गांधी और गांधीवाद
200. टॉल्सटॉय फार्म - सत्याग्रह में
महत्त्वपूर्ण भूमिका
1910
भोजन और रसोई
इस आश्रम में गुजरात, मद्रास, आंध्र और उत्तर भारतीय लोग रहते थे। इसमें हिंदू,
मुसलमान,
पारसी और
ईसाई धर्म के मानने वाले लोग थे। 40 युवक, तीन बूढ़े, पांच स्त्रियां, और 30 बच्चे थे,
जिनमें पांच
लड़कियां थीं। सभी लोग एक ही समय में एक ही तरह का खाना खाते थे। भोजन सबसे सरल प्रकार का था और आहार निरामिष होता था। रसोई का काम
महिलाएं किया करती थीं। उनकी मदद के लिए एक-दो पुरुष भी होते थे। उनमें से एक
गांधी जी ख़ुद थे। रसोई जितनी हो सके सादी होती थी। ऐसी सभी विलासिता जैसे चाय और
कॉफी, चीनी और जैम, मसाले,
नमक सहित
(जिस पर गांधीजी
ने उस समय सबसे अधिक विरोध किया था), आहार सूची में निषिद्ध थे। घर पर
पिसे हुए मोटे गेहूँ के आटे से बनी रोटी, जिसका चोकर नहीं निकाला जाता,
घर पर ही
बनाया हुआ मूंगफली का मक्खन और घर का बना मुरब्बा। मूंगफली का मक्खन मूंगफली को
भूनकर और फिर पीसकर बनाया जाता था, और यह साधारण मक्खन से चार गुना
सस्ता था। गेहूँ पीसने के लिए लोहे की हाथ की चक्की खरीदी गई थी। गाय के दूध का
बहुत कम इस्तेमाल करते थे और आम तौर पर गाढ़े दूध से काम चलाते थे। भोजन में चावल,
दाल,
तरकारी,
रोटी और
कभी-कभी खीर होना सामान्य नियम था। ये सारी चीज़ें एक ही बरतन में परोसी जातीं।
बरतन में थाली की जगह तसली जैसी बरतन का प्रयोग होता और लकड़ी के चमचे अपने हाथ
से बना लिए गए थे। खाना तीन वक़्त दिया जाता। सामुदायिक रसोई के संचालन में
श्रीमती गांधी की सक्रिय भूमिका थी।
सबेरे छह बजे रोटी और गेंहूं का
कहवा, ग्यारह बजे दाल-भात और तरकारी और शाम के साढ़े पांच बजे गेहूं की लपसी और
दूध या रोटी और गेहूं का कहवा। सबको एक ही पांत में भोजन करना होता था। सबको
अपने-अपने बरतन मांज कर साफ़ करना होता था। रात के 9 बजे सबको सो जाना होता। शाम के
भोजन के बाद सात-साढ़े सात बजे प्रार्थना होती। प्रार्थना में भजन गाए जाते और कभी
रामायण से तो कभी इसलाम के धर्मग्रंथों से कुछ पढ़ा जाता। भजन अंग्रेज़ी,
हिंदी और
गुजराती में होते। अधिकांश आश्रमवासियों ने नियमों का पालन किया था, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्हें
इतना कठोर जीवन मंजूर नहीं था। ऐसे लोगों के पास - स्कूली बच्चे की तरह - टक बॉक्स
थे, और जब कॉलोनी रात के लिए सेवानिवृत्त हो जाती थी,
तो टक बॉक्स
बाहर लाए जाते थे, और निषिद्ध चीजों सहित रसीले व्यंजन तैयार किए जाते
थे और उनका आनंद लिया जाता था।
ईसाई और अन्य महिलाएँ मांसाहारी
थीं। गांधीजी ने सोचा कि फार्म से मांस को बाहर रखना उचित है। लेकिन वह उन लोगों
से कैसे कह सकते थे, जो बचपन से ही मांस खाने के आदी
थे और जो अपने विपत्ति के दिनों में यहाँ आते थे, कि वे अस्थायी रूप से भी मांस
खाना छोड़ दें? अगर वह यह नियम बना देते कि मांसाहारी की मदद नहीं
