मंगलवार, 26 नवंबर 2024

152. बच्चों को मातृभाषा में अक्षर-ज्ञान

 गांधी और गांधीवाद

152. बच्चों को मातृभाषा में अक्षर-ज्ञान

 

बच्चों के साथ कस्तूरबा

1905

अपने परिवार के प्रति अपने ऋण को गांधीजी पहले ही चुका चुके थे। उन्होंने परिवार के खातों को साफ करना अपना कर्तव्य समझा था। उन्होंने भाई करसनदास का ऋण भी पूरा चुका दिया। इससे अधिक धन भेजना उन्हें उचित नहीं लगा। विशेष रूप से वह फिजूलखर्ची वाले रीति-रिवाजों को सब्सिडी देने से बचना चाहते थे: जैसे विवाह आदि में वह खर्च नहीं करना चाहते थे, वास्तव में वह इसे पाप मानते थे। फिर भी उन्होंने परिवार की सहायता करना जारी रखा।

गांधीजी का वकालत का पेशा जम चुका था। महीने में कम से कम 350 पौंड तो वे कमा ही लेते थे। उनके सहकर्मी और वहाँ की अदालतें भी वकील के रूप में और कानून के उनके गहरे ज्ञान के लिए उनको काफी आदर देते थे। किंतु यहां भी उनका प्रण था कि वे कभी अपनी जानकारी में झूठ नहीं बोलेंगे। जिस   मुवक्किल का निर्दोष होने का उन्हें निजी तौर पर विश्वास नहीं होगा उसकी पैरवी वे   कभी नहीं करेंगे। हर मुवक्किल को पहले से इसकी चेतावनी दी जाती थी मुकदमे के बीच में भी यदि उन्हें पता चल जाता कि उनके मुवक्किल ने उनको धोखा दिया हैतो वे वहीं काग़ज़-पत्र फेंक देतेअदालत से क्षमा प्रार्थना करते और कमरे से बाहर  जाते। एक बार   चोरी का एक मुलजिम गांधीजी के पास आया और उनसे बचाव करने की प्रार्थना करने लगा। उसने ख़ुद को निर्दोष कहा। जब गांधीजी ने गहरी छानबीन की तो पता चला कि उसने चोरी की है। गांधीजी ने उससे पूछालेकिन तुमने ऐसा क्यों किया?

उसने कहामुझे भी तो जीना है।

गांधीजी ने कहातो तुम्हें जीना हैक्यों?

इस क्यों का उत्तर इस प्रश्न में ही निहित है  अगर सम्मान से नहीं जी सकते तो जिए ही क्योंऐसा जीवन जीकर तुम जीवन में क्या योगदान कर रहे हो?

जहां तक बच्चों को पढ़ाने-लिखाने का सवाल है, उसके प्रति गांधीजी लापरवाह तो नहीं थेलेकिन उन्होंने उसकी क़ुरबानी देने में संकोच नहीं    किया। इसके लिए उन्हें कभी- कभार बच्चों के असंतोष का भी सामना करना पड़ा। इंडियन ओपिनियन प्रेस     फीनिक्स आश्रमकम्यूनिटीऑफिस और परिवारसब मिलकर उनके जीवन को   सार्थकता प्रदान कर रहे थेलेकिन इस चक्कर में वे अपने बच्चों की तरफ़ पूरा ध्यान  दे पा रहे थे। 

जोहान्सबर्ग के घर में निजी ट्यूशन की कोई व्यवस्था नहीं थी और गांधी ने बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी खुद ही उठा ली थी। डरबन की तरह ही जोहानिस्बर्ग में भी बच्चों को स्कूल  भेजा गया। इस बात के भी कोई साक्ष्य नहीं हैं कि यहां कोई प्राइवेट शिक्षक भी रखा गया हो। शायद   उन्हें लगता हो कि किसी भी स्कूल में दी जा रही शिक्षा से बेहतर शिक्षा वे ख़ुद ही दे   पाएंगे।   वे बच्चों के साथ रोजाना दफ्तर जाते और घर वापस आते थे। इससे न केवल पर्याप्त व्यायाम होता था बल्कि इन सैरों के दौरान बच्चों को निर्देश देने का अवसर भी मिलता था। इन सैरों के अवसर पर निर्देश के अलावा वे नियमित रूप से उनकी साहित्यिक शिक्षा के लिए समय नहीं दे पाते थे। उनके घर में मिली की मौजूदगी ने कस्तूरबा को स्वाभाविक तरीके से उनसे अंग्रेजी बोलना सीखने का अवसर दिया। उन्होंने बच्चों को पढ़ना, लिखना और अंकगणित भी सिखाया। गांधीजी कोशिश तो करते कि बच्चों को अक्षर-ज्ञान देंलेकिन इस काम में अकसर विघ्न  ही जातेइसके अलावा उनके पास उन्हें पढ़ाने के लिए समय का अभाव भी था। यहां तक कि दिन भर में एक-डेढ़ घंटा भी इस काम के लिए वे निकाल  पाते थे।

