गांधी और गांधीवाद
170. गांधीजी का फिर से जान लेने का
प्रयास
मार्च 1908
दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया मजदूर
लगभग सभी हिंदू थे और मुसलमान ज्यादातर सूरत, कच्छ और गुजरात
के अन्य हिस्सों से आए व्यापारी थे। वे गिरमिटिया मजदूरों की जरूरतों को पूरा करने
के लिए वहां गए थे और समय के साथ उन्होंने अच्छे व्यवसाय स्थापित कर लिए थे। वहां
हिंदू-मुस्लिम प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। दक्षिण अफ्रीका में
अधिकांश धनी भारतीय व्यापारी मुसलमान थे। जैसे-जैसे सत्याग्रह
आंदोलन आगे बढ़ा और गांधीजी के विचार त्याग की तर्ज पर विकसित हुए, जिसके लिए
आत्म-बलिदान की आवश्यकता थी, इनमें से कई धनी व्यक्ति उन्हें छोड़कर चले गए। निष्क्रिय
प्रतिरोध आंदोलन में शामिल होने वालों में से अधिकांश हिंदू थे और कुछ ईसाई थे। यह
ध्यान देने योग्य है कि एच.ओ. एली, जो 1906 में लंदन में
प्रथम प्रतिनिधिमंडल
के सदस्य के रूप में गांधीजी के साथ गए थे, सांप्रदायिकता के इस जहर
का शिकार हो गए थे। उन्हें निष्क्रिय प्रतिरोध
का विचार पसंद नहीं था और वे जेल जाने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन वे
गांधीजी के नेतृत्व में समुदाय को उस रास्ते को अपनाने से नहीं रोक सकते थे। उन्होंने
अमीर अली को एक पत्र लिखा, कि गांधीजी की नीति और कार्यक्रम मुस्लिम व्यापारियों को पूरी
तरह बर्बाद कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हिंदू सभी कुली और फेरीवाले थे, जबकि मुसलमान
संपन्न व्यापारी थे। जनवरी 1908 में स्वैच्छिक पंजीकरण के आधार पर समझौता हुआ।
हालाँकि, संदेह के बीज बोए जा चुके थे और समझौते का विरोध उन संदेहों और
सांप्रदायिक विचारों से प्रभावित था। सत्याग्रह के परिणामस्वरूप अभियोग और
गिरफ़्तारियाँ, कारावास, जुर्माना और अन्य कठिनाइयाँ हुईं, जिसके कारण कई
प्रतिष्ठित मुस्लिम व्यापारियों ने उनका साथ छोड़ दिया।
गांधीजी अपने काम के सिलसिले में अक्सर ट्रांसवाल और नेटाल के
बीच आते-जाते रहते थे। नेटाल के मित्रों के पत्रों से उन्हें पता चला कि नेटाल में
भी समझौते को बहुत गलत समझा गया था। और उन्हें इंडियन ओपिनियन को संबोधित
बहुत से पत्र मिले थे, जिनमें समझौते की कड़ी
आलोचना की गई थी। हालाँकि सत्याग्रह संघर्ष
अभी भी ट्रांसवाल के भारतीयों तक ही सीमित था, फिर भी उन्हें
नेटाल के भारतीयों का भी समर्थन और सहानुभूति प्राप्त करनी चाहिए थी। ट्रांसवाल का
संघर्ष केवल एक स्थानीय मामला नहीं था और ट्रांसवाल के भारतीय वास्तव में दक्षिण
अफ्रीका के सभी भारतीयों की ओर से लड़ाई लड़ रहे थे। इसलिए गांधीजी ने निश्चित
किया कि उन्हें डरबन जाना चाहिए और वहाँ व्याप्त गलतफहमियों को दूर करना चाहिए। सत्याग्रह
संघर्ष को हमेशा 'दक्षिण अफ्रीका के सभी भारतीयों की ओर से लड़ाई' के रूप में
देखते हुए, वे जल्द से जल्द नेटाल जाकर गलतफहमी दूर करने के लिए जो कुछ भी कर
सकते थे, करना चाहते थे।
गांधीजी का चारों तरफ़ विरोध
हो रहा था। खासकर डरबन के लोग उनके ख़िलाफ़ हो गए थे। डरबन के पठानों का कहना था कि गांधीजी
