गांधी और गांधीवाद
193. हिंद स्वराज-5
मशीनी सभ्यता
मशीनी सभ्यता ने जिस तरह
पृथ्वी के पर्यावरण को नष्ट किया है उसका परिणाम आज सामने है। आर्थिक साम्राज्यवाद
ने विश्व में गैर बराबरी को और भी बढ़ाया है जिसके कारण विश्व में हिंसा का
आतंकवाद बढ़ा है। ऐसी स्थिति में, हिंद स्वराज में जैसी सभ्यता व राज्य की कल्पना की गई है वह
सम्पूर्ण विश्व के सामने विकल्प के रूप में है, जिसे आजमाया जाना चाहिए। ‘हिन्द स्वराज’ के द्वारा गांधीजी ने हमें आगाह किया है कि उपनिवेशी
मानसिकता या मानसिक उपनिवेशीकरण हमारे लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो सकता है। उन्होंने
हिन्द स्वराज के माध्यम से एक ‘भविष्यद्रष्टा’ की तरह पश्चिमी सभ्यता में निहित अशुभ प्रवृत्तियों
का पर्दाफ़ाश किया। कहते हैं, मशीन की झपट लगने से ही हिंदुस्तान पामाल हो गया है। मैन्चेस्टर ने
हमें जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी तो कोई हद ही नहीं है। हिंदुस्तान से कारीगरी जो
करीब-करीब ख़त्म हो गई, वह मैन्चेस्टर का ही काम है।
मशीनें यूरोप को उजाडने लगी
हैं और वहाँ की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। बम्बई की मीलों में जो मज़दूर काम
करते हैं, वे गुलाम बन गये हैं। जो
औरतें उनमें काम करती हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप
उठेगा। जब मिलों की वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं। मशीन की यह हवा अगर
ज्यादा चली, तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी। गरीब हिंदुस्तान
तो गुलामी से छूट सकेगा, लेकिन अनीति से पैसेवाला बना हुआ हिंदुस्तान
गुलामी से कभी नहीं छूटेगा। हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेज़ी राज्य को यहाँ
टिकाए रखने वाले ये धनवान लोग ही
हैं। ऐसी स्थिति में ही उनका स्वार्थ सधेगा। पैसा आदमी को लाचार बना देता है। उनका डंक
सांप के डंक से ज्यादा जहरीला है। जब साँप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड देता है। जब पैसा
काटता है तब वह शरीर, ज्ञान, मन सब-कुछ ले लेता है, तो भी हमारा छुटकारा नहीं
होता। इसलिए हमारे देश में मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ
नहीं है।
गांधीजी के यंत्रों के विरोध को कई समालोचक इसे अकारण मानते हैं। मिडलटन मरी का कहना है, “गांधीजी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, लेकिन इंसान की बनाई हुई एक अकुदरती कृत्रिम चीज़ है। उनके उसूल के मुताबिक तो उसका भी नाश होना है।”
डिलाइल बर्न्स इसे बुनियादी विचार-दोष मानते हुए कहते हैं, “किसी भी यंत्र का बुरा उपयोग होने की संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमें रही हुई नैतिक हीनता यंत्र की नहीं, लेकिन उसका उपयोग करने वाले मनुष्य की है।”
कई विद्वानों ने गांधीजी को आधुनिक मशीनों के प्रति उनकी शत्रुता पर अक्सर चुनौती दी। 1924 में जब गांधीजी से पूछा गया कि क्या उन्हें सभी मशीनों से आपत्ति है। गांधीजी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था, “मैं तमाम यंत्रों के ख़िलाफ़ कैसे हो सकता हूं, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी मशीनरी का सबसे नाजुक हिस्सा है; चरखा भी एक मशीन है; एक छोटा टूथपिक भी एक मशीन है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं है, बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचाने वाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गए हैं। उनसे मेहनत ज़रूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रम की बचत तो मैं भी चाहता हूं, परंतु वह किसी खास वर्ग की नहीं, बल्कि सारी मानव जाति की होनी चाहिए। कुछ गिने-गिनाए लोगों के पास संपत्ति जमा हो, ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो, ऐसा मैं चाहता हूं। आज तो करोड़ों की गर्दन पर कुछ लोगों के सवार हो जाने में यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रों के उपयोग के पीछे जो प्रेरक कारण है, वह श्रम की बचत नहीं है, बल्कि धन का लोभ है। ... मेरा मकसद तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधने का है।”
