शनिवार, 2 नवंबर 2024

124. व्यवस्था के प्रति लड़ाई – व्यवस्थापक के प्रति नहीं

 गांधी और गांधीवाद

124. व्यवस्था के प्रति लड़ाई – व्यवस्थापक के प्रति नहीं

जनवरी 1903

जनवरी 1903 में राजकोट में लक्ष्मीदास ने चौदह वर्षीय हरिलाल की सगाई ग्यारह वर्षीय गुलाब बेन के साथ धूम-धाम से तय कर दी। गुलाब बेन ने राजकोट के एक प्रतिष्ठित मोढ़ बनिया परिवार में जन्म लिया था। उनके पिता हरिदास वोहरा एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनके साथ गांधीजी के अच्छे ताल्लुक़ात थे। इसका यह मतलब नहीं था कि गांधीजी की सहज स्वीकृति इस संबंध को मिलने वाली थी। गांधीजी बाल-विवाह के सख्त ख़िलाफ़ थे। जब गांधीजी को मालूम हुआ कि सगाई की रस्म होने जा रही है, उन्होंने इसका तीव्र विरोध किया। जब उन्हें बताया गया कि अभी तो केवल सगाई की रस्म अदायगी हो रही है, शादी तो कुछ वर्षों के बाद होगी, तब जाकर उन्होंने अधूरे मन से हामी भरी।


कस्तूरबा और चारों बच्चे

एक-दो महीने के बाद कस्तूरबा और उनके चारों पुत्र मुम्बई गए थे। वहां वे एक फोटोग्राफर के स्टूडियो गए और एक फोटो खिचवाया। हालाकि इस पिक्चर में गांधीजी तो नहीं हैं, लेकिन यह तस्वीर गांधी परिवार के लिए गए तस्वीरों में सबसे अच्छे में से एक माना जा सकता है। कस्तूरबा इस फोटो में दृढ़ और शांत महिला लग रही हैं। उनका बायां हाथ अपने छोटे पुत्र तीन वर्ष के देवदास के कंधे पर है, उनका दांया हाथ बच्चे के घुटनो पर है, ताकि वह ठीक से खड़ा रह सके। ग्यारह वर्षीय मणीलाल गंभीरता से देख रहा है, और देवदास के बगल में खड़ा हैं। कस्तूरबा के बगल में पांच वर्षीय रामदास हैं। रामदास के पीछे अपने भाई के कंधे पर हाथ रखे पन्द्रह वर्षीय हरिलाल खड़े हैं।

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अप्रवासियों का लगातार ट्रांसवाल में आना, लॉर्ड मिलनर के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी। उसने भी यह मान ही लिया था कि जबतक कोई वैकल्पिक कार्यप्रणाली नहीं अपनाई जाती तब तक दक्षिण अफ़्रीकी गणराज्य के कायदे क़ानून से ही काम चलाना होगा। अप्रैल 1903 में एक नोटिस ज़ारी की गई जिसे बाज़ार नोटिस कहा जाता था। यह 1885 के क़ानून से मिलता-जुलता रूप ही था। 3 पौंड की वसूली की बात इसमें भी थी। लाईसेंस का ट्रान्सफर नहीं हो सकता, यह कह कर इस नोटिस ने एशियाई व्यापारियों के ऊपर मुसीबत ही बढा दी थी। इसने उन भारतीयों को असमंजस में डाल दिया जो युद्ध छिड़ने के समय व्यापार में नहीं थे या बिना औपचारिक परमिट के व्यापार कर रहे थे और साथ ही उन लोगों को भी जिन्हें युद्ध समाप्त होने के बाद नए लाइसेंस दिए गए थे। बहुत से ऐसे व्यापारी थे, जिन्होंने युद्ध के समय व्यापार छोड़ दिया था, उन्हें फिर से व्यापार शुरू करने के लिए दुबारा लाईसेंस लेना था, जो काफ़ी टेढ़ीखीर थी। इसमें यह प्रावधान था कि सरकार एशियाई लोगों के लिए विशेष रूप से निर्धारित इलाके के अलावा किसी अन्य इलाके में रहने के लिए कुछ शर्तों को पूरा करने वाले आवेदकों को विशेष छूट देगी, जो एशिया से आने वाले आप्रवासियों के पूरे समूह पर एक कलंक था, क्योंकि उनमें से हर एक को यूरोपीय लोगों के बीच रहने के लिए अयोग्य माना जाता था, जब तक कि उसे विशेष रूप से छूट न दी गई हो। सबसे बढ़कर, इस आदेश को जारी करके सरकार ने पुरानी व्यवस्था के एशियाई विरोधी कानून को निरस्त करने के सवाल को अनिश्चित काल के लिए टाल दिया था।

