गांधी और गांधीवाद
171. फीनिक्स फार्म में आदर्श जीवन की शिक्षा
1908
6 मार्च 1908 को गांधीजी डरबन से फीनिक्स आश्रम के
लिए रवाना हुए। पिछली रात को जिन मित्रों ने गांधीजी की रक्षा की थी वे उन्हें
अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। वे भी गांधीजी के साथ रक्षक के रूप में गए। गांधीजी ने कहा, 'अगर तुम मेरे बावजूद भी आओगे तो मैं तुम्हें नहीं रोक सकता। लेकिन
फीनिक्स एक जंगल है। और अगर वहां रहने वाले तुम्हें खाना भी न दें तो तुम क्या
करोगे?' दोस्तों में से एक ने
जवाब दिया, 'इससे हमें डर नहीं
लगेगा। हम पनी देखभाल खुद कर सकते हैं। हमें तुम्हारी पेंट्री लूटने से कौन रोक
सकता है?' इस तरह फीनिक्स के लिए सब
चले और पूरे सप्ताह वे फीनिक्स आश्रम में
रहे। इस स्व-नियुक्त कमांडो दस्ते का लीडर जैक मूडलि था। वह नेटाल में पैदा हुआ
तमिलियन था। वह एक प्रशिक्षित और खूंखार बॉक्सर था। सभी यह मानते थे कि
दक्षिण अफ्रीका में कोई भी व्यक्ति, चाहे वह गोरा हो
या रंगीन, बॉक्सिंग में उसका
मुकाबला नहीं कर सकता। रात को वह चौकसी रखता था।
कई वर्षों से गांधीजी की आदत थी कि वह बारिश के अलावा हर समय
खुले में सोते थे। स्व-गठित गार्ड ने सारी रात पहरा देने का फैसला किया। गांधीजी लिखते हैं, “हालाकि मुझे उन लोगों के क्रिया-कलापों पर हंसी आ रही थी, फिर भी मुझे तो यह स्वीकार करना ही
चाहिए कि मैं इतना कमज़ोर था कि उनकी उपस्थिति के बावज़ूद भी सुरक्षित महसूस नहीं कर
रहा था। मुझे नहीं लगता कि यदि वे न होते तो मैं सो भी पाता।”
फीनिक्स में गांधीजी ने आराम किया और बहुत कुछ लिखने के लिए
समय निकाला। विरोधियों को अपनी बात समझाने के लिए
उन्होंने ‘इंडियन
ओपिनियन’ में कॉलम लिखा। उनकी आवाज़ सहयोगियों के दिलों तक पहुंची। इसने अच्छा प्रभाव
डाला। ट्रांसवाल के भारतीय, जिनकी समझौते के बारे
में गलतफहमियाँ, अगर लगातार बनी रहतीं, तो वास्तव में विनाशकारी परिणाम देतीं,
उन्होंने
इसे लंबे समय तक गलत नहीं समझा। परिणामस्वरूप, यद्यपि आरंभ में अनेक
भारतीयों ने अंगुलियों के निशान देने का कड़ा विरोध किया था, फिर भी यह
प्रश्न संतोषजनक रूप से सुलझा लिया गया। स्वैच्छिक पंजीकरण के अंतिम दिन 9 मई तक
लगभग 8,000 आवेदन प्राप्त हुए, जिनमें से 6,000 को स्वीकृत
और पारित कर दिया गया। शायद ही कोई भारतीय ऐसा था जिसने स्वेच्छा से अपना पंजीकरण
न कराया हो। पंजीकरण के लिए आवेदकों की इतनी भीड़ थी कि संबंधित अधिकारियों पर काम
का बोझ बहुत अधिक था, और बहुत कम समय में भारतीयों ने समझौते के अपने हिस्से को
पूरा कर दिया। यहाँ तक कि सरकार को भी यह स्वीकार करना पड़ा, कि गलतफहमी, यद्यपि गंभीर
प्रकृति की थी, लेकिन इसकी सीमा काफी सीमित थी। भारतीयों को उम्मीद थी कि सरकार
ब्लैक एक्ट को निरस्त कर देगी और पंजीकरण को वैधानिक बना देगी।
आश्रम का जीवन उन्हें रास आने
लगा। पत्नी-बच्चों से निकटता बढ़ी। जब वे मीर आलम के द्वारा किए
आक्रमण के बारे में सबको बता रहे थे, तो हरिलाल
ने पूछा, “अगर मैं घटना स्थल पर होता तो मुझे क्या करना चाहिए था? क्या मुझे अपने पिता को पिटते देखते
रहना चाहिए था? या वहां से भाग जाना चाहिए था? या आक्रमणकारी पर हमला बोल देना उचित होता?”
