गांधी और गांधीवाद
179. बा और बापू की
दृढ़ता
बीमारी
के ठीक बाद की दुर्लभ तस्वीर, बापू के साथ बा
1909
बा के बारे
में गांधीजी लिखते हैं, “… उनमें एक गुण बहुत बड़े परिमाण में है, जो दूसरी कितनी ही हिन्दू-स्त्रियों में थोड़ी-बहुत मात्रा में पाया जाता है। मन से हो या बेमन से, जान में हो या अनजान में, मेरे पीछे-पीछे चलने में
उन्होंने अपने जीवन की सार्थकता मानी है और स्वच्छ जीवन बिताने के मेरे प्रयत्न
में उन्होंने कभी बाधा नहीं डाली।”
1909 के आरंभिक महीनों में बा काफ़ी बीमार रहीं। वह उस समय लगभग चालीस वर्ष की थी और लंबे समय से बीमार
चल रही थी। वह ख़ून की भयानक कमी के कारण घातक रूप से बीमार थीं। मासिक रक्त-स्राव अनियमित था। ऑपरेशन का भी कोई
खास असर नहीं हुआ। पति
और पुत्र के बार-बार जेल जाने के
कारण उनकी चिन्ताएं भी बढ़ती गईं। पति के लिए सत्याग्रह अभियान
सर्वोपरि थी, और बा उसमें रुकावट नहीं बनना चाहती थीं। गांधीजी उन दिनों जोहानिसबर्ग में थे। गांधीजी को समाचार मिला कि बा का शरीर ज़रा भी सुधर नहीं रहा है। बिस्तर से
उठने-बैठने की भी ताकत उनमें नहीं रही है। चक्कर आने लगे। एक बार वो बेहोश भी हो
गई थीं। 4 फरवरी को बा का उपचार कर रहे डॉक्टर नानजी ने गांधीजी को जोहानिस्बर्ग फोन किया, “आपकी पत्नी की स्थिति गंभीर
है। उन्हें मांस का शोरबा या ‘बीफ़ टी’ देने की ज़रूरत मुझे मालूम होती है। मुझे
इसकी इज़ाजत मिलनी चाहिए।”
गांधीजी ने जवाब दिया, “मैं इज़ाजत नहीं दे सकता। लेकिन कस्तूरबाई इस मामले में स्वतंत्र
हैं। उनसे पूछने जैसी हालत हो तो पूछ लीजिए और वह शोरबा लेना चाहे तो बिना
हिचकिचाहट दे दीजिए।”
डॉक्टर बोला, “बीमार से ऐसी बातें पूछना मुझे पसंद नहीं। इसलिए आपका यहां आना
ज़रूरी है। अगर आप ये चीज़ें बीमार को खिलाने की इज़ाजत मुझे न दें, तो मैं आपकी पत्नी के लिए जिम्मेदार नहीं रहूंगा!”
गांधीजी इतने घबरा गए कि उन्होंने डरबन के लिए
पहली ट्रेन पकड़ी और डॉक्टर से मिले, जिन्होंने
उन्हें शांति से बताया कि उन्होंने उन्हें पहले ही बीफ टी दे दी है।
गो मांस प्रकरण
इस बार कस्तूरबा इतना अधिक बीमार पड़ गई थीं कि डॉक्टर ने उन्हें
गोमांस का सूप पिला दिया था। डॉक्टर ने उन्हें सुनाया, “मैंने तो बीमार को शोरबा पिलाकर ही आपको टेलीफोन किया था।”
हालांकि गांधीजी बा के गिरते जा रहे स्वास्थ्य को लेकर काफ़ी चिंतित थे, लेकिन गोमांस का सूप दिया जाना उन्हें गंवारा नहीं था। उन्होंने बड़े दुख से कहा, “डॉक्टर, मैं इसे धोखा मानता हूं।” दोनों के बीच तीखी नोकझोंक हुई।
डॉक्टर ने कहा, “बीमार का इलाज करते समय मैं धोखा-वोखा कुछ नहीं समझता। हम डॉक्टर लोग
ऐसे समय बीमार को या उसके सगे-संबंधियों को धोखा देने में पुण्य मानते हैं। हमारा
कर्तव्य तो किसी भी उपाय से बीमार को बचाना है, इसलिए रोगी को बचाने में हम