की जानी चाहिए, तो उन्हें केवल शाकाहारियों के माध्यम से सत्याग्रह
संघर्ष चलाना पड़ता, जो कि बेतुका था,
क्योंकि यह
आंदोलन सभी वर्गों के भारतीयों की ओर से संगठित किया गया था। इन परिस्थितियों में गांधीजी
ने निश्चय किया कि अगर ईसाई और मुसलमान मांस भी मांगते हैं तो उन्हें वह भी मुहैया
कराया जाना चाहिए। उन्हें फार्म में प्रवेश देने से मना करना बिल्कुल भी उचित नहीं
है। लेकिन जहाँ प्रेम है, वहाँ ईश्वर भी है। ईसाई और मुसलमान
मित्रों ने शुद्ध
शाकाहारी रसोई की अनुमति दे दी थी।
गांधीजी इस फार्म पर दो वर्ष ही
रहे, लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने इसका भव्य विकास कर दिया। सख्त भूमि को
खोदकर उसमें फलों के वृक्ष लगाए गए। साग, सब्जी, फूल आदि बोए गए। एक ही रसोई थी, जिसमें सभी लोगों के लिए भोजन बनता
था। पाखाना अदि की साफ़-सफ़ाई वे अपने हाथ से ही करते थे। कई महीने बाद वहां
पवन चक्की लगाई गई। अब उन्हें कांवड़ में पानी लाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।
टॉल्सटॉय फार्म जाने का रास्ता
साफ़-सफाई का ख्याल
इस आश्रम में इतने आदमी इकट्ठे
रहते थे, फिर भी किसी को कहीं कूड़ा, मैला या जूठन पड़ी दिखाई नहीं देती थी। एक गड्ढ़ा खोद
रखा गया था, उसी में सारा कूड़ा डालकर ऊपर से मिट्टी डाल दी जाती। पानी कोई रास्ते में न
गिराता। सब बरतनों में इकट्ठा किया जाता और उसे पेड़ों को सींचने के काम में खर्च
किया जाता। जूठन और साग-तरकारी के छिलकों की खाद बनती। पाखाने के लिए रहने के मकान
के पास एक चौरस डेढ़ फुट गहरा गड्ढ़ा खोदा गया था। उसी में सारा पाखाना डाल दिया
जाता और ऊपर से खोदी हुई मिट्टी को भी डालकर पाट दिया जाता। इससे ज़रा भी दुर्गन्ध
नहीं आती। मक्खियां भी वहां नहीं भिनभिनातीं। इसके साथ ही फार्म को खाद भी मिलता।
गांधीजी का कहना है, “हम मैले का सदुपयोग करें तो लाखों रुपये की खाद बचाएं
और अनेक रोगों से भी बचें। पाखाने के बारे में अपनी बुरी आदत के कारण हम पवित्र
नदी के किनारे को भ्रष्ट करते हैं, मक्खियों की उत्पत्ति करते हैं और नहा-धोकर साफ-सुथरे
होने के बाद, जो मक्खियां हमारी बेहूदी लापरवाही से खुले हुए विष्टा पर बैठ चुकी हैं,
उन्हें अपने
शरीर का स्पर्श करने देते हैं। एक छोटी सी कुदाली हमें बहुत सी गंदगी से बचा सकती
है। चलने के रास्ते पर मैला फेंकना, थूकना, नाक साफ करना ईश्वर और मनुष्य दोनों के प्रति पाप है।
इसमें दया का अभाव है। जंगल में रहनेवाला भी अगर अपने मैले को मिट्टी में दबा नहीं
देता तो वह दंड के योग्य है।”
एक कारखाना
गांधीजी चाहते थे कि सत्याग्रही के परिवर के सदस्य स्वालंबी बने। इस हेतु
बढ़ई के काम, मोची के काम इत्यादि के लिए एक कारखाना भी तैयार किया गया। कालेनबाख की देखरेख में वह कारखाना चलता था। इस कारखाने में ज़रूरत की कई चीज़ें बनती थीं। कालेनबाख ने दक्षिण अफ़्रीका के
