175. सोराबजी
शापुरजी अदजानिया
1908
अब चूंकि सत्याग्रह में आव्रजन अधिनियम को भी शामिल कर लिया
गया था, इसलिए सत्याग्रहियों को शिक्षित भारतीयों के ट्रांसवाल में प्रवेश करने के अधिकार
की परीक्षा होने वाली थी। समिति ने निर्णय लिया कि यह परीक्षण किसी साधारण भारतीय
के माध्यम से नहीं किया जाना चाहिए। विचार यह था कि कुछ भारतीय, जो नए अधिनियम में निषिद्ध आप्रवासी की परिभाषा के दायरे
में नहीं आते थे,
उन्हें ट्रांसवाल में प्रवेश
करना चाहिए और जेल जाना चाहिए। गांधीजी के नेतृत्व में सत्याग्रहियों को यह दिखाना
था कि सत्याग्रह एक ऐसी शक्ति है जिसमें प्रगतिशील आत्म-संयम के बीज निहित हैं। अधिनियम
में इस आशय की एक धारा थी कि कोई भी व्यक्ति जो यूरोपीय भाषा से परिचित नहीं है, उसे निषिद्ध आप्रवासी माना जाना चाहिए। इसलिए समिति ने
प्रस्ताव दिया कि कुछ भारतीय, जो अंग्रेजी
जानते हैं,
लेकिन जो पहले ट्रांसवाल नहीं
गए हैं,
उन्हें देश में प्रवेश करना
चाहिए। कई युवा भारतीयों ने इस उद्देश्य के लिए अपनी इच्छा प्रकट की, जिनमें से सोराबजी शापुरजी अदजानिया का चयन किया
गया।
सोराबजी पारसी थे। पूरे दक्षिण अफ्रीका में मुश्किल से सौ पारसी
रहे होंगे। दुनिया में पारसियों की संख्या एक लाख से अधिक नहीं है, और इतने छोटे समुदाय ने लंबे समय तक अपनी प्रतिष्ठा बनाए
रखी,
अपने धर्म पर कायम रहा और दान
के मामले में दुनिया में किसी से कम नहीं साबित हुआ। इस लिहाज से भी सोराबजी खरा
सोना निकले। सोराबजी एक छोटे व्यापारी थे जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में
सार्वजनिक जीवन में कदम रखा। उन्होंने हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की थी।
सोराबजी के सत्याग्रह में शामिल होने का निवेदन देख कर
गांधीजी को शुरू में संदेह था कि क्या सोराबजी संकट के समय अपनी बात पर अडिग रह
पाएंगे। लेकिन अपने संशय को परे रखकर गांधीजी ने समिति से सिफारिश की कि वे
सोराबजी की बात पर विश्वास करें और अंततः सोराबजी ने स्वयं को उच्च श्रेणी का
सत्याग्रही सिद्ध किया। वे न केवल सबसे लम्बी अवधि तक कारावास भोगने वाले
सत्याग्रहियों में से एक थे, बल्कि
उन्होंने संघर्ष का इतना गहन अध्ययन भी किया था कि उनके विचारों को सभी
सम्मानपूर्वक सुनते थे। उनकी सलाह में हमेशा दृढ़ता, बुद्धिमत्ता,
और विचार-विमर्श झलकता था।
वह किसी भी विषय पर कोई राय बनाते थे तो उस टिके रहते थे। सोराबजी
ट्रांसवाल में प्रवेश कर गए, उन्होंने
पहले ही सरकार को सूचित कर दिया था कि वे अप्रवासी पंजीकरण अधिनियम के तहत देश में
रहने के अपने अधिकार का परीक्षण करना चाहते हैं। सरकार इसके लिए बिल्कुल तैयार
नहीं थी और वह तुरंत यह तय नहीं कर पा रही थी कि सोराबजी के साथ क्या किया जाए, जो सार्वजनिक रूप से सीमा पार करके देश में घुस आए थे। आव्रजन
प्रतिबंध अधिकारी उन्हें जानता था। सोराबजी ने उनसे कहा कि वे जानबूझकर एक परीक्षण
मामले के लिए ट्रांसवाल में प्रवेश कर रहे हैं, और उनसे कहा कि वे उनसे अंग्रेजी में पूछताछ करें या उन्हें अपनी इच्छानुसार
गिरफ्तार करें। अधिकारी ने जवाब दिया कि उनसे पूछताछ करने का सवाल ही नहीं उठता
क्योंकि उन्हें अंग्रेजी का ज्ञान है। उन्हें गिरफ्तार करने का कोई आदेश नहीं था। सोराबजी
देश में प्रवेश कर सकते हैं और सरकार चाहे तो उन्हें वहीं गिरफ्तार कर सकती है
जहां वे जाएंगे। सोराबजी जोहान्सबर्ग पहुँचे और लोगों ने उनका अपने बीच स्वागत
किया।
किसी को भी यह आशा नहीं थी कि सरकार उसे वोल्क्सरस्ट के
सीमांत स्टेशन से एक इंच भी आगे बढ़ने देगी। सोराबजी जोहान्सबर्ग तक पहुँच गए, और स्थानीय अधिकारी को इस तरह के मामले में अपने कर्तव्य का
न तो कोई अंदाजा था और न ही इस मुद्दे पर उनके वरिष्ठों से कोई निर्देश था।
सोराबजी के आगमन से सत्याग्रहियों का उत्साह बढ़ा और कुछ युवकों ने सोचा कि सरकार
हार गई है और जल्द ही समझौता कर लेगी। हालाँकि, उन्हें अपनी गलती बहुत जल्दी पता चल गई। सोराबजी ने जोहान्सबर्ग के पुलिस
अधीक्षक को अपने आगमन की सूचना दी और उन्हें बताया कि वे नए आव्रजन अधिनियम के