भारतीयों की स्थिति अब युद्ध के पहले जैसी ही थी। उनके पास डच सरकार के दिए हुए परमिट थे, जिसके लिए उन्होंने तीन पौंड से लेकर पच्चीस पौंड तक खर्च किए थे। अब उन्हें दुबारा परमिट हासिल करना था। परमिट ज़ारी करने के लिए अलग से एक विभागएशियाटिक डिपार्टमेंट खोला गया था। इसके अधिकारी भ्रष्ट थे, यहां से परमिट लेना और भी कठिन हो गया था। लॉर्ड मिलनर ने अपना दिया हुआ वचन खुद ही तोड़ दिया था। जब वह उच्चायुक्त था, तो उसने घोषणा की थी, कि रजिस्ट्रेशन उनके (भारतीयों के) लिए एक प्रकार की सुरक्षा है। इसके लिए उन्हें तीन पौंड खर्च करना होता है। वह भी सिर्फ़ एक बार। जिसने पुरानी सरकार को इसका भुगतान किया उन्हें केवल यह साबित भर करना है कि उन्होंने भुगतान किया था। उन्हें दुबारा इसकी अदायगी करने की ज़रूरत नहीं होगी। न तो उन्हें पुनः पंजीकरण कराने की ज़रूरत होगी न ही फ़्रेश परमिट लेना होगा। उसी रजिस्ट्रेशन के आधार पर वे आ और जा सकते हैं। किंतु नए प्रावधानों में उन्हें फिर से रजिस्ट्रेशन कराना होता। मिलनर ने खुद का दिया वादा बड़ी बेशर्मी से तोड़ दिया था। जिस नीति के तहत एशियाई विभाग बनाया गया था, उसे प्रवासी भारतीय ब्रिटिश नागरिकता की भावना के विपरीत और न्यायपूर्ण शासन के लिए विध्वंसकारी मानते थे। इसका कड़ा विरोध किया जाना चाहिए।

ट्रांसवाल में भारतीयों के प्रति भेदभाव कट्टरता का रूप लेता जा रहा था। ट्रांसवाल ब्रिटिश एसोसिएशन की स्थापना 1903 में हो चुकी थी। इसकी वही भूमिका थी जो नेटाल कांग्रेस ने नेटाल में अदा की थी। इसका सारा ज़ोर एशियाटिक विभाग की भ्रष्टता को दूर करने की ओर लगा हुआ था। चूंकि इसकी कोई सदस्यता शुल्क नहीं थी, इसलिए ग़रीब-से-ग़रीब लोगों ने भी इसकी गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया था। निर्णय लेने का अधिकार इसके केन्द्रीय कार्यकारिणी के पास था, जो अधिकांशतः व्यापारियों के हाथ में था। गांधीजी इसके अवैतनिक सचिव थे। गांधीजी का उद्देश्य भारतीय समुदाय को ट्रांसवाल कॉलोनी के एक उपयोगी हिस्से के रूप में शामिल करना और उसके सदस्यों को साम्राज्य के सच्चे नागरिक के रूप में मान्यता दिलाना था। उनका मानना था कि चूंकि भारतीय एक सभ्य, क़ानून को मानने वाले तथा समुदाय के हित में काम करने वाले लोग हैं, इसलिए उन्हें भी उतना ही व्यापार करने का हक़ है जितना कि दूसरों का। वह इस नीति का पूरी तरह से विरोध करने के लिए तैयार थे। ट्रांसवाल स्थित प्रवासी भारतीयों के लिए न्याय और नागरिकता हासिल करने के लिए गांधीजी ने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी। 22 मई, 1903 को अब्दुल गनी, हाजी हबीब, एच.ओ. एली, एस.वाई. थॉमस और इमाम शेख अहमद से मिलकर बना भारतीय प्रतिनिधिमंडल, जिसका नेतृत्व गांधीजी कर रहे थे, मिलनर के पास आया। उनके साथ उनकी लंबी वार्ता हुई। अपने साक्षात्कार के दौरान प्रतिनिधिमंडल ने विशेष रूप से निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा की: 1. 3 पाउंड का कर और 1885 का कानून 3. 2. एशियाई कार्यालय और उसके द्वारा शुरू की गई परमिट प्रणाली। 3. भारतीयों को संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित करना। खासकर एशियाई कार्यालय को लेकर शिकायतें भी उन्होंने मिलनर के सामने रखी। लॉर्ड मिलनर दक्षिण अफ़्रीका का उच्चायुक्त तो था ही, ट्रान्सवाल के गवर्नर का कार्यभार भी उसके पास था। हालाकि उसका रवैया सहानुभूति का था, पर उससे कुछ भी हासिल न हो सका। यदि भारतीयों को कोई सांत्वना देने वाली बात थी, तो वह केवल यह थी कि बाज़ार नोटिस एक अस्थायी उपाय था और सरकार नए कानून पर विचार कर रही थी।

