राष्ट्रीय आन्दोलन
197. ग़दर
आन्दोलन – लाला हरदयाल
क्रान्तिकारी आंदोलनों का प्रसार विदेशों में भी
हुआ।
विदेशों में बसे और भारत से गए भारतीयों ने विदेशों में क्रान्तिकारी संगठन
स्थापित की। इन लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शत्रुदेशों के साथ मिलकर भारत
में क्रान्ति की योजना बनाई। विदेशों के क्रान्तिकारी गतिविधियों का सूत्रपात श्यामजी कृष्णवर्मा ने 1905 में लन्दन में
इण्डिया होमरूल सोसायटी की स्थापना करके किया। वीर सावरकर और लाला हरदयाल भी लन्दन
में क्रान्तिकारी गतिविधियों को चलाते थे। यूरोप में मैडम कामा और अजीत सिंह
सक्रिय थे। पेरिस और जिनेवा से मैडम
कामा ‘वंदे मातरम्’ निकालती थीं। बर्लिन भी
क्रांतिकारियों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय
ने 1909 के बाद बर्लिन को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया।
लाला हरदयाल
लाला हर
दयाल माथुर का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली के शीशगंज गुरुद्वारे के पास चीराखाना
मोहल्ले में हुआ था। उनके माता-पिता भोली रानी और गौरी दयाल माथुर थे। उन्होंने
कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में पढ़ाई की। बाद में सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से संस्कृत में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर, से संस्कृत में ही मास्टर डिग्री प्राप्त की। एम. ए. की परीक्षा में सम्मान पूर्ण स्थान पाने
के कारण 1905 में, उन्हें संस्कृत में उच्च अध्ययन के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से छात्रवृत्ति मिली। वे अध्ययन के लिए लंदन चले गए। उन्होंने लंदन
विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री भी हासिल की। लंदन में उनकी मुलाकात श्यामजी
कृष्ण वर्मा से हुई और वे उनसे प्रभावित हुए। हरदयाल वीडी सावरकर और मैडम कामा से
भी प्रभावित हुए। इसके अलावा वह इतालवी
क्रांतिकारी नेता माज़िन्नी, कार्ल मार्क्स और रूसी
अराजकतावादी मिखाइल बाकुनिन जैसे लोगों से भी काफी प्रभावित थे। उन्होंने श्याम
कृष्ण वर्मा के सहयोग से ‘पॉलिटिकल मिशनरी’ नाम की एक संस्था बनाई। इसके
द्वारा भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते
रहे। दो वर्ष उन्होंने लंदन के सेंट जोंस कॉलेज में बिताए और फिर भारत वापस आ गए। उन दिनों लन्दन में द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट नाम
की भारतीय राष्ट्रवादी पत्रिका छपती थी। हरदयाल ने इस पत्रिका को पत्र लिखा जो 1907 में छपा। पत्र में लिखा था, ‘हमारा उद्देश्य सरकार में सुधार करना नहीं है, बल्कि यदि आवश्यक हो तो इसके अस्तित्व के केवल
नाममात्र निशान छोड़कर इसे सुधारना है।’ ऐसे बागी तेवर देखकर
प्रशासन ने उन्हें पुलिस की निगरानी में रखा। जब उनकी बातों को दबाने की कोशिश हुई
तो उन्होंने प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप छोड़ दी और 1908 में वो भारत लौट आए। भारत लौटकर खुद को क्रांतिकारी
कार्यों के लिए समर्पित कर दिया।
भारत
में भी उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखना बंद नहीं किया। वह ब्रिटिश सरकार
के खिलाफ तीखे लेख लिखा करते। हरदयाल जी लाहौर में ‘पंजाब’ नामक अंग्रेज़ी पत्र का सम्पादक शुरू किया। लाला हरदयाल से घबराकर ब्रिटिश