अनुसार ट्रांसवाल में रहने के हकदार हैं, क्योंकि उन्हें अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान है, जिसके संबंध में वे यदि चाहें तो अधिकारी द्वारा जांच के लिए प्रस्तुत होने के
लिए तैयार हैं। इस पत्र का कोई उत्तर कुछ दिनों बाद एक सम्मन के रूप में आया।
सोराबजी का मामला 8 जुलाई, 1908 को न्यायालय में आया। न्यायालय भवन भारतीय दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। मुकदमा
शुरू होने से पहले,
न्यायालय परिसर में उपस्थित
भारतीयों की बैठक आयोजित की गई और सोराबजी ने एक जोरदार भाषण दिया, जिसमें उन्होंने जीत के लिए जितनी बार आवश्यक हो जेल जाने
और सभी खतरों और जोखिमों का सामना करने के लिए तैयार होने की घोषणा की। गांधीजी ने
सोराबजी का बचाव किया और तुरंत ही समन में त्रुटि होने के आधार पर उन्हें बरी करने
की मांग की। सरकारी वकील ने भी दलील दी, लेकिन 9 तारीख को न्यायालय ने गांधीजी की दलील को बरकरार रखा और सोराबजी को
बरी कर दिया,
हालांकि, उन्हें तुरंत अगले दिन, शुक्रवार,
10 जुलाई, 1908 को न्यायालय में पेश होने की चेतावनी दी गई।
10 तारीख को मजिस्ट्रेट ने सोराबजी को सात दिन के भीतर
ट्रांसवाल छोड़ने का आदेश दिया। न्यायालय का आदेश मिलने के बाद सोराबजी ने अधीक्षक
जे. ए. जी. वर्नोन को सूचित किया कि वे जाने की इच्छा नहीं रखते। तदनुसार उन्हें
20 तारीख को एक बार फिर न्यायालय में लाया गया, उन पर मजिस्ट्रेट के आदेश का पालन न करने का आरोप लगाया गया
और कठोर श्रम के साथ एक महीने के कारावास की सजा सुनाई गई। हालांकि, सरकार ने स्थानीय भारतीयों को गिरफ्तार नहीं किया क्योंकि
उन्होंने देखा कि जितनी अधिक गिरफ्तारियां होंगी, भारतीयों का उत्साह उतना ही बढ़ेगा।
संघर्ष समाप्त होने के बाद डॉक्टर मेहता ने कुछ अच्छे
सत्याग्रहियों को इंग्लैंड जाकर वकालत करने के लिए छात्रवृत्ति देने की पेशकश की। गांधीजी
को चयन का काम सौंपा गया। दो-तीन योग्य उम्मीदवार थे, लेकिन सभी ने महसूस किया कि कोई भी ऐसा नहीं है जो सोराबजी
के बराबर निर्णय और बुद्धि की परिपक्वता में हो, और उन्हें तदनुसार चुना गया। यह एक सवाल था कि क्या आठ साल से अधिक समय तक एक
छात्र के रूप में जीवन छोड़ने के बाद, वह फिर से इसे अपना सकते हैं। हालाँकि, वह दृढ़ थे। उनकी महत्वाकांक्षा बैरिस्टर बनना था और खुद को पूरी तरह से सेवा
के लिए तैयार करना था। 1912 में समाज के आशीर्वाद से सोराबजी इंग्लैंड गए और विधिवत बार में दाखिल हुए। दक्षिण
अफ्रीका में ही वे गोखले के संपर्क में आ चुके थे और इंग्लैंड में उनके साथ उनके
संबंध और भी घनिष्ठ हो गए थे। सोराबजी से प्रभावित होकर ने उनसे भारत लौटने पर
सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी में शामिल होने के लिए कहा।
सोराबजी विद्यार्थियों में बहुत लोकप्रिय थे। वे सबके
दुख-दर्द में शामिल होते थे। इंग्लैंड की विलासिता और बनावटीपन से वह कोसों दूर थे।
जब वे इंग्लैंड गए,
तब उनकी उम्र तीस से ऊपर थी और
उन्हें अंग्रेजी का केवल कामचलाऊ ज्ञान था। लेकिन मनुष्य की दृढ़ता से कठिनाइयां
दूर हो जाती हैं। सोराबजी ने एक विद्यार्थी का शुद्ध जीवन जिया। उन्होंने बार की
परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। जब इंग्लैंड में एम्बुलेंस कोर की स्थापना हुई, तो वे इसमें शामिल हुए। वे कुछ समय के लिए लंदन इंडियन
सोसायटी के सचिव थे।
इंग्लैंड में वकालत की परिक्षा पास कर सोराबजी जोहान्सबर्ग
लौट आए, जहाँ उन्होंने वकालत करने के साथ-साथ समुदाय की सेवा भी शुरू की। लेकिन होनी
को कुछ और ही मंजूर था। सोराबजी को तीव्र क्षय रोग हो गया और कुछ ही महीनों में
उनकी मृत्यु हो गई। वे पैंतीस वर्ष के थे। सोराबजी जितने अच्छे पारसी थे, उतने ही अच्छे भारतीय भी थे। वे निष्क्रिय प्रतिरोधियों के
बीच एक राजकुमार थे। वह धर्म या जाति के किसी भी भेदभाव को नहीं जानते थे। भारत के
प्रति प्रेम उनके लिए जुनून था, उसकी सेवा
उनके लिए आस्था का विषय थी।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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