राष्ट्रीय आन्दोलन
165. सूरत कांग्रेस - कांग्रेस विभाजन
1907
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल नरदल और गरमदल के बीच कई वर्षों से विकसित हो रही थी। कांग्रेसमेंनरमतपंथियों पर गरम पंथी में जोरदार धमाका हुआ। नरपंथी हालांकि फिरंगी हुकुमत के खिलाफ लड़ाई के लिए राजनीतिक और आर्थिक कार्यक्रम बनाए रखे थे, लेकिन जनता के विश्वास में सफलता नहीं मिली। उनका आम जनता तक योगदान नहीं पहुंच सका। आंग्रेजोंनेक्सा सदा तिरस्कृत ही किया। वे राजनीतिक इतिहास के साथ अपनी रणनीति में जरूरी नहीं पाए गए, यह भी उनकी विफलता का एक बड़ा कारण था। उनके सहायक ने ही अपनी राजनीति को अव्यवहारिक बनाया था। वे उस समय की युवा पीढ़ी को अपने साथ लाने में भी असफल रहे। इस समयातक देश में झगड़ा या गरम पंथी असामीथने लगी थी। सरकार ने भी अपनी नीति बदल ली। ब्रिटेन के नरपंथियों को अपने साथ लेकर आयें। नए सुधारों का मंचन किया गया। लॉर्ड मिंटोवाइसिन और जॉन मोरले गृह सचिव थे। नरपंथी नेता इन दोनों को झांसे में लेकर चले गए। नामपंथियों और गर्म पंथियों के बीच के हिंदोस्तानों ने बहुत लाभ उठाया। 1906 से ही कांग्रेस में राष्ट्रपति के प्रश्न पर विवाद हो रहा था। लेकिन 1906 में कलकत्ता मेंनौरोजी का नाम सामने आने पर विवाद हो गया। 1907 तक दोनों खेमा ने एक दूसरे को अपना शत्रु बनाया। उस समय हॉट पंथियों के नेता अरविंद घोष थे। हॉट पंथियों ने नरपंथियों से नाता तोड़ दिया और उनके हाथ से कांग्रेस का नेतृत्व छीनने की पूरी तैयारी कर रखी थी। सफलता न मिलने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी की भी तैयारी कर रखी थी। दोनों ही खिमा अनावृत थे। दोनों एक-दूसरे की बर्बादी थे।
1905 से 1907 के दौरान नरमपंथियों और गरम पंथियों के मतभेद उभर कर सामने आ गए। हालाँकि बंग-भंग के खिलाफ दोनों ने मिलकर संघर्ष किया था, लेकिन गरमपंथी स्वदेशी
और बहिष्कार आन्दोलन को सिर्फ बंगाल तक ही सीमित न रखकर देश के अन्य हिस्सों तक पहुँचाना चाहते थे। वे अंग्रेजी हुकूमत के साथ किसी तरह के सहयोग के खिलाफ थे। नरमपंथी स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन को सिर्फ बंगाल तक ही सीमित रखना
चाहते थे। नरमपंथियों को ब्रिटिश
न्याय की भावना में विश्वास था और वे आंदोलन को बहुत दूर तक फैलाना नहीं चाहते थे। वे सरकार के साथ देशव्यापी असहयोग के खिलाफ थे। 1907 तक हालत यह हो गए थे कि ये दोनों खेमा एक
दूसरे को अपना सबसे बड़ा राजनीतिक शत्रु मानने लगे। गरमपंथियों के नेता अरविन्द घोष
थे। इस खेमा ने नरमपंथियों से नाता तोड़ने का निर्णय किया। वे कांग्रेस का नेतृत्व
अपने हाथ में ले लेना चाहते थे। अगर ऐसा न हुआ, तो वे कांग्रेस पार्टी के विभाजन को तैयार थे। नरमपंथियों
के नेता फीरोजशाह मेहता थे। ये
लोग भी विभाजन के लिए कमर कसे हुए थे। गरमपन्थियों के साथ चलने के लिए ये बिलकुल
भी तैयार नहीं थे। एक और प्रमुख बात यह है कि यह दल ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की सरकार
की नाराज़ होने का ख़तरा मोल लेने को भी तैयार नहीं थे। नरमदल के प्रमुख नेता गोपालकृष्ण गोखले ने
विभाजन के खतरे को भांपते हुए यहाँ तक कहा था, “विभाजन
का मतलब विनाश होगा और तब नौकरशाही के लिए दोनों वर्गों को दबाने में कोई विशेष
कठिनाई नहीं गोगी।”
गरमपंथी चाहते थे कि कांग्रेस का अधिवेशन नागपुर में हो, बाल
गंगाधर तिलक या लाला
लाजपतराय इसके अध्यक्ष बने। पहले तो यह तय हुआ था कि 1907 का