यह नहीं देखते कि वह शाकाहारी है या मांसाहारी।”
हालांकि वे समझ रहे थे कि डॉक्टर अपनी जगह ठीक है, फिर भी यह सुनकर गांधीजी बहुत दुखी हुए। लेकिन परिस्थिति
देखकर वे शांत रहे। एक तो डॉक्टर पति-पत्नी उनके मित्र थे, और बड़े ही सज्जन लोग थे, दूसरे दोनों ने मिलकर बा की
बहुत सेवा की थी। फिर भी डॉक्टर की यह सलाह वे मानने को तैयार नहीं थे। वे बोले, “डॉक्टर, आप साफ-साफ बातें कीजिए। आप क्या करना चाहते हैं? मैं अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना मांस नहीं खिलाने दूंगा। मांस
न खाने से उनकी मृत्यु भी हो जाए,
तो मैं सहन कर लूंगा।”
डॉक्टर ने कहा, “आपकी यह फिलासफी मेरे पास नहीं चलेगी। मैं आपसे कहता हूं कि आप जब तक
अपनी पत्नी को मेरे घर में रहने देंगे, तब तक मैं उसे मांस या दूसरी
ज़रूरी चीज़ें अवश्य खिलाऊंगा। अगर आप मुझे ऐसा न करने देंगे, तो आप अपनी पत्नी को यहां से ले जाइए। अपने ही घर में जान-बूझ कर
उनकी मृत्यु नहीं होने दूंगा।”
गांधीजी ने कहा, “तब आप यह कहते हैं कि मुझे इसी समय अपनी पत्नी को ले जाना चाहिए?”
डॉक्टर ने जवाब दिया, “मैं कब कहता हूं कि उन्हें ले
जाइए? मैं तो यह कहता हूं कि आप मुझ पर कोई प्रतिबंध न लगाएं। हमसे जितनी
हो सकेगी हम दोनों (पति-पत्नी) उतनी सेवा-सुश्रूषा करेंगे। फिर आप निश्चिन्त होकर
जा सकेंगे। अगर आप इतनी सीधी बात भी नहीं समझ सकते तो मुझे लाचार होकर कहना पड़ेगा कि आप अपनी पत्नी को मेरे घर से ले
जाइए।”
बा का दृढ़ निश्चय
गांधीजी के पुत्र मणिलाल भी उस समय साथ में थे। गांधीजी ने उनसे बात कि तो वे बोले, “आपकी बात मुझे स्वीकार है। बा
को मांस तो किसी भी हालत में नहीं खिलाया जा सकता।” इसके बाद गांधीजी मणिलाल के साथ बा के पास गए और उन्होंने वस्तुस्थिति से कस्तूरबा को अवगत कराया और निर्णय लेने का अधिकार
उन्हें ही सौंप दिया। बा ने उस तरह के आहार लेने से साफ़ मना कर दिया। बोलीं, “मुझे मांस का शोरबा नहीं पीना है। मनुष्य का शरीर बार-बार नहीं
मिलता। भले ही मैं आपकी गोद में मर जाऊं, लेकिन मैं इस शरीर को कभी
भ्रष्ट नहीं होने दूंगी।” वह एक सरल, सांसारिक महिला थी। उन्हें जो सिखाया गया था, उन्होंने उसका पालन किया। लेकिन अगर जरूरत पड़ी तो वह इसके
लिए मरने के लिए भी तैयार थी।
गांधीजी ने बा को समझाया,
“तू मेरे विचारों के अनुसार चलने के लिए बंधी हुई नहीं है।
मैं ऐसे कुछ हिंदुओं को जानता हूं, जो दवा के रूप में मांस और
शराब का सेवन करते हैं।” लेकिन बा टस से मस नहीं हुईं। उन्होंने गांधीजी से कहा, “आप मुझे यहां से ले जाइए।”
गांधीजी ने बा का निश्चय डॉक्टर को सुनाया। डॉक्टर ने जब यह
सुना तो उसने उपचार करने से यह कहते हुए मना कर दिया, “आप तो बड़े कठोर पति मालूम पड़ते हैं! ऐसी बीमारी में उस बेचारी से
यह बात करने में आपको शरम भी नहीं आई? मैं आपसे कहता हूं कि आपकी
