गांधी
और गांधीवाद
176. सत्याग्रहियों
का उत्साह बढ़ता गया
1908
18 अगस्त, 1908 को जनरल स्मट्स के आमंत्रण पर गांधीजी प्रिटोरिया पहुंचे। बोथा, स्मट्स और प्रोग्रेसिव पार्टी के सदस्यों ने वैलिडेशन
बिल में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया जिसमें यह कहा गया था कि TARA स्वेच्छा से पंजीकरण कराने वालों और बच्चों पर लागू
नहीं होगा। 21 अगस्त ट्रांसवाल की विधान सभा में स्वैच्छिक पंजीकरण
वैलिडेशन बिल को हटा लिया गया और उसकी जगह एक नया एशियाटिक्स रजिस्ट्रेशन
एमेंडमेंट बिल पेश किया गया। इसमें दो बातों का अभाव था,
(क)
1907 के एशियाटिक अधिनियम को निरस्त करने और (ख) उच्च शिक्षित एशियाई लोगों के लिए
ट्रांसवाल में प्रवेश और निवास का प्रावधान न होना। दो आवश्यकताएँ एशियाई लोगों द्वारा इसकी स्वीकृति के लिए
महत्वपूर्ण थीं। गांधीजी ने माना कि इसमें वे बातें नहीं शामिल की गई हैं जिनका
प्रस्ताव दिया गया था, इसलिए वे सत्याग्रह शुरू
करेंगे। 23 अगस्त को फिर से एक सभा
हुई जिसमें लगभग 500 परवानों की होली जलाई गई। जनरल स्मट्स द्वारा समझौता भंग किए जाने के कारण भारतीय
समुदाय ने सत्याग्रह फिर से शुरू करने का गंभीर संकल्प लिया। इस प्रकार नाटकीय
ढंग से ट्रांसवाल में सत्याग्रह का दूसरा चरण शुरू हुआ।
31 जुलाई से गांधीजी ने वकालत लगभग बंद कर दिया था। अब उन्होंने पूरी तरह से
अपने को सत्याग्रह आंदोलन के प्रति समर्पित कर दिया था। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन
(बी.आई.ए.) ने उनके ऑफिस के ख़र्चे संभाल लिए थे। उनके क्लर्क को सवैतनिक रख लिया
गया जिससे वे सत्याग्रहियों के मुकदमों की तैयारी में बापू की मदद कर सकें। लोग
लगातार गिरफ़्तार किए जा रहे थे। गांधीजी का परिवार फीनिक्स फ़ार्म
में रह रहा था। जोहानसबर्ग में गांधीजी की देखभाल कालेनबाख कर
रहे थे।
नेटालवासियों द्वारा
सत्याग्रहियों को सहयोग करने से ट्रांसवाल के भारतीयों का उत्साह कई गुना बढ़ चुका
था। आंदोलनकारी हर क्षेत्र में सरकारी क़ानून तोड़कर सत्ता को चुनौती दे रहे थे।
ट्रांसवाल की जेलें आंदोलनकारियों से खचाखच भर चुकी थीं। जो लोग जेल जाते और छूटकर
आते वे फिर से सविनय भंग कर फिर से जेल जाते। इस लड़ाई में सोराबजी सात बार
और हरिलाल दस बार जेल गए। 17 सितम्बर को हरिलाल गांधी
ट्रांसवाल से निकाले गए। हरिलाल की बहादुरी और सत्याग्रह की सूझबूझ अजीब थी। अपनी
सुरक्षा और सुख-सुविधा की परवाह किए बिना बार-बार वे क़ानून भंग कर फलों की फेरी
लगाते, गिरफ़्तार होते और जेल
जाते। सरकार हरिलाल से परेशान थी। छोड़ देती तो वे दूसरे दिन वे फिर हाजिर हो
जाते। जेल में उपवास कर सत्याग्रह करते। अपनी प्रतिभा, निष्ठा, कर्मठता और हंसमुख स्वभाव
के कारण हरिलाल काफ़ी लोकप्रिय सत्याग्रही हो गए
थे और लोग उन्हें ‘नाना गांधी’ - ‘छोटे गांधी’ के नाम से पुकारने लगे थे।
जनरल स्मट्स ने ट्रांसवाल