सरकार ने उनके कामों को सेंसर करना शुरू कर दिया। उनका प्रभाव बढ़ता देखकर सरकारी
हल्कों में जब उनकी गिरफ़्तारी की चर्चा होने लगी तो प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय
ने आग्रह करके उन्हें विदेश भेज दिया। वे पेरिस चले गए। लाला हरदयाल विदेश जाकर भी
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सक्रिय रहे। उन्होंने विदेश में रहने वाले भारतीयों को
देश की आजादी की लडाई में योगदान के लिये प्रेरित किया। वे पेरिस पहुँचे। श्याम कृष्णा वर्मा और भीकाजी कामा वहाँ पहले से ही थे। लाला हरदयाल ने वहाँ जाकर ‘वन्दे
मातरम्’ और ‘तलवार’ नामक पत्रों का सम्पादन किया। 1910 ई. में हरदयाल सेनफ़्राँसिस्को, अमेरिका पहुँचे। वहाँ उन्होंने भारत से गए मज़दूरों को संगठित
किया। 1911 में अमेरिका में हरदयाल
औद्योगिक संघवाद से जुड़ गए। ‘ग़दर’ नामक पत्र निकाला।
रोचक प्रसंग
लाहौर
में युवाओं के मनोरंजन के लिए एक क्लब यंग मैन क्रिस्चन असोसिएशन (वाईएमसीए) हुआ
करता था। उस समय लाला हरदयाल लाहौर से एमए कर रहे थे। एक दिन उनकी क्लब के सचिव से
किसी बात पर बहस हो गई। सचिव ने तैश में आकर बोला, ‘यहां पर हर वक्त देशभक्ति और स्वतंत्रता की बातें करते हो।
अगर देश से इतना ही प्रेम है तो अलग से अपनी कोई नई संस्था क्यों नहीं बना लेते?’ यह बात लाला हरदयाल के मन को चुभ गई। उन्होंने सोचा
कि देशभक्त युवाओं के लिए अपना एक अलग मंच तो होना ही चाहिए। वह इस काम में लग गए
और कुछ दिनों में ‘यंग मैन इंडिया असोसिएशन’ (वाईएमआईए) की स्थापना की। लालाजी के
कॉलेज में मोहम्मद अल्लामा इकबाल भी प्रफेसर थे। वह वहां दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लाला
हरदयाल ने उन्हें असोसिएशन के उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता करने को कहा। इकबाल
इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। उद्घाटन समारोह में जैसे ही प्रो. इकबाल माइक पर
अध्यक्षीय भाषण के लिए बढ़े, लोग उनसे ‘सारे जहां से
अच्छा’ गीत सुनाने का अनुरोध करने लगे। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ तरन्नुम के साथ
सुनाई तो हॉल का हरेक व्यक्ति उसमें डूब गया। ऐसा शायद पहली बार हुआ था जब किसी उद्घाटन
समारोह के अध्यक्ष ने अध्यक्षीय भाषण की जगह देशभक्ति का तराना गाया हो। इस तरह
‘वाईएमसीए’ के सचिव के दुर्व्यवहार जैसी घटना भी लाल हरदयाल के प्रयासों से
देशभक्तिपूर्ण घटनाक्रम का आधार बन गई।
ग़दर पार्टी की स्थापना
ग़दर
पार्टी की उत्पत्ति के लिए कई बाहरी और आंतरिक कारक जिम्मेदार थे। पहला था कनाडा
और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीयों के साथ भेदभाव। इन प्रवासियों को अपने
प्रवास के देशों में स्थितियां वास्तव में उतनी आकर्षक नहीं लगीं जितनी उन्हें
उम्मीद थी। दूसरा मुद्दा अमेरिकी और भारतीय श्रमिकों के बीच हितों का टकराव था। वीर
सावरकर की गिरफ्तारी और निर्वासन से लाला हरदयाल को भी खतरा महसूस हुआ। वह सैनफ्रांसिस्को
(अमेरिका) चले गए। अमेरिका में पहले से कई भारतीय क्रांतिकारी सक्रिय थे। लाला
हरदयाल, भाई परमानंद, बाबा सोहन सिंह भाका, भाई केसर सिंह और पंडित कांशी राम ने अमेरिका में रहने वाले
