न की विदेश नीति, अफगानिस्तान और तिब्बत के मामलों में हस्तक्षेप, भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, कलकत्ता निगम अधिनियम, ऑफिशियल सिक्रेट अधिनियम आदि उसके ऐसे कुछ काम थे
जो लोगों के बीच क्षोभ पैदा कर रहा था। अंग्रेजों के विरुद्ध फैले असंतोष का मुख्य
केंद्र बंगाल था। कर्ज़न इस वास्तविकता से परिचित था। वह बंगाल में विकसित हो रही
राष्ट्रीय भावना को कुचल देना चाहता था। इसलिए उसने विभाजन की कूटनीतिक चाल चली। न
सिर्फ बंगाल में बल्कि पूरे देश में यहाँ के प्रबुद्ध वर्ग काफी प्रभावकारी सिद्ध
हो रहे थे। इनके प्रभाव को नष्ट करने के उद्देश्य कर्ज़न ने बंगाल को विभाजित करने
का प्रस्ताव पेश किया। कर्ज़न बंगालियों और मुसलमानों को आपस में लड़ा कर इनकी
पारंपरिक एकता को नष्ट करना चाहता था। इसलिए उसने बंग-भंग की योजना तैयार की।
प्रत्यक्ष तौर पर तो यह बताया गया कि इस योजना का उद्देश्य प्रशासनिक सुविधा है, ताकि कलकत्ता पर बोझ कम हो और असम का विकास हो, लेकिन वास्तविक उद्देश्य तो फूट डालो और राज करो ही था। बंगाल के लोग संगठित होकर राष्ट्रीय
आन्दोलन में भाग ले रहे थे। अँग्रेज़ एकीकृत बंगाल को विभक्त करना चाहता था, ताकि
शासन के संगठित विरोधियों को कमजोर कर सकें। ढाका, बिहार और उड़ीसा के लोगों को अलग कर बंगाल को कमजोर
कर देना उसका लक्ष्य था। इससे इसकी संभावना ख़त्म हो जाती कि उसके विरुद्ध कोई
संगठित विरोध होता। इस तरह बंगाल विभाजन का असली उद्देश्य तो राष्ट्रीय आन्दोलन को
कमजोर करना ही था। बंगाल उस समय राजनीतिक आन्दोलन का केंद्र था। कर्ज़न इस केंद्र
को प्रभावहीन कर देना कहता था। ब्रिटिश सरकार ने हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने की
तैयारी कई महीनों पहले शुरू कर दी थी। भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 20 जुलाई 1905 को
बंगाल विभाजन की आधिकारिक घोषणा की थी। विभाजन
पर कर्जन का तर्क था कि तत्कालीन बंगाल, जिसमें बिहार और ओडिशा भी शामिल थे, काफी बड़ा है, जहां व्यवस्था बनाए रखने के लिए अकेला लेफ्टिनेंट
गवर्नर काफी नहीं है।
विभाजन का प्रस्ताव
1903 में बंगाल के नए
लेफ्टिनेंट गवर्नर एंड्रयू फ्रेज़र ( 1903 से 1908 के बीच बंगाल का लेफ्टिनेंट गवर्नर) द्वारा असम के चीफ कमिश्नर विलियम वार्ड की योजना को लागू करने का प्रस्ताव दिया गया। इस
प्रस्ताव में चटगाँव डिविज़न,
ढाका और मैमनसिंह जिले को असम में मिला दिए जाने की व्यवस्था थी। बंगाल की आबादी
कम करना इसका लक्ष्य था। हालाँकि, बंगाल
के विभाजन की योजना बनाने में एंड्रयू फ्रेज़र की भूमिका ने उसे राष्ट्रवादी आंदोलनकारियों के बीच कुख्याति दिलाई, फिरभी कर्ज़न ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कर्जन को फ्रेजर पर बहुत भरोसा था। 3 दिसंबर, 1903 को योजना प्रकाशित कर दी गयी।
प्रस्ताव का विरोध
बंगाल विभाजन की ख़बर
मिलते ही लोगों में रोष फैल गया और विरोध का स्वर उठने लगा। लॉर्ड कर्जन किसी भी
क़ीमत पर इन आवाज़ों को कुचल देना चाहता था। 1903 में ही कांग्रेस ने,
जिसका 19वाँ
अधिवेशन लाल मोहन घोष की अध्यक्षता में मद्रास में हुआ था, सरकार की नीति की आलोचना करते हुए बंग-भंग
की सूचना दी और कहा कि एक षड्यंत्र चल रहा है।
विभाजन के ख़िलाफ़ पूर्वी बंगाल में 500 से अधिक बैठकें हुईं। कई विशाल
