गांधी और गांधीवाद
157. ‘काले अध्यादेश’ का विरोध
एंपायर थियेटर जहां
प्रवासी भारतीयों की विशाल सभा हुई थी
प्रवेश
सर एलन बर्न्स (9 नवंबर 1887 - 29 सितंबर 1980) ने अपनी पुस्तक ‘Colour
Prejudice’ (वर्ण-विद्वेष) में कहा है, “दक्षिण अफ़्रीका की घरेलू नीति का ह्रास होते-होते वह उस ग़रीब गोरे की
हिमायत भर रह गई, जो रंगीन जातियों को अपमानित और अपदस्थ करने वाली शासन-प्रणाली की ही
उपज है। संस्कृतियों के अंतर और रहन-सहन के तरीक़ों के बे-मेल होने की बड़ी-बड़ी
बातें तो सिर्फ़ ऊपरी दिखावा है, असली कारण तो रहा है गोरे और कालों की आर्थिक प्रतिद्वंदिता।” जुलू विद्रोह
को दबाए जाने के साथ ही ट्रांसवाल का बोअर ब्रिटिश शासक भारतीयों पर अपनी कुदृष्टि
डालने लगा। उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि कालों और रंगदारों को उनकी औकात में रखा जाए।
इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए अगस्त 1906 में ट्रांसवाल में नया ख़ूनी क़ानून का
अध्यादेश ज़ारी कर दिया गया था। गांधीजी को इसके ख़िलाफ़ प्रतिवाद करना था। सही मायने
में गांधीजी का राजनैतिक जीवन यहीं से शुरु होता है। यह एक नये संघर्ष की शुरुआत
थी। इस आंदोलन के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। इस आंदोलन के साथ उनका
सत्याग्रह का प्रयोग शुरु हो गया था।
नेटाल के गोरों ने अपनी खानों
और गन्ने के खेतों में काम करने के लिए हज़ारों गिरमिटिया मज़दूरों को
भारत से बुलवाया था। समय के साथ उनमें से कई आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो चले थे।
नेटाल के गोरों को यह असह्य था। वे किसानों और व्यापारियों के रूप में एक भी
स्वतंत्र भारतीयों को अपने बीच में रहने नहीं देना चाहते थे। बोअर-युद्ध के बाद
ट्रांसवाल के लोगों ने “एशियावासियों के अतिक्रमण” का काफ़ी हो हल्ला किया। उन्होंने यह अफ़वाह फैलाई कि प्रवासी भारतीय काफ़ी
बड़ी संख्या में दक्षिण अफ़्रीका में बसने के लिए घुसे चले आ रहे हैं। वास्तविक स्थित
यह थी कि बोअर-युद्ध शुरू होने पर जो बहुत-से भारतीय परिवार ट्रांसवाल से चले गए थे, युद्ध के समाप्त होने पर
उनके लौट आने के बाद भी, 1903 में, वहाँ के भारतीयों की कुल संख्या 1899 से कम ही थी। गांधीजी चाहते थे कि नए गिरमिटिया मज़दूरों को भले ही न
आने दिया जाए, लेकिन पढे-लिखे भारतीयों का सीमित संख्या में आना न रोका जाए,
क्योंकि भारतीय व्यापारियों को क्लर्की और मुनीमी के कामों में ऐसे
लोगों की आवश्यकता थी। गांधीजी ने इस शंका को निर्मूल बताते हुए दक्षिण अफ्रीका-स्थित ब्रिटिश उच्चायुक्त से कहा था, “भारतीयों को
राजनैतिक सत्ता नहीं चाहिए। हम केवल इतना चाहते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य
प्रजाओं के साथ शांति और मेल-मिलाप से और इज़्ज़त और आत्म-सम्मानपूर्वक हमें रहने
दिया जाए।” लेकिन गांधीजी की यह समझौते वादी नीति ज़्यादा दिनों तक चल नहीं पाई।