भारतीयों को संगठित करने और एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें एक साथ कर लाला हरदयाल ने 1 नवम्बर, 1913 को ग़दर पार्टी की स्थापना में सोहनसिंह भखना की
सहायता की। यह साम्राज्यवाद के खिलाफ
हथियारबंद संघर्ष का ऐलान और भारत की पूरी आजादी की मांग करने वाली राजनैतिक
पार्टी थी। पार्टी के पहले अध्यक्ष सोहन सिंह भकना थे। क्रान्तिकारी विचारधारा का
प्रचार करने के लिए पार्टी ने ‘ग़दर’ नामक पत्र भी निकाला। अखबार का संपादन हरदयाल और करतार
सिंह सराभा करते थे। इस पार्टी का उद्देश्य
विद्रोह को बढ़ावा देकर भारत में अंग्रेजी सरकार का तख्ता पलटना था। इसने एक तिरंगा
राष्ट्रीय ध्वज तैयार किया जिसे 15 फरवरी 1914 को स्टॉकटन (कैलिफ़ोर्निया) में फहराया गया, जब ग़दरियों ने राष्ट्रीय ध्वज के तहत क्रांति में
लड़ने और मरने की प्रतिज्ञा की।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान
1914
में अचानक छिड़े प्रथम विश्वयुद्ध ने भारतीय राष्ट्रीयता को काफी उद्वेलित किया।
ब्रिटेन किसी भी तरह का संकट भारत के हित में था। युद्ध में ब्रिटेन का शामिल होना
क्रांतिकारियों के लिए एक मौक़ा था। अमेरिका में ग़दर क्रांतिकारियों ने इस मौके का
लाभ उठाया। देश की आज़ादी के लिए वचनबद्ध ग़दरवादियों ने सभी देशभक्त भारतीयों से
अपील की कि वे प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिशों की व्यस्तताओं का पूरा फ़ायदा
उठाएँ और उनके खिलाफ़ उठ खड़े हों और उन्हें सचमुच बाहर निकाल दें। प्रथम
विश्वयुद्ध के दौरान इस दल ने सशस्त्र विद्रोह कराने एवं भारतीय क्रांतिकारियों की
सहायता के लिए अनेक कार्य किए। उन्हें जर्मनी में भारतीय क्रांतिकारियों के ज़रिए
पैसे और हथियारों के ज़रिए समर्थन देने का वादा किया गया था, जिन्होंने इंडियन बर्लिन कमेटी का गठन किया था।
पंजाबी अप्रवासी भारतीय
उत्तरी
अमेरिका के पश्चिमी सागर तट पर भारी संख्या में पंजाबी अप्रवासी भारतीय बसने लगे। 1914
तक यहाँ 15,000 भारतीय बस चुके थे। इसमें
से अधिकांश जलन्धर और होशियारपुर के किसान थे। इनमें से ज़्यादातर ब्रिटिश सेना के
सेवानिवृत्त सैनिक थे। वे एक सुखी और खुशहाल जीवन जीने का सपना लेकर आए थे। लेकिन
इनका सपना सच्चाई से कोसों दूर था। इनमें से अधिकांश लोगों को कनाडा और अमेरिका
में घुसने नहीं दिया गया। जो बसने दिए गए उन्हें अत्याचार का सामना करना पडा। गोरे
मज़दूर इनके खिलाफ हो गए। 1908 में कनाडा में भारतीयों के घुसने पर प्रतिबन्ध लगा
दिया गया।
अमेरिका राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र
इन
देशों के सौतेले व्यवहार से भारतीय बहुत दुखी थे। उनके अन्दर राजनीतिक संघर्ष की
आग भड़कने लगी। बैंकोवर से ‘फ्री हिन्दुस्तान’ नामक पात्र निकालने वाले तारकनाथ दास अमेरिका
आ चुके थे। यहाँ उन्होंने ‘यूनाइटेड इण्डिया हाउस’ की स्थापना की थी। इस
संगठन में ज़्यादातर लड़ाकू राष्ट्रवादी छात्र थे। एक और संगठन उन दिनों सक्रिय था, वह था ‘खालसा दीवान सोसायटी’। दोनों संगठनों के लगातार आन्दोलन से भारतीयों में
राष्ट्रीय चेतना जगी और वे एकजुट हुए। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आज़ादी की ज़मीन
तैयार होने लगी। इस तरह अमेरिका राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया।
लाला
हरदयाल 1911 में कैलिफोर्निया आ गए थे। वह अमेरिका में राजनीतिक निर्वास का जीवन