ने भारतीय समुदाय के साथ विश्वासघात किया है। विरोध के समर्थकों ने एक मीटिंग आयोजित की। जोहान्सबर्ग में हुए जानलेवा
हमले से मिली पिछली चोट से ख़राब हुई तबीयत
काफ़ी ठीक हुई तो पठान और अन्य लोगों के बीच समझौते
को लेकर फैले भ्रामक स्थिति को दूर करने के लिए गांधीजी डरबन के लिए
ट्रेन से रवाना हुए। नेटाल इंडियन कांग्रेस
ने इंडियन थिएटर में एक बैठक बुलाई थी, जिसमें गांधीजी
को ट्रांसवाल में एशियाई पंजीकरण के प्रश्न पर हाल ही में हुए समझौते पर सुनने के
लिए बुलाया गया था। 2000 से ज़्यादा लोग मौजूद थे। उन्होंने 5 मार्च 1908 की शाम को नेटाल के भारतीयों की एक सभा को संबोधित किया। हालांकि गांधीजी
को कुछ मित्रों ने चेता दिया था कि इस बैठक में उन पर हमला किया जाएगा और इसलिए उन्हें
इसमें शामिल नहीं होना चाहिए या कम से कम अपने बचाव के लिए कदम उठाने चाहिए। लेकिन गांधीजी को इस तरह के हमले रोक नहीं सकते थे। उनका कहना था, “नौकर को मालिक
बुलाए और वह डर से न जाए तो उसका सेवक धर्म गया और मालिक की सज़ा से डरे तो वह सेवा
कैसी? जनता की सेवा, सेवा की खातिर खांडे की धार पर चलना है। लोक सेवक
स्तुति लेने को तैयार हो जाता है तो निंदा से कैसे भाग सकता है? अतः मैं तो नियत समय पर सभा
में पहुंचूंगा।”
इसलिए वह नियत समय पर बैठक में उपस्थित हुए। सभा रात के आठ बजे शुरू हुई। अपने भाषण में समझौते के बारे में गांधीजी
ने विस्तार से समझाया। लोगों द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर उनकी शंकाओं का समाधान भी
किया। वे सभी को यह समझाने में सफल नहीं हुए कि उन्होंने सही काम किया है।
सभा के खत्म होने का समय आ
गया था। रात भी घिर आई थी। अचानक बत्तियां चली गईं। भीड़ से एक मज़बूत पठान मंच पर
चढ़ आया। वह हाथ में एक बड़ी लाठी लिए हुए था। भाषण दे रहे गांधीजी की तरफ़ वह किसी
खतरनाक इरादे से बढ़ा। सभापति सेठ दाऊद मुहम्मद अपनी मेज पर चढ़ गए और लोगों को
समझाने लगे। किसी ने रिवॉल्वर से खाली गोली चलाई। गांधीजी के कुछ दोस्त इस संभावित आक्रमण को भांप चुके थे। वे जल्दी
से ऊपर आ गए। गांधीजी को उन्होंने चारों तरफ़ से घेर लिया। आक्रमणकारियों को डराने
के लिए उनमें से एक व्यक्ति ने रिवॉल्वर से खाली फायर किया। पारसी रुस्तम जी दौड़कर
थाने पहुंचे और पुलिस सुपरिंटेंडेंट अलेक्ज़ेंडर को सूचना दी। उन्होंने पुलिस का एक
दस्ता भेज दिया। इस बीच गांधीजी को घटना स्थल से सही सलामत बाहर निकाल लाया गया।
पुलिस ने गांधीजी को और पारसी रुस्तमजी के घर तक पहुंचाया।
रुस्तमजी जीवनजी घोरखोडू जितने सच्चे भारतीय थे, उतने ही सच्चे
पारसी भी थे। वे एक रूढ़िवादी पारसी थे, लेकिन उनका पारसी धर्म
मानवता जितना ही व्यापक था। वे बिना किसी भेदभाव के सभी से मित्रता रखते थे। वे
अधिकारियों के साथ मधुर व्यवहार कर सकते थे, लेकिन जब जरूरत पड़ती तो
वे अडिग भी हो जाते थे। उनका वचन उनके बंधन जितना ही अच्छा था। वे शेर की तरह
बहादुर थे। वे वादे करने से कतराते थे, लेकिन अगर वे वादे करते
तो उन्हें पूरा करने की पूरी कोशिश करते थे। खुद को सत्याग्रही घोषित करने के बाद, वे आंदोलन के
