गांधी और गांधीवाद
153. ज़ुलु-विद्रोह घायलों
की सेवा
1906
प्रवेश
एक स्थिर जीवन गांधीजी के
जीवन में कभी नहीं रहा। जोहानिस्बर्ग में कुछ स्थिर-सा अभी लग ही रहा था कि एक
अनसोची घटना घटी। एशियाई
कानून संशोधन अध्यादेश पारित किए जाने से ठीक पहले, फरवरी 1906 में नेटाल में जुलू
विद्रोह फूट पड़ा। उनके ख़िलाफ़ सैनिक कार्रवाई की गई। इस में कई लोग हताहत हुए और अनेकों घायल हुए। गांधीजी का दिल जुलू के पक्ष में था। उन्हें लगता था कि जुलू बेगुनाह थे, लेकिन उन्हें ग़लत समझा जाता था। गांधीजी के सुझाव पर नेटाल भारतीय कांग्रेस द्वारा सैनिकों के साथ सेवा
के लिए एक स्ट्रेचर बियरर कोर बनाने का प्रस्ताव रखा गया, जैसा कि बोअर युद्ध के अंतिम दिनों में किया गया था।
आदिवासी प्रजा
नेटाल की जनसंख्या में 97,109 यूरोपीय,
1,00,918 भारतीय और 6,686 अश्वेत थे,
तथा इसमें 9,04,041 अफ्रीकी भी थे, जिनमें मुख्यतः ज़ुलु लोग थे। ज़ूलू अफ़्रीकी लोगों में सबसे अधिक शक्तिशाली
राष्ट्र थे,
और उन्होंने यूरोपीय विजय का
डटकर मुकाबला किया था,
तथा 1838 में डचों को तथा 1879
में अंग्रेजों को बुरी तरह पराजित किया था। उनकी भूमि का कुछ हिस्सा नेटाल बनाने
के लिए ले लिया गया था,
लेकिन बड़ा हिस्सा 1886 के बाद
ज़ुलुलैंड की क्राउन कॉलोनी के रूप में बना रहा। 1897 में ज़ुलुलैंड को धोखाधड़ी
के माध्यम से नेटाल में शामिल कर लिया गया। उत्तर-पूर्वी नेटाल के जुलू एक गर्वित
और सुंदर लोग थे जिन्होंने बोअर्स और अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ी थीं। वे नेटाल के हब्शी थे। वे मांसल और लंबे हाथ-पैर वाले थे,
दक्षिण अफ्रीका के अधिकांश मूल
निवासियों की तुलना में लंबे, बारीक नक्काशीदार विशेषताओं वाले। वे किसान थे, मवेशी पालते थे और लोहा गलाने वाले थे। ये लोग बड़े ही ग़रीब, नरम दिल, मीठी भाषा बोलने वाले, लंबे कद के सुंदर और शांत प्रकृति के पिछड़े लोग हैं।
यह पूरा प्रांत हरा-भरा, प्रकृति के मनोरम दृश्यों
वाला था, जहां कई झरने थे। वहां कम
मेहनत में लोग सुख और शांति का जीवन यापन करते थे। उस प्रदेश में सोने, हीरे और पन्नों की खदाने भी थीं। इसके अलावा कोयला, लोहा, तांबा और जस्ता के खान भी थे। ऐसे मनोरम प्रदेश में ज़ुलू
लोग निर्दोष जीवन व्यतीत कर रहे थे। 1897 में ब्रिटिश
सरकार ने ज़ुलुलैंड का प्रशासन नेटाल की सरकार को दे दिया। ज़ूलू लोग युद्धप्रिय
लोग थे और वे आसानी से हार नहीं मानते थे। वे अपने क्राल में चुपचाप रहते थे।
ज़ूलू लड़कों ने जोहान्सबर्ग, प्रिटोरिया और डरबन में सेवा की;
अन्य ने खदानों में काम किया। इनकी ज़िन्दगी में, इनकी हंसी-ख़ुशी में ज़हर घोलने के लिए यूरोप के भूखे, असंस्कारी लालची लोग आ पहुंचे। उन्होंने इन निरीह
लोगों की ज़मीन पर ज़ोर-जबर्दस्ती से क़ब्ज़ा जमा लिया। यूरोप वासियों के अत्याचार और दमन के आगे इन लोगों को
अपने ही घर से बेघर हो जाना पड़ा और मज़बूरन जंगल में जाकर शरण लेना पड़ा।
इतने से भी जब गोरों का जी
नहीं भरा, तो नेटाल सरकार ने इनकी
घास-फूस की झोपड़ियों पर टैक्स लगा दिया था। ठीक
ही कहते हैं कि लालच का कोई अंत नहीं होता। हीरा, पन्ना, सोना आदि की खदान के रूप
में बेशुमार दौलत हथिया लेने के बाद भी गोरों को और क्या लालसा बाक़ी थी कौन जाने!
