राष्ट्रीय आन्दोलन
145.
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
प्रवेश
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक असाधारण मेधावी, प्रख्यात पत्रकार, सुधारक, विधिवेत्ता और गणितज्ञ तथा “प्रत्यक्ष कार्रवाई” के दृढ़ प्रतिपादक और महान राजनैतिक
नेता थे। बाल गंगाधर तिलक 'लाल बाल पाल' त्रिमूर्ति में से एक थे। कांग्रेस के उग्रवादी नेताओं में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का प्रमुख स्थान है। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को गति प्रदान की।
वह कांग्रेस की नर्म नीतियों, राजनीतिक ‘भिक्षाटन’ एवं अनुनय-विनय की नीति के सख्त खिलाफ थे। महात्मा गांधी ने उन्हें 'आधुनिक भारत का निर्माता' कहा।
जीवन
परिचय
तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी नामक स्थान पर हुआ था। वह
एक उच्च चितपावन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। तिलक के पिता का नाम गंगाधर
रामचंद्र तिलक था। वह संस्कृत के विद्वान और प्रख्यात शिक्षक थे। गंगाधर रामचंद्र तिलक
रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे। उनकी माता का नाम पार्वती बाई गंगाधर था। तिलका
विवाह तापीबाई से हुआ था, जिनका नाम शादी के बाद सत्यभामा हो गया।
शिक्षा
तिलक एक प्रतिभाशाली छात्र थे। पिता का सहायक उपशैक्षिक
निरीक्षक के पद पर रत्नागिरि से पुणे स्थानांतरण हुआ तो तिलक का दाखिला भी पुणे के
एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल में करा दिया गया। 16 साल की उम्र में ही सन् 1872 ई. में माता और फिर पिता के देहांत के बाद तिलक ने
अपने संघर्षपूर्ण करियर की शुरुआत की। अपने पिता की मृत्यु के चार महीने के अंदर
मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। तिलक की शिक्षा पूना के डेक्कन कॉलेज में हुई, जहाँ 1876 में उन्होंने गणित और संस्कृत में स्नातक की
उपाधि प्राप्त की। इसके बाद तिलक ने कानून की पढ़ाई की, 1879 में उन्हें बॉम्बे विश्वविद्यालय (अब मुंबई) से डिग्री मिली। शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने बंबई
हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। उनमें बचपन
से ही देशप्रेम और स्वाभिमान की भावना भरी हुई थी। वह भारत की प्राचीन सभ्यता और
संस्कृति से प्रभावित थे। वह भारत में अंग्रेजी राज को एक अभिशाप मानते थे। स्नातक
की उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन देश-सेवा में लगा दिया।
स्कूल
की स्थापना
1880 में उन्होंने पूना में ‘न्यू इंगलिश स्कूल’ की स्थापना की। 1884 में ‘डेक्कन एजुकेशन
सोसायटी’ और
1885 में ‘फर्ग्यूसन कॉलेज’ की स्थापना की। तिलक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के आलोचक थे। तिलक
दक्खन शिक्षा सोसायटी के द्वारा भारत में शिक्षा का स्तर सुधारना चाहते थे।
प्रेस
की आज़ादी
आज़ादी की लड़ाई के दौर में प्रेस की आज़ादी के सवाल को लेकर
सबसे ज़्यादा जुझारू संघर्ष बाल गंगाधर तिलक ने किया। जनमत को जगाने के लिए 1881
में तिलक ने मराठी दैनिक ‘केसरी’ और
अंग्रेजी साप्ताहिक ‘मराठा’ निकालना शुरू किया। इन समाचार पत्रों के ज़रिए उन्होंने
ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनता में जागरूकता पैदा करना शुरू किया। इनमें उन्होंने