विधानमंडल के माध्यम से 21 सितम्बर को एक नया ‘इमिग्रेशन रेजिस्ट्रेशन
अमेंडमेंट एक्ट’ पास करवा दिया। इसका असली उद्देश्य नए आनेवाले
भारतीयों को ट्रांसवाल में प्रवेश को रोकना था। इस अधिनियम में उन लोगों को
प्रतिबंधित अप्रवासी माना जाता था जो शिक्षा परीक्षण पास कर सकते थे लेकिन एशियाई
अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिए अयोग्य थे, और इस प्रकार अप्रत्यक्ष
रूप से एक भी भारतीय नए व्यक्ति के प्रवेश को रोकने का साधन बना दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि स्मट्स ने मखमली दस्ताने के पीछे से
भेजी गई मुट्ठी को कसकर पकड़ने का निश्चय किया था और नहीं चाहते थे कि गांधी ‘पूरी
तरह से स्वैच्छिक पंजीकरण की अवधारणा द्वारा प्रदान किए गए आत्म-सम्मान के पतले
आवरण’ से बच निकलें। गांधीजी ने इसका विरोध किया। गांधीजी इस क़ानून को भी सत्याग्रह में शामिल करने का
प्रस्ताव लाए। इसलिए इस विषय में स्थानीय सरकार के साथ लिखापढ़ी हुई। हालांकि स्मट्स ने एशियावासियों की मांग ठुकरा दी लेकिन उसे गांधीजी
को बदनाम करने का एक मौक़ा मिल गया।
जनरल स्मट्स जानता था कि
सार्वजनिक रूप से भारतीयों की मदद करने वालों के अलावा और भी बहुत से यूरोपीय लोग भी
उनके आंदोलन के प्रति निजी तौर पर सहानुभूति रखते थे और स्मट्स स्वाभाविक रूप से
चाहता था कि अगर संभव हो तो उनकी सहानुभूति को खत्म कर दिया जाए। उसने उन पर इलजाम
लगाते हुए गांधीजी के गोरे सहायकों से कहा, “गांधी को जितना मैं पहचानता हूं, उतना अपलोग नहीं पहचानते। आप उसे एक इंच दे दें तो वह
एक हाथ मांगेगा। यह सब मैं जानता हूं। इसलिए एशियाटिक क़ानून
को रद्द नहीं कर रहा हूं। जब उसने सत्याग्रह शुरू किया था तब नई बस्ती की तो कोई
बात नहीं थी। ट्रांसवाल की रक्षा के लिए हम नए भारतीयों का आना रोकने का क़ानून
बना रहे हैं, तो यह उसमें भी अपना
सत्याग्रह चलाना चाहता है। ऐसी चालाकी कब तक बर्दाश्त की जा सकती है? उसे जो करना हो करे, भले ही एक-एक हिन्दुस्तानी बरबाद हो जाए, मैं एशियाटिक क़ानून को रद्द करने वाला नहीं और
ट्रांसवाल सरकार ने भारतीयों के विषय में जो नीति ग्रहण की है उसका भी त्याग नहीं
किया जाएगा।”
स्मट्स के इस बयान पर विचार
करें तो पता चलेगा कि यह तर्क कितना अन्यायपूर्ण और अनैतिक था। जब अप्रवासी
प्रतिबंध अधिनियम जैसा कुछ अस्तित्व में ही नहीं था, तो भारतीय इसका विरोध कैसे
कर सकते थे? जनरल स्मट्स ने अपने अनुभव के बारे में बहुत ही सहजता
से बात की, जिसे उसने गांधीजी की 'चालाकी'
कहा।
लेकिन वह
अपने कथन के समर्थन में एक भी उदाहरण नहीं दे सका। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में
रहने के दौरान कभी भी चालाकी का सहारा नहीं लिया था। बिना किसी हिचकिचाहट यह कहा
जा सकता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में कभी भी चालाकी/धूर्तता का सहारा नहीं
