रविवार, 8 दिसंबर 2024

173. दगाबाज़ी का प्रतिकार

 गांधी और गांधीवाद

 173. दगाबाज़ी का प्रतिकार

 


हमीदिया मस्जिद में हुई सभा का दुर्लभ चित्र

1908

प्रवेश

सत्याग्रह की पहली लड़ाई में भारतीयों की हार हुई थी। उन्होंने कुत्ते के गले का पट्टा (ख़ूनी क़ानून) राज़ी-ख़ुशी से अपने गले में धारण कर लिया था। जिस क़ानून को रद्द कराने के लिए वे लड़े थे, वह बरकरार था। समझौते की शर्तों के अनुसार भारतीयों ने तो अपना वादा निभाया और अंगुलियों के निशान देकर परवाने निकलवाए, लेकिन दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने अपना वादा नहीं निभाया। जनरल स्मट्स धूर्त था, उसके इरादे भी नेक नहीं थे। उसने क़ानून रद्द नहीं किया। इसी बीच सरकार ने एक और क़ानून बनाया, जिसका मकसद प्रवासी भारतीयों को क्षेत्र विशेष तक प्रतिबंधित रखना था। यह स्पष्ट था कि सरकार और भी अधिक प्रतिबंधात्मक उपाय लागू करने पर अड़ी हुई थी और भारतीय उन्हें रोकने में असमर्थ थे। भारतीयों का गुस्सा भड़क रहा था। 12 जून को 1908 को भारतीय समाज ने एकमत से निर्णय लिया कि इस दगाबाज़ी का प्रतिकार किया जाएगा। हर जगह लोग संघर्ष को फिर से शुरू करने और जेल जाने के लिए तैयार थे।

गांधीजी स्मट्स चर्चा

22 जून, 1908 को गांधीजी और स्मट्स के बीच एक महत्वपूर्ण चर्चा हुई। जनरल स्मट्स ने कहा कि सरकार एशियाई पंजीकरण अधिनियम को निरस्त करने का इरादा रखती है, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। सरकार द्वारा प्रस्तावित आव्रजन प्रतिबंध अधिनियम में संशोधन का मसौदा गांधीजी को दिखाया गया। इसमें बोअर-युद्ध शरणार्थियों और पुराने पंजीकरण प्रमाणपत्रों और परमिट के धारकों के लिए हानिकारक प्रावधान थे, जो भारत या अन्य जगहों पर ट्रांसवाल लौटने के लिए इंतजार कर रहे थे और साथ ही भविष्य में सुशिक्षित अप्रवासियों के लिए भी। गांधीजी चाहते थे कि ये खामियाँ दूर की जाएँ, जिसे जनरल स्मट्स करने के लिए तैयार नहीं था। उसने स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए आवेदन के विरुद्ध परमिट न दिए जाने की स्थिति में न्यायिक प्राधिकरण में अपील के प्रावधान के बारे में गांधीजी के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था। अपनी शर्तों पर समझौता करने में विफल होने के बाद, स्मट्स ने एशियाई पंजीकरण अधिनियम को बनाए रखने और स्वैच्छिक पंजीकरण को वैध बनाने के लिए उचित कदम उठाने के अपने निर्णय की पुष्टि की। दोनों के बीच बातचीत अचानक समाप्त हो गई।

जोहान्सबर्ग में आम सभा

स्थिति से निपटने के लिए गांधीजी ने दो तकनीकें विकसित कीं। शिक्षित भारतीयों को बिना लाइसेंस वाले फेरीवालों के रूप में गिरफ्तार करने के लिए सड़कों पर भेजा जाना और स्वेच्छा से निकाले गए पंजीकरण कार्डों को पूरी तरह से जला देना। अधिकांश भारतीय व्यापारी इस विश्वास के साथ अहिंसक प्रतिरोध की ओर आकर्षित हुए थे कि यह उनके भौतिक हितों की रक्षा का सबसे अच्छा साधन होगा। व्यापारी वर्ग में कुछ नुकसान सहने की ताकत थी, लेकिन उससे उबरने के लिए पर्याप्त जुनून नहीं था। दूसरी ओर, गरीब फेरीवालों के पास इसे सहने की अधिक इच्छाशक्ति थी, लेकिन अपेक्षित धीरज नहीं था। उनकी समस्या यह थी: जब उन्हें जेल भेज दिया गया, तो उनके परिवारों की देखभाल कौन करेगा? आंदोलन में निहित इन कमज़ोरियों के लिए कोई सरल उपाय नहीं था। 22 जून, 1908 को जो हुआ, (गाँधी-स्मट्स वार्ता का विफल होना) उसने मामले को चरम पर पहुंचा दिया।

