गुरुवार, 7 नवंबर 2024

129. गांधीजी के विदेशी सहयोगी-5. अलबर्ट वेस्ट

 गांधी और गांधीवाद

129. गांधीजी के विदेशी सहयोगी-5. अलबर्ट वेस्ट


पीछे बांए अलबर्ट वेस्ट, नीचे कालेनबाख, बीच में एक सहयोगी, और गांधीजी

1904

लगभग उन्हीं दिनों की बात है जब महामारी फैली थी, गांधीजी कुछ ऐसे विदेशियों के संपर्क में आए जो उनके शेष जीवन के दौरान उनके सहयोगी बने रहे। महामारी के शुरू होते ही गांधीजी ने समाचारपत्रों को पत्र लिख कर यह चिंता जताई थी कि जब से उन लोकेशनों को म्युनिसिपैलिटी ने अपने हाथ में लिया है तब से उसकी लापरवाही की वजह से वहां महामारी फूटी और फैली है। उन्होंने लिखा था कि यह म्युनिसिपैलिटी का अन्याय है। उसके पास ग़रीबों की बस्ती की सफ़ाई आदि के लिए न रुपया है न समय। इसकी जवाबदेही उन्हें लेनी चाहिए। इस पत्र का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। इसने गांधीजी को तीन ऐसे व्यक्ति से मिलवाया, जो भविष्य में बहुत दिनों तक उनका सहयोगी बन कर रहने वाले थे। पहले व्यक्ति का नाम था हेनरी पोलाक। यह पत्र एक और अजीम शख्सियत से गांधीजी की भेंट का कारण बना। वे थे पादरी जोसेफ डोक। हेनरी पोलाक गांधीजी के मित्र और साथी बने और जोसेफ डोक उनकी जीवनी लिखने वाले पहले लेखक थे। इनकी चर्चा हम बाद में करेंगे, अभी हम चर्चा करेंगे एक अन्य अंग्रेज़ व्यक्ति की।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है गांधीजी जर्मन एडोल्फ ज़िगलर (Adolf Ziegler) द्वारा चलाए जा रहे एक निरामिष भोजनालयडाइट रेस्टोरेंट, में नियम से सुबह-शाम खाना खाते थे (उन दिनों दिन और रात दोनों वक़्त का भोजन बाहर ही करते थे)। वहीं उनका परिचय अल्बर्ट वेस्ट से हुआ था। गांधीजी ने उन्हें 'शुद्ध, गंभीर, ईश्वर-भक्त और मानवीय अंग्रेज' बताया था। जोहान्सबर्ग के एक छोटे से छापाखाने का सहभागीदार वेस्ट एक शाकाहारी अंग्रेज़ थे। दोनों रोज़ ही शाम को उस भोजनालय में मिलते थे। भोजनालय में जोहान्सबर्ग में हर कोई शेयर बाजार के बारे में बात करता था, लेकिन ये लोग शाकाहारी भोजन, कुहने स्नान, मिट्टी की पुल्टिस, उपवास आदि में रुचि रखने वाले खाद्य सुधारक थे। वेस्ट तब चौबीस वर्ष के थे और गांधीजी उनसे सिर्फ़ दस वर्ष बड़े थे। भोजन के बाद प्रायः रोज़ ही साथ-साथ घूमने-टहलने जाया करते थे। वे हर शाम हॉस्पिटल हिल की चोटी पर और वापस कोर्ट चैंबर्स में साथ-साथ चलते हुए बातें करते थे, जहाँ वे रहते और काम करते थे, गांधीजी की पत्नी और परिवार उस समय भी भारत में थे। गांधीजी रात को अपने कमरे में जाने से पहले वेस्ट को खुद से बनाया हुआ एक कप कोको पीने के लिए कहते थे। जैसे-जैसे दोनों की दोस्ती बढ़ती गई, वेस्ट और गांधीजी को अपने-अपने विचारों की तुलना करने के कई अवसर मिले और वेस्ट को एहसास हुआ कि प्रेम और आत्म-बलिदान सभी धर्मों के मूल सिद्धांत हो सकते हैं।