विरोध सभाएं हुईं। विरोध याचिकाएं भेजी गईं। बंगाल के समाचारपत्रों में इसकी
आलोचना होने लगी। सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी, कृष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचन्द्र राय जैसे बंगाल के
नेताओं ने 'बंगाली', 'हितवादी' एवं
'संजीवनी' जैसे अख़बारों द्वारा विभाजन के
प्रस्ताव की आलोचना की। बंगाल से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों, जैसे अमृतबाजार पत्रिका, चारू मिहिर, बंगाली, इत्यादि ने इस योजना की आलोचना
की। विभिन्न संस्थाओं और संगठनों के नेताओं ने इसका विरोध किया। यहाँ तक कि बंगाल
के ज़मींदारों, नेशनल चैंबर ऑफ कॉमर्स ने भी
इसके विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई। सभी ने इसके नहीं लागू करने की अपील की। 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में
स्वदेशी आंदोलन की घोषणा की गई तथा
बहिष्कार प्रस्ताव पास किया गया। कर्ज़न
अपनी योजना पर अड़ा रहा।
कर्ज़न की प्रतिक्रिया
अपनी योजना पर हो रहे
विरोध से कर्जन चिढ गया। उसने सांप्रदायिक विद्वेष का सहारा लेकर इस योजना को लागू
करने का निश्चय किया। 1904 में ढाका पहुंचकर उसने मुसलमानों को बहलाने की कोशिश
की। उसने लोगों से कहा कि नया प्रदेश मुसलमान बहुल प्रदेश होगा और ढाका उसकी
राजधानी होगी। बंगाली मुसलमानों को एकता का ऐसा अवसर प्रदान किया जा रहा है जो
मुसलमान सुबेदारों और बादशाहों के समय से उन्हें नसीब नहीं हुआ है। इससे स्थानीय
व्यापारिक हितों का विकास होगा। इस तरह कर्ज़न अनेक मुसलमानों को अपनी तरफ आकृष्ट
करने में सफल हुआ। उसने पूरे उत्तर पूर्व बंगाल को मुख्य बंगाल से अलग करने का
निश्चय किया। कर्ज़न की यह चतुर राजनीतिक चाल थी जिसका उद्देश्य पश्चिमी और पूर्वी
बंगाल के हिन्दू राजनीतिज्ञों के बीच दरार डालना था।
बंगाल विभाजन की नई योजना
कर्ज़न ने बंगाल के
विभाजन की नई योजना प्रस्तुत की। बंगाल का विभाजन दो भागों पश्चिमी बंगाल तथा
पूर्वी बंगाल और असम में होना था। पूर्वी बंगाल में असम सहित राजशाही, हिल टिपरा, माल्दा, चटगाँव और ढाका डिविज़न को
शामिल किया जाना था। इसकी राजधानी ढाका होती। इस योजना के कारण बंगाल के हाथ से 15
ज़िले निकल जाते। बंगाल की आबादी काफी कम हो जाती। पूर्वी बंगाल में मुसलमानों का
बहुमत था। इसके प्रशासन के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर को नियुक्त किया जाना था।
पश्चिम बंगाल, जिसकी राजधानी कलकत्ता होती, में बिहार और उड़ीसा को रखा गया। यह हिन्दू बहुल प्रदेश होता।
योजना का कार्यान्वयन
लोगों के विरोध का अंग्रेज़ी हुक़ूमत पर कोई असर नहीं
हुआ और 19 जुलाई 1905 को बंगाल विभाजन के निर्णय की
घोषणा कर दी गई। कर्ज़न ने इस योजना को लागू करने का चुरा-छिपा कर
प्रयास शुरू कर दिया। पहली योजना पर हुए विरोध के कारण वह बहुत सावधानी से काम कर
रहा था। भारत मंत्री की जब स्वीकृति मिल गयी तो योजना को जुलाई, 1905 में हाउस ऑफ कामंस में पेश किया गया। जुलाई
में ही शिमला में योजना को प्रकाशित कर दिया गया। सितंबर में इस योजना को सम्राट
की स्वीकृति मिल गयी। 16 अक्तूबर,
1905 से योजना लागू की जाने वाली थी। विभाजन से पहले बंगाल की कुल जनसंख्या लगभग 8
करोड़ थी और बिहार, ओडिशा व बांग्लादेश इसका हिस्सा थे। बंगाल की प्रेसीडेंसी
