गांधी और गांधीवाद
134. ‘अंटू
दिस लास्ट’ से जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन
सितम्बर 1904
प्रवेश
पश्चिम में लोग आम तौर पर मानते हैं कि सबसे बड़ी संख्या
में लोगों की खुशी - यानी समृद्धि - को बढ़ावा देना मनुष्य का कर्तव्य है। खुशी का
मतलब सिर्फ़ भौतिक खुशी, यानी आर्थिक समृद्धि से लिया जाता है। अगर इस खुशी की तलाश में नैतिक नियमों
का उल्लंघन होता है, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। फिर से, चूँकि उद्देश्य सबसे बड़ी संख्या में लोगों की खुशी है,
इसलिए पश्चिम के लोग इसे गलत
नहीं मानते हैं अगर इसे अल्पसंख्यकों की कीमत पर हासिल किया जाता है। बहुसंख्यकों
की भौतिक और भौतिक खुशी की अनन्य खोज को ईश्वरीय कानून में कोई मंजूरी नहीं है।
वास्तव में,
पश्चिम के कुछ विचारशील
व्यक्तियों ने बताया है कि नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन करके खुशी की तलाश करना
ईश्वरीय कानून के विपरीत है। स्वर्गीय जॉन रस्किन! इनमें सबसे प्रमुख थे। वे बहुत
विद्वान अंग्रेज थे। उन्होंने कला और शिल्प पर कई किताबें लिखी हैं। उन्होंने नैतिक
प्रश्नों पर भी बहुत कुछ लिखा है। इनमें से एक छोटी सी किताब को रस्किन ने खुद
अपनी सर्वश्रेष्ठ किताब माना था। जहाँ भी अंग्रेजी बोली जाती है, वहाँ इसे व्यापक रूप से पढ़ा जाता है। पुस्तक में, उन्होंने इन तर्कों का प्रभावी ढंग से खंडन किया है और
दिखाया है कि बड़े पैमाने पर लोगों की भलाई नैतिक कानून के अनुरूप होने में निहित
है...
इंडियन ओपिनियन, 16-5-1908
डरबन जाने की योजना
किसी व्यक्ति पर अविश्वास
करना गांधीजी की प्रकृति में नहीं था। मदनजीत व्यावहारिक एक भद्र पुरुष थे। वे ईमानदार और कड़ी मेहनत करने वाले शख्स
थे। किंतु साप्ताहिक समाचारपत्र की जटिलता को वे दक्षता से संभाल न पाए। इस कारण “इंडियन ओपिनियन” का खर्च बढ़ता जा रहा था। मुनाफ़ा की बात तो दूर, अब तो नुकसान भी हद से बाहर हो रहा था। वेस्ट की तारीफ़ करनी होगी कि मुनाफ़ा न होता देख भी उसने गांधीजी
का साथ नहीं छोड़ा। वेस्ट को व्यापार धन्धे की अच्छी समझ थी। डरबन पहुंचने पर
उसे फ़ौरन पता चल गया कि अखबार की हालत बहुत ही खस्ता है। गांधीजी ने इसके प्रति
अपनी जो धारणा बना रखी है, स्थिति उसके बिल्कुल
विपरीत है। डरबन से वेस्ट ने जो रिपोर्ट भेजी थी, वह गांधीजी की आंखें खोलने वाली थी। बही-खाते बड़ी
बे-परवाही से रखे गए थे। लोगों पर उगाही भी बहुत बकाया थी। अव्यवस्थित प्रेस की
स्थिति काफ़ी डांवांडोल थी। इस रहस्योद्घाटन ने गांधीजी को चौंका दिया। बात स्पष्ट
थी कि जल्दी में लोगों का विश्वास कर लेने वाले अपने गुण के कारण गांधीजी यहां भी
धोखा का चुके थे। गांधीजी ने स्थिति का जायज़ा लेने के लिए डरबन जाने की योजना बनाई।
पुस्तक रास्ते भर पढ़ते रहे
साहित्यिक या साहित्येतर किताबें
किसी व्यक्ति पर कितना असर डालती हैं इस पर विद्वानों में अलग अलग मत हैं। जो यह मानते हैं कि किताबें हमें बहुत गहराई से
प्रभावित करती हैं उनके लिए गाांधीजी का उदाहरण दिया जा सकता है। एक बार फिर गांधीजी एक लंबी ट्रेन
