गांधी और गांधीवाद
189. हिंद
स्वराज-1
1909
1909 में लंदन प्रवास के दौरान
गांधीजी ने भारत के स्वशासन के बारे में गहराई से सोचना शुरू किया। वहाँ उन्होंने सभी तरह के राजनीतिक विचारों वाले
भारतीयों, राष्ट्रवादियों, संविधानवादियों और क्रांतिकारियों से संपर्क किया। जब गांधीजी के लंदन से दक्षिण अफ़्रीका लौटने का समय पास था तो एक
महत्वपूर्ण घटना हुई। कनाडा में रह रहे एक भारतीय क्रांतिकारी तारक नाथ दास ने
लिओ टॉल्सटॉय को एक पत्र लिखा था। वह वैंकोवेर
(Vancouver) से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘फ़्री
हिन्दुस्तान’ के सम्पादक थे। उन्होंने टॉल्सटॉय से सलाह मांगी थी कि भारत के
लोग किस तरह ख़ुद को आज़ाद कर सकते हैं? रूस वासी इस संत ने बड़ा साधारण सा जवाब दिया था – भारतीय ख़ुद के ग़ुलाम हैं, ब्रिटिशों के नहीं। तीस हज़ार
कर्मचारियों वाली एक व्यापारिक कंपनी किस तरह बीस करोड़ उद्यमी, होशियार, बलशाली, स्वतंत्रता-प्रेमी लोगों को
ग़ुलाम बना सकती है?
टॉल्सटॉय के जवाब का सारांश
यह था कि भारतीयों को विदेशी शासकों के शासन में,
चाहे वह कर उगाही से संबंधित हो, या न्याय-व्यवस्था से, या सेना में भर्ती से संबंधित हो, भाग लेने से मना कर देना चाहिए।
गांधीजी का टॉल्सटॉय से पुराना परिचय था, वे उनके लेख पढ़ते आ रहे थे। उनके कई विचारधारा को उन्होंने अपनाया भी
था। लेकिन इस पत्र का भारत की मूल समस्या से संबंध था। इसने उनपर गहरा असर छोड़ा।
करीब दो सप्ताह पहले गांधीजी द्वारा लॉर्ड एम्पथिल को लिखे
अपने पत्र में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया था कि अंतहीन वाणिज्यिक लालच को अपनी
प्रेरक शक्ति के रूप में रखने वाले ब्रिटिश शासन ने भारत को गंभीर नुकसान पहुंचाया
है। इसके द्वारा लाए गए आधुनिकीकरण ने देश को बर्बाद कर दिया है। अब लोगों में इसे
और अधिक सहन करने का धैर्य नहीं बचा था। ब्रिटेन को सलाह दी जाती है कि वह भारत को
जो चाहिए, उसे बिना देरी किए दे
दे। सबसे अच्छी बात यह होगी कि अंग्रेज खुद आधुनिक सभ्यता को त्याग दें। अगर यह
बहुत ज्यादा मांग है, तो कम से कम उन्हें इसे
भारत पर नहीं थोपना चाहिए। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस देश पर शासन कौन
करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि शासक लोगों की इच्छा के अनुसार शासन करें, ऐसा न करने पर भारत के पास अहिंसक (आत्मबल पर आधारित) या हिंसक लड़ाई
के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। कोई भी यह विश्वास नहीं करता था कि भारत हिंसा का
सहारा लिए बिना स्वतंत्र हो सकता है, हालांकि गांधीजी
के अनुसार, संप्रभु उपाय वास्तव में
सत्याग्रह में निहित है।
उन्हीं दिनों गांधीजी को एक
सभा में ‘East and West’ विषय
पर बोलने को कहा गया और उन्होंने ब्रिटिश
द्वारा अपनाई गई मज़दूर-किसान विरोधी आधुनिकतम तकनीकों आदि की जोरदार ख़िलाफ़त की। जब वे चर्चाएँ
कर रहे थे, तब उनके अपने राजनीतिक