ओजपूर्ण लेख लिखे। इसके द्वारा सरकारी नीतियों को आलोचना की। ‘केसरी’ और ‘मराठा’ जैसे क्रान्तिकारी समाचारपत्रों से प्रेरणा
पाकर संघर्ष में आहूति बनने के लिए युवा वर्ग मैदान में कूद पड़े। जब अरविन्द घोष
ने रूस के आतंकवादी ढंग के आक्रामक प्रतिरोध का निश्चय किया, तो तिलक ने ‘केसरी’ में उनके नैतिक समर्थन में लिखा, “यदि प्रशासन का रूसीकरण हुआ तो जनता निश्चय ही
रूसी तरीक़े अपनाएगी।” जब अंग्रेजों ने भारत में रेलवे की स्थापना की तो इसके
फायदे को बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे थे। राष्ट्रवादी नेताओं ने इस दावे की असलियत लोगों के सामने
रखी। तिलक ने अपने समाचारपत्र में लिखा कि इसके ज़रिए आयातित घरेलू उत्पादनों की
बिक्री को काफी गहरा धक्का लगा। इसका पूरा फ़ायदा ब्रिटेन को मिला, न कि भारत को। “यह दूसरे की पत्नी के सिंगार-पटार का खर्च उठाने जैसी बात है”। तिलक एक निडर,
साहसी और बेलाग बोलने वाले पत्रकार थे, जिनकी भाषा स्पष्ट, सरल और सीधी चोट करने वाली होती थी।
भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के मंच पर
लोकमान्य दिसम्बर 1889 में पहली बार बम्बई (मुंबई) सत्र में भारतीय राष्ट्रीय
कांग्रेस के मंच पर आए। 1895 ई. के क्रिसमस के दौरान पूना में राष्ट्रीय कांग्रेस का ग्यारहवां अधिवेशन करने का
निश्चय किया गया तो पूना की सभी पार्टियों ने सर्वसम्मति से
तिलक को 'स्वागत समिति' का सचिव बनाया। इस हैसियत से 'कांग्रेस अधिवेशन' के आयोजन का सभी काम तिलक को करना
पड़ा। उन्होंने सितंबर तक कार्य किया। जब इस विषय पर विवाद हो गया कि क्या कांग्रेस के पंडाल में सामाजिक परिषद भी होगी
तो पार्टी में जबरदस्त झगड़ा हो गया जिसके कारण तिलक ने स्वयं को इस काम से अलग कर
लिया। वे क्रांतिकारी नेता थे। वह कांग्रेस की उदार नीतियों से क्षुब्ध थे।
नरमपंथियों से उनका मतभेद बढ़ने लगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था, “यदि हम साल में एक बार मेंढकों की तरह टर्र-टर्र
कर चुप होते रहें, तो हमें कभी अपने प्रयासों में सफलता नहीं मिलेगी।” 1902
में एक भाषण में उन्होंने कहा था, “तुम भले ही दलित और उपेक्षित क्यों न हो, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि यदि तुम चाहो तो
प्रशासन को पंगु कर दो।” तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि “भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए”। सरकार भी उनके उग्र विचारों से उनकी विरोधी बन गयी।
राष्ट्रीयता
की भावना का प्रचार-प्रसार
उनकी देशभक्ति
उनके लिए जुनून थी। उन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभाओं को अपने देश को समर्पित कर
दिया था। तिलक ने
राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार-प्रसार करने का एक अद्भुत तरीका खोजा। सारे
महाराष्ट्र में अत्यधिक उत्साह और श्रद्धा से मनाए जाने वाले ‘गणपति महोत्सव’ को उन्होंने पहली बार 1893 में राष्ट्रीयता के
प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाया। दस दिनों तक चलने वाले इस महोत्सव में गीतों, भाषणों और अन्य तरीकों से उन्होंने लोगों में देशप्रेम
और गौरव की भावना जगाया। 1896 में शिवाजी (जन्म 1627, मृत्यु 1680) जयंती