जनरल स्मट्स ने अपनी एक घोषणा में कहा था कि सरकार ने फैसला कर लिया है
कि “कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आएं इसे गोरों का मुल्क बनाकर रहेंगे, और इस मामले में अपने इरादे से रंचमात्र भी नहीं डिगेंगे।” लायनल कर्टिस {Lionel Curtis} (जिसने 1919 में डायर्की {दोअमली शासन प्रणाली} की खोज की थी), 1903 में ट्रांसवाल में अधिकारी था। वह लॉर्ड मिलनर का विश्वस्त आदमी था। जब गांधीजी
ने उससे अपने देशवासियों की अच्छाइयां बतानी शुरू की तो उसने कहा था, “मि. गांधी, आप नाहक जागे हुए को जगाने की
कोशिश कर रहे हैं। इस देश के गोरों को भारतीयों के दुर्गुणों से ज़रा भी डर नहीं
लगता, हमें असली डर तो आप लोगों की अच्छाइयों से है।”
ऐसी विचारधारा रखने वाला
कर्टिस कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिससे भारतीयों को जकड़ कर रखा जाए। उसकी राय में दक्षिण अफ़्रीका का
दरवाज़ा भारतीयों के लिए जब तक खुला रहेगा तब तक ट्रांसवाल सुरक्षित नहीं माना जा
सकता। वह यह भी महसूस कर रहा था कि बार-बार भारतीय और सरकार के बीच समझौता हो जाने
से भारतीयों की प्रतिष्ठा हर बार बढ़ जाती है। वह इस प्रतिष्ठा को घटाना चाहता था,
वह उनसे रज़ामंदी नहीं चाहता था, उनकी आज़ादी पर प्रतिबंध चाहता था।
इसलिए उसने एशियाटिक एक्ट का मसविदा बनाया और सरकार को सलाह दी कि जब तक इस
मसविदे के अनुसार क़ानून बनकर तैयार नहीं हो जाता तब तक भारतीयों का ट्रांसवाल में
अनधिकृत प्रवेश नहीं रोका जा सकता। हिन्दुस्तानी लोग छिपे तौर पर ट्रांसवाल में दाखिल होते रहेंगे और जो लोग इस तरह दाखिल होंगे उन्हें ट्रांसवाल से बाहर निकालने के लिए वर्तमान कानूनों में कोई भी व्यवस्था
नहीं है। ट्रांसवाल में ब्रिटिश सत्ता स्थापित होने के बाद हिन्दुस्तानियों को
जो परवाने दिये जाते थे, उन पर या तो हिन्दुस्तानी के दस्तखत लिए जाते थे या दस्तखत न कर सकने
की स्थिति में उसके अंगूठे की निशानी ली जाती थी। इसके बाद किसी अधिकारी ने सुझाया कि परवानों पर हिन्दुस्तानियों
की फोटो भी रहनी चाहिए। इस प्रकार फोटो, अंगूठे की निशानी और दस्तखत-ये सब वैसे ही चल पड़े। इसके लिए कोई
कानून बनाना ज़रूरी नहीं माना गया। 4 अगस्त को,
औपनिवेशिक
सचिव, पैट्रिक डंकन ने विधान परिषद में कहा कि सरकार एक समग्र विधेयक पेश
करने की मंशा रखती है जो उपनिवेशों के लिए राज्य सचिव को भेजे गए पहले के
प्रस्तावों की तुलना में कुछ मामलों में और भी अधिक दमनकारी होगा। डंकन ने घोषणा
की कि जब परिषद अगली बार बैठक करेगी तो सरकार एशियाई लोगों के पंजीकरण के संबंध
में कानून पेश करने का प्रस्ताव करेगी।
एशियाटिक लॉ अमेन्डमेन्ट अध्यादेश प्रकाशित
गांधीजी फीनिक्स में कुछ सप्ताह
बिताने के बाद, 1906 के अगस्त महीने के आख़िरी दिनों में,
कस्तूरबा और बच्चों को फीनिक्स में छोड़कर जोहान्सबर्ग चले
आए। गांधीजी अपने जर्मन दोस्त हरमन कालेनबाख के यहां ठहरे। एक बार फिर वह भारतीयों