लिया। उनका मानना था कि चालाकी न केवल नैतिक रूप से गलत है,
बल्कि
राजनीतिक रूप से भी अनुचित है, और इसलिए उन्होंने
व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी इसके उपयोग को हमेशा नकार दिया था। जिन यूरोपीय लोगों
के सामने जनरल स्मट्स ने गांधीजी पर यह आरोप लगाया था,
वे उन्हें
अच्छी तरह जानते थे, और इसलिए इस आरोप का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा जैसा
जनरल स्मट्स चाहता था। वे गांधीजी का समर्थन करने में और भी अधिक उत्साही हो गए।
सत्याग्रह के संघर्ष में प्रगति का एक नियम
लागू होता है। जैसे-जैसे सत्याग्रह संघर्ष आगे बढ़ता है,
कई अन्य
तत्व इसकी धारा को बढ़ाने में मदद करते हैं, और इसके परिणामों में
निरंतर वृद्धि होती है। सत्याग्रह में न्यूनतम भी अधिकतम है,
इसलिए इसमें
पीछे हटने का कोई सवाल ही नहीं होता, और एकमात्र रास्ता आंदोलन
आगे बढ़ना होता है। सत्याग्रही अपना मार्ग कभी नहीं छोड़ता। यह देखते हुए कि
आप्रवासन अधिनियम सत्याग्रह में शामिल किया गया था, सत्याग्रह के सिद्धांतों
से अनभिज्ञ कुछ भारतीयों ने ट्रांसवाल में भारत विरोधी कानून के पूरे समूह के साथ
इसी तरह व्यवहार करने पर जोर दिया। दूसरों ने सुझाव दिया कि पूरे दक्षिण अफ्रीका
में भारतीयों को संगठित किया जाए और नेटाल, केप कॉलोनी,
ऑरेंज
फ्री स्टेट आदि में सभी भारतीय विरोधी कानूनों के खिलाफ सत्याग्रह की पेशकश की जाए,
जबकि
ट्रांसवाल संघर्ष चल रहा था। दोनों सुझावों में सिद्धांत का उल्लंघन शामिल था। गांधीजी
ने स्पष्ट रूप से कहा कि अब अवसर देखकर, वह स्थिति अपनाना बेईमानी
होगी जो सत्याग्रह शुरू करने के समय नहीं थी। चाहे हम कितने भी मजबूत हों,
वर्तमान
संघर्ष तब समाप्त होना चाहिए जब जिन मांगों के लिए इसे शुरू किया गया था उन्हें
स्वीकार कर लिया जाए। गांधीजी को विश्वास था कि अगर सत्याग्रहियों ने इस सिद्धांत
का पालन नहीं किया, तो जीतने के बजाय, वे न केवल पूरी तरह से हार
जाते, बल्कि उनके पक्ष में जो सहानुभूति प्राप्त हुई थी,
वह भी
खो देते। दूसरी ओर, अगर संघर्ष के दौरान विरोधी खुद सत्याग्रहियों लिए नई
मुश्किलें पैदा करता है, तो वे स्वतः ही इसमें शामिल हो जाते हैं। इसलिए
जैसे-जैसे सत्याग्रह संघर्ष लंबा होता जाता है, यानी विरोधी द्वारा
अपनाए
उसके दृष्टिकोण से विरोधी को नुकसान होता है, और सत्याग्रही को लाभ होता
है।
इस समय गांधीजी की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अभियान फिर से धीमा न पड़ जाए। उनके हिसाब से ट्रांसवाल में वे एक हजार से अधिक लोगों को नहीं बुला सकते थे, जिनमें केवल मुट्ठी भर अडिग सत्याग्रही थे। जो व्यापारी सत्याग्रह के लिए खुद को पेश कर रहे थे, उन पर प्रशासन द्वारा हर संभव तरीके से दबाव डाला जा रहा था। अदालतें उन्हें जेल की सजा सुनाने के बजाय कई मामलों में केवल जुर्माना लगा रही थीं। अगर वे जुर्माना नहीं