कांग्रेस अधिवेशन नागपुर में होगा, लेकिन फीरोजशाह मेहता के प्रयासों
से इसका स्थान बदल कर सूरत कर दिया गया। नरमपंथियों को लगता था कि अधिवेशन अगर नागपुर में हुआ तो बाल गंगाधर तिलक जीत जाएंगे। 26 दिसंबर को ताप्ती नदी के किनारे अधिवेशन हुआ। अधिवेशन
उत्तेजना और क्रोध के वातावरण में शुरू हुआ। मेहता ने ही अत्यंत नरम दलीय व्यक्ति रास बिहारी घोष को इसका अध्यक्ष चुनवा लिया। गरम दल इसमें पूरी तैयारी कर के आया था। तिलक
ने 27 दिसंबर
को स्थगन प्रस्ताव रखा जिसे स्वागत समिति के अध्यक्ष मालवीय ने ठुकरा दिया। इस पर
तीखी झड़पें हुईं, यहां तक कि जूते-चप्पल भी फेके गए। आए हुए 1600 प्रतिनिधियों द्वारा उत्पन्न की गयी अव्यवस्था
की स्थिति में अधिवेशन भंग हो गया। पुलिस ने दखल दी और सभागार को खाली कराया।
कांग्रेस में विभाजन हो चुका था। लाला लाजपत राय और
तिलक ने कांग्रेस को एक करने की बहुत कोशिश की। लेकिन बंबई का नरम दलीय गुट अड़ा
रहा। फीरोजशाह मेहता ने कहा था, “गरमपंथियों का साथ रहना बहुत ही
खतरनाक है। 20 साल की मेहनत से आज कांग्रेस का जो संगठन तैयार किया गया है, उसे गरमपंथी एक ही झटके में बिखेर देंगे। सरकार
किसी भी साम्राज्य-विरोधी आन्दोलन का दमन करने के लिए कमर कसे बैठी है। ऐसी हालत
में दमन को न्यौता देने का क्या औचित्य है?” बाद के
वर्षों में कुछ ऐसी स्थितियां उत्पन्न हुईं कि कांग्रेस का विभाजन पक्का हो गया।
इलाहाबाद सम्मेलन में कांग्रेस का ऐसा संविधान बनाया गया जिसमें कांग्रेस के
तरीकों को शुद्ध संवैधानिक और वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में निरंतर सुधार लाने
तक सीमित रखा गया। प्रतिनिधियों का चुनाव भी सीमित कर दिया गया। केवल वे ही संगठन
प्रतिनिधि भेज सकते थे जो तीन वर्षों से अधिक अवधि से मान्यता प्राप्त हों। इस
प्रकार गरम दलीयों को अगले कांग्रेस अधिवेशनों में शामिल न होने के सारे प्रयास
किए गए।
गर म पंथियों पर तो इसके बाद आफतों का पहाड़ टूट गया। सरकार ने नेताओं को जेल में डालना शुरू कर दिया है। तिलक को छह साल के लिए मंडलीय जेल भेज दिया गया। अरविंद घोष को एक क्रांतिकारी षडयंत्र का दर्जा दिया गया। जब बेकसूर ने निर्देश दिया, तो पांडिचेरी चले गए और वे अध्यात्म से दूर चले गए। बिपिनचंद्र पाल ने राजनीति से संन्यास ले लिया। लाला ला जापानत राय 1908 में ब्रिटेन चले गए, फिर वहां से लौटकर अमेरिका चले गए। सरकार इन नेताओं की गैरमौजुदगी में हॉट पंथियों को रियो में सफल रही। नरपंथी, बिना किसी उत्साह के कांग्रेस की गाड़ी कुछ दिन तक खींचते रहे। 1908 तक राष्ट्रीय आंदोलन जड़ता का शिकार हो गया था। आंदोलन की थमाथली थी। 1914 में तिलक ने जब जेल से छूट दी तो उन्होंने कांग्रेस को फिर से विफल करने का प्रयास शुरू किया।
इसमें कहा गया है कि सूरत
डिविजन ब्रिटिश सरकार की रणनीति का प्रतिफल था। नरपंथी और हॉटपंथी दोनों की सोच और अनुमान गलत थे। नरपंथियों को यह समझ नहीं आया कि सरकार गर्म पंथियों के डर के कारण ही उनसे (नरपंथियों से) बातचीत कर रही है , न कि उनकी ताकत के डर से। हॉटपंथी को यह समझ नहीं आया कि उनके संघर्ष में नरपंथी उनके लिए कवच का काम कर सकते हैं। साथ ही अभी भी उनकी ताकत इतनी अच्छी नहीं है कि वे फिर से हुकूमत से लोहा ले लें।
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मनोज कुमार
पिछला लेख -गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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