24 जून 1908 को जोहान्सबर्ग में एक आम सभा की गई जिसमें यह घोषणा की गई कि अपनी मर्ज़ी से परवाना लेने के लिए भारतीयों ने जो आवेदन दिया थासभी आवेदन वापस ले लिए जाएंगे। सरकार ने उन्हें लौटाने से इंकार कर दिया। इस सभा में यह भी तय किया गया कि ट्रांसवाल की सरहद में घुसकर क़ानून भंग किया जाएगा। जब गांधीजी ने लोगों के सामने एक नए आंदोलन की बात रखी तो सब लोगों को एक बार फिर जोश आ गया और वे इकट्ठा होने लगे। गांधीजी ने इंडियन ओपिनियन में आलेख लिख कर घोषणा की कि सत्याग्रह उनके स्वार्थ की लड़ाई नहीं है, बल्कि भारतीय मूल के लोगों के अधिकार की लड़ाई है। यह भी घोषणा की गई कि यदि स्वेच्छा से आवेदन नहीं लौटाया जा सकता है, तो सर्टिफ़िकेट को जलाया जाएगा और इसे सत्याग्रह का एक कार्यक्रम माना जाएगा।

सत्याग्रह आंदोलन को तेज़ किया गया

इब्राहिम इस्माइल, इस्सोप इस्माइल मिया और गांधीजी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जिसमें एशियाटिक्स के रजिस्ट्रार को पंजीकरण के लिए उनके आवेदन वापस करने का आदेश देने का अनुरोध किया गया क्योंकि सरकार ने एशियाई पंजीकरण अधिनियम को निरस्त करने के बारे में कोई आश्वासन देने से इनकार कर दिया था, जैसा कि औपनिवेशिक सचिव ने 30 जनवरी, 1908 को गांधीजी के साथ अपने साक्षात्कार में वादा किया था। लेकिन जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एशियाई लोगों को स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए आवेदन वापस लेने का कोई अधिकार नहीं है। यह फैसला इस तर्क पर आधारित था कि आवेदन एक तरह का पत्र है जो कानून के तहत उस पक्ष का होना चाहिए जिसे वह संबोधित किया गया है। अगर कोई अपना आवेदन वापस लेना चाहता था तो उसे पंजीकरण प्रमाणपत्र स्वीकार नहीं करना था। गांधीजी ने पत्र लिख कर स्मट्स से मांग की कि उनके पत्राचार को सार्वजनिक किया जाए ताकि उसका प्रकाशन किया जा सके। पर स्मट्स ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। जुलाई को द ट्रांसवाल लीडर को पत्र लिखकर पादरी डोक ने कहा कि भारतीयों का अभियान न्यायोचित है। सत्याग्रहियों को अब अपना आंदोलन तेज़ करना था। जुलाई  हमीदिया मस्जिद में हुई सभा में यह निर्णय लिया गया कि अगले रविवार को सर्टिफ़िकेट की होली जलाई जाएगी।

