गांधी और गांधीवाद
1908
एशियाई अधिनियम के जवाब में गांधी के नेतृत्व में सत्याग्रह
शुरू किया गया और जनवरी 1908 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो महीने की जेल
की सजा सुनाई गई। अक्टूबर में उन्हें फिर से गिरफ्तार किया गया और दूसरी बार दो
महीने के लिए कठोर श्रम के साथ कारावास की सजा सुनाई गई। कस्तूरबा ने अपने पति के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए वही
सादा मकई का दलिया खाया जो उन्हें वोक्सरस्ट जेल में खिलाया जा रहा था। जब गांधीजी
को पता चला कि कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार हैं,
तो उन्होंने 9 नवंबर, 1908 को जेल से एक पत्र लिखा।
प्रिय कस्तूर,
आज मुझे मिस्टर वेस्ट का तार मिला है, जिसमें तुम्हारी बीमारी के बारे में लिखा है। यह मेरे दिल
को छू गया है। मैं बहुत दुखी हूँ, लेकिन मैं
तुम्हारी देखभाल करने के लिए वहाँ नहीं जा सकता। मैंने सत्याग्रह संघर्ष के लिए
अपना सब कुछ समर्पित कर दिया है। मेरा वहाँ आना संभव नहीं है। मैं तभी आ सकता हूँ, जब मैं जुर्माना भर दूँ, जो मुझे नहीं देना चाहिए। अगर तुम हिम्मत रखोगी और ज़रूरी पोषण लोगी, तो तुम ठीक हो जाओगी। लेकिन अगर मेरी बदकिस्मती से तुम मर
जाती हो,
तो मैं बस इतना ही कहूँगा कि
अगर तुम मेरे जीते-जी मुझसे अलग हो जाओ, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा। मैं तुमसे इतना प्यार करता हूँ कि अगर तुम मर
भी जाओगी,
तो भी तुम मेरे लिए जीवित
रहोगी। तुम्हारी आत्मा अमर है। मैं वही दोहराता हूँ, जो मैंने तुमसे बार-बार कहा है और तुम्हें भरोसा दिलाता हूँ कि अगर तुम अपनी
बीमारी के कारण मर भी जाती हो, तो मैं
दोबारा शादी नहीं करूँगा। मैंने तुमसे बार-बार कहा है कि तुम भगवान पर भरोसा रखते
हुए चुपचाप अपनी आखिरी साँस ले सकती हो। अगर तुम मर भी गए तो तुम्हारी वह मौत भी
सत्याग्रह के लिए एक बलिदान होगी। मेरा संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं है। यह धार्मिक
है और इसलिए बिल्कुल शुद्ध है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसमें कोई मरता है या
जीता है। मुझे उम्मीद है और उम्मीद है कि तुम भी ऐसा ही सोचोगे और दुखी नहीं होगे।
मैं तुमसे यही माँगता हूँ।
मोहनदास
सज़ा की अवधि पूरा हो जाने
के बाद, जेल से गांधीजी को 12 दिसम्बर को रिहाई मिली। जोहान्सबर्ग जाने के लिए जब वे
वॉल्करस्ट रेलवे स्टेशन पहुंचे,स्टेशन मास्टर ने उन्हें बधाई दी। गांधीजी ने स्टेशन मास्टर
को कहा, अभी उनके सामने पहले से
अधिक चुनौतियां हैं, और उसके लिए उन्होंने ख़ुद
को पूरी तरह से तैयार कर लिया है। 13 दिसम्बर 1908 को हमीदिया इस्लामिक सोसाइटी द्वारा जोहान्सबर्ग में उनका
बड़े ही गर्मजोशी से स्वागत किया गया। इन औपचारिकताओं के समाप्त होते ही वे फिर से
अपने रूटीन काम में लग गए। अब तक इन्हें हेनरी पोलाक ने इसे संभाल रखा था। इन
कामों को निबटाए हुए उन्हें दो सप्ताह लग। उसके बाद ही वे अपनी बीमार पत्नी को
देखने 26 दिसम्बर को डरबन जा सके।