की ओर से याचिकाएँ और स्मारक लिखने में व्यस्त हो गए। ट्रांसवाल की सरकार के साथ
लड़ाई अब एक महत्वपूर्ण चरण में पहुँच रही थी, और उन्हें पहले
से ही क़ानून की किताबों में मौजूद कानूनों से भी अधिक प्रतिबंधात्मक कानून पारित
करने से रोकने के लिए नए तरीकों की आवश्यकता होने वाली थी। लियोनेल कर्टिस की
अध्यक्षता में सरकारी अधिकारियों द्वारा "एशियाई कानून संशोधन अध्यादेश"
नामक एक मसौदा कानून पहले ही तैयार किया जा चुका था। इसे 22 अगस्त 1906 को ट्रान्सवाल सरकार के गज़ट में प्रकाशित किया गया था। इंडियन ओपिनियन में कड़े
शब्दों में प्रमुख लेख छापा जिसका शीर्षक था "घृणित!", जिसमें कहा गया कि "विचाराधीन विधेयक से ट्रांसवाल के भारतीय
समुदाय की सबसे बुरी आशंकाएँ सच हो गई हैं।" जब गांधीजी ने
इसे पढ़ा तो उनके रोंगटे खड़े हो गए। गांधीजी को जो बुरा अंदेशा
था, उन्होंने पाया कि उनके सभी डर सच हो गए। उसमें हिन्दुस्तानियों
के प्रति द्वेष और घृणा के सिवा और कुछ नहीं था। उन्होंने पाया कि भारतीयों के पंजीकरण का तरीक़ा बहुत ही अपमानजनक और
सताने वाला है। इसके तहत ट्रांसवाल में भारतीयों का प्रवेश बंद कर दिया गया। इस
अध्यादेश के तहत आठ साल से अधिक की उम्र के हर भारतीय को पंजीकरण प्रमाण-पत्र लेना
ज़रूरी था। परवाने लेते समय अपने पुराने परवाने वहाँ के अधिकारियों को सौंप देने थे।
इसपर अंगूठे और सारी उंगलियों का निशान लगाना था और इसे हर भारतीय को चौबीस घंटे
अपने पास रखना था। गांधीजी एक पुलिस अधिकारी हेनरी की लिखी ‘फिंगर इम्प्रेशंस’ (अंगुलियों की निशानियाँ) नामक पुस्तक
पढ़ गए। उसमें उन्होंने देखा कि इस प्रकार अंगुलियों की छाप कानूनन तो केवल अपराधियों की ही ली
जाती है। पंजीकरण पत्र न रखने पर सौ पौंड का ज़ुर्माना, तीन महीन की जेल या निष्कासन की सज़ा
दी जा सकती थी। उस पर से पुलिस को अधिकार दे दिया गया था कि वह पंजीकरण पत्र देखने
के लिए किसी के भी घर में प्रवेश कर सके या सड़क पर किसी भी व्यक्ति को रोक सके। यदि कोई भारतीय
किसी सरकारी कार्यालय में कोई अनुरोध करता, तो उसे पहले यह
साबित करने के लिए अपना प्रमाण पत्र दिखाना होगा कि वह एक वास्तविक निवासी है। अगर
उन्हें ट्रेडिंग लाइसेंस या साइकिल लाइसेंस चाहिए होता या फिर कोई शिकायत दर्ज
करानी होती, तो कोई भी सरकारी
अधिकारी तब तक उनकी बात पर ध्यान नहीं देता जब तक कि वे सर्टिफिकेट पेश नहीं कर
देते।
कहा तो यह गया था कि इस क़ानून
की सख़्त ज़रूरत है ताकि ट्रांसवाल में बेतहाशा ग़ैर-क़ानूनी आमद को रोका जा सके।
लेकिन यह बिल्कुल ही सही नहीं था। प्रवेश संबंधी क़ानून पहले से ही सख़्त थे। पिछले
एक साल में वहां की सरकार ने डेढ़ सौ से अधिक भारतीयों पर अनधिकृत प्रवेश के मुकदमे
चलाए थे और उनमें सभी को सज़ा दी गई थी। एक मामले में तो अति यहां तक की गई कि गोरे
मजिस्ट्रेट ने भारतीय पत्नी को उसके पति से जुदा कर सात घंटे में देश से निकल जाने