इन आदिवासियों की झुग्गी-झोंपड़ियों पर कर लगा कर सरकार और क्या मुनाफ़ा कमाना
चहती थी। इस घटना ने इन शांत प्रकृति के लोगों को उत्तेजित कर दिया। जब 1906 की शुरुआत में नए लगाए गए कर के खिलाफ़ उन्होंने विद्रोह किया,
जिसके कारण दो पुलिस अधिकारियों
की मौत हो गई, मार्शल लॉ घोषित किया गया और प्रभावित क्षेत्र में नेटाल मिलिशिया द्वारा आतंक
का शासन चलाया गया। मौत की सजा पाने वालों में से बारह को तोप के गोलों से उड़ा
दिया गया।
अंग्रेजों द्वारा अपदस्थ प्रमुखों में से एक बंबाटा ने
विद्रोह कर दिया। बंबाटा ने उस प्रमुख का अपहरण कर लिया जिसने उसकी जगह ली थी, एक पुलिस बल पर घात लगाकर हमला किया और तुगेला नदी के पार
ज़ुलुलैंड में चला गया,
जहाँ वह बीहड़ नकांधला जंगल में
छिप गया। इस ज़ुलू सरदार ने ज़ुलू लोगों पर लगाया गया नया कर न देने
की सलाह दी थी। कई हजार
अफ्रीकियों ने उसका समर्थन किया। कर की वसूली के लिए गए हुए एक सार्जण्ट का उसने क़त्ल
कर डाला था। गोरी सत्ता तो मानों ऐसी
ही किसी घटना की प्रतीक्षा में थी। उसने इस छोटी सी घटना को विद्रोह का नाम दे
दिया। इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि सरकार ने लगातार क्रूर
प्रतिशोध लेना शुरू कर दिया। इस घटना के ख़िलाफ़ एक समुचित सैनिक कार्रवाई करने की
जगह गोरों की सिपाहियों द्वारा मानव-हत्या हो रही थी। मई के दौरान बढ़ी हुई नेटाल सेना ने बंबाटा के चारों ओर घेरा बना लिया,
और 10
जून को युद्ध में वह अपने
सैकड़ों अनुयायियों के साथ मारा गया। ज़ुलु क्षेत्र में छापे मारे गए,
क्रालों में आग लगा दी गई,
और चार या पांच महीने की अवधि
के भीतर लगभग 3,500 ज़ुलु मारे गए। उनका अपने ही देश में पशुओं की तरह पीछा किया गया। इस आक्रमण में कई घायल हुए। उसके बाद बहुत से लोगों
को बेरहमी से पीटा गया था और बंदी
बनाया गया था। इन लोगों की चोट के घाव पक गए थे। कर्नल मैकेंजी को प्रभारी बनाया गया और उन्होंने थ्रिंग
पोस्ट में अपना मुख्यालय स्थापित किया।
जब ज़ुलु विद्रोह शुरू हुआ, तो गांधीजी दुविधा में थे। जुलू लोगों से गांधीजी की
कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। उन्होंने भारतीयों का कोई नुकसान भी नहीं किया था।
लेकिन गांधीजी उन दिनों अंग्रेज़ी हुक़ूमत को संसार की भलाई करने वाली हुक़ूमत
मानते थे। यह मानते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्व विश्वकल्याण के लिए है। उसके प्रति गांधीजी की निष्ठा बहुत ही ठोस थी। अँग्रेज़ सरकार के प्रति वे दिल से वफ़ादार थे। उसका बुरा वे
देख नहीं सकते थे। वे साम्राज्य के हितों की रक्षा को सबसे बड़ा महत्त्व देते थे। इसलिए 'विद्रोह'
का सही होना
या न होना उनके निर्णय को प्रभावित करने वाला नहीं था। गांधीजी ने भारतीय जनमत की
पूरी ताकत नेटाल सरकार के पक्ष में लगाने का फैसला किया। इंडियन ओपिनियन में अपने
