राष्ट्रीय आन्दोलन
201. भीकाजी
जी रूस्तम कामा (मैडम कामा)
आजादी की लड़ाई केवल भारत की धरती पर ही नहीं
लड़ी गई, बल्कि कई राष्ट्रवादियों ने भारत के बाहर जाकर अपने देश का पक्ष दुनिया
के सामने रखा। भीखाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा) (24 सितंबर,
1861 - 13 अगस्त, 1936) भारतीय मूल की पारसी नागरिक थीं जिन्होंने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का
भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया। वह साहस, निर्भीकता और मजबूत इरादों की प्रतीक थीं। उन्हें विदेश
जाने के बाद भारत लौटने का मौका तो नहीं मिला लेकिन उन्होंने विदेश में भी देश
सेवा जारी रखी और दुनिया को भारत की आजादी के संघर्ष से परिचित कराया।
भीकाजी ने वर्ष 1905 में
भारत के ध्वज का पहला डिजायन तैयार किया था। वे जर्मनी के
स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में भारत का
प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहराने के लिए सुविख्यात हैं। उस समय तिरंगा वैसा नहीं था
जैसा आज है। उनके तैयार किए गए झंडे से काफी मिलते−जुलते डिजायन को बाद में भारत
के ध्वज के रूप में अपनाया गया। भीकाजी द्वारा लहराए गए झंडे में देश के विभिन्न
धर्मों की भावनाओं और संस्कृति को समेटने की कोशिश की गई थी। उसमें इस्लाम, हिंदुत्व
और बौद्ध मत को प्रदर्शित करने के लिए हरा,
पीला और लाल रंग इस्तेमाल किया गया था। साथ ही
उसमें बीच में देवनागरी लिपि में वंदे मातरम लिखा हुआ था। झंडे में हरी पट्टी पर बने आठ कमल के फूल भारत
के आठ प्रांतों को दर्शाते थे। लाल पट्टी पर सूरज और चांद बना था। सूरज हिन्दू
धर्म और चांद इस्लाम का प्रतीक था। ये झंडा अब पुणे की केसरी मराठा लाइब्रेरी में
प्रदर्शित है।
समाचार-पत्र का प्रकाशन
वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचार-पत्र
‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ में प्रकट करती थीं। पेरिस से
प्रकाशित "वन्देमातरम्" पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ। इसके
मास्टरहेड पर नाम के साथ उसी झंडे की छवि छापी जाती रही जिसे मैडम कामा ने फहराया
था।
अन्तर्राष्ट्रीय
सोशलिस्ट कांग्रेस
मैडम कामा भारत के स्वाधीनता आंदोलन के द्वारा संपूर्ण
पृथ्वी से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त करना चाहती थीं। 1907 में
जर्मनी के स्टटगार्ट में हुई अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी
कामा ने कहा था - ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है।
एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।’’ यह वो व़क्त था
जब दो साल पहले, साल 1905 में भारत में बंगाल प्रांत का बंटवारा
हुआ था, जिसकी वजह से देश में राष्ट्रवाद की लहर दौड़ गई थी। महात्मा
गांधी अभी दक्षिण
अफ़्रीका में सत्याग्रह की लड़ाई लड़ रहे थे। देश में 'स्वदेशी' को तरजीह देने
के लिए विदेशी कपड़ों का
बहिष्कार शुरू कर दिया गया था। बंकिम चंद्र चैटर्जी की किताब 'आनंदमठ' से निकला गीत 'बंदे मातरम' राष्ट्रवादी
आंदोलनकारियों में लोकप्रिय हो गया था। इस सम्मलेन में उन्होंने ब्रिटिश
उपनिवेशवाद के विनाशकारी प्रभावों के बारे में विस्तार से बात की थी। इन प्रभावों
में लगातार अकाल और करों की मार शामिल थी, जिसने
भारतीय अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था। उन्होंने लोगों से भारत को
दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया ‘‘आगे
बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का
है।’’ मैडम भीकाजी कामा ने इस
कांफ्रेंस में ‘वन्देमातरम्’ अंकित भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज फहरा कर
अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। मैडम भीकाजी कामा लन्दन में दादा भाई नौरोजी की
प्राइवेट सेक्रेटरी भी रहीं।
"यह भारतीय स्वतंत्रता का ध्वज है। इसका जन्म हो चुका है।
हिन्दुस्तान के युवा वीर सपूतों के रक्त से यह पहले ही पवित्र हो चुका है। यहाँ