भरते थे तो उनके सामान की नीलामी इस तरह की जाती थी कि उन्हें अधिकतम नुकसान उठाना पड़ता था। छोटे दुकानदारों को यूरोपीय आपूर्तिकर्ताओं द्वारा धमकाया जा रहा था जो उन्हें तब तक उधार सामान बेचने से इनकार कर रहे थे जब तक कि वे खुद को प्रतिरोध आंदोलन से अलग नहीं कर लेते। काम को जारी रखने के लिए विशेष धन-संग्रह आवश्यक हो गया था। नेटाल ट्रांसवाल सत्याग्रह को वित्तीय मदद दे रहा था। गांधीजी ने अपनी वकालत बंद कर दी थी, इसलिए उन्हें BIA कार्यालय के लिए देय किराए के लिए प्रावधान करने की आवश्यकता थी, साथ ही SABIC खाते में लंदन को भेजे जाने वाले धन सहित एसोसिएशन के अन्य खर्चों को पूरा करना था। धन की समस्या के अलावा, व्यापारिक समुदाय में निष्क्रिय प्रतिरोध करने वालों की संख्या में भी कमी आ रही थी। इस बात से बहुत चिंतित होकर गांधीजी ने अधिक से अधिक फेरीवालों को कार्रवाई के लिए प्रेरित करने का विशेष ध्यान रखा।
सत्याग्रह आंदोलन में
मुख्य प्रश्न के साथ अब प्रवेश संबंधी क़ानून भी आ गया। नेटाल के प्रवासी भारतीयों
के सत्याग्रही जत्थे ट्रांसवाल में प्रवेश करने लगे थे। सत्याग्रह ज़ोर पकड़ चुका
था। इधर ट्रांसवाल सरकार ने आंदोलनकारियों के जले पर नमक छिड़कने का काम किया। एक
घोषणा के द्वारा यह बताया गया कि शिक्षित भारतीयों को दक्षिण अफ़्रीका में प्रवेश
करने के लिए मिली रियायत समाप्त कर दी गई। इस क़ानून में एक दफ़ा यह थी कि नए आने
वाले भारतीय को यूरोप की किसी एक भाषा का ज्ञान होना ही चाहिए। गांधीजी ने इसका
विरोध किया। सत्याग्रह कमेटी ने निश्चय किया कि अंग्रेज़ी जानने वाले हिन्दुस्तानी
को ट्रांसवाल में प्रवेश करना चाहिए। एक पारसी, सोराबजी
शापुरजी अडाजनिया को इस काम के लिए चुना गया। सोराबजी सरकार को पहले
से नोटिस देकर आजमाइश के लिए ट्रांसवाल में दाखिल हुए। सरकार इस कदम के लिए
बिल्कुल ही तैयार नहीं थी। सरहद पर परवाने की जांच करने वाला अधिकारी उन्हें जानता
था। उन्होंने इस अधिकारी से कहा, “मैं ट्रांसवाल में
जान-बूझकर अपने अधिकार की परीक्षा के लिए दाखिल हो रहा हूं। तुम्हें मेरी
अंग्रेज़ी की परीक्षा लेनी हो लो और यदि गिरफ़्तार करना हो तो गिरफ़्तार करो।” अधिकारी ने कहा, “मुझे मालूम है कि आपको अच्छी अंग्रेज़ी आती है। मुझे
परीक्षा लेने की ज़रूरत नहीं है। आपको गिरफ़्तार करने का हुक्म भी नहीं है।” इस तरह सोराबजी
जोहान्सबर्ग पहुंच गए। अपने जोहान्सबर्ग आने की सूचना उन्होंने वहां के पुलिस
सुपरिंटेंडेंट को दी। उन्होंने लिखा कि नई बस्ती क़ानून के अनुसार मैं अपने-आपको
ट्रांसवाल में रहने का हक़दार मानता हूं। उनके पत्र के जवाब में कुछ दिनों के बाद
उन्हें समन मिला। अदालत में मुकदमा चला। सोराबजी सापुरजी की वकालत करने गांधीजी कोर्ट में उपस्थित
हुए। सोराबजी को सात दिनों के अंदर ट्रांसवाल छोड़ देने का हुक्म मिला। जब
उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हें एक महीने की सश्रम सज़ा हुई।
जब भारतीयों को सरकार की यह चाल समझ में आ गई कि वे उन्हें थका देने के लिए क्या कर रहे हैं, तो उन्होंने आगे कदम उठाने का फैसला किया। एक सत्याग्रही कभी नहीं थकता, जब तक उसमें कष्ट सहने की क्षमता है। इसलिए भारतीय सरकार की गणना को बिगाड़ने की स्थिति में थे। गांधीजी ने तय किया कि भारतीयों के दो वर्ग ट्रांसवाल में प्रवेश करें; पहले, वे जो पहले देश में निवास कर चुके थे, और दूसरे, वे जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी। इनमें से सेठ दाउद मोहम्मद और पारसी रुस्तमजी बड़े व्यापारी थे, और सुरेन्द्र मेध, प्रागजी खंडूभाई देसाई, रतनसी मुलजी सोधा, हरिलाल गांधी और अन्य 'शिक्षित' व्यक्ति थे। दाउद सेठ अपनी पत्नी के गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद आए।
नेटाल के लोग सत्याग्रह
में शामिल होना चाहते थे और उन्होंने सीमा पार करके ऐसा करने का फैसला किया। सत्याग्रह
संघर्ष में शामिल होने वाले नेटाल नेताओं ने एक नई रणनीति का संकेत दिया और पूरे
दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए ट्रांसवाल संघर्ष के महत्व को सामने लाया। ये
व्यापारी नेटाल में अच्छी तरह से स्थापित थे और उन्हें ट्रांसवाल आने की कोई
ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने ऐसा न केवल ट्रांसवाल में भारतीय सत्याग्रहियों को
समर्थन देने के लिए किया, बल्कि प्रिटोरिया और लंदन में सरकारों को यह बताने के
लिए भी किया कि भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक के रूप में कानूनी समानता के
अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए दृढ़ हैं, जिसके वे ब्रिटिश संविधान
के तहत हकदार थे। नेटाल इंडियन कांग्रेस के
प्रेसिडेंट सेठ दाउद मोहम्मद एक बड़े व्यापारी थे। वे और सेठ रुस्तमजी अपना
व्यापार-धंधा छोड़कर आंदोलनकारियों के साथ निकल पड़े। वे आंदोलनकारियों के एक बड़े
जत्थे को सीमापार ले गए। वे देखना चाहते थे कि ट्रांसवाल में उनके निवास का मूल
अधिकार सुरक्षित था या नहीं। जब दाऊद सेठ अपनी सत्याग्रही सेना के साथ ट्रांसवाल
की सीमा पर पहुंचे, तो सरकार उनसे मिलने के लिए तैयार थी। उन्हें
गिरफ्तार कर लिया गया और 18 अगस्त, 1908 को मजिस्ट्रेट के
सामने पेश किया गया, जिसने उन्हें सात दिनों के भीतर ट्रांसवाल छोड़ने का
आदेश दिया। बेशक उन्होंने आदेश की अवहेलना की, 28 तारीख को प्रिटोरिया
में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और बिना किसी मुकदमे के निर्वासित कर दिया गया।
वे 31 तारीख को फिर से ट्रांसवाल में दाखिल हुए और आखिरकार 8 सितंबर को
वोल्क्सरस्ट में उन्हें पचास पाउंड का जुर्माना या कठोर श्रम के साथ तीन महीने की
कैद की सजा सुनाई गई। कहने की जरूरत नहीं कि उन्होंने खुशी-खुशी जेल जाने का फैसला
किया।
ट्रांसवाल के भारतीय अब
