गांधी और गांधीवाद
199. टॉल्सटॉय फार्म - सादगी से जीवन
निर्वाह
1910
शारीरिक श्रम
अनिवार्य
सत्याग्रह
आन्दोलन में
जेल जाने वालों के परिवारों को आर्थिक सहायता देनी पड़ती थी। इस आर्थिक भार को कम
करने के लिए टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना हुई थी। वहाँ गिरफ्तार हुए लोगों के परिवार
सामूहिक रूप से रहते हुए कम खर्च पर महेनत मशक्कत
कर सादगी के साथ जीवन निर्वाह कर सकें। गांधीजी के लिए यह एक महत्वपूर्ण
प्रयोगशाला ही थी। वहां
एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा उनके परिवार के लोग
बहुत थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां
उनका जीवन जेल से भी कठोर था। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा
थाः “हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा भी
मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के पहनने के
पतलून और कमीज, जो कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह
के थे।” जिन्हें अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना
होता था, वे पैदल आते-जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से
अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए
बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। टॉल्सटॉय फार्म
के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम अनिवार्य था। इतने कठोर
अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही क्या हो सकता था?
गांधीजी की टॉलस्टॉय के प्रति परम
श्रद्धा थी। उनके साथ गांधीजी की जीवन के मूल्य और आदर्शों के बारे में पत्र-व्यवहार होता रहता था। टॉल्सटॉय भी श्रमजीवन में विश्वास रखते थे। रूस के एक
गांव में रहकर वे आजीवन शरीर-श्रम करते रहे। इन विचारों से
प्रभावित होकर 4 जून, 1910 को अपने परिवार के साथ गांधीजी
वहां रहने चले गए। कालेनबेक भी साथ में थे। जब सत्याग्रही जेल में नहीं होता, तो यहां रह सकता था, जब वह जेल में होता तो उसका परिवार
यहां रह सकता था। वहां सारा काम स्वावलंबन से होता था।
आश्रम का जीवन
चालीस वर्ष के भरे यौवन में गांधी जी ने टॉल्सटॉय फार्म की स्थापना की थी।
अब गांधी जी के पास दो सामुदायिक बस्तियां थीं। फीनिक्स बस्ती से ‘इंडियन ओपिनियन’ प्रकाशित होता था और वहां उनकी पत्नी और बच्चे रहते थे। फीनिक्स बस्ती की तरह ही टॉल्सटॉय फार्म भी एक सहकारी बस्ती थी। यहां का जीवन गांधी जी के
लिए सबसे फलदायक और सुखकर दिन थे। यहीं गांधी जी के कई विचार पल्लवित और पुष्पित
हुए। उन्होंने सफल-समृद्ध बैरिस्टरी को हमेशा के लिए छोड़ दिया था और परिवार सहित यहां चले आए
थे। फार्म की खूबसूरती इसकी सादगी में थी। इस जंगल जैसी जगह में संन्यासी
ब्रह्मचारी का जीवन जीने लगे थे। इस जंगल में न कोई मकान था, न ही कोई व्यवस्था। उन्हें कठिनाइयों में ही सुख मिलता था। जिसे लोग आत्म-निषेध कहते हैं,
उसे वे आत्म-परिपूर्णता मानते थे। अपने हृदय की
प्रसन्नता के लिए वे एक किसान और मज़दूर की तरह अपने हाथों से काम करते थे। इस
स्थान में उनका यह आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया जाए और खेती-बारी का
काम भी जितना अपने हाथों से हो सकता है किया जाए। वे न केवल टॉल्सटॉय फार्म के
प्रधान मंत्री थे; वह मुख्य न्यायाधीश,
मुख्य स्वच्छता निरीक्षक,
बच्चों के स्कूल में मुख्य शिक्षक, मुख्य बेकर और मुरब्बा बनाने वाले थे। कालेनबाख,
जो खेत पर ही रहते थे,
उन्हें वास्तुशिल्प डिजाइन,