विचार आकार ले रहे थे। जब गांधीजी इंग्लैंड के तटों से बाहर निकले, तब तक उनके
विचार न केवल संगठित आकार ले चुके थे, बल्कि उनमें इतना जोश और
शक्ति भी आ गई थी कि उन्हें काले और सफेद रंग में लिखने की अदम्य इच्छा थी। परिणामस्वरूप लंदन से डरबन लौटते हुए गांधीजी ने जहाज पर अपने विश्वासों को
संवाद के रूप में ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक के
नाम से लिख डाली। यह संवाद एक प्रतिनिधि
देशभक्त युवक भारतीय के साथ था जिससे वह हाल ही में लंदन में मिले थे, जो मानता था
कि ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए कोई भी उपाय उचित है। गांधीजी इस धारणा से
देश के युवा को छुटकारा दिलाना चाहते थे। इस पुस्तक को लिखने का उनका उद्देश्य भी
यही था। लोकतंत्र में बनाए नियमों का पालन करना हरेक के लिए अनिवार्य होता है।
लेकिन अन्यायपूर्ण नियमों का पालन करना भी मनुष्योचित नहीं है। इसलिए इसका विरोध
भी किया जाना चाहिए। केवल वह समाज स्वतंत्र, प्रसन्न और रहने योग्य होता है,
जिसमें हर स्त्री-पुरुष एक संभावित सविनय अवज्ञाकारी हो। लिखने के सौ वर्ष से अधिक के बाद भी यह अत्यंत प्रासंगिक और विचारशील
कृति है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल
को खड़ा करती है।
दक्षिण अफ़्रीका के भारतीय
लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए गांधीजी 1909 में लंदन गए थे। लंदन में जिन शिक्षित,
क्रांतिकारी स्वराज-प्रेमी नवयुवक भारतीयों से
मिले उनके बीच देशभक्ति और धर्म के नाम
पर हिंसा की स्तुति देखकर बहुत दुखी हुए। लन्दन से ‘इन्डियन ओपिनियन’ को भेजे गए साप्ताहिक
डिस्पैच में उन्होंने लिखा, “मैं कहूंगा कि जो लोग मानते हैं या
तर्क देते हैं कि ऐसी हत्याओं से भारत का भला होगा वे सचमुच अज्ञानी हैं। धोखाधडी
का कोई काम कभी किसी राष्ट्र को लाभ नहीं पहुंचा सकता। अगर इन हत्याओं के फलस्वरूप
कभी अंग्रेजों ने देश छोड़ा भी तो उनकी जगह कौन राज करेगा? इसका एकमात्र उत्तर है –
हत्यारे। तब प्रसन्न कौन होगा? भारत को हत्यारों के शासन से कोई लाभ नहीं पहुँच
सकता, भले ही वो काले हों या गोरे।”
भारतीय नवयुवकों में देश की
स्वतंत्रता के लिए हिंसा के मार्ग के प्रति बढ़ते आकर्षण ने उन्हें गहरी चिंता में
डाल दिया था। वे देश के भाग्य के बारे में सोचने पर मज़बूर हो गए। गांधीजी ने पाया
कि क्रांतिकारियों के पास स्वराज की एक अराजक समझ है। साध्य की प्राप्ति के लिए
साधन की पवित्रता में उनकी आस्था नहीं है। उनके मन को यह प्रश्न मथने लगा कि किस
तरह के स्वशासन से देश के करोड़ों देशवासी सच्चे कल्याण और प्रसन्नता से लाभान्वित
होंगे जो गांवों में रहते हैं और पश्चिमी सभ्यता से अभी भी अप्रभावित हैं? वे मानते थे कि आदर्श समाज वह है
जिसमें हर व्यक्ति खेत पर या किसी शिल्प में हाथों से काम करे और नैतिक नियमों का
पालन कतते हुए जीवन गुज़ारे। अगर मनुष्य ‘आधुनिक सभ्यता के इस लंबे-चौड़े तमाशे