उपस्थित सभी महानुभावों से मेरा निवेदन है कि सब खड़े होकर हिन्दुस्तान की आजादी
के इस ध्वज की वंदना करें।" यह
भावुक अपील 1907 ई. में स्टुटगार्ड (जर्मनी) में 'अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद सम्मेलन' में मैडम कामा ने तिरंगा झण्डा फहराते समय की। अपील का असर
इतना था कि वहां मौजूद सभी लोग खड़े होकर ताली बजाने लगे थे।
धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद इस साहसी महिला ने
आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर सुखी और संपन्न जीवन वाले वातावरण को तिलांजलि दे
दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से
उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। श्रीमती कामा का बहुत बड़ा योगदान
साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए
भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते
हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था। मैडम कामा हालांकि अहिंसा
में विश्वास रखती थीं लेकिन उन्होंने अन्यायपूर्ण हिंसा के विरोध का आह्वान भी
किया था। उनमें लोगों की मदद और सेवा करने का जज्बा कूट−कूट कर भरा था।
जीवन परिचय
भीकाजी कामा का जन्म 24
सितम्बर 1861
को बम्बई में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिताजी का नाम सोराबजी फ्रामजी
पटेल था और उनकी माता का नाम जैजीबाई
सोराबाई पटेल था। उनके पिता पेशे से व्यापारी थे, हालाँकि
उन्होंने कानून की शिक्षा ली थी और पारसी समुदाय के प्रभावशाली सदस्य भी थे। उन्होंने
एलेक्जेंड्रा गर्ल्स इंग्लिश इंस्टीट्यूशन में पढ़ाई की। 3 अगस्त 1885 को एक पारसी समाज सुधारक रुस्तम
कामा से उनका विवाह हुआ।
प्लेग के दौरान
बचपन से ही उनके मन में लोगों की मदद और सेवा करने की भावना
कूट−कूट कर भरी थी। वर्ष 1896 में बंबई प्रेसिडेंसी में ब्यूबोनिक प्लेग फैलने
के बाद भीकाजी ने निर्भीक होकर इसके मरीजों की सेवा की थी। बाद में वह खुद भी इस
बीमारी की चपेट में आ गई थीं। इलाज के बाद वह ठीक हो गई थीं लेकिन उन्हें आराम और
आगे के इलाज के लिए यूरोप जाने की सलाह दी गई थी। वर्ष 1902 में वह
इसी सिलसिले में लंदन गईं और वहां भी उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए
काम जारी रखा। लंदन में उनकी मुलाक़ात श्यामजी कृष्ण वर्मा,
लाला हरदयाल
और वीर सावरकर से हुई। भीकाजी उनसे बहुत प्रभावित हुईं और तबीयत ठीक होने के बाद
भारत जाने का ख़्याल छोड़ वहीं पर अन्य क्रांतिकारियों के साथ भारत की आज़ादी के
लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन बनाने के काम में जुट गईं। वे होमरूल सोसाइटी की सदस्य
बन गईं। यहाँ पर उनकी मुलाक़ात दादाभाई नौरोजी और सिंह रेवाभाई राणा से भी हुई। उनके
सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ मानते थे। अंग्रेज उन्हें खतरनाक
क्रांतिकारी, अराजकतावादी ब्रिटिश विरोधी कहते थे। वह ‘भारतीय
राष्ट्रीयता की महान पुजारिन’ के नाम से विख्यात थीं। विदेश में भारत की पहली
सांस्कृतिक प्रतिनिधि कही जाने वाली कामा ने स्वराज का नारा बुलंद किया। उन्होंने
अपना जीवन भारत की आजादी के लिए न्यौछावर कर दिया। जब वो हॉलैंड में थी, उस दौरान उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर क्रांतिकारी
रचनाएं प्रकाशित करायी थी और उनको लोगों तक पहुंचाया भी। जल्दी ही अंग्रेज सरकार को उनकी गतिविधियों पर आपत्ति होने
लगी और सरकार ने लंदन से ही मैडम कामा को भारत लौटने के लिए शर्त रख दी कि वे
स्वदेश लौटकर वे राष्ट्रवादी गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेंगी। मैडम स्वदेश तो
आना चाहती थीं पर यह बिलकुल नहीं चाहती थीं कि वे अपने देश लौटकर देशवासियों की
सेवा नहीं कर सकें इसलिए अंग्रेजों की शर्त स्वीकार नहीं की। उनके अहिंसक क्रांति
से घबराए अंग्रेजों ने भारत में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी थी।
पेरिस में
उसी साल उन्हें पेरिस भेज दिया गया, जहाँ उन्होंने पेरिस इंडियन सोसाइटी की स्थापना की। मंचरशाह