लेखों में गांधीजी ने भारतीयों से अंग्रेजों की तरफ से लड़ने का आह्वान किया।
उन्होंने बताया कि यूरोपियनों ने हमेशा नेटाल में भारतीयों की युद्ध क्षमता पर
भरोसा नहीं किया था; अंग्रेजों का कहना था कि खतरे के
पहले संकेत पर वे अपनी चौकियाँ छोड़कर भारत वापस चले जाते थे। उन्होंने लिखा, "हम इस आरोप का लिखित जवाब नहीं दे सकते।" "इसे गलत साबित करने का
सिर्फ़ एक ही तरीका है - कार्रवाई का तरीका।" उन्होंने भारतीयों से वालंटियर
कोर में शामिल होने के लिए कहा। उन्हें युद्ध से डरना नहीं चाहिए। युद्ध
अपेक्षाकृत हानिरहित हैं। गांधीजी अधिकारियों को यह विश्वास दिलाना चाहते थे कि
दक्षिण अफ्रीका में भारतीय वहाँ के देशभक्त नागरिक हैं और सरकार से सहानुभूतिपूर्ण
व्यवहार पाने के हकदार हैं।
नेटाल पर आए संकट का सामना
करने के लिए वहां की स्वयं सेवकों की सेना रवाना हो चुकी थी। गांधीजी ख़ुद को
नेटालवासी मानते थे। इसलिए बोअर युद्ध की तरह फिर एक बार एक भारतीय एंबुलेंस
कॉर्प्स के गठन के लिए उन्होंने गवर्नर को पत्र लिखा कि यदि ज़रूरत हो, तो घायलों की सेवा-शुश्रूषा के लिए भारतीयों की एक
टुकड़ी लेकर वे तैयार हैं। फ़ौरन ही गवर्नर का स्वीकृति पत्र आ गया।
घायलों की सेवा के काम की
तैयारी गांधी जी ने कर रखी थी। उन्होंने परिवार को जोहानिस्बर्ग से हटा कर फीनिक्स
आश्रम भेज दिया। इस काम के लिए कस्तूरबाई
का समर्थन भी उन्हें मिल चुका था। पोलाक को अलग घर लेकर रहने के लिए कह दिया गया। गांधीजी
ने मकान मालिक को मकान ख़ाली करने के लिए एक महीने की नोटिस दे दी। उन्होंने जोहान्सबर्ग में अपना लॉ ऑफ़िस बनाए रखा,
क्योंकि उनका एक बड़ा व्यवसाय
था और इसे बंद करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला था। उनके पास प्रशिक्षित कर्मचारी
थे, जो उनकी अनुपस्थिति में व्यवसाय को आगे बढ़ा सकते थे। गांधीजी के डरबन पहुंचने
के पहले ही गोरे के दंभ को उद्घाटित करता एक लेख ‘नेटाल एडवर्टाईज़र’ में आया, जिसमें लिखा गया था, “भारतीयों को सामने की कतारों में रखा जाना चाहिए ताकि वे
भाग न सकें और तब उनके और स्थानीय लोगों के बीच होनेवाला युद्ध देवताओं के लिए भी
दर्शनीय होगा।” इसके जवाब में गांधी जी ने ‘इंडियन ओपिनियन में लिखा था, “अगर ऐसा रास्ता अपनाया जाए तो निश्चित ही यह भारतीयों
के लिए सर्वोत्तम होगा। अगर वे कायर होंगे तो जो उनका वही हश्र होगा जिसके वे
पात्र होंगे, और अगर वे बहादुर हैं, तो बहादुरों के लिए अगली कतार में होने से अच्छा कुछ
भी नहीं हो सकता।”
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डरबन पहुंचने पर गांधीजी
ने चौबीस आदमियों की एक टीम तैयार की थी जो घायलों की मरहम पट्टी करती। इसमें गांधीजी
के अलावा चार गुजराती थे, बाक़ी मद्रास प्रांत के
गिरमिट-मुक्त भारतीय थे और एक पठान था। इस काम को सुचारू-रूप से करने के लिए
चिकित्सा विभाग के मुख्य पदाधिकारी ने उन्हें ‘सार्जण्ट मेजर’ का मुद्दती