सप्ताहांत में गांधीजी और वेस्ट का एक छोटा समूह ट्रांसवाल में किसी खूबसूरत जगह पर पिकनिक मनाने जाते थे या ईस्ट रैंड पर रोशरविले की झील में स्नान करते थे। एक शाम वेस्ट जोहान्सबर्ग के भारतीय स्थान पर गांधीजी के द्वारा संबोधित एक भारतीय बैठक में शामिल हुए। गांधीजी एकमात्र वक्ता थे। भाषा हिंदी थी, जिसे बड़ी संख्या में उपस्थित लोग समझ रहे थे और उन्हें ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। वक्ता सीधे खड़े होकर बिना किसी इशारे या आवाज को उठाए शांति से बोल रहे थे। जब वेस्ट ने उस काले चेहरे को मंद रोशनी में देखा तो उन्हें लगा कि यह एक महान शक्ति वाला नेता है, लेकिन वह यह नहीं सोच पाए कि वह कितना महान राष्ट्रीय व्यक्ति बनेंगे या दुनिया भर में उनका प्रभाव कितना दूर-दूर तक होगा।

1904 में जोहान्सबर्ग में जो भीषण प्लेग का प्रकोप हुआ था, इसकी चर्चा हम पहले कर आए हैं। वेस्ट ने समाचार पत्र में महामारी विषयक गांधीजी का लिखा हुआ पत्र पढ़ा था। उन दिनों गांधीजी बीमारों की सेवा शुश्रुषा में लगे हुए थे। उस भोजनालय में जब गांधीजी लगातार दो दिनों तक नहीं दिखे, तो वेस्ट चिंतित हो गए। पर गांधीजी के उस भोजनालय में नज़र न आने की बात चिंता की नहीं, कुछ और ही थी। गांधीजी और उनके साथी सेवकों ने महामारी के दिनों में अपना आहार घटा लिया था। गांधीजी का नियम था कि आस-पास यदि महामारी का प्रकोप हो, तो पेट जितना हो सके हलका रखना चाहिए। इसलिए उन्होंने शाम का खाना बंद कर दिया था। उन्हें यह आशंका भी रहती थी कि चूंकि वे बीमारों के साथ रह कर आए हैं इसलिए वे महामारी के संक्रमण का वाहक हो सकते हैं, और लोग उनके साथ या आस पास खाना पसंद न करें, इसलिए गांधीजी दोपहर को दूसरे भोजन करने वालों को सब प्रकार के भय से दूर रखने के लिए ऐसे समय में पहुंचकर खाना खाते थे जब कोई पहुंचे ही न होते थे।

इस तरह वेस्ट ने जब देखा कि गांधीजी होटल नहीं आ रहे हैं तो तीसरे ही दिन सबेरे-सबेरे छह बजे जब गांधीजी हाथ-मुंह धो रहे थे, वह उनके घर पहुंचे और दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़े खुलने पर सामने गांधीजी को सकुशल देख वेस्ट की जान में जान आई। वह बोले, “आपको इस तरह सकुशल देखकर मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं है। आपको भोजनालय में न देखकर तो मेरे प्राण ही सूख गए थे। मुझे आशंका होने लगी कि कहीं आपको कुछ हो तो नहीं गया। इसीलिए इस समय मैं चला आया, क्योंकि इस समय आप दफ़्तर में होते ही हैं। मेरे लायक कोई काम हो तो मुझसे अवश्य कहिए।

गांधीजी ने हंसते हुए कहा, “रोगियों की शुश्रुषा करेंगे।

क्यों नहीं? ज़रूर, मैं तैयार हूं। आप तो जानते हैं कि मुझ पर अपना पेट भरने के सिवा कोई जिम्मेदारी नहीं है।

गांधीजी ने भरे गले से वेस्ट का आभार माना। वे उन्हें इस पचड़े में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने कहा, “आपसे मैं दूसरे प्रकार के उत्तर की अपेक्षा ही नहीं करता था। आपको नर्स के रूप में तो मैं कभी न लूंगा। इस काम के लिए तो मेरे पास बहुत से सहायक हैं। अगर नए बीमार न निकले तो हमारा काम एक दो दिन में पूरा हो जाएगा। लेकिन आपसे तो मैं इससे भी कठिन काम लेना चाहता हूं।

वेस्ट ने पूछा, “कौन-सा?”

