गांधी और गांधीवाद
194. हिंद स्वराज-6
1909
पाश्चात्य
आधुनिकता का विरोध
हिंद स्वराज "आधुनिक सभ्यता" की कड़ी निंदा है। गांधीजी इस निर्णय पर
पहुंचे थे कि पश्चिम के देशों में जो आधुनिक सभ्यता ज़ोर कर रही है, वह कल्याणकारी नहीं है।
मनुष्य-हित के लिए वह सत्यानाशकारी है। ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने पाश्चात्य
आधुनिकता का विरोध कर हमें यथार्थ को पहचानने का रास्ता दिखाया। उनका मानना था कि
भारत और सारी दुनिया में प्राचीन काल से जो धर्मपरायण नीति प्रधान सभ्यता चली आई
है, वह सच्ची सभ्यता है। इस पुस्तक में गांधीजी
कहते हैं, “मैंने जो कुछ कहा है, वह अंग्रेज़ों के प्रति
द्वेष के कारण नहीं, उनकी सभ्यता के प्रति
द्वेष के कारण कहा है।” उनका कहना था कि भारत से केवल अंग्रेज़ों को हटाने से
भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज नहीं मिलेगा। हम अंग्रेज़ों को हटा दें और उन्हीं
की सभ्यता और आदर्शों को अपना लें तो हमारा उद्धार नहीं होगा। गांधीजी कहते हैं, “यह सभ्यता ऐसी है कि अगर
हम हाथ पर हाथ धर के बैठे रहेंगे तो इस सभ्यता की चपेट में आये हुए लोग ख़ुद की
जलाई हुई आग में जल मरेंगे।”
हमें अपनी आत्मा को बचाना
चाहिए। ग्राम विकास इसके केन्द्र
में है। रेलों, अदालतों, डॉक्टरों और प्रशासकों पर
आधारित आधुनिक सभ्यता की समझौता-विहीन निंदा करने वाले और शिक्षा-प्रणाली में
ज्ञान-विज्ञान की वकालत करने वाले गांधीजी ने वैकल्पिक टेक्नॉलोजी के साथ-साथ स्वदेशी और सर्वोदय को
महत्व दिया तथा सशक्तिकरण का मार्ग दिखाया। उनके इस मॉडल के अनुसरण से एक नैतिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और शक्तिशाली
भारत का निर्माण संभव है। पश्चिम में जिस प्रकार
लोकतंत्र का विकास हुआ है वह ऐसा कोई आदर्श समाज सुनिश्चित नहीं कर सकता। अपने
मनुष्यत्व को समझ लेने वाला मनुष्य केवल ईश्वर से डरता है। अगर मनुष्य केवल यह समझ
ले कि अन्यायपूर्ण नियमों का पालन करना मनुष्योचित नहीं है, तो कोई भी निरंकुश शासन
उसे कभी दास नहीं बना सकता। यह स्वशासन या स्वराज्य का मूल मंत्र है। केवल वह समाज
स्वतंत्र, प्रसन्न और रहने योग्य
होता है जिसमें हर स्त्री-पुरुष एक संभावित
सविनय अवज्ञाकारी हो। इस पुस्तक में गांधीजी का आत्मविश्वास एक ऐसे सभ्यता के
प्रामाणिक प्रतिनिधि का आत्मविश्वास है, जो आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-ज्ञान को ही सब ज्ञानों का
ज्ञान और प्रमाण मान कर चलता है।
इसमें गांधीजी की स्वराज या होम-रूल की परिभाषा के लिए
हमेशा दिलचस्पी बनी रहती है। गांधीजी ने लिखा, 'कुछ अंग्रेज कहते हैं कि उन्होंने भारत को तलवार के बल पर
छीन लिया और अपने कब्जे में रखा। दोनों ही बातें गलत हैं। तलवार वाली बातें गलत
हैं। भारत को अपने कब्जे में रखने के लिए तलवार बिल्कुल बेकार है। हम ही उन्हें
अपने कब्जे में रखते हैं... हमें उनका व्यापार पसंद है;
वे अपने
धूर्त तरीकों से हमें खुश करते हैं और हमसे जो चाहते हैं,
उसे हासिल
कर लेते हैं... हम आपस में झगड़कर उनकी पकड़ को और मजबूत करते हैं... भारत को
ब्रिटिशों के नहीं बल्कि आधुनिक सभ्यता के बल पर कुचला जा रहा है।'