पद दिया। गांधीजी के पसंद के तीन साथियों उमियाशंकर, सुरेंद्रराय मेढ़ और हरिशंकर जोशी को ‘सार्जण्ट’ का
और एक को ‘कार्पोरल’ का पद दिया गया। उन्होंने राजा एडवर्ड सप्तम और उनके उत्तराधिकारियों के प्रति निष्ठा की शपथ ली और सेवा
की शर्तों पर सहमति जताई जिसमें राशन, वर्दी, उपकरण और प्रतिदिन एक शिलिंग और छह पेंस शामिल थे। उपकरणों
में ज्यादातर जापान में बने स्ट्रेचर शामिल थे। सैनिक वर्दी भी सरकार की
ओर से मिली। उनकी
तस्वीरें उनकी फील्ड यूनिफॉर्म में खींची गईं, जिसमें वे अजीब तरह से असहज दिख रहे थे। उनकी यूनिफॉर्म
उनके लिए बहुत बड़ी थी, और भारी बूट के कारण वे असहज महसूस कर रहे थे। इस टुकड़ी ने छह सप्ताह तक
घायलों की मरहम-पट्टी करने का काम पूरी तन्मयता से किया।
एंबुलेंस कॉर्प्स ‘विद्रोह’ स्थल पर
22 जून, 1906 को उन्हें कर्नल अर्नॉट के अधीन एक टुकड़ी में
शामिल होने के लिए ट्रेन से स्टैंगर भेजा गया। उनका एंबुलेंस कॉर्प्स ‘विद्रोह’ स्थल पर पहुंचा। विद्रोह स्थल पर पहुंचने के बाद गांधीजी ने पाया कि वहां
बग़ावत जैसी कोई चीज़ नहीं थी। कहीं भी उन्हें सशस्त्र प्रतिरोध नज़र नहीं आया। यह
वास्तव में एक टैक्सबंदी अभियान था, जिसे शासकों ने ‘विद्रोह’ का नाम दे दिया था। और
इसलिए वे अमानवीय पशुता के साथ उसका दमन कर रहे थे। निहत्थे ज़ुलू लोगों को
ब्रिटिश सिपाही ढूंढ़-ढूंढ़ कर मार रहे थे। इसलिए गांधीजी का दिल ज़ुलू की तरफ़
था। उन्हें लगा कि ज़ुलू बेगुनाह थे। उन्हें ग़लत समझा जा रहा था। उनका अपने ही
देश में पशुओं की तरह पीछा किया जा रहा था। गांधीजी ने यह साफ महसूस किया कि जुलु जनता
के साथ एकतरफा अन्याय हुआ है इसलिए उन्होंने बहुत खुशी के साथ जुलू घायलों की सेवा की। जब गांधीजी का दल वहां पहुंचा तो जुलू काफी ख़ुश हुए। भारतीयों के जिम्मे ज़ुलू
घायलों की सेवा का ही काम आया था। वे ख़ुश थे। वहां के अधिकारी डॉक्टर सैवेज ने गांधीजी
का स्वागत करते हुए कहा था, “गोरों में से कोई इन
घायलों की सेवा-शुश्रूषा करने के लिए तैयार नहीं होता। मैं अकेला किस-किस की सेवा
करूं? इनके घाव सड़ रहे हैं। आप
आए हैं, मैं इन निर्दोष लोगों पर
इसे ईश्वर की कृपा ही समझता हूं।” डॉ. सैवेज, जो एम्बुलेंस के प्रभारी थे, ने पूछा कि क्या उन्हें उनके काम का दायरा बढ़ाने
पर आपत्ति होगी। जब गांधीजी ने जवाब दिया कि वे अपनी तरफ से हर संभव काम करने को
तैयार हैं, तो उन्होंने शिविर की सफाई का
जिम्मा उनके हाथों में सौंप दिया और उन्हें उन ज़ुलु लोगों की, जिन्हें कोड़े मारे
गए थे, के नर्स के तौर पर नियुक्त कर दिया।
पहुँचने पर पहली रात एम्बुलेंस
कोर को मलेरिया से पीड़ित या दुर्घटनाओं में घायल सैनिकों की देखभाल में व्यस्त
रखा गया था। कोई टेंट नहीं था, और वे उस रात जमीन पर अपने
ओवरकोट में लिपटे हुए सोए थे। अगले दिन वे पूरी तरह से तैयार होकर मापुमुलो की ओर