की सज़ा सुनाई थी। एक अन्य मामले में ग्यारह साल के एक बच्चे पर तीस पौंड का
ज़ुर्माना या तीन महीने की क़ैद की सज़ा दी गई थी।
क़ानून का मकसद
दरअसल इस क़ानून का मकसद
ट्रांसवाल के पढ़े-लिखे और संपन्न भारतीयों को अपमानित करना था। इस नियम के तहत
लोगों का जीवन मुश्किलों से भर देना ही इस क़ानून की मंशा थी। इस क़ानून के बल पर
लाखों पौंड के इज़्ज़तदार व्यापारियों को सरकार मिनटों में अपराधी के तौर पर बेइज़्ज़त
कर सकती थी। परवाने के नाम पर किसी भी भारतीय महिला की लाज लूटी जा सकती थी। लोगों
के माल असबाब बरबाद हो सकते थे। गांधीजी ने तुरत यह समझ लिया था कि यदि यह विधेयक
पारित होकर अधिनियम बन गया और भारतीयों ने इसे स्वीकार कर लिया तो इस देश में उनकी
हस्ती ही मिट जाएगी। ‘इंडियन ओपिनियन’ में छापने के लिए उन्होंने इसका गुजराती में अनुवाद भी किया, ताकि अधिक से अधिक लोगों को इस
विधेयक के प्रावधानों का पता लगे। इस अध्यादेश के प्रावधानों से हताश हो लोगों ने गांधीजी
से निवेदन किया था कि वे जोहानिस्बर्ग लौट जाएं।
बी.आई.ए. ने स्थानीय उपनिवेश सचिव के समक्ष प्रस्तावित उपाय
के विरुद्ध तुरंत अपना पक्ष रखा। इस लिखित संचार के पश्चात, एक प्रतिनिधिमंडल उपनिवेश सचिव पैट्रिक डंकन से मिला, जिन्हें भारतीयों द्वारा कुछ स्पष्ट शब्दों में बोलना पड़ा। उन्हें
बताया गया कि नया कानून किसी भी परिस्थिति में भारतीय समुदाय को स्वीकार्य नहीं
होगा। प्रतिनिधिमंडल ने उपनिवेश सचिव को इस बात में कोई संदेह नहीं छोड़ा कि यदि
सरकार ने उनके विनम्र अनुनय-विनय के प्रयासों की उपेक्षा करते हुए अध्यादेश लागू
किया, तो भारतीय इसका पालन
नहीं करेंगे, वे अपना पुनः पंजीकरण
नहीं कराएंगे, न ही जुर्माना भरेंगे -
बल्कि वे जेल जाएंगे। एक सप्ताह बाद एसोसिएशन ने उपनिवेशों के राज्य सचिव और भारत
के गवर्नर जनरल को विरोध के केबल भेजे।
गांधीजी की भारतीयों को सलाह
ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की कार्यकारी समिति ने मसौदा
अध्यादेश पर विचार करने के लिए 24 अगस्त को बैठक की। गांधीजी ने भारतीयों को सलाह दी कि अपमान सहने के बजाए उन्हें इस
अध्यादेश का विरोध करना चाहिए। शाम को बिल पर विचार करने के लिए ट्रांसवाल इंडियन
एसोसियेशन की कार्यकारिणी की बैठक हुई। उस बैठक का वातावरण बहुत गर्म था। लोगों
में बड़ी खलबली और उत्तेजना फैली हुई थी। एक सदस्य ने तो गुस्से में यहां तक कह
डाला कि अगर कोई व्यक्ति मेरी पत्नी से पहचान पत्र मांगेगा तो मैं उसे गोली से मार
दूंगा, फिर उसका नतीज़ा कुछ भी हो। स्थिति नियंत्रण से बाहर न जाए इसलिए गांधीजी
ने सोचा कि लोगों की शक्ति को हिंसा की जगह शांति स्थापित करने में लगाया जाए। उन्होंने
इसे ‘काला अध्यादेश’ की संज्ञा दी। जिस तरह की उन दिनों परिस्थितियां थीं, गांधीजी को लगने लगा कि इस काले
क़ानून का विरोध अकेले अपने बलबूते पर ही करना है।