यात्रा पर निकले। सितम्बर 1904 की बात है। वेस्ट का पत्र आने के बाद गांधीजी ने फ़ौरन नेटाल
जाने का फैसला किया। उन्हें कुछ महत्वपूर्ण फैसले करने थे, जिनमें से प्रमुख था “इंडियन ओपिनियन” के मालिकाना हक़ का स्थानान्तरण। तब तक गांधीजी और पोलाक में मित्रता बढ़ चुकी थी। उनके अंग्रेज पत्रकार मित्र हेनरी एस.एल. पोलाक, ‘दि क्रिटिक’ का उपसम्पादक थे। पोलाक जोहान्सबर्ग स्टेशन पर गांधीजी को छोड़ने आए और गांधीजी
को एक पुस्तक देते हुए बोले, “यह पुस्तक रास्ते में
पढ़ने योग्य है। आप इसे पढ़िए। आपको पसंद आएगी।” यह पुस्तक जौन रस्किन (1819-1900) की लिखी “अनटु दिस लास्ट” थी। पोलाक ने वह पुस्तक गांधीजी के हाथ में रख दी। इसके पहले गांधीजी
ने रस्किन की एक भी पुस्तक नहीं पढ़ी थी। गांधीजी अपनी आत्मकथा
में लिखते हैं, “मुझे ख्याल भी नहीं था कि
इसके परिणाम कितने दूरगामी होंगे।” गाड़ी खुलते ही गांधीजी ने उसे पढ़ना शुरू किया। फिर तो वे
उसमें इतना रमे कि उसे छोड़ ही न पाए। गांधीजी पुस्तक को रास्ते भर पढ़ते रहे।
जोहान्सबर्ग से नेटाल का रास्ता क़रीब चौबीस घंटों का था। जब ट्रेन डरबन पहुंच रही थी, तब तक गांधीजी पुस्तक समाप्त कर चुके थे। लंबी ट्रेन यात्रा के बाद शाम को गाड़ी डरबन पहुंची। यह यात्रा उनके जीवन में दूसरा सबसे बड़ा परिवर्तन
बिंदु साबित हुई। रास्ते में उन्होंने जो पुस्तक पढ़ी थी उसका उनके आगे के जीवन पर
काफी निर्णायक प्रभाव पड़ा। उन्होंने पाया कि रस्किन
की प्रस्थापना उनके लिए कुछ अत्यंत गहरे विश्वासों को व्यक्त करती थी – इतनी
स्पष्टता इतनी विविधता के साथ जितनी स्पष्टता और विविधता के साथ वे स्वयं उनका
निरूपण नहीं कर पाए थे। डरबन पहुंचने के बाद सारी रात गांधीजी को नींद ही नहीं आई।
उन्हें एक ऐसी पुस्तक मिली थी जो उनके व्यावहारिक चिंतन का आधार बनी। जो वे दिल से
करना चाहते थे, उसकी रूपरेखा इसमें थी। इस किताब में गांधीजी को उन सभी प्रश्नों के उत्तर
मिले जो समय-समय पर उनके दिमाग में उठते रहते थे। जो विचार वर्षों से उनके मन में
उमड़ते-घुमड़ते रहते थे वे अब निश्चित शक्ल लेने लगे।
जॉन रस्किन (1819-1900); एक स्कॉट्समैन और वास्तुकला, चित्रकला, सामाजिक और औद्योगिक समस्याओं,
समाज में महिलाओं की स्थिति आदि
पर कई पुस्तकों के लेखक; कुछ समय के लिए ऑक्सफोर्ड में कला के स्लेड प्रोफेसर;
बाद में विभाजन और सूदखोरी के
विरोधी बन गए और श्रमिकों की शिक्षा और सहकारी औद्योगिक बस्तियों में रुचि रखने
लगे। मुनेरा पुलवेरिस के साथ, अनटू दिस लास्ट, जिसे कॉर्नहिल पत्रिका में लेखों की एक श्रृंखला के रूप में
प्रकाशित किया गया था, रस्किन के सामाजिक स्वप्नलोक को स्पष्ट करता है। गांधीजी रस्किन को "तीन
आधुनिक लोगों में से एक के रूप में वर्णित करते हैं ... जिन्होंने मुझ पर गहरा
प्रभाव डाला"।
खून और आंसू से लिखी गई पुस्तक
रस्किन का अपने जीवनकाल में कला समीक्षक,
निबंधकार और नैतिकता,
समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र पर
लेखक के रूप में बहुत प्रभाव था। 1871 और 1874 के बीच प्रकाशित आठ खंडों में उनके
स्मारकीय ‘फ़ोर्स क्लेविगेरा’ ने शारीरिक श्रम की गरिमा का उपदेश दिया,