गांधीजी मशीनों के विरोधी नहीं थे। उन्होंने बस दूसरों से
पहले ही सभ्यता के खतरों और भयावहताओं को समझ लिया था, जिसमें व्यक्ति कुछ हद तक
एक जंगली व्यक्ति की स्थिति में होता है जो एक मूर्ति बनाता है और फिर उसे खुश
करने के लिए बलिदान देता है। अगर मशीनें सिर्फ़ शरीर की सेवा करतीं तो गांधीजी को
मशीनों से कम आपत्ति होती;
वे नहीं चाहते थे कि वे दिमाग पर आक्रमण करें और आत्मा को
अपंग करें। उनका मानना था कि भारत का मिशन 'नैतिक व्यक्ति को ऊपर
उठाना'
है। इसलिए, 'अगर अंग्रेज़ भारतीय हो
जाते हैं तो हम उन्हें समायोजित कर सकते हैं।'
मिल-मालिकों की ओर हम नफ़रत की निगाह से नहीं देख सक़ते। हमें उन पर दया करनी चाहिए। वे यकायक मिलें छोड दें, यह तो मुमकिन नहीं है; लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सक़ते हैं कि वे अपने इस साहस को बढाये नहीं। अगर वे देश का भला करना चाहें, तो खुद अपना काम धीरे धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने, प्रौढ, पवित्र चरखे देश के हजारों घरों में दाखिल कर सक़ते हैं और लोगों का बुना हुआ कपडा लेकर उसे बेच सकते हैं।
टॉल्सटॉय और रस्किन की तरह गांधीजी भी औद्योगिक सभ्यता से
वितृष्णा रखते थे। इस पुस्तिका में गांधीजी
ने जो मूल बात कही है, वह यह है कि भारत का मवास्तविक शत्रु अंग्रेज़ी राज नहीं है,
बल्कि समग्र औद्योगिक सभ्यता है। केवल राजनीतिक स्वराज पा लेने का तात्पर्य होगा –
अंग्रेज़ों के बिना अंग्रेज़ी राज। पुस्तक में गांधीजी ने अपने वार्ताकारों से, जिन्हें वे 'रीडर' कहते हैं, पूछा कि वे भारत की भावी स्वतंत्रता को
किस प्रकार देखते हैं। रीडर ने उत्तर दिया, 'जैसा जापान है,
वैसा ही भारत भी
होना चाहिए। हमें अपनी नौसेना,
अपनी सेना और
अपनी शान-शौकत रखनी चाहिए और तभी भारत की आवाज दुनिया भर में गूंजेगी।' दूसरे शब्दों में, गांधी टिप्पणी करते हैं, 'आप अंग्रेज के बिना अंग्रेजी शासन चाहते
हैं। आप बाघ के बिना बाघ जैसा स्वभाव चाहते हैं... आप भारत को अंग्रेज बना
देंगे... यह वह स्वराज नहीं है जो मैं चाहता हूं।'
गांधीजी रीडर को कहते हैं, 'अगर आप मानते हैं कि इटली पर इटालियन
लोगों का शासन है, इसलिए इतालवी राष्ट्र खुश है, तो आप अंधेरे में टटोल रहे हैं... मैज़िनी
के अनुसार स्वतंत्रता का मतलब पूरे इतालवी लोगों से है, यानी उसके कृषकों से। मैज़िनी का इटली
अभी भी गुलामी की स्थिति में है...’
वे मानते थे कि आदर्श समाज वह है जिसमें हर
व्यक्ति खेत पर किसी शिल्प में हाथों से काम करे। बाद में
हम पाते भी हैं कि दक्षिण अफ़्रीका से स्वदेश लौटने पर उन्होंने खादी, ग्रामों में
रचनात्मक कार्यों और हरिजन कल्याण के माध्यम से अपने इस संदेश को मूर्तरूप दिया।
ऐसे रचनात्मक कार्यों से गांधीजी ग्रामीण लोगों की स्थिति को सुधारने का प्रयत्न
करते रहे। इस प्रकार स्वदेशी आंदोलन के आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन के संदेश को एक
विस्तृत आयाम प्राप्त हुआ। किसानों के बीच उनकी इस राजनीतिक शैली ने उनकी
लोकप्रियता बढ़ाई। वह मानते थे कि सच्ची देशभक्ति का अर्थ यह कामना करना नहीं है कि
शासन की बागडोर हमारे हाथों में हो, बल्कि समाज के लिए काम करना है ताकि करोड़ों लोग
स्वशासन प्राप्त कर सकें।
हिन्द
स्वराज अभी जारी है ...
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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