गांधीजी ने दादाभाई नौरोजी को बाज़ार नोटिस से उत्पन्न स्थिति की गंभीरता से अवगत करा दिया था और संकेत दिया था कि किस तरह से समाधान संभव है जो भारतीयों को स्वीकार्य होगा और साथ ही गोरों के सभी उचित भय को दूर करेगा। उन्होंने चेतावनी दी थी, "वांछित कानून पारित करने में जितनी देरी होगी, उतनी ही अधिक कठिनाई होगी।" गांधीजी का पत्र मिलते ही दादाभाई ने ईस्ट इंडिया एसोसिएशन से संपर्क किया और लंदन में बातचीत शुरू की।

ट्रांसवाल में एशियाई अधिकारियों का एक बड़ा-सा थाना था। किंतु एशियावासियों की रक्षा के नाम पर वहां से कुछ नहीं होता था। लोगों ने गांधीजी को शिकायत की कि इस थाने में सौ पौंड देकर जिन्हें परमिट नहीं मिलनी चाहिए उन्हें भी परमिट मिल जाता है, पर उचित लोगों को लाख कोशिश करके भी नहीं मिलता। गांधीजी को लगा कि इस रोग से छुटकारा ज़रूरी है। बिना सबूत के तो कुछ किया नहीं जा सकता था। गांधीजी सबूत जुटाने में लग गए। यह काम न सिर्फ़ उनके लिए बल्कि भारतीयों के लिए भी जोखिम भरा था, क्योंकि उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी जा रही थी।

अच्छे खासे सबूत मिल जाने के बाद गांधीजी पुलिस-कमिश्नर के पास पहुंचे। गांधीजी ने उससे कहा कि एशियाटिक डिपार्टमेंट में बहुत धांधली है। जिन्हें क़ानूनन ट्रांसवाल में प्रवेश मिलना चाहिए, उन्हें प्रवेश नहीं मिलता, जबकि सौ पौंड देने वाले के लिए कायदे-क़ानून को ताक पर रख दिया जाता है। उसने गांधीजी की सारी बातें सुनी और सबूत दिखाने को कहा। गांधीजी ने जितने सबूत इकट्ठे किए थे, सब उसके सामने रख दिया। कमिश्नर ने सारे सबूत देखे और गवाहों के बयान भी उसने खुद लिए। उसे विश्वास तो हो गया कि गांधीजी की बातें तर्क और सबूतों पर आधारित हैं, फिर भी उसने कहामुझे आपके कहे पर पूरा विश्वास है। लेकिन आप जानते हैं, दक्षिण अफ़्रीका में गोरे पंचों द्वारा गोरे अपराधियों को सज़ा दिलाना नामुमकिन है। फिर भी मैं प्रयत्न तो करूंगा ही। ऐसे अपराधी यदि जूरी द्वारा छोड़ दिए जाएंगे, इस आशंका से उन्हें न पकड़वाना भी तो सही निर्णय नहीं होगा। मैं तो उन्हें पकड़वाऊंगा। आपको मैं इतना विश्वास दिलाता हूं कि अपनी मेहनत में मैं कोई कसर नहीं रखूंगा।

जिन दो अधिकारियों के बारे में गांधीजी ने पुख्ता सबूत पेश किए थे, उनके नाम वारंट निकले। उन अधिकारियों के जासूसों ने, जो गांधीजी के दफ़्तर और उनकी गतिविधियों पर निगाह रखते थे, उन्होंने यह खबर दी कि यह काम गांधीजी की शिकायत पर हुआ है। उन दोनों में से एक अधिकारी जोहान्सबर्ग छोड़कर भाग रहा था, पर पुलिस कमिश्नर ने बाहर का वारंट निकालकर उसे पकड़वाकर मंगवाया। दूसरा तो शहर में ही पकड़ा जा चुका था। दोनों पर मुकदमा चला। तमाम सबूतों और शहर छोड़कर भागने के प्रमाण मौज़ूद होने के बावज़ूद जूरी ने दोनों को छोड़ दिया !