पाइनटाउन के पास मेरियन हिल में चल रहे रोमन कैथेलिक पादरियों के ट्रेपिस्ट नामक
मठ में चप्पल बनाने का काम सीखा था। यह काम उन्होंने गांधीजी और फार्म के अन्य
निवासियों को सिखाया। वे सब चप्पल बनाना सीख गये और मित्र मंडलियों में बेचने भी
लगे। जिन्होंने बढ़ई का धंधा सीखा था,
वे बक्से और संदूक आदि बनाते।
पहनावा
उनके पास न तो कुर्सियाँ थीं और न ही बिस्तर;
हर कोई ज़मीन पर और खराब मौसम को छोड़कर, खुले में बाहर के बरामदे मे जमीन पर सोते थे। प्रत्येक व्यक्ति को दो कंबल और एक लकड़ी का तकिया मिलता था। पुरुष एक
दूसरे के बाल काटते और दाढ़ी बनाते थे। दक्षिण अफ़्रीका के शहरों
में आम तौर पर पुरुषवर्ग का पहनावा यूरोपियन ढंग का ही होता था। सत्याग्रहियों का
भी था। फार्म पर उन्हें ऐसे कपड़ों की ज़रूरत नहीं थी। सभी मज़दूर बन गए थे। वे
मज़दूरों का पहनावा रखते थे,
पर यूरोपियन ढंग के मज़दूरों का। यानी मज़दूरों के
पहनने का पतलून और उसी तरह की कमीज। मोटे आसमानी रंग के कपड़े का सस्ता पतलून और
कमीज सभी पहनते।
बुनियादी शिक्षा
फार्म के बच्चे को पढ़ाने के लिए एक स्कूल भी खोला गया। सुबह के समय
विद्यार्थी समेत बसने वाले सभी तरह के शारीरिक और दूसरे कामों में व्यस्त रहते थे।
इसलिए दोपहर में कक्षाएं लगती थीं। यहां मस्तिष्क नहीं बल्कि हृदय द्वारा, अक्षरों नहीं बल्कि शारीरिक श्रम के द्वारा शिक्षा देने का पहला प्रयोग किया
गया। अहिंसा, स्वास्थ्य और अन्य विषयों पर भी तरह-तरह के प्रयोग किए जाते।
बुनियादी शिक्षा की प्रणाली को गांधीजी ने यहां बड़े मेहनत से विकसित किया।
गांधीजी के तीन लड़के यहां के छात्र थे। योग्य हिन्दुस्तानी शिक्षक की कमी थी। अगर
मिल भी जाए तो तनख़्वाह के बिना डरबन से इक्कीस मील दूर कौन आता? इसलिए गांधीजी ख़ुद ही वहां के बच्चों को पढ़ाते थे। वे हफ़्ते में पांच दिन, (सोमवार और गुरुवार को छोड़ कर,
उन दिनों वे कालेनबाख के साथ शहर जाते) दिन में तीन
घंटे, हिंदी, गुजराती, इंगलिश और तमिल भाषाएं सिखाते थे। इस काम में उन्होंने कालेनबाख और प्रागजी
देसाई की सहायता ली। छात्रों के पाठ्यक्रम में शारीरिक श्रम को भी डाल दिया गया
था। बच्चे गड्ढ़े खोदते, पेड काटते, बोझा ढोते और बढ़ईगिरी तथा मोची का काम सीखते। टॉल्सटॉय फार्म के
उत्तरदायित्वों ने गांधीजी में आत्म-निग्रह और संयम में काफ़ी वृद्धि की। स्कूल में सह-शिक्षा दी जाती और
गांधीजी एक मां की तरह बच्चों पर नज़र रखते थे।
इस काम में भी कालेनबाख उनके विश्वस्त सहयोगी थे। उन्होंने
सभी आयु समूहों को एक साथ मिला दिया था,
पाठ्यपुस्तकों का उपयोग करना छोड़ दिया था और शिक्षण
को उन सभी बातों पर प्रवचनों की श्रृंखला तक सीमित कर दिया था जो उनके दिमाग में
आती थीं। उनका एक सिद्धांत था कि बच्चे लिखित शब्दों की तुलना में बोले गए शब्दों