सबसे बड़ी थी। तब कर्जन ने प्रशासनिक असुविधा का सहारा लेकर बंगाल विभाजन की
रूपरेखा तैयार कर दी और कुछ महीनों तक बड़े स्तर पर लगभग चार महीने चले विरोध के
बावजूद बंगाल विभाजन हुआ। 16 अक्तूबर, 1905 को कर्जन ने मुस्लिम बहुल पूर्वी हिस्से को असम के
साथ मिलाकर अलग प्रांत बनाया। दूसरी ओर हिंदू-बहुल पश्चिमी भाग को बिहार और उड़ीसा
के साथ मिलाकर पश्चिम बंगाल नाम दे दिया। इतिहास में इसे बंगभंग के नाम से भी जाना
जाता है। यह
अंग्रेजों की "फूट डालो - शासन करो" वाली नीति का ही एक अंग था।
भारतीयों की प्रतिक्रिया
इस योजना ने बंगाल के
लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश की आग में घी डालने का काम किया। एक इतिहासकार ने तो
यहाँ तक कहा कि “अगर पहली योजना ने बंगालियों को कोड़े मारने जैसी पीड़ा पहुंचाई थी, तो नई योजना ने बिच्छुओं के डंक मारने जैसी तड़प दी।” इसे राष्ट्रीय विपत्ति और राष्ट्रीय अपमान कहा गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा कि ‘घोषणा बम के गोले के सामान गिरी’।
बंगाल विभाजन का विरोध
सभी समाचारपत्रों ने
इसकी तीखी आलोचना की। विरोधों का लंबा सिलसिला शुरू हो गया। विरोध सभाएं गठित की
गईं। विरोध में हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। आवेदन पत्र देकर योजना को रद्द करने
की मांग की गयी। कर्ज़न के पुतले जलाए गए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस समेत सभी वर्गीय
संगठनों ने विरोध आन्दोलन में भाग लिया। कांग्रेस ने विभाजन की योजना को असंगत
कहा। इसने वैकल्पिक प्रस्ताव दिया कि या तो बंगाल को एक गवर्नर के अधीन रखा जाए या
हिंदी और उडिया भाषी लोगों को बिना बंग-भाषियों को बांटे हुए अलग कर दिया जाए।
कर्ज़न ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जैसे-जैसे आन्दोलन बढ़ता गया इसे संगठनात्मक
रूप दिया गया। आंदोलन
ने एक नई दिशा पकड़ी। बहिष्कार और स्वदेशी का आह्वान किया गया। जगह-जगह विरोध सभा कर विदेशी माल के बहिष्कार की प्रतिज्ञा की गई।
मैनचेस्टर के कपड़े और लिवर पुल के सामानों के बहिष्कार की घोषणा की गई। बंगाल के युवा वर्ग ने क्रांतिकारी कार्यों का
सहारा लिया। आन्दोलन को चलाए रखने के लिए एक राष्ट्रीय कोष की स्थापना की गयी। विभाजन विरोधी आन्दोलन में बंगालियों के हर वर्ग
ने भाग लिया। शुरू में तो सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे नरमपंथियों ने आन्दोलन को अपने
हाथ में लिया था,
लेकिन जल्द ही आन्दोलन की बागडोर बिपिन चंद्र पाल, अश्विनी कुमार दत्त और अरविन्द घोष जैसे
गरमपंथियों ने अपने हाथ में ले ली। मुख्यतः इस शहरी आन्दोलन ने ग्रामीण जनता को भी
अपने में शामिल कर लिया।
राष्ट्रीय शोक दिवस
16 अक्तूबर, 1905 को राष्ट्रीय शोक दिवस
के रूप में मनाया गया। लोगों ने इस विभाजन का तन,
मन, धन से विरोध करने का संकल्प लिया। राष्ट्रीय गीत
गाया गया। वंदे मातरम का नारा लगाया गया। गंगा में स्नान कर एकता के प्रतीक के रूप
में हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक-दूसरे की कलाइयों में राखी बाँधी। कई क्रांतिकारी गीत लिखे गए।
टैगोर ने ‘आमार सोनार बांगला’ लिखा था, जो 1971 में बांग्लादेश का राष्ट्रगान
बना। रवीन्द्रनाथ टैगोर के स्वदेशी गीतों ने जनता के