के अवसर पर मनाए जाने वाले समारोह को भी उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में ‘शिवाजी
उत्सव’ के रूप
में मनाना शुरू किया।
1896 में कपडे पर लगे उत्पाद-शुल्क के विरोध में सारे
महाराष्ट्र में ‘विदेशी वस्त्र
बहिष्कार आन्दोलन’ चलाया। वे पहले नेता थे जिसने यह पहचाना कि राष्ट्रीय आन्दोलन में निम्न
मध्यवर्ग, किसान, मज़दूर और दस्तकार बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं और
इन्हें कांग्रेस के साथ जोड़ा जाना चाहिए। 1896-97 में उन्होंने सार्वजनिक सभा के
माध्यम से महाराष्ट्र में ‘कोई टैक्स नहीं’ अभियान चलाया।
सामाजिक कार्यों में अग्रणी रहे तिलक ने कई समाज सुधार
आंदोलन भी चलाए। ‘सार्वजनिक
सभा’ का संचालन करते थे। वे लाल पगड़ी पहनते थे और छाता लेकर चलते थे, और नम्र और सौम्य दिखते थे।
‘लोकमान्य’ की उपाधि
1897-98 में उन्होंने महाराष्ट्र में प्लेग और दुर्भिक्ष
में सरकार की लापरवाही पर ‘केसरी’ में आलोचनात्मक लेख लिखे। केसरी में उन्होंने
लिखा: "क्या आप, जब रानी चाहती हैं कि कोई भी न मरे, जब राज्यपाल घोषणा करता है कि सभी को जीवित रहना चाहिए और राज्य सचिव यदि
आवश्यक हो तो ऋण लेने के लिए तैयार है - क्या आप डरपोक और भूख से खुद को मार देंगे? यदि आपके पास सरकार को भुगतान करने के लिए पैसा है, तो उन्हें हर तरह से भुगतान करें। लेकिन अगर आपके पास नहीं है, तो क्या आप अधीनस्थ सरकारी अधिकारियों के कथित क्रोध से बचने के लिए अपनी
चीजें बेच देंगे? क्या आप मौत की चपेट में होने पर भी साहसी नहीं हो सकते?" सरकार ने इसके कारण 27 जुलाई, 1897 को उन्हें गिरफ्तार कर उनपर राजद्रोह का
मुकदमा चलाया। उनपर आरोप था कि “वह लोगों में सरकार के प्रति नफरत फैला रहे हैं।” तिलक से अदालत में यह स्वीकार करने के लिए कहा गया
कि जिस लेख के लिए उन पर मुकदमा चलाया जा रहा है, वह उनके द्वारा नहीं
लिखा गया है। तिलक ने इनकार करते हुए कहा: "हमारे जीवन में एक ऐसा चरण आता
है जब हम अपने आप के अकेले मालिक नहीं होते बल्कि हमें अपने समाज के प्रतिनिधि के
रूप में कार्य करना चाहिए।" धारा 124-ए में आने वाले "असंतोष"
शब्द की एक नई परिभाषा ट्रायलिंग जज ने दी, यानी इसका मतलब "स्नेह का
अभाव" था और तिलक को अठारह महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। 1897 में
किसी राजनीतिक नेता को कारावास में डालना भारत में अपनी तरह की पहली घटना थी। तिलक की सज़ा का देश भर में ज़बरदस्त विरोध हुआ।
अखबारों ने प्रथम पृष्ठ पर काली पट्टियां छापीं और प्रेस की आज़ादी के लिए तिलक के
संघर्ष की सराहना की। रातोंरात तिलक अखिल भारतीय नेता के रूप में लोकप्रिय हो गए।
लोगों ने उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी। तिलक को लोगों ने जो उपाधि दी थी, वह किसी राजा द्वारा दी जाने वाली
उपाधि से लाख गुना अधिक मूल्यवान थी। 'लोकमान्य' या 'जनता द्वारा आदरणीय' के नाम से विख्यात बाल गंगाधर तिलक ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के विकास और
गांधीजी के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
स्वशासन
की मांग
उनके पास एक
दृढ़ इच्छाशक्ति थी जिसका उन्होंने अपने देश के लिए इस्तेमाल किया। तिलक ने 1905 में हुए बंग-भंग का विरोध किया।
उन्होंने स्वदेशी और बहिष्कार का महाराष्ट्र में व्यापक प्रचार किया। 1906 में