से कहीं अधिक सीखते हैं। शारीरिक दंड सख्त वर्जित था। गांधीजी का मानना था कि
आत्मा का प्रशिक्षण केवल आत्मा के अभ्यास से ही संभव है। और "आत्मा का अभ्यास
पूरी तरह से शिक्षक के जीवन और चरित्र पर निर्भर करता है।" केवल एक अवसर पर
गांधीजी ने एक शिष्य को स्केल से दंडित किया,
और गलती करने वाले शिष्य पर प्रहार करते समय वे कांप
रहे थे।
आश्रम में नौकर तो थे नहीं। पाखाना-सफ़ाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम
आश्रमवासियों को ही करने होते थे। कालेनबाख को खेती का बहुत शौक था। जो रसोई के काम में न लगे थे, वे कालेनबाख के साथ बगीचे का काम करते। आश्रम में यह रिवाज़ था कि
जो काम शिक्षक न कर सकें वह बालकों से न कराया जाए। और बालक जिस काम में हों, उसमें उनके साथ
उसी काम को करने वाला एक शिक्षक हमेशा रहे। इसलिए बालकों ने जो भी सीखा, उमंग के साथ
सीखा।
वहां सभी धर्म की शिक्षा दी जाती थी। इससे बालकों में कभी असहिष्णुता नहीं
आई। एक-दूसरे के धर्म और रीति-रिवाज के प्रति उन्होंने उदार-भाव रखना सीखा। सगे
भाइओं की तरह हिल-मिलकर रहना सीखा। एक-दूसरे की सेवा करना सीखा। सभ्यता सीखी। आध्यात्मिक
प्रशिक्षण उनके दिल के करीब था,
और उन्होंने अपने विद्यार्थियों को भजन कंठस्थ करने के
लिए कहा। अपने व्याख्यानों के आधार पर उन्होंने नीति धर्म या नैतिक धर्म लिखा जो 1912
में प्रकाशित हुआ।
प्रायश्चित उपवास
आश्रम में गांधीजी को भी पाप की समस्या का सामना करना पड़ता था। लड़के झूठ
बोलते थे, समलैंगिकता करते थे,
आदेशों का पालन करने से इनकार करते थे। समलैंगिकता के पाप के लिए ऐसे कोई सरल उपाय नहीं थे। जब उन्होंने यह समाचार
सुना तो वे दुख और पीड़ा से लगभग पागल हो गए। कालेनबाख ने उन्हें ध्यान से देखा, उन्हें डर था कि वे तनाव के कारण पागल न हो जाएँ। अंततः गांधीजी ने फैसला
किया कि उन्हें अपराध का बोझ उठाना चाहिए और प्रायश्चित करना चाहिए। इसलिए
उन्होंने खुद पर सात दिनों का प्रायश्चित उपवास और साढ़े चार महीने तक प्रतिदिन
केवल एक बार भोजन करने की शपथ ली। पहले तो कालेनबाख ने इसका कड़ा विरोध किया, लेकिन चूंकि वे हमेशा गांधीजी के तर्कों से सहमत होकर बात समाप्त करते थे, इसलिए उन्होंने उपवास में शामिल होने का फैसला किया।
सहशिक्षा का
प्रयोग
इस फर्म में सहशिक्षा का प्रयोग किया गया था। लड़के-लड़कियों को मर्यादा
धर्म के विषय में खूब समझया जाता था। गांधीजी बच्चों को मां की तरह प्यार करते थे।
सभी एक खुले बरामदे में सोते। लड़के-लड़कियां गांधीजी के आस-पास सोते। दो बिस्तरों
के बीच तीन फुट का अंतर होता। सभी बच्चे पास के झरने में एक साथ नहाने जाते। एक
दिन किसी लड़के ने गांधीजी को खबर दी कि एक युवक ने दो लड़कियों के साथ छेड़खानी
की है। गांधीजी ने जांच की। बात सच निकली। उन्होंने युवकों को समझाया। पर यह