बच्चों के लिए घर पर दूसरी शिक्षा की सुविधा नहीं थीइसलिए गांधीजी उन्हें साथ    दफ़्तर ले जाते। दफ़्तर तक के पांच मील के पैदल सफ़र में  उन्हें कुछ  कुछ सिखाते जाते। दफ़्तर में वे बच्चों को कुछ टास्क और प्रश्न दे देते जिन्हें बच्चे पढ़ते या फिर    उसका उत्तर लिखते रहते। गांधीजी अपना काम किया करते। शाम को घर लौटते समय वे बच्चों से पूछते जाते कि उन्होंने दिन भर में क्या पढ़ा है। बड़े लड़के हरिलाल को छोड़कर सभी बच्चों की परवरिश इसी तरह हुई।

एक दिन दफ़्तर में जब उन्होंने देखा कि मणिलाल किताब को आंख के बिल्कुल      नज़दीक ले जाकर देख रहे हैं तो उन्होंने पूछाक्या हुआतुम्हारा चश्मा कहां है?  सात साल की उम्र से मणिलाल चश्मा पहनते थे। उस समय उन्हें चेचक हुआ थाऔर उसी बीमारी के दौरान उनकी आंख की रोशनी कम हो गई थी।

मणिलाल ने धीरे से कहामैं अपना चश्मा घर पर ही भूल आया हूं।

गांधीजी ने कहातुम्हें पता है कि चश्मा तुम्हारे पास हमेशा होना चाहिएफिर भी भूल आए। फिर कभी ऐसी भूल  हो इसलिए फौरन पैदल घर जाओ और उसे लेकर     आओ।

दोपहर होने जा रही थी। धूप भी तेज थी। फिर भी मणिलाल घर पहुंचे। कस्तूरबा उन्हें देख कर हैरान रह गईं। इस वक़्त .. क्या हुआअकेले क्यों घर  गए?

मणिलाल ने जवाब दिया मैं अपना चश्मा भूल गया था। बापू ने मुझे भेजा है उसे ले जाने के लिए। मुझे उनके दफ़्तर वापस भी जाना है। उनके स्वर का कंपन यह इशारा कर रहा था कि शायद मां को दया  जाए और वो  जाने के लिए कहेंताकि दस मील चलने के कष्ट से मुक्ति मिले।

कस्तूरबा नहीं चाहती थीं कि बापू के आदेश की अवहेलना हो। उन्होंने मणिलाल को कुछ खाने को दिया और उनके पास बैठकर बोलीं, “यह ठीक है कि बापू ने ज़्यादती की है तेरे साथ। एक बार उन्होंने मेरे साथ भी ऐसा ही किया था, तब तू बहुत छोटा था। एक फिरंगी के मल-त्याग के बरतन को धोने के लिए उन्होंने मुझसे कहा था। बहुत कहा-सुनी हुई थी तेरे बापू से। लेकिन इतना मैं जानती हूं, और तू भी समझ ले  तेरे बापू बहुत अच्छे इंसान हैं। वे तुम्हें अच्छा बेटा बनाना चाहते हैं। इसीलिए वे तुझसे इस तरह के कठिन काम करने के लिए कहते हैं। और अगर तू अच्छा बेटा है, तो हर उस काम को कर जिसे वे कहते हैं, चाहे वह कठिन से कठिन काम क्यों न हों! अब तू खाना खतम कर और जल्दी से वापस लौट जा। वे तेरी राह देख रहे होंगे।

उनके बच्चों का भविष्य भी उन्हें परेशान कर रहा होगा। उनकी शिक्षा पहले ही बहुत प्रभावित हो चुकी थी, यह एक ऐसा तथ्य था जिसके प्रति कस्तूरबा उदासीन नहीं रह सकती थीं।

हरिलाल भारत में ही रह गए थे। वे तब पांचवीं में थेऔर मुम्बई के एस्प्लेनेड हाई   स्कूल में पढ़ते थे। गांधीजी को इस बात का दुख सारी             उम्र रहा कि अन्य बच्चों की तरह वे उन्हें आदर्श शिक्षा नहीं दे   पाए। शायद हरिलाल को भी इसका दुख रहा। हरिलाल का मानना था कि बापू दुनिया को चाहे कुछ भी उपदेश देंउनके लिए उन्होंने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने कहा कि शिक्षा उपलब्ध कराने का जो हर बाप का अपने बेटे के प्रति नैतिक   कर्तव्य होता हैवह भी नहीं निभाया। ख़ुद तो अच्छी शिक्षा पाई फिर भी उन्हें अच्छी शिक्षा से वंचित रखा। वे कहते थेबापू आज सेवासादगी और चरित्र निर्माण की जो बातें करते हैं वे शिक्षा के आधार पर ही करते हैं। यदि यह शिक्षा  मिली होती तो देश सेवा के जो काम आज कर रहे हैंकर सकते थे क्या?  