बहुत उत्साहित थे। वे अपने नेटाल के हमवतन लोगों का साथ देने के लिए उनके कारावास
में भागीदार होने के लिए तैयार थे। इसलिए वे ऐसे तरीके खोजने लगे जिससे उन्हें जेल
जाना पड़े। उनके पास अपनी दिली इच्छा पूरी करने के कई तरीके थे। अगर कोई स्थानीय
भारतीय अपना पंजीकरण प्रमाणपत्र नहीं दिखाता, तो उसे व्यापार लाइसेंस
नहीं दिया जाता और अगर वह बिना लाइसेंस के व्यापार करता,
तो यह
उसकी ओर से अपराध माना जाता। फिर, अगर कोई नेटाल से
ट्रांसवाल में प्रवेश करना चाहता है, तो उसे प्रमाणपत्र दिखाना
होगा और अगर उसके पास कोई प्रमाणपत्र नहीं है, तो उसे गिरफ्तार कर लिया
जाएगा। प्रमाणपत्र पहले ही जला दिए गए थे और इसलिए सीमा साफ थी। भारतीयों ने इन
दोनों तरीकों को अपनाया। कुछ लोग बिना लाइसेंस के फेरी लगाने लगे,
जबकि
अन्य को ट्रांसवाल में प्रवेश करने पर प्रमाणपत्र नहीं दिखाने के कारण गिरफ्तार कर
लिया गया। आंदोलन अब पूरे जोरों पर था। हर किसी पर मुकदमा चल रहा था। जोहान्सबर्ग
में भी कई गिरफ्तारियाँ हुईं। हालात ऐसे हो गए कि कोई भी व्यक्ति जो चाहे,
खुद को
गिरफ्तार करवा सकता था। जेलें भरने लगीं, नेटाल के 'आक्रमणकारियों'
को तीन
महीने और ट्रांसवाल के फेरीवालों को चार दिन से लेकर तीन महीने तक की सज़ा दी गई।
इस तरह गिरफ़्तार होने
वालों में 'इमाम साहब' इमाम अब्दुल कादर बावज़ीर
भी थे, जिन्हें बिना लाइसेंस के फेरी लगाने के जुर्म में
गिरफ़्तार किया गया था और 21 जुलाई 1908 को उन्हें चार दिन की सख़्त मज़दूरी के
साथ जेल की सज़ा सुनाई गई थी। इमाम साहब की तबियत इतनी नाज़ुक थी कि जब लोग उनकी
गिरफ़्तारी की ख़बर सुनते थे तो हँसते थे। इमाम साहब कभी नंगे पैर नहीं चलते थे,
उन्हें
दुनिया की अच्छी चीज़ें पसंद थीं, उनकी मलय बीवी थी,
उनका घर
बहुत सादा था और वे घोड़ागाड़ी में घूमते थे। रिहा होने के बाद इमाम साहब फिर से
जेल गए, वहाँ एक आदर्श कैदी की तरह रहे और सख़्त मज़दूरी के
बाद खाना खाया। घर पर वे हर दिन नए व्यंजन और लजीज व्यंजन बनाते थे;
जेल में
वे मैदा-पाप खाते थे और इसके लिए भगवान का शुक्रिया अदा करते थे। न केवल वे हारे
नहीं, बल्कि उनकी आदतें भी सरल हो गईं। कैदी के रूप में वे
पत्थर तोड़ते थे, सफाई कर्मी के रूप में काम करते थे और दूसरे कैदियों
के साथ कतार में खड़े होते थे।
जोसेफ रोएपेन,
बैरिस्टर-एट-लॉ,
कैम्ब्रिज
विश्वविद्यालय से स्नातक, नेटाल में पैदा हुए थे, उनके माता-पिता गिरमिटिया
मजदूर थे, लेकिन उन्होंने पूरी तरह से यूरोपीय जीवन शैली को
अपना लिया था। वे अपने घर में भी नंगे पैर नहीं जाते थे। रोएपेन ने अपनी कानून की
किताबें छोड़ दीं, सब्ज़ियों की टोकरी उठाई और बिना लाइसेंस के फेरीवाले
के रूप में गिरफ़्तार हो गए। उन्हें भी जेल की सज़ा हुई। सोलह साल की उम्र के कई
लड़के जेल चले गए। मोहनलाल मांजी घेलानी केवल चौदह वर्ष के थे। जेल में सख्ती भी खूब की जाती थी। जेल अधिकारियों ने