उन्हें नाकाफ़ी लगा। वे दोनों लड़कियों के शरीर पर कुछ ऐसा चिह्न चाहते थे जिससे
हरएक युवक यह समझ सके और जान ले कि इन बालाओं पर कुदृष्टि डाली ही नहीं जा सकती।
दूसरे दिन सुबह-सुबह उन्होंने दोनों लड़कियों को बुलाया और उन्हें बाल उतार देने
की विनती की। उनके बाल उतार दिए गए। इससे “सामने वाले की आंखों को न तो सुंदरता देखने को मिलेगी
न उनके मन में पाप आएगा।” परिणाम अच्छा रहा। फिर से उन्हें यह छेड़खानी वाली बात नहीं सुनाई दी।
गांधीजी का कहना था कि ऐसे प्रयोग अनुकरण के लिए नहीं किए गए बल्कि सत्याग्रह की
लड़ाई की विशुद्धता बताने के लिए किए गए। इस विशुद्धता में ही उसकी विजय की जड़
थी। ऐसे प्रयोग के पीछे कठिन तपश्चर्या का बल होना चाहिए। गांधीजी कहते हैं, “मुझे
इस प्रयोग पर पछतावा नहीं है। मेरा विवेक गवाही देता है कि इससे कोई नुकसान नहीं
हुआ। लेकिन जिस तरह एक बच्चा गर्म दूध से जल जाता है और मट्ठे में भी फूंक मारता
है, उसी तरह मेरा वर्तमान रवैया अतिरिक्त सावधानी का है।”
आश्रमवासियों ने रोज़ा
रखा
इसी प्रयोग में उन्होंने अपने तीनों बेटे मणिलाल, रामदास और देवदास को भी फीनिक्स के बसे-बसाए घर से निकालकर अपने पास टॉल्सटॉय फार्म पर बुलवा
लिया। टॉल्सटॉय फार्म जेल जाने वाले सत्याग्रहियों के परिवारों का आश्रय-स्थल बना। इस फार्म में 7 से लेकर 20 साल तक के बच्चे और युवक थे। जेल
में बंद सत्याग्रहियों के इन बच्चों को गांधीजी अनौपचारिक रूप से शिक्षित करना
चाहते थे। यहां एक तरण ताल भी था। उसमें बच्चे स्नान करते थे। इस फार्म में हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई सभी धर्मों के बच्चे थे। गांधीजी विशेष ध्यान
देते कि प्रत्येक बच्चा अपने धर्म का पालन करे और उसका अपने-अपने धर्मग्रंथ से परिचय हो।
मुसलमान के बच्चे को क़ुरआन की शिक्षा दी जाती तो ईसाई के बच्चे को बाइबिल की।
रमजान के महीने में मुसलमान बच्चों ने रोज़ा रखा। उन लोगों को इतना कठिन उपवास सहन
हो और अकेलापन महसूस न हो, इसलिए कालेनबाख और गांधीजी भी उन लोगों के समान दिन-भर का निर्जला व्रत रखते। इस
प्रकार वहां सद्भाव और प्रीति का विकास हुआ। वहां के सभी लोगों ने स्वेच्छा से
शाकाहारी आहार अपना लिया था। कई लोग खेत पर ही एकादशी का व्रत रखते थे,
और कुछ लोग चतुर्मास
मनाते थे। मुस्लिम कैदियों के साथ रहने के लिए बाकी लोग रमज़ान के दिनों में शाम
को सिर्फ़ एक बार खाना खाते थे। सभी अपने-अपने धार्मिक अनुष्ठानों में एक-दूसरे की
मदद करते थे। उपवास को आत्म-संयम में सहायक भी माना जाता था।
इस आश्रम में हिन्दू, मुसलमान, पारसी और इसाई धर्म के लोग मिलजुलकर एक परिवार की तरह
रहते थे। इस फार्म में सत्याग्रहियों का
आना-जाना लगा रहता था। सत्याग्रह के अंतिम युद्ध के लिए यह फार्म आध्यात्मिक
शुद्धि का और तपश्चर्या का स्थान सिद्ध हुआ। यहां की दिनचर्या शरीर,
मन एवं