इंडियन ओपिनियन जो बाद में चलकर गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन का माउथपीस बना, उनके नैतिक सिद्धांतों के विकास का दर्पण तो था ही। प्लेग के फैलने के एक सप्ताह पहले उसे अधिग्रहण (takeover) करने का प्रस्ताव उनके पास आया था। डरबन में जो छापाखाना था, उसमें गांधीजी का काफ़ी पैसा लगा हुआ था। मदनजीत उसे चलाता था। अखबार खस्ता हाल में था। ऐसी स्थिति में गांधीजी के पास दो रास्ते थे – या तो प्रेस को बंद कर दिया जाए, या फिर उसकी पूरी जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली जाए। उन्होंने दूसरा उपाय चुना। उनकी नज़र में वेस्ट इस काम के लिए सही व्यक्ति थे। वेस्ट का पुश्तैनी धंधा ही प्रिन्टर का था। उनका एक छापाखाना था। इस कारण से गांधीजी को लगा कि शायद वह डरबन के ‘इंडियन ओपिनियन’ का काम संभाल ले। गांधीजी ने कहा, “क्या आप डरबन पहुंच कर ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रेस का प्रबंध अपने हाथों में ले लेंगे? मदनजीत तो अभी यहां मेरे साथ कामों में व्यस्त हैं। अखबार का काम देखने के लिए वहां किसी का होना बहुत ज़रूरी है। आप यदि वहां चले जाते हैं तो उस तरफ़ से मेरी चिंता बिल्कुल दूर हो जाएगी। पर मैं आपको अधिक नहीं दे सकूंगा। सिर्फ़ 10 पौंड मासिक वेतन। हां, अगर प्रेस से कुछ लाभ हो तो उसमें आपका आधा हिस्सा रहेगा।

यह एक बहुत ही चौंकाने वाला प्रस्ताव था।  वेस्ट व्यवसाय में लगे हुए थे, उन्होंने एक प्रिंटिंग प्लांट किराए पर लिया था।  वेस्ट ने कहा, “आप तो जानते ही हैं कि मेरा अपना भी एक छापाखाना है। काम अवश्य ज़रा कठिन है, पर आपकी बात मैं टाल भी नहीं सकता। फिर भी मुझे कुछ सोचने का समय चाहिए, शाम तक। मुझे अपने भागीदार की आज्ञा लेनी होगी। मैं शाम को हमारी सैर के दौरान एक निश्चित उत्तर दूँगा। 

गांधीजी उसके उत्तर से ख़ुश हुए। उन्होंने कहा, “अवश्य, हम लोग छः बजे शाम को पार्क में मिलेंगे। छः बजे शाम को साथ-साथ जब वे टहल रहे थे, वेस्ट ने बताया कि भागीदार की आज्ञा मिल गई है। गांधीजी बहुत खुश हुए। यह निश्चय किया गया कि वेस्ट को हर महीने दस पौंड का वेतन और छापाखाने में हुए मुनाफ़े के पचास प्रतिशत हिस्सेदारी दी जाएगी। वेस्ट वेतन के लिए तो नहीं ही जा रहे थे, इसलिए वेतन या मुनाफ़े होने न होने का कोई खास अर्थ नहीं था। दूसरे दिन रात की ट्रेन से वेस्ट डरबन जा रहे थे। हां जाने के पहले उन्होंने गांधीजी से उनकी उगाही का काम कर देने को कहा। ये दो दिलों का मिलन था। अल्बर्ट एच. वेस्ट दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक होकर कार्य करते रहे। इस तरह उन्होंने जोहान्सबर्ग में अपना व्यवसाय छोड़ दिया और गांधीजी के निमंत्रण पर साप्ताहिक इंडियन ओपिनियन का कार्यभार संभाला।