गांधीजी ने जवाब दिया, “अगर तुम्हारे पास अपने पिता की रक्षा
के लिए उस वक़्त कोई अहिंसक उपाय नहीं बचता, तो तुम्हें बल का सहारा लेना उचित होता।”
हरिलाल की पत्नी गुलाब
बहन भारत से आकर साथ रहने लगी थी।
परिवार में पुत्री का आगमन हुआ। 10 अप्रैल 1908 को गुलाब बहन ने पुत्री को जन्म दिया। किसी दक्ष नर्स-दाई की
अनुपस्थिति में कस्तूरबा व फीनिक्स फार्म की एक अन्य महिला ने वह काम निभाया। वह
रामनवमी का दिन था। इसलिए रामभक्त गांधीजी ने पौत्री का नाम “रामी” रखा! कस्तूर को तो लोग बा कहते ही थी अब लोगों ने गांधीजी को भाई की जगह
बापू कहना शुरू कर दिया था। गांधीजी लिखाई करते,
प्रेस का टाइप ठीक करते,
हथौड़ों और औज़ार से काम करते। चौके में खाना बनाने का काम
भी करते। बगीचे में खुरपी और फावड़ा चलाते। बच्चों के साथ खेलते। पूरे वातावरण में
हंसी ख़ुशी का माहौल बना रहता।
उन्होंने फीनिक्स फार्म में
एक स्कूल खोला। इसमें बोर्डिंग की व्यवस्था थी। यहां लड़कों को मैट्रिक तक की
शिक्षा दी जाती थी। हर धर्म और वर्ग के लड़के यहां आते और लड़कों के परिवार वालों के
भी रहने की व्यवस्था थी। गांधीजी का मानना था कि कई धर्म वाले जब एक साथ रहेंगे तो
सहिष्णुता अपने आप ही सीख जाएंगे। लेकिन उनका यह सपना फलीभूत नहीं हो पाया।
मिलिटरी में रह चुका एक जर्मन, कॉर्डेस, बेहद अनुशासन प्रिय व्यक्ति था। उसका मानना था कि लड़कों को डंडे के
ज़ोर से ही क़ाबू में किया जा सकता है। वह इसे आजमाता भी। लड़कों के माता-पिता को
चिंता होती कि कई धार्मिक विचारधाराओं के एक साथ आने से इसका उल्टा असर उनके
बच्चों पर पड़ेगा। कई महिलाएं दूसरे धर्म के लड़कों को अछूत मानतीं और उनके इस्तेमाल
किए बर्तनों को छिप-छिप कर कई बार धोतीं। गांधीजी को बच्चों को पढ़ाने और उनकी
पुस्तिका जांचने में काफ़ी आनंद आता। बीमारों की तीमारदारी में भी उन्हें काफ़ी सुख-चैन
मिलता। बीमार बच्चे की देखभाल ख़ुद करते। उसे गीले कपड़े में लपेटते या उसके शरीर पर
मिट्टी की पुलटिस लगाते। उसकी टांगों की मालिश करते। उन्हें किस्से-कहानी सुनाते। इस
प्रकार वे फीनिक्स फार्म में लोगों को आदर्श और एक अच्छी और नैतिक जीवन की शैली की
शिक्षा दे रहे थे। हर शाम को भजन गाया जाता। गांधीजी लोगों के दुख-सुख में साथ खड़े
होते।
एक दिन की बात है कुछ लड़कों
ने (जिनमें से एक उनका बेटा, रामदास भी था) कहीं से पैसे चुराकर मिठाई खाई। बापू को इसकी ख़बर लग
गई। इसके बाद तो पलक झपकते ही पूरे आश्रम में हड़कंप मच गया। कई दिनों तक खोज होती
रही कि यह काम किसने किया है? बापू एक-एक करके लड़कों को बुलाते और अपनी झोंपड़ी और प्रेस के बीच की
जगह में घूमते हुए उनसे पूछताछ करते। लेकिन कोई नतीज़ा न निकला। जो दोषी थे, वे दिल थामें अपनी बारी का इंतज़ार कर
रहे थे। एक दिन बापू की झोंपड़ी से चाटे मारने की आवाज़ सुनाई दी। लोगों को समझ नहीं आ
रहा था कि अंदर क्या हो रहा है? उसी दिन शाम की प्रार्थना में बापू ने कहा, “मैंने खाना नहीं
खाया। इस धोखे ने मुझे बहुत पीड़ा पहुंचाई है। जब यह मेरे लिए असहनीय हो गया तो
बजाय दूसरों के मारने के मैंने अपने को ही चांटे मारे है। जब तक लड़के अपना गुनाह
क़बूल नहीं कर लेते मैं खाना नहीं छूऊंगा। अगर किसी को मुझ पर दया है, तो उसे इन लड़कों से कहना
चाहिए कि वो सत्य को खोजने में मेरी मदद करे।”
गांधीजी के लिए ‘सत्य’ कोई
दार्शनिक विचार नहीं था। वे मानते थे कि रोज़मर्रा की छोटी-छोटी चीज़ों में भी सत्य
प्रगट होता है। इस सत्य को पकड़ने के लिए उन्हें रोज़ सांकेतिक रूप में मरना पड़ता
था। जिन लड़कों ने मिठाई के लिए पैसे चुराए थे, उनसे सत्य उगलवाने के लिए भी एक तरह से उन्हें मौत की पीड़ा से गुज़रना
पड़ा। आख़िरकार सच सामने आया। गांधीजी ने उन बच्चों से आइंदा ऐसा नहीं करने की शपथ
दिलवाई।
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।