गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

167. गांधीजी पर जानलेवा हमला

 गांधी और गांधीवाद

167. गांधीजी पर जानलेवा हमला


जोहान्सबर्ग की हमीदिया मस्जिद, जहां रजिस्ट्रेशन एक्ट का विरोध करने भीड़ जुटी थी

1908

विरोध का सामना

पर सहमती देने के बाद जब गांधीजी औपनिवेशिक कार्यालय से बाहर निकले, तो उन्होंने पाया कि भारतीय पिकेट उनका इंतज़ार कर रहे थे। उन्हें किसी तरह जनरल स्मट्स के साथ उनके साक्षात्कार के बारे में पता चल गया था। पुलिस ने उन्हें बताया था कि गांधीजी इमारत में नहीं हैं, लेकिन वे सतर्क रहे। जब गांधीजी आखिरकार दिखाई दिए, तो उन्होंने उन्हें बताया कि अगले दिन सभी कैदियों को रिहा कर दिया जाएगा। तूफानी बादल उमड़ रहे थे।

गांधीजी ने उस प्रस्ताव के बारे में सोचा। उन्हें लगा कि भारतीय उस प्रस्ताव का विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ये उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहा था। यदि वे ख़ुद रजिस्ट्रेशन कराएंगे, तो यह उनकी शालीनता प्रदर्शित करेगा और तब इसमें असम्मानजनक कुछ भी नहीं होगा। लेकिन जोहान्सबर्ग पहुंचने पर गांधीजी को लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने पूछा, “यदि स्मट्स विश्वासघात करे, तो क्या होगा?” गांधीजी का जवाब था, “सत्याग्रही निर्भय होता है। वह सत्य का उपासक होता है। वह तो दुश्मन पर भी विश्वास करता है। धोखा खाने पर सत्याग्रही दुबारा सत्याग्रह करेगा, लेकिन अविश्वास करना सत्याग्रही को शोभा नहीं देता। प्रिटोरिया में किया गया समझौता दो जबान के पक्के दो व्यक्तियों के बीच की मौखिक सहमति थी।