सरल जीवन का आग्रह किया और
आधुनिक आर्थिक प्रणाली की दुर्बल करने वाली जटिलताओं पर ज़ोर दिया। लंदन के कॉर्नहिल मैगज़िन
(Cornhill Magazine) और न्यू यॉर्क के हार्पर
(Harper) में छपे आलेखों के
संग्रह के रूप में “अन्टु दिस लास्ट” (Unto This Last) नाम से लगभग 80 पृष्ठों की यह पुस्तक पहली बार 1860 में छपी थी। इसके प्रकाशन के चार दशकों के बाद इसे पढ़ने के बाद गांधीजी
ने कहा था, “यह पुस्तक खून और आंसू से
लिखी गई थी!” (It was written with blood and tears)! रस्किन का इस पुस्तक में प्रमुख मंतव्य यह था कि एक इंसान के जीवन
का जो मुख्य मकसद होता है, अपने साथी लोगों के साथ
मानवीय रिश्तों को बनाए रखने का, सामाजिक अर्थव्यवस्था का
सिद्धांत हमेशा उसकी उपेक्षा करता है। सामाजिक संबंध सुविधा के अनुसार नहीं बनाए
जाने चाहिए। मालिक और मातहत के बीच का संबंध सामाजिक बंधुत्व पर आधारित हों।
मज़दूरों को सिर्फ़ रुपयों पैसों से ही उसका मेहनताना नहीं अदा किया जाना चाहिए,
बल्कि एक अदृश्य धन भी उसे मिले, जो प्यार, भावना और मैत्री का हो। रस्किन ने लिखा था कि धनी तो
सिर्फ शक्ति संचय कर लोगों के ऊपर अपना प्रभुत्व दिखाते हैं। धनी व्यक्ति बिजली के
समान होते हैं जो असमानता के सिद्धांत पर काम करते हैं। आपकी जेब में पड़े पैसे का
महत्व आपके पड़ोसी की जेब में पड़े पैसे के ऊपर निर्भर करता है। अगर आपके पड़ोसी
को आपसे अधिक पैसा है, और उसे इसकी ज़रूरत नहीं
है, तो आपके पैसे का कोई महत्व
नहीं है। यदि वह ग़रीब है और वह पैसे के लिए काम करने को तैयार है तो आपके पैसों
का महत्व है। इसलिए धनी व्यक्ति को धन का संग्रह नहीं इंसानों का संग्रह करना
चाहिए। उसे अधिक धन का संचय नहीं, आनंद का संचय करना चाहिए। धनी अपने आपको ग़रीबों का
दास समझे, विलासिता का परित्याग करे
और अपने धन का समाज के अभ्युत्थान के खर्च करे। सही सम्पत्ति बैंकों में नहीं
लोगों के दिलों में खोजा जाना चाहिए। मनुष्य को अधिक धन की नहीं, बल्कि सरल सुख की खोज करनी चाहिए;
उच्चतर सौभाग्य की नहीं,
बल्कि अधिक आनंद की खोज करनी
चाहिए; सम्पत्ति में प्रथम स्थान आत्म-संपत्ति का रखना चाहिए;
तथा हानि रहित गर्व और शान्ति
की शांत खोज में स्वयं को सम्मानित करना चाहिए।
मन में गहरी उथल-पुथल
रस्किन ने अपनी किताब में एक ऐसे समाज का वर्णन किया है जहां
सब बराबर होंगे, प्रकृति के सान्निध्य में
रहेंगे और कोई मनुष्य मशीन का ग़ुलाम नहीं होगा। इस पुस्तक में रस्किन ने परंपरागत अर्थशास्त्रियों को इसलिए आड़े हाथों लिया है
कि वे कभी मानव-कल्याण की दृष्टि से अर्थशास्त्र पर विचार नहीं करते और औद्योगीकरण
की इसलिए बुराई की गई है कि वह अपने साथ ग़रीबी और सामाजिक अन्याय को लाता और
पनपाता है। गांधीजी ने रस्किन के
विचारों को अपने जीवन में अमल में लाने का निर्णय कर लिया था। इस पुस्तक ने गांधीजी
के जीवन में तत्काल महत्व के रचनात्मक परिवर्तन कराए। रस्किन के विचारों ने गांधीजी के मन में गहरी उथल-पुथल मचा
दी। पुस्तक का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि उनके दृष्टिकोण बदल गए और उन्होंने एक महा