चल पड़े। मापुमुलो में, दो दिनों की कठिन यात्रा के बाद, वे अपने पहले ज़ूलू से मिले। वे अस्सेगाई से लैस योद्धा नहीं थे, बल्कि गरीब किसान थे जिन्हें सैनिकों ने घेर लिया था और एक बाड़े में डाल कर
बुरी तरह से पीटा था। उन्हें उनके द्वारा किए गए किसी अपराध के लिए नहीं पीटा गया
था, बल्कि भविष्य में किसी भी विद्रोह में भाग न लेने
की चेतावनी के रूप में पीटा गया था। वे अपने ही खून में लथपथ, गंदगी और दुख में बाड़े में पड़े थे, और चूँकि कोई भी अंग्रेज डॉक्टर
उनके घावों की देखभाल नहीं कर सकता था, इसलिए यह काम भारतीयों को दिया
गया। एक तात्कालिक अस्पताल बनाया गया और जल्द ही गांधीजी और बाकी लोग ज़ुलु लोगों
के घावों को कीटाणुनाशक से पोंछ रहे थे और फिर उन पर पट्टी बाँध रहे थे, जबकि ब्रिटिश सैनिक जिन्होंने उन्हें पीटा था, वे बाड़े की रेलिंग के पीछे से
उनका मज़ाक उड़ा रहे थे। जनरल ने घोषणा की कि सभी ज़ुलु संदिग्ध थे: उन पर कोई दया
नहीं दिखाई गई।
सार्जेंट मेजर गांधी के नेतृत्व
में स्ट्रेचर-वाहकों का एक अग्रिम दल ओटिमाटी की ओर भेजा गया, जहाँ मुठभेड़ होने वाली थी। लेकिन कोई मुठभेड़ नहीं हुई। एक सैनिक का पैर
वैगन के पहिये के नीचे कुचल गया था और दूसरे की जांघ में गलती से गोली लग गई थी।
गांधी को उन्हें स्ट्रेचर पर बेस अस्पताल ले जाने का आदेश दिया गया। इलाका
ऊबड़-खाबड़ था, सैनिक भारी थे और ज़ुलु
पहाड़ियों से देख रहे थे। बाद में एक अधिकारी ने संदेश भेजा कि दोनों लोगों को
स्ट्रेचर पर ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ज़ुलु शायद सोचेंगे कि
वे उन्हें घायल करने में सफल हो गए हैं। कुचले हुए पैर वाले सैनिक को एम्बुलेंस
वैगन में चढ़ाया गया और वाहकों ने राहत की साँस ली।
उपचार में दिन-रात एक
अगले एक महीने तक गांधीजी ने घायलों के उपचार में दिन-रात एक कर दिया। घर के लिए उनके पास वक़्त नहीं था। उन्होंने परिवार को जोहानिस्बर्ग से हटा कर फीनिक्स आश्रम भेज दिया। गांधी जी के पास एक टीम थी जो घायलों की मरहम पट्टी करती थी। काम में गांधी बीवी-बच्चों को भुला कर पूरी तन्मयता से जुट गए थे। कितने ही हब्शियों के ज़ख़्म एक सप्ताह से साफ़ नहीं
किए गए थे। इससे दुर्गंध आ रही थी। ऐसे घायल-बीमारों के पास जब गांधीजी पहुंचे तो
वे भी उन्हें देख कर ख़ुश हुए। गांधीजी का एंबुलेंस कॉर्प्स घायल ज़ुलुओं और पकड़े
गए ज़ुलुओं को ढोता और उनकी तीमारदारी करता। ये लोग बेरहमी से मार खाने के कारण घायल होते थे। उनकी कटी हुए त्वचा को सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता। गोरे सिपाही गांधीजी और उनके सहयोगियों को ज़ुलू के
घाव साफ़ करने से रोकने की कोशिश करते रहे। ब्रिटिश सिपाही दीवारों के छेदो में से
झांक-झांक कर ज़ुलू की सेवा करते गांधीजी और उनके सहयोगियों को देखते, उन्हें ऐसा करने से मना करते लेकिन गांधीजी जब न माने, तो उन सिपाहियों ने गंदे शब्दों का प्रयोग भी किया।