क्रोध और पीड़ा को अभिव्यक्ति दी। सामूहिक उपवास रखा गया। किसी घर में उस दिन चूल्हा
नहीं जला। पूरा कलकत्ता हड़ताल के कारण बंद रहा। बंगाल की एकता के प्रतीक के रूप
में फेडरेशन हॉल का शिलान्यास हुआ। बंगाली - प्रतिरोध करने, दुःख झेलने और त्याग करने के लिए संगठित होकर एक
व्यक्ति के रूप में खड़े हो गए। दूर-दराज के क्षेत्रों में भी देशभक्ति की ज्वाला
भड़क उठी थी।
बंगाल में विभाजन विरोधी आन्दोलन
(1809) का आर्थिक चरित्र
स्वदेशी आन्दोलन
वास्तव में बंगाल-विभाजन के विरोध में एक आन्दोलन के रूप में पैदा हुआ। बहिष्कार का प्रभाव इतना तीव्र
था कि अंग्रेजी कपड़ों की बिक्री से आय 5 से 15 गुना तक कम हो गई। आन्दोलन की
विशेषता यह थी कि इसका दायरा महज राजनीति तक सीमित नहीं था। कला,
साहित्य, संगीत, विज्ञान,
उद्योग व अन्य क्षेत्रों में भी इस आन्दोलन का असर पहुंचा। हाल के शोधो से पता चला है कि बंगाल में विभाजन
विरोधी आन्दोलन (1809) का एक आर्थिक चरित्र भी था, जो महाराष्ट्र के उग्रवादी आन्दोलन से भिन्न था, जिसका एक धार्मिक चरित्र था। मराठी भाषी बरार को
बंबई में नहीं मिलाया गया था,
क्योंकि कर्जन का कहना था,
“शिवाजी के संबंध में
वैसे ही बहुत सुनने को मिलता है।” बंगाल
में, विभाजन के बाद, ज़मींदारों
को चिंता यह थी कि उन्हें दो-दो स्थानों पर एजेंट और वकील रखने पड़ते। कलकत्ता के नज़दीक के चावल और पटसन के व्यापारियों
को यह चिंता थी कि चटगाँव उनका प्रतिस्पर्धी हो जाएगा। कलकत्ता के वकीलों को भय यह
था कि नया प्रांत बनने से नया हाईकोर्ट बनेगा, जिससे उनके व्यवसाय पर प्रतिकूल प्रभाव पडेगा। गरीबी
बढती जा रही थी। ऊपर से आकाल ने स्थिति को और विकट बना दिया था। तब तक यह सिद्धांत
सामने आ गया था कि भारत के समस्त दुखों एवं कष्टों का कारण संपत्ति दोहन है।
व्यवसाय के क्षेत्र में भीड़ बहुत बढ़ गयी थी। इससे भद्रलोक को छोटी ज़मींदारियों या
बिचौलिया काश्त पर अधिक आश्रित रहना पड़ता था। आय दिनोदिन कम होती जा रही थी।
क़ीमतों में तेज़ी से वृद्धि हो रही थी। परिणामस्वरूप राष्ट्रवादी विचारधारा का
प्रसार हो रहा था। मुद्रास्फीति ने औद्योगिक श्रमिकों को भी हड़तालें करने पर बाध्य
कर दिया था। भारतीय असंतोष दमनकर्ता अंग्रेजों के विरुद्ध खुलकर सामने आ रहा था।
प्रशासन किसी भी प्रकार का आमूल परिवर्तनवादी कृषि कार्यक्रम विकसित करने में पूरी
तरह से असफल रहा। महाराष्ट्र में उग्रवादी आन्दोलन के सबसे प्रमुख नेता थे बालगंगाधर तिलक। तिलक
ने धार्मिक राजनीतिक उत्सवों गणपति,
शिवाजी और रामदास उत्सव के माध्यम से राष्ट्रवादी आन्दोलन को आगे बढाया।
प्रतिमापूजा के साथ शिवाजी उत्सव मनाने पर बल दिया गया। जबकि बंगाल में हेमचन्द्र
कानूनगो जैसे क्रान्तिकारियों ने तत्कालीन प्रचलित धार्मिकता की कड़ी आलोचना की थी।
स्वदेशी का रुझान सामान्यतः राजनीति को धार्मिक पुनरुत्थान से जोड़ने का रहा था। धार्मिक पुनरुत्थान को बारंबार आन्दोलनकारियों
का हौसला बढ़ने के लिए एवं जन-संपर्क के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता रहा। सुमित
सरकार कहते हैं,
“1906 में उग्रवादी
नेताओं ने प्रतिमा-पूजा के साथ शिवाजी उत्सव मनाने पर बल दिया था, वन्दे मातरम्,
संध्या और युगांतर जैसी पत्रिकाओं में आमूल परिवर्तनवादी राजनीति और आक्रामक हिंदुत्व