अलबर्ट कार्टराइट की मध्यस्थता

सरकार को लग रहा था कि एक और संकट खड़ा हो सकता है। कार्टराइट और होस्केन जैसे लोग इसे किसी तरह टालना चाहते थे। उनके समझाने-बुझाने की बदौलत स्मट्स 3 पाउंड के पुराने पंजीकरण प्रमाणपत्र धारकों और अन्य वास्तविक निवासियों को प्रवेश का अधिकार देने के लिए तैयार हो गया, जो युद्ध के बाद ट्रांसवाल छोड़कर चले गए थे और अभी तक कॉलोनी में वापस नहीं आए थे। वह मोंटफोर्ड चैमनी के फैसलों के खिलाफ अपील स्वीकार करने के लिए भी सहमत था। लेकिन उसने फिर भी भविष्य में शिक्षित भारतीयों को कॉलोनी में आने से रोकने पर जोर दिया। यह शर्त भारतीयों को स्वीकार्य नहीं थी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए गोरों की सरकार ने मध्यस्थता के लिए अलबर्ट कार्टराइट को भेजा। कार्टराइट ने गांधीजी से परवानों की होली जलाने के कार्यक्रम को कुछ दिनों के लिए स्थगित करने की पेशकश की। भारतीयों ने इस प्रस्ताव को मान लिया।

बिना लाइसेंस के फेरीवालों के रूप में सत्याग्रह

जुलाई  एशियाई विभाग के रजिस्ट्रार ने आदेश ज़ारी किया कि व्यापारियों द्वारा लाइसेंस की अर्ज़ी पर अंगूठे के निशान लिए जाएं। गांधीजी ने कहा कि स्वेच्छा से आवेदन करने वालों को भी TARA के अधीन लाया जा रहा है, यह उचित नहीं है। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष ने अंगूठे के निशान को समझौते की शर्तों का उल्लघंन माना। गांधीजी ने अपने देशवासियों से सार्वजनिक रूप से अपील की कि वे अपने पंजीकरण प्रमाण-पत्र जला दें। लेकिन यह चरम कदम उठाने से पहले यह तय किया गया कि समझौते के लिए दरवाज़ा खुला रखा जाए और साथ ही सरकार को भारतीयों की भावना की तीव्रता से अवगत कराया जाए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारतीय नेताओं ने बिना लाइसेंस के फेरीवालों के रूप में व्यापार करना शुरू कर दिया। सत्याग्रह को अब आव्रजन अधिनियम को भी शामिल करने के लिए बनाया गया था।

गांधीजी के एक पारसी मित्र और नटाल के चार्ल्सटाउन निवासी सोराबजी शापुरजी को निष्क्रिय प्रतिरोध करने के लिए चुना गया था। उन्होंने ट्रांसवाल में प्रवेश किया। सोराबजी जोहान्सबर्ग गए और पुलिस अधीक्षक को अपने आगमन की सूचना दी। दस दिन बाद उन्हें 8 जुलाई को अदालत में पेश होने के लिए समन मिला। गांधी ने सोराबजी का बचाव किया। अदालत ने सोराबजी को बरी कर दिया, हालांकि, उन्हें तुरंत 10 जुलाई को अदालत में पेश होने के लिए कहा गया। मजिस्ट्रेट ने सोराबजी को सात दिनों के भीतर ट्रांसवाल छोड़ने का आदेश दिया, लेकिन सोराबजी ने यह कहते हुए आदेश मानने से इनकार कर दिया कि उनका इरादा छोड़ने का नहीं है। 20 जुलाई को मजिस्ट्रेट ने उन्हें एक महीने की सश्रम कारावास की सजा सुनाई। सोराबजी की कैद आने वाले महीनों में क्या होने वाला है, इसका एक प्रारंभिक संकेत था।

एक अन्य मामले में रतनजी लालू जो अपने चाचा के साथ ट्रांसवाल आए थे, उन पर TARA के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। प्रतिबंधित आप्रवासी के नाबालिग बेटे होने के कारण, यूरोपीय भाषा में लिखने में असमर्थ और खुद का भरण-पोषण करने के लिए अपर्याप्त साधन होने के कारण, उनका मामला कमजोर था, और फिर भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया। जब उनकी सजा बरकरार रखी गई, तब भी पीठासीन न्यायाधीश सर विलियम सोलोमन ने जिस तरह से मामले को देखा, उससे यह स्पष्ट हो गया कि अगर लड़का शिक्षा परीक्षण को पूरा करने में सक्षम होता, यह मानते हुए कि उसके पास खुद का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, तो उसे देश में प्रवेश करने से नहीं रोका जाता। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश भारतीय विवाद को बरकरार रखा गया था।