औपनिवेशिक सचिव डंकन ने 1 सितंबर को एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल
से मिलने और इस मुद्दे पर चर्चा करने पर सहमति जताई। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की ओर से एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल, जिसमें श्री अब्दुल गनी, इस्सोप मियां, हाजी ओजर एली, पीटर मूनलाइट और गांधीजी
शामिल थे, औपनिवेशिक सचिव से मिलने
के लिए प्रिटोरिया गए। डंकन ने औपचारिक उत्तर में
आश्वासन दिया कि सरकार उनके सुझावों पर विचार करेगी। लेकिन 4 सितंबर को एशियाई संशोधन विधेयक विधान परिषद में पेश किया गया और
इसके पहले दो वाचन पारित हो गए। डंकन ने अपने संबोधन में घोषणा की कि एशियाई लोगों
के कई महत्वपूर्ण वर्गों द्वारा महिलाओं से कुछ विशेष विवरण देने की आवश्यकता के
संबंध में महसूस की गई गहरी शंकाओं के कारण, सरकार ने फैसला किया था
कि यह कानून महिलाओं पर लागू नहीं होना चाहिए।
एंपायर थियेटर में भारतीय प्रवासियों की
विशाल सभा
11 सितम्बर 1906 को अपराह्न दो बजे गांधीजी के नेतृत्व में भाड़े पर लिए गए
जोहानिस्बर्ग के एंपायर थियेटर (यहूदियों की नाटकशाला) में भारतीय प्रवासियों की एक विशाल सभा हुई। यह बैठक न केवल
दक्षिण अफ्रीकी भारतीयों के इतिहास में, बल्कि भारतीय
उपमहाद्वीप के लोगों और वास्तव में औपनिवेशिक शासन के तहत रहने वाली सभी पराधीन
जातियों के लिए एक यादगार और ऐतिहासिक अवसर साबित हुई, क्योंकि इसने “सत्याग्रह” या "निष्क्रिय
प्रतिरोध" को जन्म दिया, जैसा कि तब कहा जाता था
और दुनिया के लिए अब तक अज्ञात एक हथियार के माध्यम से स्वतंत्रता के एक नए युग की
शुरुआत की। इस सभा में ट्रांसवाल के हर क्षेत्र
के क़रीब 3000 लोग इकट्ठा हुए। बड़ा हॉल दक्षिण भारत की तमिल और तेलुगु, गुजराती और हिंदी भाषा बोलने वाले लोगों के शोर से गूंज रहा था। कुछ
महिलाओं ने साड़ी पहनी हुई थी। पुरुषों ने यूरोपीय और भारतीय कपड़े पहने हुए थे; कुछ ने हिंदू
पगड़ी और टोपी पहनी हुई थी, कुछ ने मुस्लिम टोपी पहनी हुई थी। उनमें अमीर व्यापारी, खनिक, वकील, गिरमिटिया
मज़दूर, वेटर, रिक्शा वाले, घरेलू नौकर, फेरीवाले और गरीब दुकानदार शामिल थे। ट्रांसवाल ब्रिटिश
इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष अब्दुल गनी ने अध्यक्षता की। वे एक अमीर और प्रभावशाली
व्यवसायी थे, और सेठ हाजी हबीब भी, जिन्होंने मुख्य भाषण दिया। सभापति
द्वारा कार्रवाई शुरू किए जाने के पहले ही थियेटर का आर्केस्ट्रा, बालकनी और गैलरी खचाखच भर गए थे। आमंत्रित किए गए
औपनिवेशिक सचिव तो नहीं आए थे, लेकिन एक अन्य अधिकारी
पर्यवेक्षक की भूमिका निभाने के लिए वहाँ मौजूद थे। सभा द्वारा पारित प्रस्तावों
में सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव प्रसिद्ध चौथा प्रस्ताव था, जिसके द्वारा भारतीयों ने अध्यादेश के आगे न झुकने और इस तरह के न