समझौते पर विचार करने के लिए बैठक

गांधीजी रात के करीब 9 बजे जोहान्सबर्ग पहुंचे। उन्होंने ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष यूसुफ मियाँ से मुलाकात की, जनरल स्मट्स के साथ हुई चर्चा का विवरण दिया और उनसे स्थिति पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश इंडियन असोसिएशन की एक बैठक जल्द से जल्द बुलाने को कहा। अधिकांश भारतीय एक ही क्वार्टर में रहते थे, इसलिए प्रस्तावित बैठक की सूचना भेजना मुश्किल नहीं था। यूसुफ मियाँ एक अमीर मुस्लिम व्यापारी थे जो मस्जिद के पास रहते थे और मस्जिद के मैदान में बैठक आयोजित करने की अनुमति प्राप्त करना एक आसान काम था। उस रात करीब 11 या 12 बजे लैंप की रोशनी में बैठक आयोजित की गई। सूचना कम होने और देर होने के बावजूद 31 जनवरी 1908 करे जोहान्सबर्ग के हमीदिया मस्जिद पर जुटी एक हजार लोगों की भीड़ को ब्रिटिश इंडियन असोसिएशन की बैठक में संबोधित करते हुए समझौता फार्मूला की शर्तों को गांधीजी ने विस्तार से समझाया। जीत उनके पास आई है क्योंकि उन्होंने इस चेतना में विनम्रता से काम किया है कि वे भगवान का काम कर रहे हैं; उनकी माँगें पूरी हो गई हैं; भविष्य में सभी पंजीकरण स्वैच्छिक आधार पर होंगे; संसद की बैठक होते ही कानून को स्थगित कर दिया जाएगा; और जिस स्वतंत्रता का वे इतने लंबे समय से सपना देख रहे थे, वह उन्हें प्रदान की जाएगी। गांधीजी ने कहा, हमें यह दिखाने के लिए स्वैच्छिक पंजीकरण कराना चाहिए कि हम चुपके-चुपके या धोखे से ट्रांसवाल में एक भी भारतीय को लाने का इरादा नहीं रखते। स्थानीय भारतीयों का एक समूह गांधीजी एवं जनरल स्मट्स के बीच हुए समझौते, जिसके तहत स्वेच्छा से भारतीय पंजीकरण प्रमाण पत्र (फिंगर प्रिंट देकर) ले सकते थे, का विरोध कर रहे थे। उनका मत था कि स्वेच्छा से परवाने लेने की जगह एशियाटिक रजिस्ट्रेशन अध्यादेश 1908 वापस लिया जाना चाहिए। गांधीजी की बातें सुनकर एक व्यक्ति ने प्रतिक्रिया दी, “किसी भी समझौते का सही क्रम होगा, पहले एक्ट की समाप्ति, उसके बाद ऐच्छिक रजिस्ट्रेशन। गांधीजी ने कहा, “मैं मानता हूं कि सही क्रम यही होना चाहिए। लेकिन चूंकि ये एक तरह का समझौता है, इसलिए दोनों पक्षों को थोड़ा झुकना होगा। सरकार ने क़ैदियों को रिहा करके और एक्ट को समाप्त करने का वादा करके अपनी तरफ़ से पहल कर दी है। अब हमारी बारी है अपना रुख साफ करने की। यदि सरकार अपने वादे से मुकरती है, तो हम दुबारा आंदोलन करने के लिए स्वतंत्र हैं। इसलिए हमें यह दिखाने के लिए स्वैच्छिक पंजीकरण कराना चाहिए कि हम चुपके-चुपके या धोखे से ट्रांसवाल में एक भी भारतीय को आने का इरादा नहीं रखते। पर लोगों का कहना था कि सरकार अपने वादों से मुकर गई तो क्या होगा? इस पर गांधीजी ने कहा, एक सत्याग्रही डर को अलविदा कह देता है। इसलिए वह कभी भी प्रतिद्वंद्वी पर भरोसा करने से नहीं डरता। भले ही प्रतिद्वंद्वी उसे बीस बार धोखा दे, सत्याग्रही उस पर इक्कीसवीं बार भी भरोसा करने के लिए तैयार रहता है - क्योंकि मानव स्वभाव में निहित भरोसा ही उसके धर्म का सार है। सत्याग्रही को तो अपने विरोधियों की बात पर भी भरोसा करना होता है, और अगर सरकार अपनी बात से मुकर ही गई तो हम फिर सत्याग्रह शुरू कर सकते हैं

श्रोताओं में कुछ पठान भी थे। ट्रांसवाल में केवल कुछ ही पठान रहते थे, उनकी कुल संख्या मुश्किल से पचास के आस पास थी। ये हट्टे-कट्टे और आसानी से भड़क उठाने वाली सम्मान भावना के लिए प्रसिद्ध थे। इन पठानों ने सत्याग्रह संघर्ष में पूरी तरह से भाग लिया था, उनमें से किसी ने भी काले कानून के आगे घुटने नहीं टेके थे। उन्हें सिर्फ इतना मालूम था की पिछली सभा में उनको क़सम दिलाई गई थी कि वे उँगलियों की छाप देने का अपमान स्वीकार नहीं करेंगे। उनमें से एक पठान उठ खड़ा हुआ और गांधीजी पर समुदाय के साथ धोखेबाजी का आरोप लगाया। उसने गांधीजी पर आरोप लगाते हुए कहा, हमने सुना है कि तुमने क़ौम के साथ धोखा किया है और उसे 15,000 पौंड में जनरल स्मट्स के हाथ बेच दिया है। अल्लाह को साक्षी मानकर मैं शपथ लेता हूं कि मैं हर उस आदमी को जान से मार दूंगा जो पंजीकरण प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए आवेदन करता है। गांधीजी मौत की धमकियों से डरने वालों में से नहीं थेगांधीजी ने इस आरोप के बचाव में कहा कि उन्होंने वैसा नहीं किया है। पठान की धमकी के बावज़ूद भी गांधीजी ने कहा, “मेरा यह मानना है कि सर्वशक्तिमान को साक्षी रखकर एक आदमी दूसरे को जान से मार देने की क़सम नहीं खाना चाहिए। फिर भी क़सम खाने वाला अपने उद्देश्य में सफल होता है या नहीं यह बाद की बात है, यह मेरा प्रमुख कर्तव्य है कि अंगुलियों के निशान देने की अगुआई मैं स्वयं करूं। मृत्यु तो तय है, सबकी। किसी बीमारी या अन्य किसी वजह से मरने के बजाए एक भाई के हाथों मरने में मुझे कोई दुख नहीं होगा। चालीस साल बाद, अपनी हत्या की पूर्व संध्या पर, उन्होंने कुछ ऐसे ही शब्द कहे। माहौल में ख़ामोशी छा गई। तनाव तो छाया हुआ ही था। वहां उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने तब यह नहीं सोचा होगा कि अगले दस दिन के अन्दर एक भाई द्वारा गांधीजी पर जानलेवा आक्रमण होगा। न ही किसी ने यह सोचा होगा कि चालीस साल के बाद किसी भाई के द्वारा चलाई गई गोलियां उन्हें सदा के लिए हमसे छीन लेगी।