जी रहे थे। कुछ दिनों तक उन्होंने स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में अध्यापन का काम किया
फिर राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गए। 23दिसंबर 1912 को दिल्ली में वाइसराय
लॉर्ड हार्डिंग पर हुए हमले ने उनके अन्दर छिपी क्रांतिकारी भावना को जगाया।
उन्हें भरोसा था कि हथियारबंद क्रान्ति से अंग्रेजी हुकूमत का तख्ता पलटा जा सकता
है। ‘युगांतर’ नाम से एक पर्चा ज़ारी कर
उन्होंने हार्डिंग पर हमले को उचित ठहराया।
लाला हरदयाल ने नेतृत्व संभाला
इस बीच
उत्तरी अमेरिकी तट पर बसे भारतीयों को एक नेता की तलाश थी। लाला हरदयाल तैयार हो
गए। 1913 में पोर्टलैंड में ‘हिन्द एसोसिएशन’ का गठन हुआ। इसकी पहली बैठक
में लाला हरदयाल में कहा, “अमेरिकियों से मत लडिए। यहां
जो आज़ादी मिली है, उसका इस्तेमाल अंग्रेजों
से लड़ने में कीजिए। भारत की गरीबी और उसके पतन के लिए अंग्रेजी हुकूमत ज़िम्मेदार
है, इसे उखाड़ फेंकना ज़रूरी है।
यह काम सशस्त्र विद्रोह से संभव होगा। भारतीय सैनिकों को विद्रोह के लिए तैयार
कीजिए। आप सब लोग भारत जाइए और जनता का समर्थन प्राप्त कीजिए।”
ग़दर आन्दोलन
लाला
हरदयाल की अपील का लोगों पर असर हुआ और एक समिति का गठन किया गया। ‘ग़दर’ नामक एक साप्ताहिक अखबार निकाला गया। इसे मुफ्त
बांटने की निर्णय लिया गया। सैनफ्रांसिस्को में ‘युगांतर आश्रम’ नाम से मुख्यालय खोलने का निर्णय लिया गया। इस तरह
ग़दर आन्दोलन शुरू हुआ। बड़े पैमाने पर प्रचार शुरू हुआ। अप्रवासी भारतीयों से
संपर्क कार्य बढाया गया। 1 नवम्बर, 1913 को उर्दू में ‘ग़दर’ पत्र का
पहला अंक प्रकाशित हुआ। 9 दिसंबर से गुरुमुखी में भी यह प्रकाशित होने लगा।
जैसा इसका नाम था, वैसा ही लक्ष्य था। इसके
पहले अंक में लिखा था, “हमारा नाम क्या है? ग़दर
(क्रान्ति)। हमारा काम क्या है? एक विद्रोह करना ... । यह विद्रोह कहाँ होगा? भारत
में। यह कब होगा? थोड़े वर्षों में।” अखबार के नाम के साथ ‘अंग्रेजी राज का दुश्मन’ छपा रहता था। पहले पृष्ठ पर लिखा रहता था, ‘अंग्रेजी राज का कच्चा चिट्ठा’। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रीय आन्दोलन को तेज़
करने के लिए अखबार में वे अंग्रेजों के कुशासन को उजागर करते थे। ब्रिटिश शासन से
जो समस्याएँ थीं, उनके समाधान के लिए इसमें
लिखा जाता था कि भारत की आबादी 31 करोड़ है, 7 करोड़ भारतीय राज्यों की और 24 करोड़ ‘ब्रिटिश इंडिया’ की, जबकि अंग्रेजों की कुल
संख्या 1,18,562 है। जिनमें 79,614 अधिकारी व सैनिक हैं और 39,948 अन्य अँग्रेज़ शामिल हैं। 1857 के विद्रोह को 56 वर्ष
बीत चुके हैं, अब दूसरे विद्रोह का वक़्त
आ गया है।
इस
पत्रिका के लेख बहुत ही सरल भाषा में होते थे, जिसे आम आदमी आसानी से समझ सके। वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष, मैडम कामा, श्यामजी कृष्णवर्मा, अजित सिंह और सूफी अंबा प्रसाद के विचार और लेख इसमें
प्रमुखता से छपे जाते थे, जिससे भारतीयों को संघर्ष
की प्रेरणा दी जाती थी। अनुशीलन समिति और युगांतर के साहसिक कारनामे भी इस पात्र
में प्रमुखता पाते थे। लेकिन ‘ग़दर’ में छपी कविताएँ सबसे ज़्यादा पढी जाती थीं। कुछ ही दिनों
में यह अखबार भारत के अलावा फिलीपीन, हांगकांग, चीन, मलय, सिंगापुर, त्रिनिदाद और होंदुरास में अपनी पहुँच बनाने में सफल हुआ।