बढ़ईगीरी और मोची का काम सौंपा गया था। चूंकि वह उन
उत्साही लोगों में से एक थे जो अपने साथियों की सेवा करने में प्रसन्न होते थे, इसलिए उन्होंने नेतृत्व संभालने की कोई इच्छा नहीं दिखाई और चुपचाप गांधीजी के
आदेशों का पालन करने में संतुष्ट रहे।
सांपों के बीच
यहां वे सांपों के बीच रहे और उनको इस बात की तसल्ली थी कि एक सांप भी
उन्होंने नहीं मारा। रहने वालों के लिए सांपों का
खतरा हमेशा बना रहता था। कालेनबेक ने सांपों पर जितना संभव हो सका उतनी पुस्तकें
इकट्ठी की। इन पुस्तकों के अध्ययन के आधार पर उसने रहने वालों को विषैले और विषहीन
सापों में अन्तर को समझाया। अल्ब्रेक्ट
नाम का एक और जर्मन कैदी था जो साँपों के साथ खेलता था और इस तरह दूसरों को अपना
डर छोड़ने के लिए प्रेरित करता था। विषैले सांपों के उपद्रव और
जान के नुकसान का भय तो बना रहता ही था। कालेनबेक ने इस विषय पर गांधीजी से बात भी
की। गांधीजी की अहिंसा में अटूट श्रद्धा थी। लेकिन किसी आश्रम निवासी की जान की
क़ीमत पर नहीं। एक दिन कालेनबेक के कमरे में एक सांप घुस आया। वह विषैला था। वह
ऐसी स्थिति में थे कि न तो उसे भगा सकते थे, न ही खुद भाग सकते थे। एक
लड़के ने गांधीजी को इस स्थिति की सूचना दी और उसे मारने की अनुमति मांगी। गांधी
जी ने उसे ऐसा करने की इज़ाजत दे दी।
एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की
शुरू में सभी
वासिंदे लगभग दो महीने तक टेंट में रहे, जब तक कि
इमारतें बन रही थीं। आर्किटेक्ट के रूप में कालेनबैक थे ही, एक यूरोपीयन
राज मिस्त्री को भी वे अपने साथ ले आए। एक गुजराती बढ़ई नारायणदास दमानिया ने
निःशुल्क सेवा प्रदान की। दूसरे बढ़ई भी थोड़े पैसे में बुला लिए गए थे। बढ़ई का
आधा काम तो बिहारी नाम के एक सत्याग्रही ने किया। दो महीने से कम के समय में गांधीजी
और कालेनबाख ने कुछ मज़दूरों की मदद से टीन-चद्दरों की
एक छोटी-सी बस्ती खड़ी की। इस बस्ती में
रहने वाले भारत के हर हिस्से के हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, आदि लगभग पचहत्तर
लोग थे। हर निवासी को मेहनत मज़दूरी करनी पड़ती थी। लोगों को
स्वावलंबी बनाया गया। अपने चचेरे भाई को उन्होंने लिखा था, “जिन
मज़दूरों के साथ आजकल मैं काम कर रहा हूं, उन्हें मैं
अपने से बेहतर इंसान मानता हूं।” सफ़ाई का काम, शहर जाना, और वहां से सामान लाने का काम थंबी
नायडू के जिम्मे था। मकान लगभग दो महीनों में बने। जब तक मकान बन रहे थे, लोगों को तंबुओं में सोना पड़ा। मकान लोहे की सफ़ेद
चादरों के थे। इस तरह उन्होंने सत्याग्रहियों के परिवार के पुनर्वास की समस्या
सुलझाई और उनकी रोजी रोटी का इंतजाम किया। यहां स्त्री और पुरुष अलग-अलग रखे गए
थे। इसलिए घरों
को दो अलग-अलग ब्लॉकों में बनाया जाना था, प्रत्येक एक
दूसरे से कुछ दूरी पर। 10 स्त्रियां
और 60 पुरुषों के
रहने लायक मकान तुरंत बना लिए गए। पुरुषों के क्वार्टर महिलाओं से
काफी अलग थे। यहां तक कि विवाहित पुरुष भी अपनी पत्नियों से अलग हो गए थे और
उन्हें टॉल्सटॉय फार्म में रहते हुए अविवाहित माना जाता था। एक मकान
कालेनबैक के रहने के लिए बनाया गया।
सादा सामुदायिक जीवन
इस आश्रम
में लोग सादा सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। बस्ती पूरी तरह आत्म-निर्भर थी। इस
भूमि पर एक झरना था। झरना उनके क्वार्टर से लगभग 500 गज की दूरी पर था। वहां से
कांवड़ों में भरकर पानी लाया जाता था। एक लोटा भी पानी लाना हो तो भी आने-जाने में
