राष्ट्रीय आन्दोलन
141.
सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
प्रवेश
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी बंगाल के एक उदारवादी नेता थे। उन्हें अक्सर
राष्ट्रगुरु के नाम से जाना जाता है। ब्रिटिश शासन
के दौरान वह भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। एक समय था जब
विद्यार्थी जगत उन्हें आदर्श मानता था, जब सभी राष्ट्रीय विचार-विमर्शों में
उनकी सलाह अपरिहार्य मानी जाती थी, और उनकी वाक्पटुता श्रोताओं को
मंत्रमुग्ध कर देती थी। वह राष्ट्रीय आन्दोलन को जन्म देने वाले नेताओं में से थे।
जीवन चरित
उनका जन्म 10 नवंबर , 1848
में बंगाल के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके परदादा बाबू गौर किशोर बनर्जी थे, बैरकपुर के पास मोनीरामपुर नामक गाँव में आकर बस गए थे। पिता दुर्गा चरण बनर्जी, एक
डॉक्टर, उदार, प्रगतिशील सोच से काफी
प्रभावित थे। सुरेन्द्रनाथ की गहरी, उदार और प्रगतिशील सोच, का
श्रेय उनके पिता को जाता है। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की सोच इटली के एक राष्ट्रवादी
ग्यूसेप माज़िनी से भी काफी प्रभावित थी। वह बचपन से कुशाग्र बुद्धि के थे। अपनी
स्कूली शिक्षा पैरेंटल एकेडमिक इंस्टीट्यूशन में प्राप्त की, जहाँ मुख्य रूप से एंग्लो-इंडियन लड़के पढ़ते थे। 1868 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, 1869 में वह आई.सी.एस. (I.C.S.) की परीक्षा में शामिल हुए। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने
वाले वह पहले भारतीय थे। उन्हें सिलहट में
सहायक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया। लेकिन सरकार ने उन्हें आरोप लगाकर (उनकी
सही उम्र को लेकर कुछ विवाद होने के कारण उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया) प्रशासनिक
सेवा से मुक्त कर दिया। सरकाई नौकरी से हटाए जाने के बाद उन्होंने प्राध्यापक की
नौकरी ज्वायन की।
इन्डियन एसोसिएशन की स्थापना
सुरेन्द्रनाथ
की शुरू से ही राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में रुचि थी। 1876 में उन्होंने युवा
राष्ट्रवादियों की मदद से कलकत्ता में इन्डियन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका
उद्देश्य अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलन के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करना
था। भारतीय एसोसिएशन
द्वारा प्रायोजित अखिल भारतीय राजनीतिक सम्मेलन के रूप में उन्होंने भारत की
राजनीतिक एकता की नई जागृत भावना के अधिक व्यावहारिक प्रदर्शन के लिए मंच तैयार
किया। इस संस्था के द्वारा बनर्जी महाशय ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध भारतीयों की
प्रतिक्रिया को अभिव्यक्त किया। 1880 के दशक में जब बंगाल में ‘काश्तकारी
विधेयक’ पर बहस चल रही थी, तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने
एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया। रैयत
संघों के गठन में मदद की। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लगान का निर्धारण स्थायी
रूप से कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने इस बात की मांग की कि ज़मीन पर मालिकाना हक उन
लोगों को ही दिया जाना चाहिए, जो वस्तुतः उसे जोतते हों। 1883 में कलकत्ता में इंडियन
एसोसिएशन ने एक राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इसी सम्मेलन में सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी ने श्रोताओं से देश के हित के लिए एकजुट होने और संगठित होने का आह्वान
किया। 1884 में मद्रास में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने दादाभाई नौरोजी, के.टी. तेलंग, और एस. सुब्रमण्यम
अय्यर सहित सत्रह प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ "मातृभूमि की रक्षा के लिए
एक राष्ट्रीय आंदोलन" शुरू करने का निर्णय लिया।
द्वितीय अफगान युद्ध
1878-80 के
दौरान द्वितीय अफगान युद्ध लड़ा गया। भारतीय दृष्टि की अभिव्यक्ति देते हुए