के मोहजाल’ से ख़ुद को मुक्त कर ले और किसी भी रूप में अपने साथी मनुष्यों का
शोषण करना बंद कर दे तो व्यक्ति की अंतरात्मा सीधे-सीधे नैतिक नियम को ग्रहण कर
सकती है।
गांधीजी उन दिनों भारतीय गिरमिटियों के हक़
की लड़ाई लड़ रहे थे। उनके अधिकारों के दमन की बात अंग्रेज़ जनता और सरकार तक
पहुंचाने के लिए दो
सदस्यीय मिशन के सदस्य के रूप में लंदन गए थे। जाते समय जो सफलता की आशा थी वह
निराशा में बदल चुकी थी। इसी मानसिक अवस्था में ‘हिंद स्वराज’ ने
जन्म लिया। ‘हिंद स्वराज’ लिखने के पीछे उनका कोई एकांगी सोच नहीं था। सामान्य रूप
से वे एशिया का और विशेष रूप से पूरे भारत का हित उनके सामने था। लंदन से डरबन
वापसी की यात्रा में उन्होंने अपने विश्वासों को संवादों के रूप में लिखा। यह
संवाद एक प्रतिनिधि देशभक्त भारतीय युवक के साथ थे जिससे वे हाल ही में मिले थे और
जो मानता था कि ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए कोई भी उपाय उचित है। पाठक द्वारा पूछे गए प्रश्नों
के कई पक्ष हैं। सवालों को गांधीजी जन भावना से जोड़कर देखते हैं। जन उनके लिए
महत्वपूर्ण है। जन भावना जानना उनकी पहली प्राथमिकता थी।
13 नवंबर 1909 को गांधीजी की
वापसी का ‘एस.एस. किलडोनन कैसल’ (S.S.
Kildonan Castle) नामक पानी का जहाज लंदन से चला। गांधीजी जब भी
जहाज से यात्रा करते थे, उन्हें काम करना पसंद
था। यात्रा के दौरान उनका मुख्य काम अपने साथियों के साथ उच्चस्तरीय बातचीत करना, पढ़ना, लिखना और
धर्मग्रंथों पर विचार करना था। जहाज के अफ़्रीका
पहुंचने से पहले उन्होंने 30,000 शब्दों की ‘हिन्द स्वराज्य’ (Indian Home Rule) पुस्तक 13 से 22 नवम्बर की अवधि में एक तीव्र बौद्धिक प्रेरणा के वातावरण में हाथ से
लिखी थी। उन्होंने बहुत तेज़ी से लिखा, कलम इतनी तेज़ी
से पन्नों पर दौड़ती रही कि दाहिना हाथ थक गया और लगभग पचास पन्ने बाएं हाथ से
लिखे, मतलब जब उनका एक हाथ थक जाता था तो दूसरे
हाथ से लिखने लगते थे। पन्ने-दर-पन्ने वे लिखते और हाथ तभी रुका जब इसके 271 पृष्ठ (जहाज के नोटपैड के) लिखे जा चुके थे। हालांकि जब यह पुस्तक छपी तो इसके सिर्फ़ साठ पन्ने
ही हुए।
‘हिंद स्वराज’ में गांधीजी में व्याप्त सांस्कृतिक आत्मविश्वास का
स्वर मुखर रूप से प्रकट हुआ है। उनके आत्मविश्वास का स्रोत भारत के निरक्षर किंतु
संस्कारी कोटि-कोटि जन हैं। इस पुस्तक में प्रकट विचार एक आक्रांत सभ्यता द्वारा
आक्रामक सभ्यता को दिया गया प्रत्युत्तर है। इस पुस्तक पर रस्किन और टॉल्सटॉय के
विचारों की स्पष्ट छाप है। इस पुस्तक को पश्चिम के सुझाए हुए ‘बम-पिस्तौल’
के रास्ते पर चलकर मातृभूमि को स्वतंत्र करने के इच्छुक भारतीय क्रांतिकारियों की
‘हिंसा नीति’ के जवाब में गांधीजी का सारगर्भित राजनैतिक घोषणा-पत्र माना जा सकता
है। गांधीजी
अपने देशवासियों में फैल रही हिंसावादी प्रवृत्तियों से परेशान थे। गांधीजी का प्रमुख सरोकार युवक देशभक्तों को इस धारणा से छुटकारा
दिलाना था कि भारत की आज़ादी देश के किसी भी प्रकार और किसी भी साधन से ब्रिटिश