उन्होंने स्वशासित उपनिवेशों की तर्ज़ पर अंग्रेजों के सामने भारत में स्वशासन की
मांग रखी। तिलक ने निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रचार
किया और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की जिसे नए
राष्ट्रवादी स्कूल ने अपनाया और अमल में लाया।
1907 में सूरत कांग्रेस अधिवेशन में तिलक और उनके साथी
कांग्रेस से अलग हो गए। तिलक सरकार के विरोधी बन गए।
फिर से
राजद्रोह का मुकदमा
1908 में भारतीय संघर्ष में ‘बमों’ यानि आतंकवाद के प्रवेश पर तिलक ने एक लेख-माला
लिखी। ‘दि कंट्रीज मिस्फौर्च्युन’ और ‘दीज़ रिमेडिज़ आर नौट लास्टिंग’ लेखों द्वारा जहां उन्होंने व्यक्तिगत हिंसाओं
की निंदा की, वहीँ सरकार को भी दोषी ठहराया। सरकार द्वारा निर्ममतापूर्ण दमन की
आलोचना की। सरकारी अधिकारी बिना किसी कारण के लोगों को आतंकित करते हैं। ऐसे में
बम की आवाज़ सरकार को सच्चाई से आगाह कराती है। 24 जून, 1908 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर फिर
से राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। 22 जुलाई को उन्हें 6 वर्षों के लिए भारत से
निर्वासित कर मांडले भेज दिया गया। तिलक ने न्यायाधीश को
संबोधित करते हुए कहा: "जूरी के फैसले के बावजूद, मैं इस बात पर कायम हूं कि मैं निर्दोष हूं। ऐसी उच्च शक्तियां हैं जो चीजों
की नियति तय करती हैं; और यह ईश्वर की इच्छा हो सकती है कि जिस
मुद्दे का मैं प्रतिनिधित्व करता हूं, वह मेरे स्वतंत्र रहने
की अपेक्षा मेरे कष्टों से अधिक समृद्ध हो।" तिलक के मामले में
जो कुछ भी हुआ उसकी पुनरावृत्ति राष्ट्रीय आन्दोलन में उनके उत्तराधिकारी गांधीजी
के साथ भी हुई। 1922 में ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी द्वारा लिखे गए कुछ लेखों के कारण धारा 124ए
के तहत राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। तिलक की तरह उन्हें भी 6 साल की सज़ा सुनाई
गयी। गांधीजी ने जवाब दिया, “आप लोगों ने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ चले मुक़दमे की पुनरावृत्ति कर
मेरा सम्मान किया है। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि मेरे लिए यह सबसे अधिक गर्व
और प्रतिष्ठा की बात है कि तिलक के साथ मेरा नाम भी जुड़ गया है।”
जेल से
छूटे
16 जून 1914 को तिलक जेल से छूटे। तिलक भारत वापस आए। 21 जून को आयोजित एक स्वागत सभा में लोकमान्य ने कहा: "जब छह साल की
अनुपस्थिति के बाद मैं घर लौटता हूं और दुनिया के साथ अपने परिचय को नवीनीकृत करना
शुरू करता हूं, तो मैं खुद को रिप वैन
विंकल (रिप वैन विंकल, अमेरिकी लेखक वाशिंगटन इरविंग की एक लघु कहानी है, कहानी का नैतिक सबक यह है
कि समय इंतज़ार नहीं करता) की स्थिति में पाता हूं। अधिकारियों ने मुझे इतनी कड़ी
निगरानी में रखा था कि ऐसा लगता था कि वे चाहते थे कि मैं दुनिया को भूल जाऊं और
दुनिया मुझे भूल जाए। हालांकि, मैं लोगों को नहीं भूला हूं, और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि लोग मुझे नहीं भूले हैं। मैं केवल जनता को
आश्वस्त कर सकता हूं कि छह साल तक अलग रहने के बावजूद उनके प्रति मेरा प्यार कम
नहीं हो सकता और मैं उसी तरह और उसी रिश्ते और उसी क्षमता में सेवा करने के लिए