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने उसे विशुद्ध आक्रमण की संज्ञा दी और कहा कि यह उन सर्वाधिक
अन्यायपूर्ण युद्धों में से एक है, जिन्होंने इतिहास के पृष्ठों को गन्दला किया है।
उन्होंने मांग की कि चूंकि यह अन्यायपूर्ण युद्ध ब्रिटेन के साम्राज्यवादी
लक्ष्यों के तहत छेडा गया है, इसलिए उसे ही इसका खर्च उठाना चाहिए।
शिक्षा के प्रसार में महत्त्वपूर्ण
भूमिका
1875 में उन्होंने मेट्रोपॉलिटन कॉलेज के अंग्रेजी प्रोफेसर के रूप में शिक्षण पेशे
में कदम रखा। अगले 37 वर्षों तक खुद को शिक्षण करियर के लिए समर्पित कर दिया। इसलिए उन्हें "राष्ट्रगुरु" के नाम से जाना जाता
है। शिक्षा के प्रसार के
लिए उन्होंने 1882 में रिपन कॉलेज (अब सुरेंद्रनाथ कॉलेज) की स्थापना की। शिक्षा
विभाग में उनका कार्य राजनीतिक विभाग से कम मूल्यवान नहीं था, रिपन कॉलेज के माध्यम से हजारों युवा उनके प्रत्यक्ष प्रभाव में आये और
उन्होंने उदार शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने अपने छात्रों
को नवजात भारतीय राष्ट्रवाद की एक नई भावना से प्रेरित किया। वे भारत के अब
तक के सबसे वाक्पटु वक्ता थे। उन्होंने अपने छात्रों में राष्ट्रवाद के विचारों को प्रज्वलित करने और जागृत
करने के लिए कक्षा का उपयोग एक माध्यम के रूप में किया। बनर्जी ने विधवाओं के
पुनर्विवाह और लड़कियों के लिए विवाह की आयु सीमा बढ़ाने के लिए भी लड़ाई लड़ी।
पत्रकारिता में गहरी पैठ
पत्रकारिता में
उनकी गहरी पैठ थी। 1879 में उन्होंने द बंगाली (जिसकी स्थापना 1862 में गिरीश चंद्र घोष ने की थी) अखबार खरीदा और 40 साल तक उसका संपादन
किया। अंग्रेज़ी दैनिक बंगाली
के माध्यम से उन्होंने सरकारी दमनात्मक कार्रवाइयों, जैसे, वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट, आदि के विरुद्ध आवाज़ उठाई। वह
मानते थे कि विभिन्न वर्गों में बंटी भारतीय जनता को एक करने में आधुनिक उद्योग
बहुत मददगार होंगे। 1902 में उन्होंने अपने अखबार ‘बंगाली’ में लिखा था, “राजनीतिक अधिकारों की
लड़ाई भारत की विभिन्न जातीयताओं को कुछ समय के लिए तो ज़रूर एक सूत्र में बाँध सकती
है, लेकिन जैसे ही
ये अधिकार मिल जाएंगे, उन सबके अपने-अपने हित फिर अलग-अलग हो जाएंगे। इन जातीयताओं के आर्थिक हितों
को अगर एक सूत्र में पिरो दी जाएं, तो यह सूत्र फिर कभी नहीं टूटेगा। इसलिए वाणिज्यिक और औद्योगिक गतिविधियाँ बहुत
मज़बूत एकता का सूत्र होती हैं और इस कारण भारतीय राष्ट्र की स्थापना के लिए ये
बहुत महत्त्वपूर्ण कारक हैं।” पत्रकारिता के लिए उन्हें
सज़ा भी हुई। उन्हें एक मुक़दमें के खिलाफ लिखने के
लिए सज़ा हुई थी। वे जेल जाने वाले पहले भारतीय पत्रकार बने। कलकत्ता के उच्च
न्यायालय में शालिग्राम की प्रतिमा को लेकर एक मुक़दमा चल रहा था। जज नौरिस ने अपने
निर्णय में यह बताया की वह प्रतिमा सौ साल से ज़्यादा पुरानी नहीं है। उसकी इस
कार्रवाई से हिन्दुओं की भावना को ठेस पहुंची। 2 अप्रैल 1883 को बनर्जी ने अपने
अखबार ‘बंगाली’ में संपादकीय टिप्पणी
लिखी, “नौरिस ने सबूत दे दिया
है की वह इस उच्च और जिम्मेदार पद के लायक नहीं हैं। इस युवा और नौसिखिया
न्यायाधीश की सनक पर लगाम लगाने के लिए कुछ-न-कुछ किया ही जाना चाहिए।” उनके खिलाफ मानहानि
का मुक़दमा चलाया गया। उन्हें दो मास क़ैद की सज़ा दी गयी। जेल जाते समय उन्होंने
दावा किया, " स्वराजवादी अब कारावास को सार्वजनिक सेवा के लिए योग्यता बना रहे हैं"। इस सज़ा के खिलाफ कलकत्ता में उग्र-प्रदर्शन और जबरदस्त हड़ताल हुई थी। आगरा, फ़ैज़ाबाद, अमृतसर, लाहौर और पुणे जैसे
भारतीय शहरों में भी विरोध प्रदर्शन और हड़तालें भड़क उठीं। स्टेट्समैन ने विशेष रूप से उनके समर्थन
और फैसले के खिलाफ कई लेख प्रकाशित किए। स्टेट्समैन के संपादक रॉबर्ट नाइट
को न्याय के लिए लड़ने वाले एक चैंपियन के रूप में सम्मानित किया गया और उन्हें
भारत की जनता का भरपूर समर्थन मिला। प्रिंट में उनके मुद्दे का समर्थन करने के
अलावा, नाइट ने व्यक्तिगत रूप