शासकों को भगाने में निहित है। उनका कहना था कि सच्ची देशभक्ति का अर्थ यह कामना
करना नहीं है कि शासन की बागडोर हमारे हाथों में हो,
बल्कि समाज के लिए काम करना है ताकि करोड़ों लोग स्वशासन
प्राप्त कर सकें। हिंद स्वराज "घृणा के स्थान पर प्रेम का उपदेश देता है। यह
हिंसा की जगह आत्मबलिदान लाता है। यह आत्मबल को पाशविक बल के विरुद्ध खड़ा करता
है।"
आज से एक सौ से भी अधिक वर्ष
पहले लिखी गई यह पुस्तक आज भी उतनी ही उपयोगी और मार्गदर्शक है, जितनी उन दिनों थी। हिंसक साधनों में
विश्वास रखने वाले कुछ भारतीय के साथ जो चर्चाएं हुई थी उसी को आधार बनाकर उन्होंने
यह पुस्तक मूलरूप से गुजराती में लिखी थी। 12 और 20 दिसंबर 1909 में ‘इंडियन
ओपिनियन’ के दो अंकों में “हिंद स्वराज्य” शीर्षक से गुजराती में यह प्रकाशित हुआ। जनवरी 1910 में इसका पुस्तकाकार रूप प्रकाशित
हुआ। मार्च 1910 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने उसे ज़ब्त कर लिया। 24 मार्च 1910
के बॉम्बे सरकार के राजपत्र में अधिसूचित किया गया कि हिंद स्वराज, यूनिवर्सल डॉन, मुस्तफा कमाल पाशा का
भाषण, और सुकरात की रक्षा या
एक सच्चे योद्धा की कहानी - अंतर्राष्ट्रीय प्रिंटिंग प्रेस, फीनिक्स के सभी प्रकाशन - महामहिम को इस कारण से जब्त कर लिए गए हैं
कि उनमें "राजद्रोहपूर्ण घोषित सामग्री है।"
तब गांधीजी ने सोचा कि ‘हिंद
स्वराज’ में मैंने जो कुछ लिखा है, उसे अपने अंग्रेज़ी जानने वाले मित्रों के सामने रखना चाहिए। उन्होंने
स्वयं इसका अंग्रेजी अनुवाद किया और छपाया। उसे भी मुम्बई सरकार ने आपत्तिजनक
माना। दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद 1921 में जब सत्याग्रह का पहला अवसर गांधीजी को मिला, तब उन्होंने बिना किसी बदलाव के इस किताब को मुम्बई सरकार के हुक्म के ख़िलाफ़ फिर से छपवाकर प्रकाशित
की। इसका हिंदी में अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी द्वारा अनुवाद हुआ। बाद में स्वराज्य
– स्वराज में बदल गया। 1938 में एक और संस्करण की प्रस्तावना में उन्होंने कहा, 'मैंने इसमें विस्तारित विचारों को बदलने के लिए कुछ भी नहीं देखा है।' इसलिए, छिहत्तर पृष्ठों का यह
पैम्फलेट उनका सामाजिक सिद्धांत है।
हिंद स्वराज बीस अध्यायों में विभाजित है, जो स्वराज, सभ्यता, वकील, डॉक्टर, मशीनरी, शिक्षा, निष्क्रिय प्रतिरोध आदि से संबंधित हैं। यह व्यावहारिक प्रश्नों को
मौलिक तरीके से संबोधित करता है। उन्होंने कहा, "हालांकि हिंद स्वराज में
व्यक्त किए गए विचार मेरे भी हैं, लेकिन मैंने भारतीय दर्शन के आचार्यों के अलावा टॉल्सटॉय, रस्किन, थोरो, इमर्सन और अन्य
लेखकों का भी अनुसरण करने का विनम्र प्रयास किया है। टॉल्सटॉय कई वर्षों तक मेरे
शिक्षकों में से एक रहे हैं।"
हिन्द
स्वराज अभी जारी है ...
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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