शपथ लेने का निश्चय कर लिया था। वे अपनी सारी वस्तुओं का परित्याग करने जा रहे थे।
उन्होंने निश्चय किया कि रस्किन के आदर्शों की तरह ही वे अपना जीवन जीएंगे। खासतौर
से रस्किन ने अपनी इस पुस्तक में शारीरिक श्रम की महत्तावाले सादे जीवन का जो
आदर्श पेश किया था, उससे गांधीजी बहुत ही
प्रभावित हुए। रस्किन ने लिखा था कि धनी तो सिर्फ शक्ति संचय कर लोगों के
ऊपर अपना प्रभुत्व दिखाते हैं। व्यक्ति का भला सबके भले में है। सबको रोजी-रोटी
कमाने का बराबर अधिकार है। एक श्रमिक अपनी कुदाल से समाज की सेवा करता है। उस तरह
की जिंदगी जो एक श्रमिक, एक कृषक जीता है, सार्थक है। रस्किन का तर्क था कि किसी समुदाय की सच्ची सम्पत्ति उसके सभी
सदस्यों के कल्याण में निहित होती है और व्यक्ति का कल्याण समष्टि के कल्याण का
अंग होता है – उसी तरह आखिरी व्यक्ति तक
जिस तरह तुम तक। सभी कार्यों का समान महत्व
होता है। हज्जाम का काम वकील के काम से कुछ कम अहम नहीं होता। खेत या दस्तकारी में
हाथों से काम करने वाले का जीवन सबसे उपयोगी जीवन होता है। गांधीजी का निर्णय
असाधारण था। क्योंकि उस समय वे एक धनी व्यक्ति थे, जो अपनी वकालत से पांच हज़ार पाउंड प्रति वर्ष से भी अधिक
आय सृजन कर रहे थे। उस काल के हिसाब सें यह एक बहुत बड़ी राशि थी।
विचारों पर अमल करने पर कटिबद्ध
इस पुस्तक में गांधीजी ने
जो कुछ उनके अंदर गहराई से छिपी थी उसका स्पष्ट प्रतिबिंब देखा। इसी कारण उस
पुस्तक ने गांधीजी पर गहरी छाप छोड़ी और वे उसके विचारों पर अमल करने पर कटिबद्ध
हो गए। “सर्वोदय” के सिद्धांतों को संक्षेप में वर्णन करते हुए गांधीजी
बताते हैं –
१. सबकी भलाई में हमारी भलाई
निहित है।
२. वकील और नाई दोनों के काम
की क़ीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि आजीविका का अधिकार
सबको एक समान है।
३. सादा मेहनत-मज़दूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।
गांधीजी लिखते हैं पहली
बात तो मुझे ठीक से मालूम थी। गांधीजी के लिए इसका मतलब था: केवल वही अर्थव्यवस्था अच्छी है जो सभी के भले
के लिए काम करती है। दूसरी बात की मेरे मन में धुंधली सी छवि थी जो इस किताब ने स्पष्ट की लेकिन तीसरी बात मेरे लिए नई थी। दूसरा सबक, जिसे उन्होंने 'अस्पष्ट रूप से महसूस किया' था, वह था कि 'वकील का काम नाई के काम जितना ही मूल्यवान है, क्योंकि सभी को अपनी आजीविका कमाने या अपने काम का समान
अधिकार है।' गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक में एक वाक्य से यह व्याख्या प्राप्त की: 'एक मजदूर अपने देश की सेवा अपनी कुदाल से करता है,
जैसे कि जीवन के मध्य स्तर का
व्यक्ति तलवार, कलम या छुरा से करता है।' लेकिन रस्किन ने गांधीजी की तरह यह नहीं कहा कि सभी के काम
का मूल्य समान है।' इसके विपरीत, रस्किन ने किसी भी चीज़ से ज़्यादा, मनुष्यों के बीच 'समानता की असंभवता' पर ज़ोर दिया। उन्होंने केवल यह तर्क दिया कि वंचितों को
भाग्यशाली लोगों की नैतिकता में सुरक्षा मिलनी चाहिए। रस्किन ने धर्मपरायण लोगों
की अंतरात्मा की अपील करके असमानता की कठिनाइयों को कम करने की आशा की।