झुकने पर होने वाले सभी दंडों को भुगतने का संकल्प लिया। गांधीजी ने बिल के प्रावधान को अँग्रेज़ी और गुजराती में लोगों को
समझाते हुए कहा कि कोई भारतीय इस काले क़ानून के आगे कभी सिर नहीं झुकाएगा। गांधी ने स्पष्ट
किया कि यह अध्यादेश ट्रांसवाल में रहने वाले दस या पंद्रह हज़ार भारतीयों को
अपमानित करने का सरकार द्वारा जानबूझकर किया गया प्रयास था, और अगर इसे कानून बना दिया गया तो दक्षिण अफ्रीका की सभी अन्य
सरकारें भी इसका अनुकरण करेंगी और इसे लागू करेंगी। उन्होंने कहा, "यह कानून दक्षिण
अफ्रीका में हमारे अस्तित्व की जड़ों पर प्रहार करने के लिए बनाया गया है।" "यह
अंतिम कदम नहीं है, बल्कि हमें देश से बाहर निकालने के उद्देश्य से
पहला कदम है।" कई अन्य लोगों ने भी भाषण
दिया। कुल मिलाकर लगभग बीस भाषण विभिन्न भारतीय भाषाओं में दिए गए, और गांधीजी अंतिम वक्ता थे। हर एक ने
प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा कि “दि एशियाटिक रजिस्ट्रेशन” अध्यादेश का विरोध किया जाए और सभा के अंत में इस “कुत्ते के पट्टे” (क़ानून) को कभी न मानने का
निर्णय लिया गया। हाजी हबीब नाम के एक व्यापारी ने ईश्वर के नाम की शपथ लेते हुए
कहा कि वह इस काले अध्यादेश को कभी स्वीकार नहीं करेगा। उसने सभी उपस्थित लोगों से
शपथ लेने को कहा और सभी लोगों ने उच्च स्वर में क़सम खाई कि मिट जाएंगे लेकिन इस
काले क़ानून के आगे नहीं झुकेंगे। गांधीजी ने अपने समापन वक्तव्य में कहा था, “मेरा लक्ष्य
लोगों को हराना और उन पर शासन करना नहीं है। मैं तो मानवोचित सम्मान और समानता को
हासिल करना चाहता हूं। ये समानता ईश्वर ने हमें दी है। ईश्वर ने हर इंसान को समान
बनाया है। मुझे शारीरिक नहीं आत्मिक लड़ाई चाहिए। क्योंकि आत्मा की ताक़त किसी भी
बंदूक से ज़्यादा होती है। उसका असर किसी भी तोप के असर से ज़्यादा होता है। मेरे
लिए सिर्फ़ एक रास्ता बचा है, यानी मरना लेकिन कभी भी इस क़ानून को स्वीकार न करना, भले ही सब पीछे ठहर जाएं और
मुझे अकेला छोड़ दें।”
अब्दुल गनी ने तीन बजे बैठक की शुरुआत की। बैठक के लिए
जिम्मेदार परिस्थितियों की समीक्षा करने के बाद,
उन्होंने
घोषणा की कि वे पंजीकरण कराने से इनकार कर देंगे और यदि आवश्यक हुआ तो जेल भी
जाएंगे। इस तरह निष्क्रिय प्रतिरोध के आधुनिक आंदोलन की शुरुआत 11 सितंबर, 1906 को दोपहर करीब 3:15 बजे जोहान्सबर्ग के एम्पायर थिएटर में हुई
थी। निष्क्रिय प्रतिरोध का विषय सभी वक्ताओं द्वारा दोहराया गया। जब भी कोई इस
मुद्दे के लिए जेल जाने की बात करता, तो भीड़ भरी बालकनियों
से जोरदार जयकारे लगते और दुकानों में बैठे शांत और पगड़ीधारी व्यापारी भी इसे
स्वीकार कर लेते। श्रोतागण उत्साह में थे और कभी-कभी भाषणों को लंबे समय तक जोरदार
तालियों की गड़गड़ाहट से रोक दिया जाता था। गांधीजी ने कहा‐“सरकार ने भलमनसाहत की सारी बुद्धि को तिलांजलि दे दी है। लेकिन मैं हिम्मत और विनय