धीरे-धीरे गोरे सिपाहियों से भी गांधीजी का परिचय बढ़ा और उन्होंने गांधीजी को
रोकना बंद कर दिया। सेना की टुकड़ी में मौज़ूद कर्नल स्पार्क्स, कर्नल वायली और जनरल मेकेंजी गांधीजी के काम से
आश्चर्य चकित थे। डंकन
मैकेंजी,
जिन्होंने सैनिकों की कमान
संभाली थी,
निजी जीवन में एक सज्जन किसान
थे। कर्नल वाइली डरबन के जाने-माने वकील थे, और कर्नल स्पार्क्स एक कसाई थे। गांधीजी इन दोनों लोगों को 1897 से जानते थे, क्योंकि वे एस.एस. कुर्लैंड पर भारतीय मजदूरों के आक्रमण के
खिलाफ विरोध करने वाली समिति के सदस्य थे। लेकिन अब वे अधिक विनम्र थे, और भारतीय स्ट्रेचर-वाहकों के बारे में अच्छी बातें कहने के
लिए बाध्य थे।
घायलों में से अधिकांश शक
के बिना पर पकड़े गए थे, और उन्हें कोड़ों से पीटा
गया था, जिससे घाव हो गए थे। कुछ
ऐसे लोग भी थे जो ज़ुलू के मित्र थे। गांधीजी और उनके सहयोगी घायलों को डोलियों
में उठाकर छावनी तक लाते और वहां उनकी सेवा-शुश्रूषा करते।
उनके लिए यह एक भयानक अनुभव रहा। इस विद्रोह के दौरान गांधीजी को बहुत से ऐसे अनुभव
हुए जिसने उन्हें बहुत कुछ सोचने को मज़बूर किया। बोअर-युद्ध के दौरान तो युद्ध हो रहा था, लेकिन इस विद्रोह के दौरान मनुष्य का शिकार हो रहा था।
सवेरे-सवेरे सेना गांव में जाकर इस प्रकार गोला-बारूद दागती मानों पटाख़े छूट रहे
हों। उस दुर्गम इलाके में गांधीजी की टुकड़ी को कभी-कभी एक दिन में चालीस मील चलना, स्ट्रेचर ढोना और घुड़सवारों के पीछे-पीछे भागना
पड़ता। घायल ज़ुलू भारतीय भाषा या अंग्रेज़ी तो जानते नहीं थे, इसलिए न इनकी बोली समझते थे, और न ही कुछ कह पाते थे। बस उनकी आंखों से उन
भारतीयों के प्रति कृतज्ञता के आंसू बहते रहते थे।
असह्य माहौल
गांधीजी देखते कि
शांतिपूर्ण बस्तियों पर हमले हुए हैं। बेगुनाह लोगों को घसीटा जा रहा है। उन्हें
लातों से मारा जा रहा है। कोड़ों से पीटा जा रहा है। इंसान के साथ दरिंदगी की यह इंतहा थी। यह सब एक भयानक और द्रवित करने वाला अनुभव था। इस
तरह के माहौल में रहना गांधीजी के लिए असह्य हो रहा था, लेकिन वे मन मारकर और कड़वे घूंट पीकर यह सब सह रहे
थे। उन्हें मालूम था कि यदि उनका स्वयं-सेवक दल वहां न होता, तो दूसरा कोई भी ज़ुलू की सेवा न करता। इस विचार को
मन में लाकर वे अपनी अंतरात्मा को शांत करते। क्योंकि गोरी नर्स घायल ज़ुलू को
छूने के लिए तैयार नहीं थी।
सेवा से आत्म संतोष
जुलाई, 1906 तक "विद्रोह" समाप्त हो गया। जुलाई
में मैकेंजी ने उन सभी जुलुओं को नष्ट कर दिया या तितर-बितर कर दिया, उनके प्रमुखों को मार डाला या पकड़ लिया, और भारी हताहत किया। 12 जुलाई तक मुख्य लड़ाई समाप्त हो गई
थी;
30 तारीख तक सभी सैनिकों को हटा
दिया गया था,
और 2 सितंबर को मार्शल लॉ हटा
लिया गया था। भारतीय कोर को गुरुवार, 19 जुलाई को छुट्टी दे दी गई और वे डरबन के लिए रवाना हो गए। उस घनघोर जंगल में चुपचाप