पत्नी यहां से ले जाने लायक नहीं हैं। उनका शरीर ज़रा-सा भी धक्का सहन नहीं कर
सकता। रास्ते में ही उनके प्राण निकल जाएं तो मुझे अचरज नहीं होगा। फिर भी अगर आप
हठ से मेरी बात न मानें, और अगर पेशेंट मेरे द्वारा सुझाए गए आहार ग्रहण नहीं करना चाहती है, तो इनका उपचार मैं नहीं कर सकता। आपके जो मन में आए वह करें। मैं एक
रात भी अपने घर में रखने की जिम्मेदारी नहीं लूंगा।” गांधीजी ने कहा, अगर जरूरत पड़ी तो यह उसे तय करना है कि उसे कैसे मरना है
और किस लिए।
उस समय वर्षा हो रही थी। स्टेशन वहां से दूर था। डरबन से फिनिक्स का
रास्ता रेल से तय करना था। उसके बाद फीनिक्स स्टेशन से आश्रम तक का ढाई मील का
रास्ता पैदल। बा को ले जाने में खतरा बहुत अधिक था। लेकिन गांधीजी को ईश्वर में पूरी श्रद्धा थी। उन्हें विश्वास था कि ईश्वर उनकी मदद
ज़रूर करेगा। गांधीजी ने एक आदमी को पहले ही फीनिक्स आश्रम भेज दिया
और उसे हैमक (जालीदार कपड़े का पालना, जिसके चारों ओर बांस बंधे
रहते हैं और जिसमें बीमार व्यक्ति आराम से झूलता रह सकता है), एक बोतल गरम दूध,
एक बोतल गरम पानी और छह आदमियों को साथ लेकर फीनिक्स
स्टेशन पर रहने के लिए कह दिया था।
गांधीजी ने रिक्शा मंगाया। उसमें कृशकाय बा को बिठाया और स्टेशन के लिए
रवाना हुए। गांधीजी क्या बा की हिम्मत बंधाते, बा ने ही उनकी हिम्मत बंधाते
हुए कहा, “मुझे कुछ नहीं होगा। आप चिंता न करें’।”
बा का शरीर इतना क्षीण हो चुका था कि वजन काफ़ी कम हो चुका था। वह चमड़ी और हड्डियों का एक छोटा-सा बंडल थी, लगभग मर चुकी थी। ट्रेन के डिब्बे तक गांधीजी बा को उठाकर ले गए। इस तरह गांधीजी बा को डरबन से फीनिक्स ले आए। फीनिक्स स्टेशन पर हैमक आ चुकी थी।
उसमें बा को आराम से आश्रम तक ले जाया गया। आश्रम में गांधीजी ने बा पर अपनी जल-चिकित्सा आरंभ कर दी। इस उपचार का बा पर काफ़ी
अच्छा असर हुआ। गांधीजी ने यह सुनिश्चित किया कि वह 'केवल सादा गैर-उत्तेजक भोजन'
खाए।
गांधी ने कहीं पढ़ा था कि 'कमजोर शरीर वाले व्यक्तियों' के आहार से दाल को छोड़ देना चाहिए। गांधीजी ने बा को नमक और दालें छोड़ने की सलाह
दी, यह कहते हुए कि अगर इससे उन्हें मदद मिलेगी तो
वे भी उन्हें स्वेच्छा से छोड़ देंगे। कस्तूरबाई ने छोड़ने से इनकार कर दिया। वास्तव में,
उन्होंने
सभी पसंदीदा व्यंजन छोड़ दिए थे, मसालों को अस्वीकार कर दिया
था, फिर भी दाल एक कमजोरी बनी
रही जिसे वह जीत नहीं सकीं। गांधीजी ने विशेषज्ञों का हवाला दिया, लेकिन, बीमार होने के बावजूद, उन्होंने अपना मन नहीं बदला। बा जानती थी कि गांधीजी को मना नहीं किया जा
सकता। "आप बहुत जिद्दी हैं,"
उन्होंने कहा। "आप किसी की
नहीं सुनेंगे।" कस्तूरबाई को झटका लगा। उन्होंने गांधीजी से अपनी शपथ वापस
लेने की विनती की और नमक और दाल से परहेज करने का वादा किया। गांधीजी ने कहा वह