समझौते की खबर फैलते ही भारतीय समुदाय का एक वर्ग नाखुश हो गया। ऐसा नहीं है कि वे किसी सिद्धांत पर इसके खिलाफ थे, वे बस अपने स्वार्थ के लिए संघर्ष जारी रखना चाहते थे। कुछ भारतीय ऐसे भी थे जो चाहते थे कि समझौता न हो और अगर समझौता हो भी गया तो वे इसे बर्बाद करने के लिए तैयार थे। ट्रांसवाल में एक और दल था जिसमें ऐसे भारतीय शामिल थे जो बिना परमिट के चोरी-छिपे ट्रांसवाल में घुस आए थे या दूसरों को बिना परमिट के या झूठे परमिट के साथ गुप्त रूप से वहाँ लाने में रुचि रखते थे। यह दल भी जानता था कि यह समझौता उनके हित के लिए हानिकारक होगा। जब तक संघर्ष चलता रहा, किसी को भी अपना परमिट दिखाने की ज़रूरत नहीं थी, और इसलिए यह समूह बिना किसी डर के अपना व्यापार कर सकता था और संघर्ष के दौरान आसानी से जेल जाने से बच सकता था। संघर्ष जितना लंबा चलता, उनके लिए उतना ही अच्छा होता। इस तरह यह गुट पठानों को भी भड़का सकता था। पठानों को यह विश्वास दिलाया गया कि गांधीजी ने समुदाय को बेच दिया है।

गांधीजी ने बैठक में समझौते पर मतदान करने के लिए कहा। सर्वसम्मति से समझौते की पुष्टि की गयी, सिवाय कुछ पठानों के जो मौजूद थे।

2 फरवरी 1908 को हमीदिया इस्लामिया मस्जिद के पास मैदान में भारतीयों की एक बड़ी बैठक हुई। इसमें करीब 2,000 लोग शामिल हुए; अध्यक्षता इस्सोप मिया ने की। दर्शकों का स्वागत करते हुए अध्यक्ष ने कहा: हमें श्री गांधी पर भरोसा करना चाहिए जिन्होंने समुदाय के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया है। उनके फैसले पर भरोसा रखते हुए हमें किसी भी तरह की अफवाह पर ध्यान दिए बिना नतीजे का इंतजार करना चाहिए।