TARA क़ानून का विरोध करने के लिए अनेक भारतीय नटाल से ट्रांसवाल चले आए। इन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। ट्रांसवाल के तमाम भारतीयों ने भी इन आंदोलनकारियों का साथ दिया। कुछ लोग बिना लाइसेंस के खोमचे लगाने लगे। जिन व्यापारियों के पास लाइसेंस थे भी, उन्होंने इसे दिखाने से इंकार कर दिया। इन लोगों को भी जेल भेज दिया गया। 16 जुलाई, 1908 को घोषणा की कि अगर जोहान्सबर्ग के लोग फलों और सब्जियों की टोकरियों के साथ अजीब भारतीय चेहरे देखें, तो उन्हें समझ जाना चाहिए कि वे अन्याय के खिलाफ़ विरोध के तौर पर बिना लाइसेंस के फेरीवाले बन गए हैं।

गांधी द्वारा पहली हड़ताल

21 जुलाई को गांधीजी ने जनरल स्मट्स से शिकायत की कि निष्क्रिय प्रतिरोधियों के कई लोग जेल में बंद हैं, जबकि वह खुद, उनके कृत्यों के मुख्य प्रेरक, अभी भी खुलेआम घूम रहे हैं। उन्होंने पूछा, "क्या मुझे अकेला छोड़ना और गरीब भारतीयों को परेशान करना साहस की बात है?" जेल में बंद फेरीवालों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए 23 जुलाई को ट्रांसवाल में भारतीय व्यापार स्थगित कर दिया गया। यह गांधी द्वारा आयोजित पहली हड़ताल थी।

हरिलाल ने भी सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया

सत्याग्रहियों ने निश्चय किया कि विरोध स्वरूप वे बिना लाइसेंस के फेरी लगाएंगे। उन्होंने ऐसा करना शुरू कर दिया। 20 जुलाई को बिना लाइसेंस के फेरी लगाने के आरोप में इब्राहिम इस्माइल को जेल भेजा गया। कोर्ट में प्रवेश कर रहे भारतीयों पर पुलिस की मार झेलनी पड़ी। कोर्ट के बाहर गांधीजी ने लोगों से आह्वान किया कि विरोध स्वरूप वे ख़ुद को गिरफ़्तार करवाएं।

इस क़ानून का विरोध करने के लिए अनेक भारतीय नेटाल से ट्रांसवाल चले आए। इन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जिन व्यापारियों के पास लाइसेंस थे भीउन्होंने इसे दिखाने से इंकार कर दिया। इन लोगों को भी जेल भेज दिया गया। ट्रांसवाल के तमाम भारतीयों ने भी इन आंदोलनकारियों का साथ दिया। कुछ लोग बिना लाइसेंस के खोमचे लगाने लगे। गिरफ़्तारियां शुरू हो गईं और जेलें भरने लगीं। 

हरिलाल भी आंदोलन में भाग लेने के लिए उत्सुक थे। उनके सत्याग्रह से जुड़ने की बात जानकर गांधीजी को काफ़ी ख़ुशी हुई। गांधीजी इस विषय को उनकी शिक्षा का अंग समझते थे। 24 जुलाई 1908 को हरिलाल ने नेटाल से ट्रांसवाल में प्रवेश करके परवाने के बिना फेरी लगानी शुरू की। ट्रांसवाल और नेटाल की सरहद पर आए हुए ट्रांसवाल के वोक्सरस्ट गांव में 27 जुलाई को हरिलाल को बिना लाइसेंस के चीज़ें बेचने के अपराध में गिरफ़्तार किया गया। हरिलाल गांधी बिना लाइसेंस वाले फेरीवालों के रूप में गिरफ्तार होने वाले पहले लोगों में से थे। उनपर  मुकदमा चला। गांधीजी बचाव पक्ष की तरफ़ से कोर्ट में हाज़िर रहे और न्यायाधीश से उन्होंने अनुरोध कियाये आरोपी ख़ुद चाहते हैं कि आप उन्हें कड़ी से कड़ी सज़ा दें। यदि कम समय की सज़ा उनको दी जाएगी तो वे जल्दी छूट जाएंगे। और फिर ये सरकार के विरुद्ध काम करेंगे। उसको फिर से गिरफ़्तार करना होगा। फिर से उन्हें यहां लाना होगा। यदि आप लंबी सज़ा करेंगे तो सब का समय बचेगा।