यहाँ के भारतीय ‘ग़दर’ में छपी कविताओं और गीत
गाया-गुनगुनाया करते थे। जल्द ही हुकूमत के सैनिक विद्रोही हो गए। उनका लक्ष्य था
हिन्दुस्तान से अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना। अखबार ने पंजाबियों को उनके
गौरवमय अतीत की याद दिलाई। अंग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादारी पर शर्मिन्दा होने की
बात कही। उनकी संघर्षशील और जुझारू परंपरा की उन्हें याद दिलाई। ग़दर के माध्यम से लाला हरदयाल का संदेश लोगों के दिलों तक
पहुंचा। युवक संघर्ष के लिए आतुर हो उठे।
1914
में युद्ध के आरंभ होते ही लाला हरदयाल भूपेन्द्र नाथ दत्त और अन्य क्रांतिकारियों
के साथ जर्मनी गए। उन्होंने जर्मन सरकार की मदद से सशस्त्र क्रान्ति की तैयारियां
शुरू कर दी। भारतीय स्वाधीनता समिति का गठन किया गया। ग़दर पार्टी के संपर्क बनाए
रखा। तुर्की से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया गया। लाला हरदयाल ने अनवर पाशा
से मिलकर पश्चिम की तरफ से भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। अमेरिका और कनाडा
से अनेक भारतीयों को भारत भेजा गया। अनेक सिख गुप्त रूप से पंजाब गए।
कामागाटामारू की घटना
इसी समय
1914 में कामागाटामारू की घटना घटी। हांगकांग से अनेक सिख कनाडा जाना चाहते थे।
कनाडा में भारतीयों के प्रवेश के नियम बहुत कड़े थे। कनाडा सरकार ने भारतीयों के
अपने यहाँ प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। केवल वही भारतीय कनाडा जा सकता था, जो भारत से सीधे कनाडा आया हो। उन दिनों ऐसी कोई नौपरिवहन
व्यवस्था नहीं थी जो इस तरह के जल मार्ग से किसी को कनाडा पहुंचाती। नवंबर 1913
में कनाडा की सुप्रीम कोर्ट ने 35 ऐसे भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की इजाज़त दे
दी थी, जो लगातार यात्रा करके नहीं
आए थे। अदालत के इस फैसले से उत्साहित होकर सिंगापुर में ठेकेदारी का काम कर रहे
एक भारतीय नागरिक गुरदीत सिंह ने सिखों को वहाँ ले जाने के लिए एक जापानी जहाज
कामागाटामारू भाड़े पर लिया। उन्होंने बैंकोवर जाने का फैसला किया। हांगकांग में इस
पर 150 सिख सवार हुए। रास्ते में अन्य यात्री सवार हुए। कुल 376 यात्रियों और ग़दर
की प्रतियाँ लेकर जब जहाज याकोहामा (जापान) पहुंचा तो ग़दर क्रांतिकारी इन
यात्रियों से मिले। उनके बीच जोशीले भाषण दिए गए। ग़दर के परचे बांटे गए। यह ऐलान
किया गया की यदि भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली तो इसके गंभीर
परिणाम होंगे। इस बीच कनाडा ने अपने कानून की उन खामियों को दूर कर लिया, जिसका फ़ायदा उठा कर 35 भारतीय वहाँ प्रवेश करने में सफल
हुए थे। संघर्ष की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
जब 23
मई, 1914 वानकूवर बन्दरगाह पर
पहुंचने वाला था, तब उसे बन्दरगाह से दूर
ही रोक दिया गया और अधिकारियों ने यात्रियों को जहाज से उतरने नहीं दिया। पुलिस ने
जहाज की घेराबंदी कर दी। यात्रियों ने ‘शोर कमिटी’ (तटीय समिति) गठित की। जहाज को वापस ले जाने को कहा
गया। यात्रियों ने इस आदेश की अवहेलना की और पुलिस से मारपीट की। लेकिन अंततोगत्वा
जंगी जहाज ने कामागाटामारू को वानकूवर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया। इस बीच प्रथम