वेस्ट को जल्द ही पता चल गया कि उन्हें जो लाभ मिलने वाला था, वह नगण्य था और प्रेस को कभी भी लाभदायक बनाने की संभावना उत्साहजनक नहीं थी।  वेस्ट ने डरबन से लिखा कि प्रेस और जर्नल की वित्तीय स्थिति बहुत खराब है। किसी भी लाभ की कोई संभावना नहीं दिखती। वित्तीय स्थिति पर वेस्ट की रिपोर्ट ने गांधीजी को बहुत परेशान कर दिया था, और उन्होंने मौके पर ही पूरी जांच करने का फैसला किया। गांधीजी के पास तथ्यों को जानने के लिए डरबन जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। स्थिति का जायजा लेने के बाद, गांधीजी ने वेस्ट को प्रस्ताव दिया कि इंडियन ओपिनियन को एक खेत में ले जाया जाना चाहिए, जहाँ सभी को एक ही तरह की मजदूरी मिलनी चाहिए और छपाई में भी मदद करनी चाहिए। यह विचार वेस्ट को पसंद आया क्योंकि वह देहाती जीवन का आदी थे। बचपन में उन्हें खेतों में रहना बहुत पसंद था, हालाँकि वह खुद खेत मजदूर नहीं बने। इसलिए उन्हें शारीरिक श्रम के महत्व और मूल्य को समझने या यह समझने की ज़रूरत नहीं पड़ी कि वकील का काम नाई के काम जितना ही मूल्यवान है। वह पहले से ही इस सत्य से आश्वस्त थे। यह योजना आकर्षक थी क्योंकि अगर यह सफल साबित हुई, तो वे मिट्टी से अपना जीवन यापन करने में सक्षम हो जाएंगे और अखबार से बहुत ज़्यादा उम्मीद करने की ज़रूरत नहीं होगी। यह खाली समय का काम होगा।  वेस्ट द्वारा की गई पहल के साथ, 24 दिसंबर 1904 को फीनिक्स में छपा पहला संस्करण भेजा गया।

वेस्ट का जन्म इंगलैंड के लिंकनशायर के लाउथ नामक गांव में एक किसान परिवार में हुआ था। शिक्षा भी उनकी एक साधारण से स्कूल में नाम मात्र की ही थी। वह अविवाहित थे, किंतु अपने परिश्रम से उन्होंने काफ़ी अनुभव अर्जित किया था। वह डरबन में एक फ्रांसीसी मॉरीशस परिवार के साथ रहते थे, जिसका बेरिया रोड में एक बोर्डिंग हाउस था। वहाँ उन्होंने बातचीत के माध्यम से थोड़ी-बहुत फ्रेंच भाषा सीखी, लेकिन इतनी नहीं कि वह इसे अच्छी तरह बोल सकें।  वे सरल चित्त, संयमी, ईश्वर से डरने वाले, साहसी, परोपकारी और स्वतंत्र स्वभाव के इंसान थे। एक दयालु, चिंतनशील, दृढ़ निश्चयी व्यक्ति, हमेशा एक अच्छे उद्देश्य के लिए सेवा करने के लिए तैयार रहते थे। उन्हें धर्म के मामलों में गहरी दिलचस्पी नहीं थी और अपनी आत्मा को बचाने की कोई इच्छा नहीं थी; वह अपने साथियों की मदद करने के बारे में चिंतित रहते थे। गांधीजी के अफ़्रीका छोड़ने तक वेस्ट उनके सुख-दुख से साथी बने रहे। उनके जैसे एकनिष्ठ लोग बहुत कम होते हैं।

