गांधी और गांधीवाद
191. हिंद
स्वराज-3
1909
उत्तर आधुनिक युग में पुस्तक का महत्व
‘हिंद स्वराज’ मूलतः सभ्यता का
विमर्श है। दरअसल यह पाश्चात्य आधुनिक सभ्यता की समीक्षा है। साथ ही उसको स्वीकार
करने पर प्रश्नचिह्न भी है। इसमें भारतीय आत्मा को स्वराज, स्वदेशी, सत्याग्रह और सर्वोदय की सहायता से
रेखांकित किया गया है। इस पुस्तक का प्रखर उपनिवेश-विरोधी तेवर सौ से अधिक साल बाद
आज और भी प्रासंगिक हो उठा है। नव उपनिवेशवाद से जूझने के संकल्प को लगातार दृढ़तर
करती ऐसी दूसरी कृति दूर-दूर तक नज़र नहीं आती।
इस उत्तर आधुनिक युग में
आधुनिकता को परिभाषित करने की बहुत ज़रूरत है। भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण हम सब
उपभोक्ता संस्कृति से प्रभावित हो रहे हैं। यह एक ऐसी संस्कृति है जो हमें पश्चिमी
आधुनिक शैली को स्वीकार करने को कहती है। इस संस्कृति में विविधता की कोई जगह नहीं
है। आत्मसात्करण की भावना से प्रेरित यह संस्कृति हमारे अस्तित्व के लिए खतरनाक
सिद्ध हो सकती है। आवश्यकता है सामुदायिक भावना के प्रसार का ताकि हरेक वैविध्य
फले फूले। भारत की आत्मा को सही रूप से प्रतिष्ठित किए बिना हमारा विकास संभव नहीं
है। गांधीजी का कहना है, “भारत अपनी आत्मा को खोकर जीवित नहीं रह सकता।” पहले, लोगों को शारीरिक मजबूरी
के तहत गुलाम बनाया जाता था। अब वे पैसे से खरीदी जा सकने वाली सुख-सुविधाओं और
विलासिता के प्रलोभन में गुलाम बन गए हैं। उनके जीवन-शैली में नैतिकता के लिए कोई
जगह नहीं है। पूरी सामाजिक व्यवस्था आत्म-विनाश की ओर बढ़ रही है। गांधीजी इस पुस्तक के द्वारा हमें सावधान कर रहे हैं कि उपनिवेशी मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए
कितना ख़तरनाक सिद्ध हो सकता है। कविगुरु टैगोर ने कहा था, “वास्तविक
आधुनिकता मन की स्वाधीनता है, आस्वाद की ग़ुलामी नहीं, यह चिंतन और क्रिया की स्वाधीनता है।” दूसरे शब्दों में कहें तो, यह दूसरे के नियंत्रण से अपने को मुक्त करना है, आत्मनिर्भर बनना है।
पाश्चात्य विद्वान हिडेन ने
कहा था, “भारत का अतीत निश्चय ही गौरवपूर्ण है, परंतु उसका कोई वर्तमान नहीं।
वर्तमान को बनाने के लिए उसे पश्चिम की ओर जाना पड़ेगा।” धीरे-धीरे हमने इस अवधारणा को स्वीकार कर लिया कि पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण
है। इस दासतापूर्ण चिंतन के विरोध में गांधीजी ने ‘हिंद स्वराज’ में अपनी आवाज़ उठाई।
उन्होंने भविष्यदृष्टा की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृत्तियों के खतरनाक
संभाव्य शक्ति का पर्दाफ़ाश किया।
‘हिंद स्वराज’ आधुनिक सभ्यता की
पहली समीक्षा है। गांधीजी की कोशिश थी कि वैश्विक आधुनिकता के मायाजाल को हटाकर एक
ऐसा स्थान ढूंढना जहां अपनी आधुनिकता के हम ही नायक बन सकें। पाश्चात्य आधुनिकता
को भारत की पराधीनता के समर्थन में सबसे बड़े तर्क के रूप में प्रयोग में लाया जाता
रहा था। कहा जाता था कि भारतवासियों के उद्धार के लिए विदेशी शासन ज़रूरी है। लेकिन
इसी आधुनिकता ने हमें साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े होने के लिए साहस बढ़ाया और
आधुनिकता के नाम पर क्षमता के प्रसार की अंग्रेज़ों की अभिलाषा का भंडाफोड़ किया।
हमें यह याद रखना होगा कि वैश्विक आधुनिकता के आंगन में हम अछूत हैं। हमारे लिए वह
फैंसी मार्केट है। वहां हम पहुंच नहीं सकते। हमारे लिए वह मंगलमय होगा, यह सोचना भी ग़लत है।
हमारा भविष्य इसमें निहित है
कि हम उन विशेषताओं का आविष्कार करें जिससे हम अपनी आधुनिकता को रेखांकित कर सकें।
साथ ही हमारे भीतर अन्यत्र प्रतिष्ठित आधुनिकता को ठुकराने का साहस हो। आज
भूमंडलीकरण के दौर में उस साहस को दिखाना फिर ज़रूरी हो गया है। भूमंडलीकरण एक