हरिलाल ने इसका संताप कई बार गांधीजी के सामने और सार्वजनिक तौर भी प्रकट  किया। गांधीजी स्वीकार करते हैं कि मैं आदर्श पिता  बन सका’ लेकिन यह भी कहते हैं कि उनके अक्षर-ज्ञान की क़ुरबानी मैंने सद्भाव-पूर्वक मानी हुई सेवा के लिए ही की है’।

बच्चों के शिक्षा के प्रतिऔर खासकर हरिलाल की शिक्षा के प्रति विचार व्यक्त करते   हुए गांधीजी कहते हैंमैं यह कह सकता हूं कि उनके चरित्र-निर्माण के लिए जितना कुछ आवश्यक रूप से करना चाहिए थावह करने में मैंने कहीं त्रुटि नहीं रखी है। मैं मानता हूं कि हर माता-पिता का यह अनिवार्य कर्तव्य है। अपने इस परिश्रम के बाद भी मेरे बालकों के चरित्र में जहां त्रुटि पाई जाती हैवहां वह पति-पत्नी के नाते हमारी त्रुटियों का ही प्रतिबिम्ब है।

पोलाक से बच्चों को काफ़ी कुछ सीखने को मिला। एक बार तो पोलाक की गांधीजी से तीखी झड़प भी हो गई। यह इसलिए नहीं कि बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजा जा रहा है बल्कि इसलिए कि बच्चों को अच्छी अंग्रेज़ी की शिक्षा दी जाए। पोलाक का कहना था कि अगर बच्चे अंग्रेज़ी सीख जाते हैं तो भविष्य में यह उनके काफ़ी काम आएगासिर्फ़ गुजराती से उनका काम नहीं चलने वाला है। वहीं गांधीजी का कहना था कि रोज़ ही तो इनका वास्ता इन गोरों से पड़ता ही हैइसलिए काम चलाने के लिए अंग्रेज़ी तो वे वैसे ही सीख जाएंगे। लेकिन बिना गुजराती के ज्ञान के वे यहां के भारतीयों के लिए      विदेशियों के समान लगेंगे।

गांधीजी का मानना ​​था कि जो भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी में सोचना और बात करना सिखाते हैं, वे अपने बच्चों और अपने देश के साथ विश्वासघात करते हैं, उन्हें राष्ट्र की आध्यात्मिक और सामाजिक विरासत से वंचित करते हैं, जिससे वे देश की सेवा के लिए अयोग्य हो जाते हैं। इसलिए, वे हमेशा बच्चों से गुजराती में बात करने का प्रयास करते थे। पोलाक को यह कभी पसंद नहीं आया; उन्हें लगा कि गांधीजी उनके बच्चों का भविष्य खराब कर रहे हैं, उन्हें एक सार्वभौमिक भाषा के लाभ से वंचित कर रहे हैं जो उन्हें काफी लाभ पहुंचा सकती है। चर्चाएँ गर्म हो गईं, लेकिन पोलाक गांधीजी को समझाने में विफल रहे।

शिक्षा के प्रति गांधीजी के विचार अलग थे। उनका कहना था कि तकनीकी और किताबीज्ञान का मतलब शिक्षा नहीं है। शिक्षा का अर्थ है नैतिकता और एक ऐसे व्यक्तित्व का विकास जो समाज में सामंजस्य बिठा सके। उनका यह विश्वास था कि नैतिकता और अच्छे व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा की भारतीय पद्धति ज़्यादा अच्छी हैबजाय  पश्चिमी पद्धति के। बालकों को अंग्रेज़ी शिक्षा के विषय में गांधीजी का शुरू से मानना   रहा है कि जो भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेज़ी बोलने वाले बना देते हैंवे उनके और देश के साथ द्रोह करते हैं। इससे बालक अपने देश की धार्मिक और सामाजिक विरासत से   वंचित रहता है। अपने इस विश्वास के कारण गांधीजी ने हमेशा अपने बच्चों के साथ  जान-बूझ कर गुजराती में ही बातचीत की। समय और परिवेश के साथ बच्चे अंग्रेज़ी बोलने और लिखने लगेलेकिन फिर भी मातृभाषा का जो ज्ञान गांधीजी के कारण उन्हें मिला उससे देश को लाभ ही हुआ और वे अपने देश में परदेशी जैसे नहीं बन गए।

***         ***    ***

मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।