वेस्ट अकेले थे। सालों बाद, 1906 की शुरुआत में , एक बार जब वे इंगलैंड में अपने माता-पिता से मिलने जाना चाहते थे, तब गांधीजी ने उनसे कहा कि अब शादी करके ही वापस आना। गांधीजी की सलाह को मानते हुए जब वे लौटे तो उनके साथ लेस्टर निवासी उनकी होने वाली पत्नी भी थी। वेस्ट की एक ख़ास दोस्त मिस एडा पायवेल थी, और उनकी दोस्ती और भी गहरी हो गई और उन्होंने शादी करने का फ़ैसला किया। श्रीमती वेस्ट के पिता लेस्टर के जूते के एक बड़े कारखाने में काम करते थे। शादी के पहले श्रीमती वेस्ट ने भी वहां काम किया था। शादी की कोई तारीख़ तय नहीं हुई, जो अठारह महीने बाद फ़ीनिक्स में हुई। सितम्बर में उन्होंने इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका लौटने की तैयारी की। वेस्ट की बहन एडा वेस्ट भी साथ चलने को तैयार थी। श्रीमती वेस्ट एक भली, विनम्र और शालीन महिला थीं। उनके साथ उनकी मां भी फिनिक्स आश्रम आई थीं। हालाकि वे वृद्धा थीं, पर आश्रम में काफ़ी मेहनत करती थीं।  गांधीजी ने वेस्ट की बहन का हार्दिक स्वागत किया, जिनसे वे पहली बार मिल रहे थे। फीनिक्स पहुँचने पर  एडा का सभी ने गर्मजोशी से स्वागत किया। एडा ने रोडेशिया से आए कॉर्डेस और छगनलाल गांधी के साथ मिलकर प्रेस ऑफिस में मुनीम के तौर पर काम शुरू किया।

1908 जून में एडा पायवेल और अल्बर्ट वेस्ट की शादी एक उत्सव का अवसर था और डरबन, वेरुलम और केप टाउन से यूरोपीय और भारतीय आगंतुकों के साथ-साथ सभी बसने वाले अपने परिवारों के साथ इसमें शामिल हुए थे। कस्तूरबा गांधी और उनके बेटे वहाँ थे, लेकिन गांधीजी ने जोहान्सबर्ग में महत्वपूर्ण कार्य के कारण उपस्थित न हो पाने पर खेद व्यक्त करते हुए एक संदेश भेजा। समारोह कॉर्डेस बंगले में हुआ, ग्रेविले प्रेस्बिटेरियन चर्च के श्री आयरलैंड इसके प्रभारी मंत्री थे। मिसेज पायवेल, जो अपनी बेटी के साथ लीसेस्टर स्थित अपने घर से आई थीं, ने दुल्हन को विदा किया। मिस एडा वेस्ट दुल्हन की सहेली थीं और श्री हेरोल्ड मेसन ने बेस्ट मैन की भूमिका निभाई। समारोह के बाद, सभी उपस्थित लोगों ने "टेक माई लाइफ" भजन गाया।

निष्क्रिय प्रतिरोध आंदोलन के दौरान वेस्ट के नेतृत्व में नेटाल में चीनी बागानों में भारतीयों ने हड़ताल करने का फैसला किया।  लगभग दो हजार लोगों का एक समूह फीनिक्स तक मार्च किया और प्रेस के पास जमीन पर बैठ गया। भारतीय संघ द्वारा डरबन से भोजन भेजा गया था। जल्द ही दो पुलिस वाले वेस्ट के पास आए और उनसे कहा कि उन्हें हड़तालियों को वापस बागानों में भेजना चाहिए। उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने डरबन के मुख्य मजिस्ट्रेट से अपील की कि वे लोगों को वहीं रहने दें जहाँ वे पूरी तरह सुरक्षित हैं, लेकिन उन्होंने वेस्ट को बस पुलिस की बात मानने का आदेश दिया। उस समय जनरल स्मट्स प्रधानमंत्री थे, और वेस्ट ने उन्हें एक टेलीग्राम भेजा, जिसमें हड़तालियों को जबरन वहाँ से जाने के लिए मजबूर करने के खतरे की ओर इशारा किया गया था, और उन्हें आश्वासन दिया गया था कि वे पूरी तरह से शांतिपूर्ण हैं और उनकी देखभाल की जा रही है। कोई जवाब नहीं मिला, और फिर घुड़सवार पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी घटनास्थल पर पहुँची। वेस्ट को गिरफ्तार कर लिया गया और डरबन जेल ले जाया गया, और हड़तालियों को वापस एस्टेट में ले जाया गया। पुलिस ने गोलीबारी की और कई लोगों को मार डाला। गिरफ़्तारी और डरबन जेल में "सुरक्षित रखवाली" के तहत हिरासत की छोटी अवधि ने वेस्ट को जेल के जीवन की झलक दी। शाम को लगभग पाँच बजे, विधिवत पंजीकरण के बाद, उन्हें यूरोपीय खंड में लगभग 8 फ़ीट गुणा 10 फ़ीट के एक सेल में रखा गया। उनका बिस्तर सीमेंट के फर्श पर एक गद्दा था। कुछ दिनों के बाद कुछ भारतीय मित्रों द्वारा प्रदान की गई 100 पाउंड की जमानत पर उन्हें रिहा कर दिया गया।