नवौपनिवेशवाद है। इससे बचना चाहिए। इसके लिए हमें अपनी मानसिकता का
गैर-उपनिवेशीकरण करना चाहिए। ‘हिंद स्वराज’ के द्वारा गांधीजी ने बताया था कि हम
अपने को पहचानें और अपनी दुर्बलताओं को भी पहचानें।
हिन्द स्वराज का मतलब गांधी
हिन्द स्वराज का मतलब गांधी
है। हिन्द स्वराज्य’ अक्षर-अक्षर गांधीजी ने अपने हृदय के ख़ून से लिखा है। पिछले
सौ सालों में हम उल्टी दिशा में इतना आगे निकल गए हैं कि हमें उनका रास्ता
प्रतिगामी और नितान्त अव्यावहारिक लगता है। हिन्द स्वराज को न तो पवित्र पाठ के
रूप में पढ़ा जाए और न ही इसे ध्वस्त करने के पूर्वाग्रह के साथ, बल्कि इसे सजग सम्यक् विवेक के साथ
आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक के महत्व को बताने के लिए इतना बताना
काफ़ी है कि गांधीजी ने अप्रैल 1910 में यह पुस्तक टॉल्सटॉय को समर्पित
की तो उन्होंने जवाब में गांधीजी को लिखा था, “मैंने तुम्हारी पुस्तक बहुत रुचि के साथ पढी। तुमने जो सत्याग्रह के
सवाल पर चर्चा की है यह सवाल भारत के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि पूरी मानवता के
लिए महत्वपूर्ण है”।
इस पुस्तक की प्रस्तावना
में गांधीजी लिखते हैं -
“जो विचार इस पुस्तक में रखे गए हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी
हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके अनुसार आचरण करने की मुझे आशा है। वे मेरे अंतर में
बस-से गए हैं। वे मेरे नहीं है, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो, सो बात नहीं। ये विचार कुछ
किताबों को पढ़ने के बाद बने हैं। दिल के भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इस किताब में समर्थन
किया है।”
गांधीजी यह भी कहते हैं,
“यह पुस्तक सिर्फ़ देश की सेवा करने का और सत्य की खोज करने का और उसके
मुताबिक बरतने का है। इसलिए अगर मेरे विचार ग़लत साबित हुए तो उन्हें पकड़ रखने का
मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सत्य साबित हों तो दूसरे लोग ही उनके मुताबिक बरतें, ऐसा देश के भले के लिए साधारण
तौर पर मेरी भावना होगी।”
गांधीजी ने अपनी इस छोटी-सी
पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ में जो प्रस्तावना रखी थी वह गांधीवादी विचारधारा के
सारतत्व को उसके शुद्धतम और प्रचंडतम रूप को प्रस्तुत करती है। गांधीजी का बौद्धिक
संस्कार मूलतः न्यायालयी था। वह जन्मजात वकील थे। वे बार-बार दावा करते हैं कि
उन्हें सत्य के अलावा किसी और वस्तु की खोज नहीं है। लेकिन इस सत्य की तलाश
उन्होंने न्यायाधीश के रूप में नहीं किया, बल्कि एक वकील के रूप में किया।
न्यायाधीश तो यथासंभव वस्तुगत ढंग से साक्ष्यों की छानबीन करता है। लेकिन वकील
पहले से ही सत्य की किसी विशेष धारणा या पक्ष से प्रतिबद्ध होता है। गांधीजी अपने
अंतर्ज्ञान के बल पर अपने विचार निर्धारित करते थे और फिर अपने निष्कर्षों की
बुद्धिसंगत ढंग से वकील की तरह पैरवी करते थे। इसके कारण वे कभी किसी प्रश्न के इस
या उस विशेष पक्ष पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर देने लगते थे। कई बार उनका तर्क
दुराग्रही दिखाई देने लगता था। यह बात हिंद स्वराज में खास तौर से स्पष्ट रूप से
देखा जा सकता है।
गांधीजी को लगता था कि हिंसा
से हिंदुस्तान के दुःखों का इलाज संभव नहीं है। उन्हें आत्मरक्षा के लिए कोई अलग
और ऊंचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह
का प्रयोग 1907 में ही शुरू कर दिया था। इसकी सफलता से उनका आत्मविश्वास बढ़ा था।
हिन्द
स्वराज अभी जारी है ...
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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