तैयार हूं जो छह साल पहले मेरी थी, हालांकि ऐसा हो सकता है, मुझे अपना तरीका थोड़ा बदलना होगा।"
वह कांग्रेस
में प्रवेश चाहते थे। कांग्रेस की तरफ से प्रतिक्रिया नकारात्मक थी। अखिल भारतीय
ख्याति के दो महान नेता - तिलक और गोखले - एक दूसरे के खिलाफ़ एक कटु विवाद में
खड़े थे। नरमपंथियों को डर था कि तिलक कांग्रेस पर कब्ज़ा कर लेंगे और भारत के लिए
स्वशासन की वकालत करेंगे। सर फिरोजशाह मेहता तिलक को उनके "तेजतर्रार
नेताओं" के साथ कांग्रेस खेमे में शामिल करने के खिलाफ़ खड़े थे।
1915 के मध्य
में उन्होंने गीता पर अत्यंत विद्वत्तापूर्ण युगांतकारी टीका ‘गीता रहस्य’ प्रकाशित की। पुस्तक के प्रकाशन के
एक सप्ताह के भीतर ही इसकी लगभग 5,000 प्रतियाँ बिक गईं।
होमरूल
लीग की स्थापना
इस बीच उन्होंने एनी बसंट के साथ मिलकर ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की। लीग के माध्यम से उन्होंने
स्वराज्य के लिए संघर्ष किया। उनका कहना था, “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे
लेकर रहूँगा (Swaraja is my birth right and I shall have it)।” उन्होंने इस विचारधारा का होम रूल आन्दोलन के
माध्यम से खूब प्रचार किया और सारे देश का दौरा किया। उन्होंने स्वराज के लिए अपनी अधीरता से लोगों को संक्रमित कर दिया, और जैसे-जैसे यह संक्रमण फैलता गया, वैसे-वैसे अधिकाधिक लोग उनकी ओर
आकर्षित होते गए। वे कहते
थे, “भारत की जनता को अब अपना हक़ लेना ही होगा।
उन्हें इसका पूरा अधिकार है।” उनका आशावाद अदम्य था।
उन्हें अपने जीवनकाल में स्वराज को पूरी तरह से स्थापित होते देखने की उम्मीद थी।
अगर वह असफल रहे, तो यह उनकी गलती नहीं थी। उन्होंने निश्चित रूप से इसे कई वर्षों तक करीब ला
दिया।
तिलक को अभी तक
कांग्रेस में कोई जगह नहीं मिली थी, क्योंकि बॉम्बे (1915) अधिवेशन में
हुए समझौते के तहत उन्हें एक साल तक इंतजार करना था। इसलिए तिलक ने होम रूल लीग को
अप्रैल 1916 में शुरू किया। यद्यपि तिलक की होमरूल लीग ने राष्ट्रीय कांग्रेस के
सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था, फिर भी सरकार उनकी
गतिविधियों को बहुत संदेह की दृष्टि से देखती थी। 1 मई को बेलगाम में एक प्रांतीय
राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें तिलक ने गरमपंथियों और नरमपंथियों के बीच समन्वय की वकालत करते हुए एक
समझौता प्रस्ताव पेश किया। तिलक कांग्रेस को अकर्मण्यता से बाहर लाना चाहते थे। उन्होंने एक कार्यकारिणी
के गठन का प्रस्ताव दिया। नरमपंथियों के विरोध से प्रस्ताव नामंजूर हो गया। चार
साल बाद 1920 में गांधीजी ने कांग्रेस को जो नया रूप दिया उसमें तिलक के प्रस्ताव
को ज़रूरी समझा।
सरकार
द्वारा दमनात्मक कार्रवाई
लोकमान्य
नौकरशाही के कट्टर दुश्मन थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे
अंग्रेजों या अंग्रेजी शासन से नफरत करते थे। फिरभी भारत की स्वतंत्रता के लिए
अपने संघर्ष में उन्होंने सरकार को नहीं बख्शा। स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने
किसी भी तरह की रियायत नहीं दी और किसी से कोई रियायत नहीं माँगी। होमरूल आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा था। सरकार ने
इसके खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई शुरू कर दी। 23 जुलाई, 1916 को तिलक का 60वां जन्मदिन मनाया जा रहा था।