"गंभीरता से ली गई शपथ" से पीछे नहीं हटेंगे। उन्होंने कहा, "यह मेरे लिए एक परीक्षा होगी और आपके संकल्प को
पूरा करने में आपके लिए एक नैतिक समर्थन होगा।" उन्होंने नमक पर प्रतिबंध दस
साल तक जारी रखा, क्योंकि उनका मानना था कि यह शाकाहारियों के
लिए अनावश्यक है। यह कस्तूरबाई के साथ सत्याग्रह (सत्य-बल या प्रेम-बल) का
रहस्योद्घाटन था। गांधीजी ने बा को मजबूर नहीं किया,
उन्होंने
केवल आत्म-बलिदान के माध्यम से नैतिक दबाव का इस्तेमाल किया ताकि वह उसे वह करने
के लिए राजी कर सके जो वह चाहते थे और जानते थे कि सही है।
उन्होंने शुरू में उन्हें नींबू का रस पिलाया
और उन्हें किसी भी तरह का कोई दूसरा खाना या पेय नहीं दिया। फिर, धीरे-धीरे,
फल और दूध दिया जाने लगा और अंत में
मसाले रहित सब्जियाँ और अनाज दिया जाने लगा। और फिर कस्तूरबाई धीरे-धीरे स्वस्थ हो
गईं। उस समय घातक बीमारी से उनका ठीक होना लगभग चमत्कार जैसा था, क्योंकि इसे सबसे घातक बीमारियों में से एक माना जाता था।
डॉक्टरों ने उम्मीद छोड़ दी थी,
लेकिन गांधीजी ने उन्हें ठीक कर
दिया। बा ने दावा किया कि वह आहार के कारण ठीक नहीं हुई, बल्कि उनके 'एक-दूसरे के प्रति समर्पण' के कारण, सम्मान और प्रेम के कारण।
मृत्यु से उनके चमत्कारिक बचाव के बारे में
सुनकर, एक हिंदू स्वामी पवित्र श्लोकों का जाप करने और
उनके पूर्ण स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करने आए। उन्होंने कुछ समय तक पवित्र
व्यक्ति की बात श्रद्धापूर्वक सुनी। लेकिन जब उसने आपातकाल में गोमांस की चाय पीने
के हानि रहित होने पर प्रवचन देना शुरू किया, तो वह बीच में
ही बोल पड़ी: स्वामीजी आप जो भी कहें, मैं गोमांस के
रस के माध्यम से ठीक नहीं होना चाहती, इसलिए कृपया
मुझे और अधिक परेशान न करें। आप चाहें तो मेरे पति और बच्चों से इस बारे में चर्चा
कर सकते हैं। लेकिन मैंने अपना मन बना लिया है।'
बा की बीमारी ने गांधीजी और बा को आदर्श दंपती में बदल दिया।
पूरे दो महीने तक दिन रात एक करके गांधीजी ने समर्पित भाव से उनकी सेवा की। होशियार तीमारदारी, भोजन पर कड़े
नियंत्रण और जलीय चिकित्सा के द्वारा गांधीजी अपनी पत्नी का सामान्य स्वास्थ्य लाने
में क़ामयाब रहे। जिन डॉक्टरों ने बा के बचने की उम्मीद छोड़ दी थी, वे स्वस्थ बा को
देखकर दंग रह गए और गांधीजी की प्रशंसा करने लगे। जब वह अभी भी पूरी तरह से
स्वस्थ नहीं हुई थी, तब खबर आई कि जोहान्सबर्ग
में उनकी ज़रूरत है। वह कस्तूरबाई के साथ लगभग दो सप्ताह बाहर रहे थे। वह जल्दी से
काम पर वापस आ गए, सोन्या श्लेसिन उनका
इंतज़ार कर रही थी। ट्रांसवाल के लिए एक नया कानून प्रस्तावित था। इसे पारित नहीं
किया जाना चाहिए।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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