के साथ घोषित करता हूँ कि जबतक अपनी प्रतिज्ञा पर सच्चाई के
साथ डटे रहनेवाले मुट्ठीभर लोग भी रहेंगे, तबतक संघर्ष का एक ही
अंत हो सकता है‐ वह है विजय।” गांधीजी के भाषण
समाप्त होने के कुछ ही क्षण बाद, पूरा श्रोता खड़ा हो गया और नए कानूनों का पालन करने के बजाय
जेल जाने की शपथ ली। फिर उन्होंने राजा-सम्राट एडवर्ड VII को तीन बार
जयकारे लगाए और "गॉड सेव द किंग" गाया। यह एक असाधारण घटना थी। ईश्वर को
साक्षी मानकर किया गया कार्य एक धार्मिक व्रत था जिसे तोड़ा नहीं जा सकता था। यह
कोई ऐसा सामान्य प्रस्ताव नहीं था जिसे किसी सार्वजनिक समारोह में हाथ उठाकर पारित
कर दिया जाता और तुरंत भुला दिया जाता।
यह कुसंयोग था या कुछ और अगले
ही दिन उस नाटकशाला में कोई दुर्घटना हुई और सारी नाटकशाला जलकर खाक हो गई। कुछ
लोगों ने गांधीजी को यह कहकर मुबारकबाद दी कि नाटकशाला का भस्म हो जाना शुभ शकुन
है। जैसे नाटकशाला जल गई वैसे ही यह क़ानून भी एक आग की नज़र हो जाएगा। इन बातों को
गांधीजी न कभी महत्व देते थे, न उस दिन उन्होंने दिया। लुई फ़िशर कहते हैं, “ऐसे शकुनों में गांधीजी
का विश्वास नहीं था। भाग्य मूक संकेतों के साथ गांधीजी को नहीं
बुलाता। भविष्य उनके अंदर उस अद्भुत, हिमालयी
आत्मविश्वास के माध्यम से बोलता था जो उन्होंने बैठक में प्रदर्शित किया था। वह
जानते थे कि वह अकेले खड़े हो सकते हैं।” लेकिन यह घटना बताती है कि
लोगों में उस समय कितना शौर्य और श्रद्धा थी।
अगला क़दम क्या हो?
प्रतिरोध की बात तो की गई
लेकिन यह कौन सा रूप लेगा किसी को स्पष्ट नहीं था। गांधीजी भी स्पष्ट नहीं थे। हां, पहला क़दम तो साफ़ था कि विरोधी से
मिलना होगा और उनसे बातचीत करनी होगी। जगह-जगह सभाएं की गई और हर सभा में सर्वानुमति से प्रतिज्ञाएं
ली गईं। अब इंडियन ओपिनियन में खूनी कानून ही चर्चा का मुख्य विषय बन गया। उन्होंने ट्रांसवाल के अधिकारियों से भेंट की, अपने विचारों से उन्हें अवगत कराया। गांधी जी ने
सबसे पहले सरकार से ज्ञापन लिया। लेकिन उन्हें कोई
सफलता नहीं मिली। विधान परिषद द्वारा यह ज़रूर
किया गया कि स्त्रियों से संबंधित धारा को उस अध्यादेश से हटा दिया गया, लेकिन अध्यादेश
का बाकी हिस्सा व्यावहारिक रूप से उसी रूप में पारित हो गया, जिस रूप में इसे तैयार किया गया था। भारतीय समुदाय अभी भी इस संकल्प
का पालन कर रहा था कि सभी उचित संवैधानिक उपचारों को पहले ही समाप्त कर दिया जाए। ट्रांसवाल उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का उपनिवेश था, इसलिए शाही सरकार इसके कानून और प्रशासन के लिए जिम्मेदार थी, और अध्यादेश क़ानून की शक्ल तभी ले सकता था जब तक कि उस पर ब्रिटिश
सम्राट के हस्ताक्षर न हो जाएं। इसलिए गांधीजी के सुझाव पर, भारतीय समुदाय ने
इंग्लैंड में एक प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया। आवश्यक धन जल्द ही जुटाया गया। अक्तूबर 1906 के शुरू के दिनों में गांधीजी एक प्रतिनिधि मि. एच.ओ. अली, जो अंग्रेज़ी में बात कर सकते थे, के साथ लंदन के लिए रवाना हुए।