अनटू दिस लास्ट का तीसरा सबक - 'श्रम का जीवन, यानी खेत जोतने वाले और राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विषय पर प्रचलित सोच
के खिलाफ एक साहसिक चुनौती थी। रस्किन ने उपयोगितावादी अवधारणाओं के प्रति अपना
असंतोष व्यक्त किया था,
जो हर इंसान में रहने वाली
आत्मा और सामाजिक स्नेह की अदृश्य संपदा को ध्यान में नहीं रखती थी, जो दान देने से कम नहीं होती। लेकिन ये गांधीजी के शब्द हैं;
यह शिक्षा,
हालांकि रस्किन के लिए अजनबी
नहीं है, लेकिन चार निबंधों में शायद ही मिलती है। रस्किन ने केवल फुटनोट में सुझाव
दिया कि अमीर लोग 'हल्का भोजन और अधिक काम' करके स्वस्थ रहेंगे जबकि गरीब अधिक भोजन और हल्का काम करके
रह सकते हैं। उनके लिए प्राथमिक चीज़ जीवन थी, धन नहीं। उन्होंने जिस आर्थिक प्रणाली की कल्पना की थी, उसमें जोर इस बात पर था कि वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और
वितरण इस तरह से किया जाए कि समग्र रूप से समुदाय का कल्याण हो। वास्तव में
उन्होंने मांग की कि अमीरों को अधिक से अधिक धन इकट्ठा करने के बजाय मानव उन्नति
के नियमों को समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसे आत्मसात करने के लिए गांधीजी ने फीनिक्स में किसान जीवन की शुरुआत की थी। गांधीजी कहते हैं यह
किताब उन्हें दीप की तरह रौशनी दिखाने वाली कृति थी। हालाँकि
रस्किन ने कभी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि खेत जोतने वाले और हस्तशिल्पकार “जीने लायक जीवन” का आनंद लेते
हैं, लेकिन यह तर्क साधारण श्रमिक समुदायों के पक्ष में है और गांधी रस्किन के पाठ
से कोई नया अर्थ नहीं निकाल रहे थे। अन टू दिस लास्ट एक कार्रवाई का आह्वान है,
और गांधी इसे पढ़ने के बाद
कार्रवाई करने वाले पहले व्यक्ति नहीं थे।
उपसंहार
गांधीजी
ने खुद स्वीकार किया है कि उन पर कई कृतियों का बहुत प्रभाव हुआ जिनमें गीता और रस्किन की "अन टू दिस लास्ट"
का उन्होंने विशेष उल्लेख किया है। गांधीजी इसी किताब को यह श्रेय देते हैं जिसने उन्हें समाज
की सबसे अंतिम पंक्ति पर खड़े व्यक्ति की सेवा का अंत्योदय सरीखा सुन्दर विचार दिया। गांधीजी के जीवनीकार विंसेट शीन लिखते हैं, “गांधीजी के आदर्शवाद और
व्यावहारिकता के विचित्र से मिश्रण को इस पुस्तक से वो मिला जिसकी उन्हें तलाश थी, जो उनकी अंतरात्मा के अत्यंत ही अनुरूप था – और विशेष रूप से मिल-जुल कर मेहनत करने के सहकारी श्रम का
विचार, उन्हें इस पुस्तक से मिला।” गांधीजी के आदर्शवाद रस्किन के प्रभाव से गांधीजी के मन में सर्वोदय के रचनात्मक विचार का जन्म हुआ। बाद में
उन्होंने रस्किन की इस किताब का गुजराती में अनुवाद किया। इसका नाम उन्होंने ‘सर्वोदय’ रखा। “सर्वोदय” ने गांधीजी को दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज़
में दूसरी दोनों चीज़ें समाई हुई हैं। सर्वोदय एक ऐसा शब्द है जो गांधीजी के
सामाजिक-आर्थिक सुधर संबंधी आदर्श का प्रतीक बनकर पूरे भारत में प्रचलित है। सुबह
होते-होते गांधीजी ने इन विचारों पर अमल करने का प्रण ले लिया था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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