गांधी के पहले जीवनीकार जोसेफ डोक ने कस्तूरबा को एक वीर पत्नी बताया। “श्रीमती गांधी एक सच्चे दिल वाली, वीर पत्नी रही हैं। मुसीबत के इन महीनों के दौरान, उन्होंने बहुत कष्ट झेले हैं। अपने पति की कैद में साथ न दे पाने की वजह से उन्हें बहुत दुख हुआ है, लेकिन उन्होंने तब तक उपवास किया और रोईं जब तक कि उनका स्वास्थ्य खराब नहीं हो गया।”
9 नवम्बर 1908 दक्षिण अफ़्रीका में
सत्याग्रह के दौरान गांधीजी फोक्स्टर जेल में थे। उस समय बा रक्तस्राव से पीड़ित
थी। उनकी हालत चिंताजनक थी। कस्तूरबा में किसी भी हद तक पीड़ा सहने की असाधारण क्षमता थी। बा की बार-बार रक्तस्राव
की शिकायत बहुत दिनों से शिकायत थी, लेकिन वह घरेलू इलाज करती रहीं। इससे उनकी तबियत बहुत
बिगड़ गई। बा को डरबन लाया गया था।
डरबन में गांधीजी का एक डॉक्टर मित्र था। उन्होंने बा का ऑपरेशन कराने की सलाह दी। बा हृदय से
कमजोर महिला थीं। गांधीजी को डर था कि वे क्लोरोफॉर्म सहन नहीं कर सकेंगी। इसलिए
क्लोरोफॉर्म सुंघाए बिना ही ऑपरेशन कराने की आवश्यकता महसूस की गई।
गांधीजी ने बा से कहा, “देखो, डॉक्टर की सलाह है कि ऑपरेशन करवाना होगा। तुम्हारा हृदय कमज़ोर है, इसलिए क्लोरोफॉर्म बिना सुंघाए ही ऑपरेशन करना होगा।”
बा ने पूछा, “ऑपरेशन के बिना कोई इलाज नहीं है क्या?”
गांधीजी ने समझाया, “देखो डॉक्टर मेरा मित्र है, ग़लत सलाह नहीं देगा।”
थोड़ी आनाकानी के बाद बा ने बिना किसी एनेस्थेसिया के ऑपरेशन कराना स्वीकार किया।
उनका
ऑपरेशन मामूली नहीं था। गर्भाशय की ‘स्क्रैपिंग’ करनी थी। 10 जनवरी 1909 को डॉ. नानजी ने कस्तूरबा का ऑपरेशन किया। ऑपरेशन के दौरान
बा ने जो सहन-शक्ति दिखाई वह अनोखी थी। बिना किसी एनेस्थेसिया के उन्होंने ऑपरेशन
करवाया। उन्हें असहनीय दर्द हो रहा
था, लगता था जान अब निकली, तब निकली। जैसे-तैसे
उन्होंने अपना ऑपरेशन कराया। इस बात की प्रशंसा करते हुए गांधीजी ने एक बार महादेवभाई
देसाई से कहा था,
“ऑपरेशन के समय मैं ऑपरेशन टेबल से थोड़ी दूर पर खड़ा था। मैं कांप रहा था। सर्जन का चाकू काम कर रहा था। गर्भाशय में औज़ार डालकर उसे चौड़ा कर के डॉक्टर चीरने लगे, तब तड़-तड़ की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। बा के चेहरे से साफ पता चल रहा था कि उन्हें कितनी पीड़ा हो रही है। लेकिन एक बार भी उनके मुंह से दर्द की चीख नहीं निकली। उसने उफ़ तक नहीं किया। मैं उससे कहता था, ‘देखना, हिम्मत न हारना।’ लेकिन मैं स्वयं कांप रहा था। मुझसे उसका दुख देखा नहीं जाता था।”
महादेवभाई बोल उठे, “यह तो सहन-शक्ति का चमत्कार ही कहा जाएगा।”
गांधीजी ने कहा, “बेशक! ऑपरेशन में समय भी काफ़ी लगा। दूसरा कोई होता तो चीखे-चिल्लाए बिना न रहता। लेकिन बा ने अनोखी सहन-शक्ति बताई।”
ऑपरेशन सफल हुआ। डॉक्टर ने दो-तीन दिनों बाद गांधीजी को बेफ़िकर होकर जोहानिस्बर्ग जाने की इज़ाजत दे दी। डरबन में अपने डॉक्टर मित्र और उनकी पत्नी की देखरेख में बा को छोड़कर गांधीजी सार्वजनिक कार्य हेतु जोहानिस्बर्ग चले गए।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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