पठान द्वारा आक्रमण

10 फरवरी को जब पंजीकरण कार्यालय के दरवाजे खुले। 10 फरवरी 1908 को जोहान्सबर्ग में गांधीजी पर होने वाले अनेक हमलों में से  दूसरा जानलेवा हमला हुआ। 10 फरवरी 1908 को पौने दस बजे गांधी जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजीकरण दफ़्तर की ओर पहले बैच के रूप में पंजीकरण प्रमाण-पत्र हासिल करने के लिए जा रहे थे। छह फूट लम्बा, हट्टा-कट्टा पठान मीर आलम, जो छह फुट से अधिक लंबा था और पेशे से गद्दा बनाने वाला था, जिसकी गांधी जी ने किसी मामले में पैरवी की थी, उनका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। उसके पीछे कुछ और पठान थे। उसकी आदत थी कि गाांधी जी को देखते ही सलाम करता था लेकिन उस दिन उसने गांधीजी को सलाम नहीं किया। गांधीजी ताड गये कि मीर आलम भी उन लोगों में शामिल हो गया है जो गांधीजी के परवाना बनवाने से सहमत नहीं हैं। गांधीजी ने उसे सलाम किया और उसने भी उन्हें सलाम किया। गांधीजी ने उससे पूछा, 'तुम कैसे हो?' और उसने कहा कि वह ठीक है। पंजीकरण कार्यालय वॉन ब्रैंडिस स्क्वायर पर था, जो उनके कार्यालय से एक मील से भी कम दूरी पर था। जब वह पंजीकरण कार्यालय के नज़दीक ही थे तब मीर आलम आगे बढ़ा और गांधी से चिल्लाकर बोला, तुम कहां जा रहे हो? गांधीजी ने कहा, “मेरा इरादा रजिस्ट्री का सर्टिफ़िकेट हासिल करने का है। गांधीजी के शब्द अभी पूरे भी नहीं हुए थे कि उसके पहले ही पीछे से गांधीजी के सर पर एक डंडे से ज़ोरदार वार हुआ। उनके मुंह से हे राम! निकला और वे चक्कर खाकर गिर पड़े। 30 जनवरी 1948 को मृत्यु के समय भी उनके मुंह से निकले यही उनके अंतिम शब्द थे।

गांधीजी पर पहला वार ही इतना करारा था कि वे बेहोश होकर गिर पड़े। उसके बाद आक्रमणकारियों ने लोहे की छड़ से उन्हें मारा। कुछ लोगों ने छड़ी से भी चोट पहुंचाई। कई ने लातों से उन्हें धक्का दिया। गांधीजी को मरा हुआ जानकर वे रुके। जब थम्बी नायडू और यूसुफ़ मिया, जो उनके साथ जा रहे थे, ने बीच बचाव की कोशिश की तो वे भी आक्रमणकारियों का निशाना बने। रास्ते से जा रहे कुछ यूरोपवासी घटनास्थल पर पहुंचे। उन्होंने भाग रहे पठानों को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया।

फुटपाथ पर ख़ून से लथपथ पड़े गांधीजी को नज़दीक के एक कार्यालय, में गांधीजी को लाया गया। यह एक यूरोपियन जे.सी. गिब्सन का निजी कार्यालय था। एक डॉक्टर ने उनके घाव और चोटों की मरहम पट्टी की। होश में आते ही गांधीजी ने पूछा, “मीर आलम कहां है?” लोगों ने बताया कि उसे गिरफ़्तार कर लिया गया है। गांधीजी के मुंह से निकला, “उन्हें छोड़ देना चाहिए। मैं उनपर मुक़दमा नहीं चलाना चाहता। वह भला आदमी है लोगों के बहकावे में आकर गलती कर बैठा है। गांधीजी ने अपने हमलावरों की पैरवी की कि वह दोषी नहीं हैं और उन्हें दंड नहीं दिया जाए।

पादरी जोसेफ डोक ने देखभाल की

पादरी जोसेफ डी. डोक, इस घटना की खबर सुन कर दौड़े चले आए। वे भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़े और पाया कि गांधीजी दुकानदार के निजी कार्यालय में लेटे हुए थे, आधे मरे हुए लग रहे थे, जबकि एक डॉक्टर उनके चेहरे पर लगे घावों को साफ कर रहा था। थम्बी नायडू के सिर पर गंभीर चोट लगी थी, और उनके कॉलर और कोट पर खून लगा हुआ था। यूसुफ मियां के सिर पर एक घाव था। पुलिसकर्मी हमले के बारे में जानकारी माँग रहे थे, और थम्बी नायडू बता रहे थे कि क्या हुआ था। गांधीजी को होश आ गया था, लेकिन वे अभी भी अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं कर पाए थे। उन्हें पहचानना लगभग असंभव था: उनका ऊपरी होंठ फटा हुआ था; एक आँख के ऊपर एक बदसूरत सूजन थी, और माथे पर एक दांतेदार घाव था। उन्हें पसलियों में बार-बार लात मारी गई थी, और वे मुश्किल से साँस ले पा रहे थे। उन्होंने गांधीजी को अपने साथ ले जाने की मंशा जताई। एशियाटिक्स के रजिस्ट्रार श्री चैमनी भी अब मौके पर आ गए। गांधीजी को गाड़ी में स्मिथ स्ट्रीट में पादरी डोक के निवास पर ले जाया गया। उनके निवास पर एक चिकित्सक ने गांधीजी के ऊपरी होंठ और गालों पर के जख़्म की सिलाई की। अगले दस दिनों तक गांधीजी पादरी डोक व उनके परिवार की देखभाल में रहे।