से भी बनर्जी के लिए अपना समर्थन प्रदर्शित किया।
कांग्रेस का अध्यक्ष चुने गए
भारतीयों में
राष्ट्रीय चेतना जगाने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। कांग्रेस की स्थापना के बाद वह
इसकी राजनीति में सक्रिय हो गए। समान हितों के कारण सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने
संगठन का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विलय कर दिया। दो बार, 1895 (पूना) और 1902 (अहमदाबाद) में,
वह कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गए। उन्होंने सरकार से संवैधानिक सुधारों की मांग
की। आई.सी.एस. की परीक्षा में प्रवेश की आयु बढाने के लिए उन्होंने आन्दोलन चलाया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने अख़बार “द बंगाली” के ज़रिए ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट और आर्म्स एक्ट की आलोचना की। उन्होंने इल्बर्ट बिल के ख़िलाफ़ भी अभियान चलाया।
बंगाल विभाजन का विरोध
वह बंगाल
प्रांतीय विधान सभा के सदस्य भी बने। 1905 में बंगाल प्रांत के विभाजन का विरोध
करने वाले सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक नेताओं में से एक थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने 'बंगाली' अख़बार द्वारा विभाजन के प्रस्ताव
की आलोचना की। सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी ने कहा कि ‘घोषणा बम के गोले के सामान गिरी’। विभाजन का जमकर विरोध
हुआ। लेकिन तुरत ही यह महसूस किया गया कि मात्र विरोध प्रदर्शन निरर्थक था।
बहिष्कार की शपथ तैयार की गई और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लोगों से इस पर हस्ताक्षर
करने की अपील की: "मैं शपथ लेता हूँ कि मैं आज से कम से कम एक साल तक सभी
अंग्रेजी निर्मित वस्तुओं की खरीद से दूर रहूँगा, भगवान मेरी मदद करें।" बंगाल विभाजन के समय
सर सुरेन्द्रनाथ ने अतुलनीय सेवाओं के द्वारा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया। यह तब
था जब सर सुरेन्द्रनाथ ने अपने देशवासियों से "आत्मसमर्पण न करने
वाले" की उपाधि अर्जित की। विभाजन के सबसे काले दौर में भी सर
सुरेन्द्रनाथ कभी नहीं डगमगाए, कभी उम्मीद नहीं खोई। उन्होंने
पूरी ताकत से आंदोलन में खुद को झोंक दिया। उनके उत्साह ने पूरे बंगाल को प्रभावित
किया। ‘तय तथ्य’ को बदलने का उनका दृढ़ संकल्प अडिग था। उन्होंने लोगों को साहस और
संकल्प का आवश्यक प्रशिक्षण दिया। उन्होंने उन्हें सत्ता से न डरना सिखाया। उन्होंने बंगाल और भारत भर में
विरोध प्रदर्शन, याचिकाएँ और व्यापक
सार्वजनिक समर्थन का आयोजन किया, जिसने अंततः 1912 में अंग्रेजों को बंगाल के विभाजन को उलटने के लिए मजबूर किया। बनर्जी स्वदेशी आंदोलन
का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उन्होंने भारतीय निर्मित वस्तुओं के उपयोग को
बढ़ावा दिया और विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करने के लिए प्रोत्साहित किया।
गांधीजी से मिलन
गांधीजी जब
1896 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आए थे, तो कलकत्ते में वे ‘बंगाल के देव’ सुरेन्द्र नाथ बनर्जी से मिले। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी बंगाल के बेताज बादशाह थे। उस समय के बंगाल के वे
एक सुविख्यात नेता थे। उन्होंने 1895 के पूना (पुणे) के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वार्षिक सत्र की अध्यक्षता की
थी। जब गांधीजी उनसे मिले उनके आसपास और भी मिलने वाले बैठे थे। उन्होंने गांधीजी
से कहा, “हो सकता है लोग आपके काम में रुचि न लें, फिर भी आप ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिए। इस काम में
आपको महाराजाओं की मदद की जरुरत होगी। राजा सर प्यारेमोहन मुखर्जी और महाराज ज्योतीन्द्र मोहन ठाकुर से
भी मिलियेगा। दोनों उदार वृत्ति के हैं और सार्वजनिक काम में काफी हिस्सा लेते हैं।” 1902 अहमदाबाद अधिवेशन
में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने दक्षिण अफ्रीका पर एक नया