बुर्जोरजी गोदरेज और एसआर राणा इस सोसाइटी के सह-संस्थापक थे। वह भारत की
संप्रभुता के समर्थन में क्रांतिकारी लेख लिखने लगीं। निर्वासन में रहते हुए
स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे भारतीय प्रवासियों के साथ हाथ मिलाते हुए, उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए साहित्य लिखा और वितरित
किया। इन पर्चों में से एक में बंदे मातरम की प्रतियां शामिल थीं, जिसे भारत में ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। मैडम
कामा का कार्य केवल पेरिस तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने यूरोप के कई देशों में
भारत के लेख लिख प्रचारित किए जो नीदरलैंड और स्विटजरलैंड में प्रमुख रूप वितरित
किए गए। इसमें वंदे मातरम गीत भी शामिल था जिसे अंग्रेजों ने प्रतिबंधित किया हुआ
था। कहा जाता है कि
उनके लेख तस्करी के जरिए भारत में पोंडीचेरी तक
पहुंचते थे।
मैडम कामा ने यूरोप के अलावा अमेरिका और मिस्र सहित दुनिया
के कई देशों में काम किया, लेकिन उनकी गतिविधि का
केंद्र पेरिस ही था। 1909 में विलियम हट कर्जन वायली
की हत्या के बाद, लंदन के अधिकारियों ने वहां रहने वाले भारतीय
राष्ट्रवादियों पर कार्रवाई शुरू कर दी। उस समय भीकाजी कामा पेरिस में थीं और
अंग्रेजों ने उन्हें फ्रांसीसियों से प्रत्यर्पित करने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार
ने उनकी भारतीय संपत्ति जब्त कर ली और भीखाजी कामा के भारत आने पर रोक लगा दी। व्लादिमीर
लेनिन ने कथित तौर पर उन्हें सालों बाद सोवियत संघ में रहने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के शुरू
होने पर जब फ्रांस और ब्रिटेन मित्र बन गए तो स्थिति जटिल हो गई। फ्रांस ने इस नए गठबंधन को बिगाड़ने वाली किसी भी चीज़ को
रोकने की कोशिश में भारत के स्वतंत्रता सेनानियों की गतिविधियों को प्रतिबंधित कर
दिया। कई लोग फ्रांस छोड़कर चले गए, जबकि
भीकाजी कामा यहीं रहीं। पहले विश्व युद्ध के दौरान वो दो बार हिरासत में ली गईं और
उनके लिए भारत लौटना बेहद मुश्किल हो गया था। 1915 में, बोर्डो में मोर्चे की ओर बढ़ रहे भारतीय सैनिकों को
प्रोत्साहित करने की कोशिश के लिए उन्हें रेवाभाई राणा के साथ गिरफ्तार कर लिया
गया था। सज़ा के तौर पर राणा को कैरेबियन भेज दिया गया, जबकि भीकाजी कामा को दक्षिणी फ्रांस भेज दिया गया। उनके
खराब स्वास्थ्य के कारण, उन्हें बोर्डो में अपने
निवास पर लौटने की अनुमति दी गई, बशर्ते कि वे स्थानीय पुलिस
स्टेशन में साप्ताहिक आधार पर रिपोर्ट करें।
बंबई में निधन
भीकाजी कामा का यूरोप में निर्वासन 1935 तक जारी रहा। इस दौरान उन्हें स्ट्रोक के कारण लकवा मार गया, जिसके कारण उन्होंने ब्रिटिश सरकार से घर लौटने की अनुमति
मांगी। ब्रिटिश सरकार ने इस शर्त पर सहमति जताई कि वह स्वतंत्रता से संबंधित कोई
भी गतिविधि नहीं करेंगी। भीकाजी नवंबर 1935 को सर
काउजी जहांगीर के साथ बंबई पहुंचीं, जिन्होंने
उनकी ओर से याचिका दायर की थी। 74 वर्ष की आयु में 13 अगस्त 1936 को पारसी जनरल अस्पताल में
भीकाजी कामा का निधन हो गया।
26 जनवरी 1962 में भारतीय डाक ने उनके
समर्पण और योगदान के लिए उनके नाम का डाक टिकट जारी किया था। भारतीय तटरक्षक सेना में जहाजों का नाम भी उनके नाम पर रखा
गया था। मैडम कामा एक मजबूत और साहसी महिला थीं जिन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह न केवल
एक बहादुर कार्यकर्ता थीं बल्कि एक प्रतिभाशाली लेखिका भी थीं। उन्होंने 'बंदे मातरम' और 'मदन की तलवार' जैसी
प्रभावशाली किताबें लिखीं और साझा कीं, जिन्होंने
कई लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। राष्ट्र के
प्रति उनका समर्पण और योगदान अमूल्य है, जो
उन्हें महिला शक्ति और सशक्तिकरण का एक प्रेरक प्रतीक बनाता है। मैडम कामा का नाम भारतीय
इतिहास में अमर है। जब-जब भारत की आजादी की गाथाएं गाई जाएंगी तब-तब उनका नाम
आएगा।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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