डॉ. थ्वाइट्स ने जब गांधीजी के गालों और ऊपरी होंठों के घाव सिल दिए और माथे पर लगे चोट की मरहम पट्टी कर दी, तब गांधीजी ने जोर देकर कहा, “रजिस्ट्रार को बुलवाया जाए। मैं अपनी उंगलियों की छाप दूंगा। उपस्थित लोगों ने कहा, “डॉक्टर ने आपको पूरा आराम करने को कहा है साथ ही न बोलने की हिदायत भी दी है। गांधीजी अपनी बात पर अडिग रहे और बोले, “मैंने पहला पंजीकरण प्राप्त करने का संकल्प लिया है और यह काम किसी भी क़ीमत पर मुझे पूरा करना ही होगा। रजिस्ट्रार को बुलाया गया। जब गोरा रजिस्ट्रार जब उनकी उंगलियों के निशान ले रहा था, तो उसके समेत वहां खड़े सभी लोगों की आंखें नम थीं।

गांधीजी ने एटार्नी जनरल को पत्र लिखकर मीर आलम के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाने की सिफारिश की। दूसरी तरफ गोरों के एक दल ने गांधीजी की इस अपील का विरोध किया और मीर आलम पर सार्वजनिक स्थल पर हिंसा करने के लिए कड़ी सज़ा की मांग की। इस पर अटॉर्नी जनरल ने मीर आलम और उसके एक साथी को फिर से गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें तीन महीने की सज़ा सुनाई गई।  अंततः मीर आलम को इस अपराध की सजा तो हुई लेकिन वह गांधीजी द्वारा माफ किये जाने पर हमेशा हमेशा के लिए गांधीजी का भक्त बन गया।

अगले दस दिनों तक गांधी जी पादरी डोक व उनके परिवार की देखभाल में रहे। गांधीजी डोक की पुत्री को ‘लीड काइंडली लाइट’ गाकर सुनाने को कहते। गांधीजी इलाज से तंग आ गए, तो एक दिन डोक के पुत्र को बाग से ताज़ी और साफ मिट्टी लाने को कहा। गांधीजी ने उस मिट्टी का कीचड़ की पुलटिस बनाई और पट्टी खोल कर उस पुलटिस को ज़ख़्मों पर लगाया। घावों पर हुए इस प्रयोग को देखकर डॉक्टर त्रस्त हो गया। उसने धमकी दी कि वह इस मरीज़ की जिम्मेदारी से अपने हाथ खींच लेगा। लेकिन दो ही दिनों में गांधीजी स्वस्थ होकर बारामदे में एक कुर्सी पर बैठकर फल खा रहे थे। थोड़ा ठीक होने के बाद वह वहां से चले गए।

उपसंहार

समझौते पर भरोसा कर सबसे पहले गांधीजी ने ख़ुद अपना पंजीकरण कराया। उसके बाद वे अधिकांश भारतीयों को स्वेच्छा से पंजीकरण करने के मना भी लिया था। लेकिन सरकार ने उनके साथ चाल चली थी। स्मट्स काइयां आदमी निकला। उसने गांधीजी को दिया वचन भंग कर दिया। क़ानून वापस नहीं लिया गया। सरकार के अधिकारियों ने आदेश दिया कि स्वेच्छा से पंजीकरण को क़ानून के तहत स्वीकार किया जाए।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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