विश्वयुद्ध छिड़ गया था। अंग्रेजी हुकूमत ने आदेश दिया कि एक भी यात्री को उतरने
नहीं दिया जाए और जहाज को कलकत्ता लाया जाए। यह जहाज जिस-जिस बन्दरगाह से गुजरता
वहाँ अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ नफ़रत बढ़ जाती। 29 सितंबर, 1914 जहाज जब बजबज (कलकत्ता) पहुंचा, तब सरकार ने उन्हें
एक विशेष गाडी द्वारा पंजाब भेजने का निश्चय किया। सरकार को संदेह था कि यात्री
क्रांतिकारी हैं और अपने साथ हथियार ला रहे हैं। तैनात पुलिस बल की संख्या को
देखकर सिखों को भी सरकारी योजना में संदेह नज़र आया। उन्होंने पैदल ही कलकत्ता की
और बढ़ना शुरू किया। रास्ते में उन्हें रोककर वापस लाया गया। स्टेशन पर यात्रियों
और पुलिस में मुठभेड़ हुई। 20 यात्री और पुलिस वाले मारे गए। अधिकाँश (202) यात्री
गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन गुरदित सिंह अपने विश्वस्त साथियों के साथ निकल भागे।
सरकार उन्हें पकड़ नहीं सकी। इन घटनाओं ने जनमानस को उद्वेलित किया।
प्रथम विश्व युद्ध और ग़दर पार्टी
ग़दर
पार्टी ने निश्चय किया की विश्व युद्ध से उपजे इस मौके का लाभ उठाया जाए। कुछ न
करने से कुछ करते हुए मर जाना बेहतर है। ग़दर पार्टी ने ‘ऐलान-ए-जंग’ युद्ध की घोषणा की। मोहम्मद बरकतुल्ला, रामचंद्र और भगवान सिंह ने प्रवासी भारतीयों को भारत जाकर
सशस्त्र विद्रोह के लिए प्रेरित किया। ग़दर क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए सरकार
ने कमर कस ली। हिन्दुस्तान पहुँचने वाले भारतीयों को कड़ी जांच-पड़ताल की जाती।
जिन्हें खतरनाक समझा जाता उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। बाकी पर कड़ी निगरानी रखी
जाती। करीब 8000 प्रवासी भारतीय भारत आए थे। कई लोग चकमा देकर पंजाब पहुँच गए।
पंजाब ग़दर पार्टी का साथ देने के लिए तैयार नहीं था। आन्दोलनकारी अब भारतीय
सैनिकों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश करने लगे। किसी केन्द्रीय नेतृत्व के
अभाव में यह प्रयास भी विफल रहा। रास बिहारी बोस ने इन क्रांतिकारियों का नेतृत्व
करने का फैसला किया और 1915 में वह पंजाब पहुँच गए। ग़दर आन्दोलन से जुड़े उन दिनों
के नेताओं में से प्रमुख थे रास बिहारी बोस, विष्णु गणेश पिंगले और सचिन सान्याल जो 21 फरवरी 1915 को अंतिम विद्रोह को फिर से संगठित करने के लिए पंजाब
पहुँचे। उन्होंने हथियार एकत्र किए, बम बनाए, शस्त्रागारों पर हमला
किया। उनकी योजनाओं के अनुसरण में 1914 और 1915 की शुरुआत में कई डकैतियाँ
और लूटपाट हुई। सैनिकों को विद्रोह के लिए
प्रेरित किया गया। ग़दरवादियों ने सुदूर पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूरे भारत में भारतीय सैनिकों से
संपर्क किया और कई रेजिमेंटों को विद्रोह के लिए राजी किया। 21 फरवरी, 1915 को सैनिक विद्रोह के लिए निश्चय किया गया। रास बिहारी बोस, सचिंद्र सान्याल, गणेश पिंगले और करतार सिंह सराभा ने उस उद्देश्य के लिए एक
मास्टर प्लान तैयार किया। लेकिन खुफिया पुलिस को
इसकी जानकारी हाथ लग गयी। आन्दोलनकारियों को धर दबोचने की तैयारी कर ली गयी। ब्रिटिश
शासन ने शुरू होने से पहले ही आंदोलन को कुचल दिया। ज़्यादातर नेता गिरफ्तार कर लिए
गए। बोस बच निकले। ग़दर आन्दोलन समाप्त हो गया। लाहौर षडयंत्र केस और पूरक मामलों