1903 के अप्रैल से जून तक दक्षिण अफ़्रीका में रहे ब्रिटिश लेखक अर्थर हौक्स (Arthur Hawks) के संस्मरण, जब वह गांधीजी से मिला था, से ज्ञात होता है कि उसे तैंतीस साल का यह व्यक्ति चालीस का लगा। उनके बारे में वर्णन करते हुए हौक्स लिखता है कि उनके चेहरे पर छोटी काली मूंछें थीं, रंग काला तो नहीं कहा जा सकता, हां सांवलापन लिए था, किंतु समझदारी में वह बहुत चतुर थे। उनकी नरम आवाज़ में उनके बोलने का ढंग बहुत ही मधुर था, बिना किसी विद्वेष की झलक के अति सुंदर अंग्रेज़ी बोलने का उनका ढंग आकर्षक था, जब वे बोलते थे तो धीमी सी सिसकारी निकलती थी और ‘स, का उच्चारण ‘श’ की तरह सुनने में लगता था।

गांधीजी और पुलिस कमिश्नर निराश और दुखी हुए। गांधीजी को यह जानकर कि वकालत में बुद्धि का उपयोग अपराध को छिपाने में होता है, वकालत से अरुचि हो गई। फिर भी इतना तो फायदा हुआ ही कि दोनों अधिकारी के अपराध काफ़ी चर्चित हो गए, और अदालत से छूटने के बाद सरकार ने उन्हें नौकरी पर रखने के बजाए बरखास्त कर दिया। इससे गांधीजी की प्रतिष्ठा बढ़ी। वकालत के उनके धंधे में भी वृद्धि हुई। भारतीय समाज को जो इन भ्रष्ट अधिकारियों को रिश्वत देना पड़ता था, उससे राहत मिली। इस छोटी सी ही सही, सफलता से गांधीजी को काफ़ी ख्याति मिली। लोगों का मुम्बई से आए इस बैरिस्टर में विश्वास बढ़ा। महीने भर के भीतर उनके पास मुकदमों का ढेर लग गया।

इस सबके बावज़ूद गांधीजी ऐसे अधम अधिकारियों के प्रति नफ़रत का भाव नहीं रखते थे। बल्कि ऐसे एक व्यक्ति को नौकरी दिलाने में उन्होंने मदद भी की। इसका परिणाम यह हुआ कि जो गोरे गांधीजी के संपर्क में आए वे उनसे निर्भय रहने लगे। वे यह समझने लगे कि गांधीजी की लड़ाई व्यवस्था से है, किसी व्यक्ति से नहीं। हालाकि ऊपर से दिखने में तो यह गांधीजी के स्वभाव का एक अंग लगता था, परन्तु वास्तव में यह उनके सत्याग्रह और अहिंसा का विशेष अंग था।

गांधीजी का मानना था कि व्यक्ति और उसके काम ये दो विभिन्न वस्तुएं हैं। अच्छे काम के प्रति आदर और बुरे का तिरस्कार होना चाहिए। व्यक्ति के प्रति सदा आदर और दया रहनी चाहिए। सत्य के प्रयोग के मूल में ऐसी अहिंसा ज़रूरी है। जब तक अहिंसा हाथ में नहीं आती, तब तक सत्य मिल ही नहीं सकता। व्यवस्था के प्रति लड़ाई तो अच्छी बात है, किंतु व्यवस्थापक के विरुद्ध लड़ाई में यह न बदले। गांधीजी का मानना था कि व्यक्ति या व्यवस्थापक के विरुद्ध लड़ाई अपने विरुद्ध लड़ाई के समान है। हर व्यक्ति एक ही ईश्वर की संतान है। सब में अनंत शक्तियां निहित हैं। व्यक्ति का अनादर या तिरस्कार करने से उन शक्तियों का अनादर होता है। इससे संसार को हानि होती है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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