भारतीयों को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उन्हें मैला ढोने का काम
दिया गया, लेकिन उन्होंने इसे अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ
किया। उन्हें पत्थर तोड़ने के लिए कहा गया, और उन्होंने अल्लाह या राम
का नाम होंठों पर लेकर पत्थर तोड़े। उन्हें टैंक खोदने और पथरीली जमीन पर कुदाल
चलाने का काम दिया गया। काम से उनके हाथ सख्त हो गए। उनमें से कुछ असहनीय कष्टों
के कारण बेहोश भी हो गए, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि मार खाने का क्या मतलब
होता है। चौदह और सोलह बरस के बच्चों से पत्थर तुडवाए जाते, सडकें झडवाई जातीं और तालाब खुदवाए जाते। नागप्पा नाम का अट्ठारह
बरस का एक नौजवान तो सर्दियों में बडे सवेरे काम
पर लगाए जाने के कारण डबल निमोनिया होकर जेल में मर ही गया।
ट्रांसवाल में बसने का भारतीयों
को पुराना अधिकार था। लेकिन वहां बसने के लिए नहीं, परवाना क़ानून का विरोध करने के लिए गांधीजी कुछ भारतीयों
के साथ डरबन से ट्रांसवाल की ओर प्रस्थान किए। वे जब वॉकरस्ट की सीमा पार करने की
कोशिश कर रहे थे, तो 7 अक्तूबर को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। पुलिस को उनके
सत्याग्रहियों का एक बड़ा जत्था लेकर सीमा पार करने की ख़बर पहले से ही मिल गई थी।
पुलिस ने उन्हें चारों तरफ़ से घेर लिया। जत्थे के सभी पन्द्रह लोगों को गांधीजी
के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया। 8 अक्तूबर को उन्हें कोर्ट में पेश किया गया। गांधीजी को यह
पेशकश दी गई कि वे चाहें तो पचीस पाउण्ड का ज़ुर्माना भर दें। लेकिन उन्होंने
जमानत लेने से इंकार कर दिया, और जेल में रहना पसंद
किया।
उस समय वोक्सरस्ट जेलों में लगभग सत्तर भारतीय कैदी
थे। वे अपना खाना खुद पकाते थे। गांधीजी रसोइया बन गए। उनके प्रति अन्य क़ैदियों के
प्यार के कारण, उनके साथियों ने बिना किसी शिकायत के उनके द्वारा
बिना चीनी के तैयार किया गया आधा पका हुआ दलिया खा लिया। सरकार ने सोचा कि अगर वे गांधीजी
को दूसरे कैदियों से अलग कर दें तो शायद उन्हें भी दूसरों की तरह सज़ा मिलेगी।
इसलिए वे गांधीजी को प्रिटोरिया जेल ले गए जहाँ उन्हें खतरनाक कैदियों के लिए
आरक्षित एकांत कोठरी में रखा गया। उन्हें व्यायाम के लिए दिन में केवल दो बार बाहर
ले जाया जाता था। प्रिटोरिया जेल में भारतीयों को कोई घी नहीं दिया जाता था,
जैसा कि
वोक्सरस्ट में था। लेकिन फिर भी भारतीय हार मानने को तैयार नहीं थे। सरकार असमंजस
में थी। आखिर कितने भारतीयों को जेल भेजा जा सकता था?
फिर
इसका मतलब था अतिरिक्त खर्च। सरकार ने स्थिति से निपटने के लिए दूसरे तरीके तलाशने
शुरू कर दिए।
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मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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