भारतीय सभ्यता की विशेषता है कि वह व्यक्ति को भोग से दूर रखता है। इसीलिए आधुनिक सभ्यता का भारतीय सभ्यता से मेल नहीं है। आधुनिक सभ्यता का लक्ष्य भौतिक उन्नति है। इसके लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। तकनीक पर्यावरण को नष्ट करता है। यह भोग और हिंसा को बढ़ावा दे रहा है। यह चिंतनीय स्थिति हमारे समक्ष चुनौतियां पैदा कर रही है। हमें पर्यावरण के साथ मनुष्य के एक मत होने के रास्ते को ढूंढ़ निकालना होगा। यह प्राचीन भारतीय रास्ता है। इसे पर्यावरण प्रभावित नैतिकता कह सकते हैं।
कई समालोचक ‘हिन्द स्वराज’ में गांधीजी के सुझाये गए आधुनिक सभ्यता के विकल्प को गंभीरतापूर्वक विचार करने योग्य नहीं पाते। गांधीजी मानते हैं कि इतिहास अस्वाभाविक बातों को दर्ज़ करता है। सामान्य प्रजा सत्याग्रह के बूते जीती है, वह सत्याग्रह इतिहास में दर्ज़ नहीं होता। इसलिए इतिहास पर भरोसा करना या उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा। गांधीजी मानते हैं कि हिन्दुस्तान का बल सत्याग्रह या आत्मबल या करुणा का बल है। इसलिए दूसरे इतिहासकारों से हमारा कम संबंध है। दूसरी सभ्यताएं मिट्टी में मिल गयीं, जबकि हिन्दुस्तानी सभ्यता को आंच नहीं आयी है।
लेकिन गांधीजी आज के बुद्धिजीवियों की तरह विउपनिवेशीकरण तक अपने को सीमित नहीं रखते। वे स्वराज में अन्य के लिये भी स्थान देते हैं। कोलोनाइज़र और कोलोनाइज़्ड दोनों की स्वाधीनता को उन्होंने स्वीकृति दी है। इस तरह ‘हिंद स्वराज’ एक वैकल्पिक स्थिति पैदा करता है। एक वैकल्पिक मूल्य-व्यवस्था की रचना करता है। यह भारतीय आधुनिकता की सबसे प्रमुख बात है। जबकि पाश्चात्य आधुनिकता में एक को बहिष्कृत कर दूसरे को प्रतिष्ठित करने की बात है। भारत समायोजन के द्वारा अपना विकास करता है। पश्चिम प्रतिस्थापन के द्वारा विकसित होता है। भारत में प्राचीन विचार खो नहीं जाते, नवीन विचार के साथ सहवस्थान करते हैं। यहां एक का बहिष्कार कर अपनी आधुनिकता की रचना नहीं की जाती। यहां विकल्पों को स्वीकारा जाता है। इसमें सिर्फ़ विकास की बात नहीं, खुद को पहचानने की बात है, खुद के स्वाधीनता की बात है। यह आधुनिकता से परंपरा के जोड़ने की बात नहीं है, अंतर्वेशन के द्वारा आधुनिकता की नई संरचना के निर्माण की बात है। यहां वादों, जैसे परंपरावाद, जातिवाद आदि, के तिरस्कार की बात है।
स्वतंत्रता और उसके बाद
गांधीजी के बताए हुए अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश स्वतंत्र हुआ। असहयोग, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह ने चमत्कार किया। हमें स्वराज मिला, लेकिन हमने गांधीजी की जीवन-दृष्टि को पूरी तरह से नहीं अपनाया। धर्मपरायण, नीति-प्रधान पुरानी संस्कृति से प्रतिष्ठित शिक्षा पद्धति नहीं अपनाई। पश्चिम के विज्ञान और यांत्रिक कौशल्य का सहारा लिया। जो लोग आत्मवाद, सर्वोदय, अहिंसक शोषण-विहीन समाज-रचना, ग्राम-राज्य की स्थापना, मानस-परिवर्तन, आदि के द्वारा सामाजिक जीवन में आमूल क्रांति की वकालत कर रहे थे, उन्होंने भी माना कि पश्चिम के विज्ञान और यंत्र-कौशल्य के बिना सर्वोदय अधूरा ही रहेगा। सन 1947 के बाद उत्तर-उपनिवेशवादी युग में विकास के पश्चिमी दृष्टिकोण, आधुनिक प्रौद्योगिकी और पाश्चात्य आधुनिक अवधारणा की सहायता से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के अर्थ नैतिक विकास को संभव बनाने का प्रयत्न किया। कई विचारकों, जिसमें गुनर मिरदाल भी शामिल थे, का विचार था कि भारत जैसे पारंपरिक समाज जब तक अपनी प्राचीन मूल्य व्यवस्था से मुक्त होकर आधुनिकीकरण की ओर नहीं बढ़ेगा, तब तक उसका विकास संभव नहीं।
