शनिवार, 21 दिसंबर 2024

192. हिंद स्वराज-4

 गांधी और गांधीवाद

192. हिंद स्वराज-4

 


1909

स्वदेशी और ग्राम समाज

‘हिंद स्वराज’ एक ऐसे समाज की बात करता है जो पिरामिड नहीं है। यह ऊंचाई के साथ चौड़ाई में प्रसारित होता है। यह समाज भारत का ग्राम समाज है। गांधीजी ग्राम समाज के साथ-साथ स्वदेशी को प्रमुखता देते हैं। इसके लिए वे विकेन्द्रीकरण का पक्ष लेते हैं। दरिद्रता, अशिक्षा आदि के बावजूद गांधीजी ने ग्राम में ही भारतीय आदर्श समाज के मूल सूत्रों को प्रत्यक्ष किया। मनुष्य के साथ मनुष्य का आत्मीय संबंध चिरकाल से भारत की चेष्टा रही है। ग्राम समाज को गांधीजी आत्मीय समाज मानते थे। इसमें समवाय यानी सर्वोदय की भावना अनुस्यूत है। गांधीजी कहते हैं, “व्यक्ति के पास हृदय होता है मगर राष्ट्र हृदयहीन मशीन की तरह है। आजकल नगरों में राष्ट्रनीति के साथ वणिक शक्ति आ मिली है। गांव को केन्द्र में लाने के लिए उन्होंने स्वदेशी का पक्ष लिया। स्वदेशी केवल प्रत्यावर्तन नहीं है, यह एक स्थायी उपाय ढूंढ़ना है। गांव को स्वनिर्भर बनाकर शहर के शोषण से मुक्त रखना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए रास्ता समवाय का है। यही सत्य का रास्ता है। यह सत्य तपस्या द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। समवाय नीति मनुष्यत्व की मूल नीति है। मनुष्य के सहयोग से ही मनुष्य मनुष्य है।

गांधीजी बार-बार गांव को भारतीय जीवन का केंद्र मानते हैं। पश्चिमी सभ्यता निरर्थक है, मुख्यतः इसलिए क्योंकि वह गांव के जीवन में कुछ नहीं जोड़ सकती। वह गांव के किसान को अहिंसा का प्रतीक मानते हैं, क्योंकि क्या उसने सदियों से राजा की अवहेलना नहीं की है?

गांधीजी यंत्र के विरोधी नहीं थे, वे यांत्रिकता के विरोधी थे। यंत्र भोग को बढ़ावा देता है। भोग स्थायी तृप्ति नहीं दे सकता। संयम के द्वारा ही जीवन में तृप्ति संभव है। भोग की दृष्टि में सभी उपकरण हैं। ऐसी स्थिति में प्यार भी उपकरण बन जाता है। गांधीजी भोग की वासना को नैतिकता के द्वारा उसको नियंत्रित करना चाहते थे। इस नैतिकता का उत्स प्रेम की शक्ति में था। गांधीजी हमें पश्चिम की ओर जाने से सचेत करते हैं। वे हमें विदेश को अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर स्वीकार करने के लिए रास्ता दिखाते हैं। आधुनिकता को हमें अपने ढंग से परिभाषित करने में सहायता करते हैं। हमारी आधुनिकता परंपरा और पाश्चात्य आधुनिकता को जोड़ कर नहीं, उनके इंटरप्रेटेशन के द्वारा एक नई संरचना की सृष्टि की सहायता से विकसित हुई है।

द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म

यह पुस्तक द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्मबलिदान में विश्‍वास रखती है। पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल खड़ा करती है। उनका मानना था कि अगर हिंदुस्‍तान अहिंसा का पालन किताब में उल्लिखित भावना के अनुरूप करे तो एक ही दिन में स्वराज्य आ जाए। हिंदुस्‍तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्‍तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन उन्हें इस बात का एहसास और दुख था कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।

इस पुस्तक में गांधीजी ने आध्यात्मिक नैतिकता की सहायता से हमारी अर्थ नैतिक और सैनिक कमजोरी को शक्ति में बदल दिया। अहिंसा को हमारी सबसे बड़ी शक्ति बना दी। सत्याग्रह को अस्त्र में बदल दिया। सहनशीलता को सक्रियता में बदल दिया। इस प्रकार शक्तिहीन शक्तिशाली हो गया। उनका कहना था कि हिंसा भारत के दुखों का इलाज नहीं है। भारतीय संस्कृति का अनुसरण करते हुए आत्मरक्षा के लिए अहिंसा और सत्याग्रह का प्रयोग ही उचित है। अहिंसा हमारा आध्यात्मिक तत्त्व है। गांधीजी ने इसका इस्तेमाल सैनिक और आर्थिक शक्ति के विरोध में किया। इस प्रकार एक दुर्बल तत्व को उन्होंने सबल बना दिया। सत्याग्रह के रूप में शांतिपूर्ण प्रतिरोध द्वारा उन्होंने क्रियात्मक स्थिति पैदा की। हिंसा मनुष्य शरीर का अनादर करता है। शरीर में ईश्वर का निवास है। गांधीजी धर्म का मूल दया मानते हुए सत्याग्रह के द्वारा दया, बल और आत्मबल के प्रसार की बात करते हैं और हिंसा को रोकने के लिए उसका प्रयोग करते हैं।

गांधीजी के स्वराज के लिए हिंदुस्‍तान न तब तैयार था न आज है। यह आवश्यक है कि उस बीज ग्रंथ का हम अध्ययन करें। सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों के स्वीकार में अंत में क्या नतीजा आएगाइसकी तस्वीर इस पुस्तक में है ।

हिन्द स्वराज अभी जारी है ...

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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