सबसे बुरे दौर में भी पीछे नहीं हटे, तब भी नहीं जब ऐसा लग
रहा था कि अंत कभी नहीं आएगा। उन्होंने अपनी क्षमता से कहीं ज़्यादा दिया। उनके
दान-कार्य बहुत उदार थे। उन्होंने मस्जिदों, मदरसों, राष्ट्रीय
विद्यालयों के लिए दान दिया। जब गांधीजी को भीड़ द्वारा मार डाला गया, तब उन्होंने गांधीजी
को शरण दी। जब 1897 में गोरों ने गांधीजी पर आक्रमण किया, तो रुस्तमजी के
घर में उन्हें और उनके बेटों को शरण मिली। गोरों ने उनके घर और संपत्ति को जलाने
की धमकी दी थी। परन्तु उस धमकी से वे जरा भी विचलित नहीं हुए। अफ्रीका में इस
प्रकार बने सम्बन्ध को उन्होंने अपनी मृत्यु तक कायम रखा।
अगले दिन, 6 मार्च 1908 को पारसी रुस्तम जी ने डरबन के पठानों को इकट्ठा करके कहा कि आप
लोगों को गांधीजी से कोई शिकायत है तो उन्हें उनके सामने कहें। गांधीजी पठानों से
मिले। उन्हें शांत करने की कोशिश की। पर वे उसमें सफल न रहे। पठानों ने
शिकायत की कि गांधी इस मुद्दे के प्रति गद्दार हैं। पठानों ने जोर देकर कहा कि
सरकार पर भरोसा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह अपने द्वारा
बनाए गए कानूनों के अलावा किसी भी कानून से बंधी नहीं है। गांधीजी ने तर्क दिया कि
उन्हें जनरल स्मट्स पर भरोसा था क्योंकि जनरल ने ईमानदारी और साहस का परिचय दिया
था। वहम की दवा दलील से समझाने से नहीं हो सकी। उनके मन में
यह बात गहरी पैठी हुई थी कि गांधीजी ने कौम को धोखा दिया है। जब तक यह बात उनके मन
से न निकलती उनको समझाना व्यर्थ ही था।
गांधीजी उन्हें समझाने के लिए कुछ नहीं कर सके और उसी दिन
निराशा की भावना में फीनिक्स के लिए रवाना हो गए। जब जोहान्सबर्ग में गांधीजी पर
हमला हुआ, तो उनका परिवार फीनिक्स में रहता था और स्वाभाविक रूप से उनके बारे
में चिंतित था। गांधीजी के लिए यह जरूरी था कि वह ठीक होने के बाद उनसे मिलें। पठानों
ने उनकी इतनी तीखी निंदा की थी कि उनके सहयोगियों ने उन्हें एक अंगरक्षक प्रदान कर
बुद्धिमानी दिखाई।
बाद में इस बारे में दार्शनिकता व्यक्त करते हुए उन्होंने
लिखा: 'मुझे विश्वास है कि मुझे
ईश्वर पर अटूट विश्वास है। कई वर्षों से मैं इस प्रस्ताव को बौद्धिक रूप से
स्वीकार करता रहा हूँ कि मृत्यु जीवन में केवल एक बड़ा बदलाव है और इससे अधिक कुछ
नहीं, और जब भी आए, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। मैंने जानबूझ कर अपने दिल से हर तरह के
डर को निकालने की पूरी कोशिश की है, जिसमें मौत का
डर भी शामिल है। फिर भी मुझे अपने जीवन में ऐसे मौके याद हैं जब मैं मौत के करीब
पहुंचने के बारे में सोचकर खुश नहीं हुआ, जैसा कि कोई
अपने सबसे करीबी दोस्त से मिलने की संभावना पर खुश होता है। इस प्रकार मनुष्य
अक्सर मजबूत बनने के अपने सभी प्रयासों के बावजूद कमजोर ही रहता है, और जो ज्ञान दिमाग तक ही सीमित रहता है और दिल तक नहीं पहुंचता, वह जीवन के महत्वपूर्ण समय में बहुत कम उपयोगी होता है।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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