गांधीजी
मूलतः एक संवेदनशील व्यक्ति थे। वे अपने सिद्धांतों की कद्र करने वाले भी थे। उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता
को, परंपरागत भारत के समर्थक
होने के बावजूद भी, अच्छी तरह पढा, समझा और फिर उसका
विवेचनात्मक खंडन भी किया। उनके सामने यह बात स्पष्ट थी कि भारतीय-आधुनिकता सीमित होते हुए
भी प्रभावी है। वर्तमान आर्थिक विश्व संकट में गांधीजी की यह पुस्तक विशेष रूप से
महत्वपूर्ण हो उठी है। हालाकि कुछ खास वर्ग के लोग सोचते हैं कि गांधीजी देश को सौ
वर्ष पीछे ले जाना चाहते हैं। लेकिन आज भारत हर संकट को पार कर खड़ा है। 1945 में गांधीजी के इस मत को
कि देश का संचालन ‘हिंद स्वराज’ के माध्यम से हो, नेहरू जी ने ठुकरा दिया था। नेहरू जी का मानना था कि
गांव स्वयं संस्कृतिविहीन और अंधियारे में हैं, वे क्या विकास में सहयोग करेंगे। लेकिन आज भी हम पाते
हैं की भारत रूपी इमारत की नींव में गांव और छोटी आमदनी के लोग हैं। गांधीजी का ‘हिंद स्वराज’ इस वैश्वीकरण के दौर में
भी तीसरी दुनिया के लिए साम्राज्यवादी सोच का विकल्प प्रस्तुत करता है।
गांधीजी दक्षिण अफ्रीका का इतिहास में लिखते हैं, “इंग्लैंड से लौटा प्रतिनिधिमंडल कोई अच्छी खबर नहीं लाया था। सत्याग्रह के
बारे में मेरे विचार अब परिपक्व हो चुके थे और मुझे इसकी सार्वभौमिकता के साथ-साथ
इसकी उत्कृष्टता का भी एहसास हो गया था। इसलिए मैं पूरी तरह निश्चिंत था। हिंद
स्वराज सत्याग्रह की महानता को प्रदर्शित करने के लिए लिखा गया था और वह पुस्तक इसकी
प्रभावकारिता में मेरे विश्वास का सच्चा माप है।”
जब वे ट्रांसवाल में एक सीमित कार्य से निपटने के लिए इस
अनुशासन का अभ्यास कर रहे थे, तो वे भारत में बड़े पैमाने पर इसके आवेदन की गुंजाइश पर भी
विचार कर रहे थे। भले ही दक्षिण अफ्रीका में निष्क्रिय प्रतिरोध अभियान कोई ठोस
सफलता नहीं लाए थे, लेकिन गांधीजी पूरी तरह से आश्वस्त थे कि सत्याग्रह भारत के सामने एक स्वतंत्र
देश बनने की बढ़ती इच्छा के संबंध में चुनौती का सबसे अच्छा जवाब था। गांधीजी के
विचार कुछ क्षेत्रों में कुछ लोगों को अवास्तविक लग सकते हैं, लेकिन नैतिक और आचार-सिद्धांतों पर उनका बुनियादी जोर, सत्य और अहिंसा या प्रेम के पालन की आवश्यकता, अपने धर्म के सिद्धांतों का पालन, श्रम की गरिमा और निष्क्रिय प्रतिरोध या सत्याग्रह की
पद्धति का उपयोग करके मजबूत द्वारा कमजोरों के शोषण को समाप्त करना, चाहे वह मिल मालिकों द्वारा मजदूरों का शोषण हो, या विजेताओं द्वारा विजित राष्ट्रों के संसाधनों का शोषण हो, जैसा कि हिंद स्वराज में स्पष्ट रूप से कहा गया है, अपवाद रहित है।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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