तिलक को एक लाख रुपए की थैली भेंट की गयी। सरकार ने उन्हें कारण बताओ नोटिस दिया, “आपकी गतिविधियों के चलते आप पर प्रतिबन्ध क्यों
न लगा दिया जाए?” तिलक ने कहा, “अब होम रूल आन्दोलन जंगल में आग की तरह फैलेगा।
सरकारी दमन विद्रोह की आग को भड़काएगा।” मुहम्मद अली जिन्ना ने तिलक का केस लड़ा। तिलक मुक़दमा हार गए। नवंबर में
हाईकोर्ट ने उन्हें निर्दोष करार दिया।
1916 के लखनऊ अधिवेशन
में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हुए। कांग्रेस-लीग समझौता हुआ जिसे ‘लखनऊ
पैक्ट’ के नाम से जाना
जाता है। समझते में तिलक की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
कलकत्ता
कांग्रेस के समय हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के बारे में उन्होंने एक तात्कालिक, विद्वत्तापूर्ण भाषण दिया था। अपने संबोधन के दौरान उन्होंने स्थानीय भाषाओं
के प्रति अंग्रेजों की देखभाल के लिए उनकी प्रशंसा की।
वह जन्मजात
लोकतांत्रिक थे। वह बहुमत के शासन में दृढ़ता से विश्वास करते थे। वह मानते थे कि राजनीति
का अध्यात्मीकरण स्वराज के उनके सपने को पूरा कर देगा। वह हिन्दू-मुस्लिम एकता में विश्वास रखते थे और
यह मानते थे जब तक देश एक नहीं होगा तब तक विदेशी शासन को समाप्त नहीं किया जा
सकता।
तिलक का निधन
1 अगस्त, 1920 को इस महान क्रांतिकारी नेता की मृत्यु हो
गयी। गांधीजी द्वारा सत्याग्रह प्रारम्भ करने की पूर्व
संध्या पर तिलक का निधन हुआ था और गांधीजी ने भावुक होकर कहा: "मेरा सबसे
मजबूत गढ़ चला गया।" उनकी मृत्यु पर अपनी
संवेदना प्रकट करते हुए उनका सही मूल्यांकन करते हुए गांधीजी लिखते हैं,
“हम लोगों के समय
में ऐसा दूसरा कोई नहीं जिसका जनता पर लोकमान्य जैसा प्रभाव हो। हज़ारों देशवासियों
की उन पर जो भक्ति और श्रद्धा थी वह अपूर्व थी। वे जनता के आराध्य देव थे। उनके
वचन हज़ारों आदमियों के लिए नियम और क़ानून-से थे। पुरुषों में सिंह संसार से उठ
गया। केसरी की घोर गर्जना विलीन हो गई।”
उपसंहार
आत्मबलिदान की वह साकार प्रतिमा थे। उनकी छवि एक ऐसे नेता
की थी जिसकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था। तिलक जनता से न सिर्फ संघर्ष की
अपील करते थे, बल्कि खुद भी
संघर्ष करते थे। वह अपने देश के प्रति प्रेम के अलावा
किसी धर्म को नहीं जानते थे। लोकमान्य तिलक ने यथार्थवाद की अपनी सुदृढ़ भावना के
साथ स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज का
कार्यक्रम प्रस्तुत किया जिसके माध्यम से लोगों को विभिन्न कार्यकलापों में शामिल
किया गया और स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान के लिए उन्हें सक्षम बनाया। तिलक का सम्पूर्ण जीवन एक कर्म यज्ञ था। वह राष्ट्र
को जगाने के लिए अथक लगे रहे। गांधीजी ने कहा था आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में वह आने वाली
पीढ़ियों तक याद किए जाएंगे। नेहरू जी ने भारतीय क्रांति के जनक की उपाधि दी। उनकी वीरता, उनकी सादगी, उनकी अद्भुत मेहनत और
उनके देश प्रेम भारतीयों के दिल में युगों-युगों तक प्रज्ज्वलित रहेंगी।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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