गांधीजी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए और श्रद्धांजलि  देते हुए वेस्ट कहते हैं, गांधीजी के महान जीवन के कार्यों के बारे में अन्यत्र बहुत कुछ लिखा गया है, विशेष रूप से भारत में उनके अंतिम वर्षों के दौरान, जब उन्हें दुनिया के महानतम व्यक्तियों में से एक माना जाने लगा। मैं उनके द्वारा अपने आस-पास के लोगों के लिए प्रतिदिन किए गए प्रेमपूर्ण सेवा कार्यों के लिए उन्हें श्रद्धांजलि देना चाहूँगा। अपने घर में, टॉल्स्टॉय फार्म में, या फीनिक्स में, वे साधारण सेवा के कार्यों में प्रसन्न होते थे, जैसे भोजन पकाना, घरेलू काम करना, बाल काटना, बीमारों की देखभाल करना और अपने आस-पास के कई बच्चों की देखभाल करना। यह सब वे पूरी तरह से अच्छे मूड के साथ करते थे। मैंने उन्हें कभी भी किसी भी समय किसी भी चीज़ में गुस्से में नहीं देखा, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी विकट क्यों हों। और जब भी कोई व्यक्ति व्यक्तिगत या राजनीतिक समस्याओं पर सलाह लेने के लिए आता था, तो गांधीजी तुरंत अपना काम छोड़ देते थे और अपनी परेशानियों पर पूरा ध्यान देते थे। उन्होंने कभी किसी मामले को तुच्छ नहीं समझा, बल्कि हमेशा सभी को ईमानदारी और निष्ठा का श्रेय दिया।

फीनिक्स सेटलमेंट में वेस्ट का जीवन चौदह साल तक खुशहाली से चलता रहा। वे फीनिक्स सेटलमेंट के सदस्य थे और बहुत कम वेतन पर जीवन यापन करते थे। उनकी पत्नी, सास और बहन भी सेटलमेंट की सदस्य बन गईं। वेस्ट ने यह साबित कर दिया कि भारतीय और यूरोपीय लोग एक समुदाय के रूप में एक साथ रह सकते हैं, समान आदर्शों और मानवीय हितों के लिए साथ मिलकर काम कर सकते हैं। उन्होंने चौदह साल से ज़्यादा समय तक अख़बार का प्रबंधन किया, जब तक कि मणिलाल गांधी ने कार्यभार नहीं संभाला। 1949 में इंग्लैंड जाने तक वेस्ट भारतीय मामलों में दिलचस्पी लेते रहे। वे भारत सरकार के निमंत्रण पर 1963 में भारत आए। अपनी आत्मकथा में गांधीजी ने वेस्ट को "मेरे सुख-दुख का साथी" कहा। वहीँ वेस्ट ने गांधीजी के प्रति उद्गार प्रकट करते हुए कहा है, वास्तव में महान लोगों को अक्सर तिरस्कृत और अस्वीकार कर दिया जाता है। हम, जिन्हें गांधीजी के मित्र और सहयोगी माना जाता था, अक्सर उनके तरीकों और उनके विचारों से असहमत थे। लेकिन हम जानते थे कि हर समय उन्होंने सत्य और समस्त मानवजाति के प्रति प्रेम की भावना से कार्य किया।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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