चेतना को प्रशिक्षित करती थी। आहार, पोषाक, स्वच्छता, बच्चों की शिक्षा जैसे सभी विषयों पर गांधीजी विशेष
ध्यान देते थे।
प्राकृतिक चिकित्सा
में विश्वास
टॉल्सटॉय फार्म की कल्पना करने वालों में आधुनिक
चिकित्सा विज्ञान के प्रति कोई सम्मान नहीं था। साधारण से साधारण दवा भी हाथ में
रखना ज़रूरी नहीं समझा जाता था। निवारक स्वास्थ्य सेवा पर ज़ोर दिया जाता था ताकि
कम से कम बीमारियाँ हों। हालांकि फार्म शहर से दूर था, लेकिन बीमारी के संभावित हमलों
के खिलाफ सबसे आम दवाएं भी वहां नहीं रखी जाती थीं। उन दिनों गांधीजी का प्राकृतिक
चिकित्सा में पूरा विश्वास था; सौभाग्य से फार्म पर बीमारी का
एक भी मामला ऐसा नहीं था जिसके लिए डॉक्टर की मदद की जरूरत पड़ती। उन्होंने
प्राकृतिक चिकित्सा में कई प्रयोग किए और एक बूढ़े व्यक्ति के अस्थमा के मामले को
भी ठीक किया। प्राकृतिक चिकित्सा में उनका विश्वास संक्रामक था और आवारा मरीज भी टॉल्सटॉय
फार्म में इलाज करवाने के लिए आते थे।
सत्याग्रह की लड़ाई
में महत्त्वपूर्ण भूमिका
एक तरफ़ जहां टॉल्सटॉय फार्म का गांधीजी के
आत्म-निग्रह और संयम में वृद्धि में भारी योगदान था, वहीं दूसरी तरफ़ सत्याग्रह की
लड़ाई के विकास में भी इसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। जेल में रहने वाले
सत्याग्रहियों के परिवारों को तो यहां आश्रय मिला ही, साथ ही इन लोगों ने गांधीजी
के सत्याग्रह के आखिरी दौर में आंदोलन में अपना सब कुछ झोंक दिया। आश्रम का कठोर
संयम, अनुशासन ने उनके अन्दर से जेल जाने का डर ख़त्म कर दिया था। जब सत्याग्रही जेल से छूट गए, तो अधिकांश लोगों
ने अपने परिवार को टॉल्सटॉय आश्रम से हटा लिया। अब वहां सिर्फ़ फीनिक्स वासी ही बच
गए। गांधीजी उन सभी को फीनिक्स
आश्रम ले आए। सत्याग्रह के काम से गांधीजी को अधिकतर जोहान्सबर्ग में ही रहना
पड़ता था।
उन दिनों उनके आत्म-निग्रह और संयम में जो वृद्धि
हुई, उसका बहुत कुछ श्रेय गांधीजी ने टॉल्सटॉय-फार्म-शिक्षण-संबंधी उत्तर दायित्वों
के प्रति अपनी सजगता को दिया है। लेकिन उस फार्म का सत्याग्रह की लडाई के विकास
में भी काफी मूल्यवान योगदान रहा है। जेल जानेवाले सत्याग्रहियों के परिवारों को तो
वहाँ आश्रय मिला ही, जब गांधीजी ने सत्याग्रह का आखिरी
दौर शुरू किया तो अपनी मर्जी से
त्याग और गरीबी का जीवन अपनाकर शक्तिशाली ट्रांसवाल सरकार से लगातार जूझ रहे वहाँ के मुट्ठी-भर देशभक्तों की
शानदार मिसाल ने शेष सारी भारतीय जनता को संघर्ष में कूदने के लिए प्रेरित भी किया
और टॉल्सटॉय-फार्म के कठोर संयम और दृढ़ अनुशासन में रहे हुए स्री, बच्चों और पुरुषों को तो जेल का डर हो ही नहीं सकता
था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और
गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ
पर
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