प्रस्ताव पारित किया: "इन भारतीय प्रवासियों की स्वीकार्य निष्ठा और युद्ध
के दौरान उनके द्वारा दी गई सहायता तथा सबसे महत्वपूर्ण समय में भारत द्वारा
ब्रिटिश साम्राज्य को दी गई अमूल्य सहायता को देखते हुए, कांग्रेस हृदय से
प्रार्थना करती है कि भारत सरकार दक्षिण अफ्रीका में भारतीय प्रवासियों के साथ
न्यायपूर्ण, समतापूर्ण और उदार व्यवहार
सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक व्यावहारिक कदम उठाने की कृपा करेगी।"
राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार
अन्य
उदारवादियों की तरह वह भी ब्रिटिश राज के समर्थक थे। इसके बावजूद राष्ट्रीयता की
भावना के प्रसार करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। वे ‘भारतीय राष्ट्रीयता
के अग्रदूत’ माने जाते हैं। गांधीजी कहते हैं, “सर सुरेंद्र जैसे
अग्रदूतों द्वारा किए गए अमूल्य कार्य के बिना वर्तमान समय के आदर्श और आकांक्षाएँ
असंभव थीं।” उनके सामने पहला लक्ष्य यही था कि भारतीयों को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ने और
भारतीय जनता के रूप में उनकी पहचान बनाने की प्रक्रिया आगे बढाई जाए। वे कहा करते
थे, ‘भारत एक बनता हुआ
राष्ट्र है’। वे मानते थे कि राष्ट्रीय
एकता और राष्ट्रवाद की भावना को बढावा देकर ही राष्ट्र का लक्ष्य प्राप्त किया जा
सकता है।
स्वशासन की प्राप्ति के लिए सुधार
1915 में सुरेन्द्रनाथ
बनर्जी की पहल पर कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कहा गया कि अब समय आ
गया है कि स्वशासन की प्राप्ति के लिए सुधार के पूर्ण उपाय किए जाएं। इसके लिए
सरकार की प्रणाली को उदार बनाया जाए। प्रस्ताव ने कांग्रेस को सुधार की एक योजना
बनाने के लिए अधिकृत किया।
तिलक के संघर्ष की सराहना
नरमपंथी होते
हुए भी उनके दिल में गरमपंथी नेता तिलक के लिए बहुत इज्ज़त थी। जब तिलक को राजद्रोह
के मुक़दमे में सज़ा दी गयी तो 1897 में
अमरावती कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने बहुत भावुक होकर तिलक के संघर्ष की सराहना
करते हुए कहा था, उन्हें सज़ा मिलने पर आज सारा देश रो रहा है। जब 1917 में एनी बेसंट को
गिरफ्तार कर लिया गया, तो नरमपंथी होते हुए भी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी होम रूल लीग में शामिल हो गए।
उन्होंने एनी बेसंट की गिरफ्तारी के खिलाफ आवाज़ उठाई।
नेशनल लिबरल एसोसिएशन की स्थापना
सुरेन्द्रनाथ
ने कांग्रेस के मतों के विपरीत मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का समर्थन किया। सुरेंद्रनाथ
बनर्जी के नेतृत्व में कान्ग्रेस के कई वरिष्ठ नेता सरकारी प्रस्तावों को स्वीकार करने के पक्ष में थे। इस कारण वे कांग्रेस से अलग होकर 1919 में नेशनल लिबरल
एसोसिएशन की स्थापना की थी। 1921 में वे बंगाल में स्थानीय स्वशासन के मंत्री बने और नागरिकों की सेवा के लिए
कलकत्ता नगर निगम की स्थापना की। बंगाल सरकार में मंत्री का पद स्वीकार करने के
कारण उन्हें राष्ट्रवादियों और आम जनता का गुस्सा झेलना पड़ा और वे 1923 में स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार बिधान चंद्र रॉय से बंगाल विधानसभा का चुनाव हार गए, जिससे उनका राजनीतिक जीवन पूरी तरह से समाप्त हो गया। जिसके बाद उन्होंने अपनी
आत्मकथा, ए नेशन इन
मेकिंग (1925) लिखने के लिए राजनीति से संन्यास ले लिया।
निधन
6 अगस्त, 1925 में बैरकपुर में उनका निधन हुआ। उनकी मृत्यु ने भारतीय राष्ट्रवाद
के एक युग का अंत कर दिया। बनर्जी ने ब्रिटिश नीतियों में नस्लीय भेदभाव की निंदा
करके और पूरे भारत में अपने भाषणों में इन अन्यायों को संबोधित करके व्यापक
लोकप्रियता हासिल की। भारतीय राजनीतिक जीवन पर उन्होंने अपने व्यक्तित्व की गहरी
छाप छोड़ी है। भारत में शुरुआती राष्ट्रवादी आंदोलन को आकार देने में उनका योगदान
आधारभूत था। उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक के रूप में सदैव याद किया
जाएगा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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