अभिन्न रूप से गुंथे होते थे।”
उपसंहार
बिपन चन्द्र ने सही
ही कहा है,
“बंगाल विभाजन की
योजना प्रस्तुत करते हुए अंग्रेजों द्वारा प्रगट रूप में कहा गया कि एक अलाभकारी
प्रांत को बेहतर प्रशासन देने के उद्देश्य से ऐसा किया जा रहा है, लेकिन वास्तविक उद्देश्य था आमूल परिवर्तन चाहने वाले बंगाली
राष्ट्रवादियों पर नियंत्रण करना।” योजना का उद्देश्य भले ही यह बताया गया कि इससे
प्रशासनिक सुविधा होगी,
या असम का विकास होगा,
इसमें राजनीति तो घुसा ही दी गयी थी। ऊपर से भले ही यह कहा गया कि पूर्वी जिलों को कलकत्ता के अनिष्टकारी
प्रभाव से मुक्त किया जाएगा,
या फिर कि मुसलमानों के साथ अधिक न्यायपूर्ण व्यवहार किया जाएगा, लेकिन भीतरी बात
यह थी कि उग्रपंथ का उत्तेजक गढ़ बन जाने वाले बखारगंज और फरीदपुर को पूर्व बंगाल
में हस्तांतरित कर दिया जाए। गृह सचिव एच.एस. रिज़ले ने बंगाल विभाजन के पीछे छुपे
असली इरादे को बखूबी बयान करते हुए कहा था, “संयुक्त बंगाल एक शक्ति है। विभाजित बंगाल विभिन्न रास्ते पर जाएगा। हमारा
उद्देश्य उसे विघटित कर देना है ताकि हमारे शासन का विरोध करने वाला ठोस आधार
कमज़ोर हो जाए।” बंगाल उस समय भारतीय राष्ट्रीय चेतना का केन्द्र था। अंग्रेज़ों ने इस जुझारू
राष्ट्रीय चेतना पर आघात करने के उद्देश्य से बंगाल के बंटवारे का निर्णय लिया था।
अविभाजित बंगाल एक बड़ी ताकत थी। उनका उद्देश्य इसका बंटवारा कर इस ताकत को कमज़ोर
करने का था।
लेकिन इस विभाजन पर
जैसी प्रतिक्रिया हुई उसकी अंग्रेजों ने कल्पना भी नहीं की थी, और विवश होकर उन्हें इसे वापस लेना पड़ा। बिपन
चन्द्र ने ठीक ही कहा है,
“बंगालियों के सभी
वर्गों यथा ज़मींदारों, वकीलों, व्यापारियों, शहर के गरीबों, मज़दूरों और सबसे अधिक छात्रों
के संयुक्त विरोध के नीचे सरकारी इरादे दब गए।” गोखले ने
सही ही कहा था,
“बंगाल विभाजन
अंग्रेजों की निर्मम भूल थी।” अंग्रेजों ने इस भूल का सुधार किया। बंगाल विभाजन द्वारा अंग्रेजों ने
बंगालियों की एकता को नष्ट करने की कोशिश की थी, लेकिन वे अपनी ही चाल में मात खा गए। इस विभाजन ने
बंगालियों में अभूतपूर्व एकता उत्पन्न कर दी। कुछ समय के लिए ही सही, मतभेद समाप्त
हो गए थे। विभाजन विरोधी आन्दोलन स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन में विकसित हुआ।
स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलनों ने जहां एक ओर भारतीयों को आत्मनिर्भर होने की
प्रेरणा दी, वहीँ दूसरी ओर नए आन्दोलनों को गतिशीलता दी, नए प्रकार के साहित्य और
पत्रकारिता को जन्म दिया, जो आवेश और आदर्शवाद से युक्त था। स्वदेशी और बहिष्कार
जैसे नए आन्दोलनों और नए प्रकार के साहित्य और पत्रकारिता ने स्वाधीनता, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता को आगे बढाया। अँग्रेज़
अधिकारियों को आशा थी कि विभाजन का विरोध जल्द ही ठंडा पड़ जाएगा और तब के आंदोलनों
की बंधी-बंधाई लीक से नहीं हटेगा। लेकिन आन्दोलन 1905 के बाद आश्चर्यजनक तेज़ी से
अपने पारंपरिक आधार से दूर हट गया। इसमें नई-नई तकनीकें विकसित होती गईं। इसमें
पहले से अधिक लोग शामिल होते गए। इसने स्वराज संघर्ष का विस्तृत रूप धारण कर लिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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