आधा घंटा लग जाता था। लेकिन उन आश्रमवासियों और गांधीजी का उत्साह गजब का था। वहां
एक सहकारी फार्म चला कर सत्याग्रह संग्राम में उनके सहयोगी तथा परिवार के लोग बहुत
थोड़े में और बड़ी कठिनाई से अपनी गुजर-बसर करते थे। सच पूछा जाए तो वहां उनका
जीवन जेल से भी कठोर था। गांधीजी का आग्रह था कि घर का कोई काम नौकर से न लिया
जाए। खेती-बारी और घर बनाने का काम अपने हाथों से किया जाता था। पाखाना साफ़ करने
से लेकर खाना पकाने तक का सारा काम सभी अपने हाथों से ही करते थे। थम्बी नायडू
सफाई और विपणन के प्रभारी थे, जिसके लिए
उन्हें जोहान्सबर्ग जाना पड़ता था। उस समय का वर्णन करते हुए गांधीजी ने बाद में कहा थाः “हम सभी मजदूर बन गए थे। हमारा पहनावा
भी मजदूरों का था, पर यूरोपीय ढंग का यानी मजदूरों के
पहनने के पतलून और कमीज, जो
कैदियों द्वारा पहने जाने वाले कपड़े की तरह के थे।” गांधी जी लिखते हैं – ‘टॉल्स्टॉय फार्म में निर्बल सबल हो गए
और मेहनत सबके लिए शक्ति-वर्धक साबित हुई।’
जिन्हें
अपने निजी काम से जोहान्सबर्ग जाना होता था, वे पैदल
इक्कीस मील आते-जाते। रात के दो बजे चलना आरंभ होता, तो सुबह सात
बजे के पहले पैदल चलने वाले जोहान्सबर्ग पहुंच जाते। यद्यपि गांधीजी चालीस साल से
अधिक उम्र के थे और सिर्फ फल खाते थे लेकिन एक दिन में चालीस मील चलना उनके लिए
बड़ी बात न थी। एक बार तो उन्होंने दिन भर में 55 मील की
यात्रा की थी फिर भी पस्त नहीं हुए। आश्रम ने नियम बनाया कि निवासी जोहानिस्बर्ग
केवल अपने छोटे से सार्वजनिक काम से ही रेल से जा सकते थे, और वह भी तीसरे दर्जे में। जो
कोई मौज-मस्ती के लिए जाना चाहता था, उसे पैदल ही
जाना होता, और अपने साथ
घर का बना खाना लेकर जाना होता। शहर में कोई भी व्यक्ति अपने खाने पर कुछ भी खर्च
नहीं कर सकता। टालस्टाय फार्म के सभी निवासियों तथा उनके बच्चों के लिए शारीरिक श्रम
अनिवार्य था। टॉल्सटॉय फार्म पर कमजोर लोग मजबूत हो गए और श्रम
सभी के लिए एक टॉनिक साबित हुआ। इतने कठोर अनुशासन में रहने वालों को जेल का भय ही
क्या हो सकता था?
टॉल्सटॉय फार्म में शामिल होने के बाद उन्होंने अपने खर्च में नौ-दसवां
हिस्सा कम कर दिया। पहले उन्होंने अपने ऊपर 1,200 रुपये
खर्च किए थे और अब वह केवल 120 रुपये खर्च कर रहे थे। गांधीजी ने एक पूरी तरह से
आत्मनिर्भर समुदाय का सपना देखा था जो अपनी उपज पर रहता था, अपनी झोपड़ियाँ बनाता था, अपने कपड़े खुद बनाता था। बहुत
जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि शहरों से कई चीजें आयात करना आवश्यक होगा। इसलिए
उन्होंने इंडियन ओपिनियन में उन आवश्यक आपूर्तियों के लिए अपील प्रसारित की जिनकी
कमी थी। उन्होंने कंबल, सूती गद्दे, लकड़ी के तख्ते, खाली मिट्टी के तेल के डिब्बे, कुदाल, स्कूल की किताबें, मोटे कपड़े, खाना पकाने के बर्तन, सुई, सिलाई धागा, यहाँ तक कि सब्ज़ियाँ और फल भी
माँगे। मोटे कपड़े का इस्तेमाल कपड़े बनाने के लिए किया जाना था। गांधीजी को थोड़ा
बुरा लगा जब उनकी अपील के जवाब में कुछ बढ़िया कमीज़ें, रूमाल और
तकिए आए। वे गुणवत्ता वाले सामान थे, इसलिए
सत्याग्रहियों को उनका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। इसलिए उन्होंने उन्हें बेचने
और आय का इस्तेमाल बेहतर चीज़ों के लिए करने की व्यवस्था की।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और
गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ
पर
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