में ग़दरियों पर कई समूहों में मुकदमा चलाया गया। 42 वीरों को फांसी की सज़ा दी गई। 114 को आजीवन कारावास की सज़ा दी गई। 200 क्रांतिकारियों को लंबी सज़ा दी गई।
लाला
हरदयाल की गतिविधियों से सरकार का ध्यान उनकी तरफ गया। 1914 में उन्हें गिरफ्तार
कर लिया गया। ज़मानत पर छूटते ही वह जेनेवा चले गए। जब प्रथम विश्व युद्ध में
जर्मनी की हार होने लगी थी तो लाला हरदयाल स्वीडन पहुंच गए। वहां स्विस भाषा सीखकर
उसमें ही उन्होंने इतिहास, संगीत, दर्शन आदि विषयों पर कई व्याख्यान दिए उस समय तक
उन्होंने दुनिया की 13 भाषाओं पर अधिकार कर लिया
था और उन सभी में लेखन और भाषण देने का कार्य भी करते रहे। 1927 में उन्हें भारत में वापस लाने का प्रयास किया गया जो
असफल रहा। बाद में उन्होंने इंग्लैंड में रहने का फैसला किया जहां पीएचडी पूरी कर उन्होंने उनके
जीवन की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन किया अंत में फिर वे अमेरिका चले गए। 1938 में जब उन्हें हिंदुस्तान वापस आने की इजाजत मिली, इससे पहले वे भारत लौट पाते, 4 मार्च 1939 को फिलाडेल्फिया में उनकी मृत्यु हो गई।
क्रांतिकारियों का प्रयास विफल
1818 तक
क्रांतिकारी गतिविधियाँ कमजोर पड गईं। ग़दर पार्टी में फूट, सैनफ्रांसिस्को मुक़दमें, क्रांतिकारियों की गिरफ्तारियां, कठोर दमन चक्र और तुर्की और जर्मनी से खुले दिल से समर्थन
नहीं मिलने के कारण क्रांतिकारी आन्दोलन लगभग समाप्त हो गया। सरकार का तख्ता पलटने
का क्रांतिकारियों का प्रयास विफल हो गया। इनके आन्दोलन को जन समर्थन प्राप्त नहीं
हुआ। इन क्रांतिकारियों के पास साधन भी अत्यंत सीमित थे। विभिन्न संगठनों में
तालमेल की कमी थी। ब्रिटिश सरकार ने दमन चला कर इनके आन्दोलन को कुचल दिया।
क्रांतिकारियों का योगदान
हालाकि
वे अपने प्रयास में सफल नहीं हुए, लेकिन इससे उनके योगदान
का महत्त्व कम नहीं हो जाता। वे राष्ट्रवादी क्रांतिकारी थे। वे ऊंचे आदर्शों से
प्रेरित थे। देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए हमेशा तैयार
रहते थे। अनेक वीर क्रांतिकारियों ने मातृभूमि की बेदी पर अपने प्राणों को
न्योछावर किया। 1908 से 1918 के बीच 186 क्रांतिकारी या तो मारे गए या फिर जेल में
डाल दिए गए। उन्होंने कष्ट सहते हुए देशप्रेम और स्वतंत्रता की भावना को आगे बढाया।
उन्होंने करोड़ों देशवासियों के दिलों में स्थायी जगह बना ली। ग़दर पार्टी वालों ने
सेना और किसानों के बीच क्रांतिकारी विचारों को फैलाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण
कार्य किया। उनका बलिदान हिन्दुस्तान की राष्ट्रीयता को और मज़बूत बनाने में बहुत
सहायक हुआ। उन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ वैचारिक संघर्ष छेड़ा। ‘ग़दर की गूँज’ कविता संग्रह ने जिस विचारधारा का प्रचार किया उसका
चरित्र धर्म निरपेक्ष था। ग़दर क्रांतिकारियों में किसी तरह की क्षेत्रीय भावना
नहीं थी। ग़दर क्रांतिकारियों का उद्देश्य एक आज़ाद भारतीय गणराज्य की स्थापना करना
था। लाला हरदयाल समाजवादी विचारधारा से तो प्रभावित थे ही, उनका उद्देश्य ग़दर क्रांतिकारियों को अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण
अपनाने के लिए प्रेरित किया।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।