रविवार, 30 सितंबर को अब्दुल गनी ने मलय लोकेशन में हमीदिया इस्लामिक
सोसाइटी हॉल में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की बैठक की अध्यक्षता की। लोग इंग्लैंड
के लिए प्रस्थान करने वाले प्रतिनिधियों को विदाई देने के लिए एकत्र हुए थे। विदाई
सभा में गांधीजी ने कहा: "हम निश्चित रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास
करेंगे, लेकिन हमारी प्रार्थना
स्वीकार होने की संभावना बहुत कम है। इसलिए हमें मुख्य रूप से चौथे प्रस्ताव पर
निर्भर रहना चाहिए। हमें इंग्लैंड में अपने सभी मित्रों को अपना मामला स्पष्ट करना
चाहिए। आप भी पंजीकरण के लिए प्रस्तुत न होकर अपना कर्तव्य निभाएंगे। आंदोलन को
आगे बढ़ाने के लिए धन एकत्र किया जाना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि
हिंदू और मुसलमानों को पूरी तरह से एकजुट होना चाहिए।" गांधीजी ने
अपना सैंतीसवाँ जन्मदिन ट्रेन में बिताया और गठिया से पीड़ित अपने साथी की देखभाल
की। बुधवार को दो बजे वे केप टाउन पहुँचे और यूसुफ़ गूल के घर पर भोजन करने के
बाद आर्मडेल कैसल में सवार हुए। उन्होंने तीसरे सेक्शन में प्रथम श्रेणी के केबिन
में यात्रा की।
उपसंहार
ट्रांसवाल के पढे-लिखे और
संपन्न भारतीयों को अपमानित करना और उनका वहाँ रहना मुश्किल कर देना ही इस नए कानून का असली मंशा था। 1906 की सर्दियों में दक्षिण
अफ्रीका के भारतीयों का भविष्य पूरी तरह
अंधकारमय था। यदि यह अधिनियम पारित हो जाता तो यह
दक्षिण अफ्रीका के अन्य भागों में भी इसी तरह के कानूनों की शुरुआत होती; अंत में, कोई भी भारतीय दक्षिण
अफ्रीका में नहीं रह सकता था। नागरिक अधिकारों
के लिए गांधीजी ने नेटाल और ट्रांसवाल में
बारह बरस तक जो कुछ किया था, उस सब पर पानी फिर गया था। दक्षिण
अफ्रीका के प्रवासी भारतीयों को पंजीयन के काले कानून का विरोध अकेले अपने
बलबूते पर ही करना था। लोगों ने प्राण किया कि प्रवासी भारतीय जनजीवन के काले
कानून के आगे कभी सिर नहीं झुकाएंगे। विरोध के इस आंदोलन को शुरू में 'पैसिव रेजिस्टेंस' ( निष्क्रिय प्रतिरोध ) कहा गया। मोहनदास करमचंद
गांधी ने वास्तव में 11 सितंबर, 1906 को इतिहास रच दिया
था। 11 सितंबर को जिस तरह से भारतीय समुदाय ने अपना आचरण किया, वह दक्षिण
अफ्रीका में गांधीजी के नेतृत्व के प्रति श्रद्धांजलि थी। 1893 में जब से उनका
सार्वजनिक कार्य शुरू हुआ, तब से वे समुदाय को एकजुट होने, अहिंसक बने रहने और अपनी
उचित और सच्ची मांगों पर अडिग रहने के लिए प्रशिक्षित और तैयार कर रहे थे। भारतीय
समुदाय अब एक नए प्रकार की राजनीतिक कार्रवाई की दहलीज पर था, जो पहले की
सौम्य विरोध की राजनीति से बिल्कुल अलग थी।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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