मजिस्ट्रेट ने कुछ नहीं माना। हरिलाल को एक पौंड का दंड दिया गया, और इसे न देने की स्थिति में उन्हें सात दिनों की जेल की कड़ी क़ैद की सज़ा हुई। हरिलाल ने क़ैद स्वीकार की! बीस वर्ष की छोटी उम्र में हरिलाल पहली बार जेल गए। बापू जब उनसे मिलने जेल पहुंचे, तो उन्हें नहीं मिलने दिया गया। हरिलाल ने जेल की यातनाओं को बड़े साहस के साथ झेला।

हरिलाल गांधी अब बीस साल के हो चुके थे और कुछ समय से फीनिक्स में रह रहे थे। हरिलाल ने खुद को सरकार के खिलाफ संघर्ष में झोंक दिया। उन्होंने लगभग एक साल जेल में बिताया। कभी-कभी जेल की अवधि कम होती थी। उदाहरण के लिए, जुलाई 1908 में, उन्हें बिना लाइसेंस के सार्वजनिक रूप से फल बेचने के लिए सात दिनों की कठोर श्रम की सजा सुनाई गई थी। अदालत में उनका प्रतिनिधित्व उनके पिता ने किया, जिन्होंने कोई बचाव नहीं किया, केवल मजिस्ट्रेट से कड़ी सजा देने के लिए कहा, और अगर हल्की सजा सुनाई गई, तो उन्होंने वादा किया कि उनका बेटा तुरंत अपराध दोहराएगा। हरिलाल को हल्की सजा मिली, और जैसे ही वह जेल से बाहर आया, उसने तुरंत अपने पिता के आदेश पर अपराध दोहराया और उसे ट्रांसवाल से निर्वासित करने की सजा सुनाई गई। गांधीजी की नज़र में हरिलाल अब अपने क्रांतिकारी भाग्य की उचित समझ के साथ व्यवहार कर रहा था। उसका काम था गिरफ़्तारी देना, दक्षिण अफ़्रीका में ब्रिटिश भारतीयों की सेवा में एक आंदोलनकारी बनना और अपने निजी जीवन को अपने काम में कभी बाधा न बनने देना। कई लोगों ने गांधी द्वारा अपने बेटे का इस्तेमाल करने पर कड़ी आपत्ति जताई थी। एक पिता का अदालत में खड़ा होना और मजिस्ट्रेट से अपने बेटे को अधिकतम सज़ा देने के लिए कहना अजीब तरह से निर्दयी था। अगस्त को हरिलाल जेल से छूटे। उन्हें सात दिनों के भीतर ट्रांसवाल छोड़ देने की हुक्म दिया गया। उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया गया। 10 अगस्त  को उन्हें फिर से गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें एक महीने की सश्रम सज़ा हुई।

लगभग सौ भारतीयों को गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया, जुर्माना लगाया गया और जुर्माना न देने पर उन्हें जेल में डाल दिया गया।

उपसंहार

गांधीजी कहा करते थे कि दक्षिण अफ्रीका में उनके सभी कार्य राजनीतिक घटनाओं के तर्क से निकले थे। मीर आलम द्वारा उन पर हमला किए जाने के बाद, वे अपनी मांगों में और अधिक अडिग हो गए और भाषण में और अधिक तीखे हो गए। वह भारतीयों के बीच अपनी लोकप्रियता बढ़ा रहे थे, और साथ ही साथ अपनी खुद की चोटों और असफलताओं की भरपाई भी कर रहे थे।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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