सेवा करने में जो आत्म संतोष गांधीजी को मिला, वह कहीं और नहीं मिला। उन्हें लगा कि इन ग़रीब, असहाय और निर्दोषों का दुख दूर करना ही सही मायनों
में सेवा-धर्म है। लगभग एक महीने के बाद उनका यह काम समाप्त हुआ। गवर्नर ने गांधीजी
को इस सेवा के लिए प्रशंसा पत्र लिखा। उनकी इस सेवा के सम्मान में अफ़्रीका की
सरकार ने गांधीजी को विक्टोरिया क्रॉस जो श्रेष्ठतम वीरचक्र माना जाता था, प्रदान कर सम्मानित किया।
उपसंहार
आदिवासियों के दमन और मनुष्य के
प्रति मनुष्य की असंवेदनशील क्रूरता ने गांधीजी को उदास कर दिया। एक शांतिप्रिय
व्यक्ति के रूप में, युद्ध के विचार से ही घृणा करने
वाले, उनके लिए इस अभियान के इतने निकट संपर्क में रहना
लगभग असहनीय था। हालाँकि, उनके आदमियों के अलावा कोई भी इस
काम को करने के लिए तैयार नहीं था, और पीड़ितों के लिए दया ने
उन्हें इसे छोड़ने से रोक दिया। पीड़ित जुलू के गांवों की लंबी यात्रा ने उन्हें
आत्म-विश्लेषण के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किए; उन्हें एक बेहतर दुनिया बनाने के
लिए और अधिक काम करना चाहिए। साथ ही, उन्हें दक्षिण अफ्रीका में
भारतीयों के खिलाफ और अधिक भेदभावपूर्ण उपायों का पूर्वाभास था। पिछले कई वर्षों से वह जीवन के अर्थ और उद्देश्य पर वह चिंतन मनन करते आए थे। वह समाज में मनुष्यों के कर्तव्य पर भी मंथन कर रहे थे। ज़ुलुलैंड की पहाड़ियों और
घाटियों से गुज़रते हुए गांधी अक्सर गहरी सोच में डूब जाते थे। उनके दिमाग में दो
विचार तैर रहे थे: सेवा के लिए समर्पित जीवन जीने के इच्छुक व्यक्ति को ब्रह्मचर्य
का जीवन जीना चाहिए और उसे स्वैच्छिक गरीबी स्वीकार करनी चाहिए। इंसानी बदहाली के इन दुखदपूर्ण परिस्थिति में उनके अंदर कुछ उत्तर उन्हें मिल रहा था। उन्हें लगा कि ‘यदि मेरा जीवन मनुष्यों की सेवा के लिए समर्पित है और अगर आध्यात्मिक बोध मेरे प्रयासों का लक्ष्य है, तो मुझे शरीर सुख को हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए और कठोरता से संयम का पालन करना चाहिए।’ इस एक महीने में गांधीजी और उनके सहयोगियों ने बहुत
मेहनत और त्याग किया। इन भारतीयों के लिए यह कोई आसान काम नहीं था। उन लोगों का
स्वैच्छिक नर्स बनना कोई छोटी बात नहीं थी। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में इस तरह के कामों
की शायद ही कभी सराहना की जाती है। उनके लिए भारतीय अश्वेत थे, और इसलिए उन्हें आदिवासी मूल निवासियों के साथ
वर्गीकृत किया जाता था। ट्रांसवाल में उन्हें ट्राम में सवारी करने की अनुमति नहीं
थी, और ट्रेनों में उनके लिए विशेष डिब्बे थे। जैसे ही विद्रोह कुचल दिया गया, कार्प्स को भंग कर दिया गया, गांधीजी फीनिक्स बस्ती के लिए चल पड़े।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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