गांधी और गांधीवाद
172. जनरल स्मट्स का विश्वासघात
मई-जून 1908
इंडियन ओपिनियन में रस्किन
के ‘Unto This Last’ का गांधीजी द्वारा किया गया गुजराती
में अनुवाद का प्रकाशन शुरू हो चुका था। गांधीजी द्वारा इस अनुवाद का शीर्षक
‘सर्वोदय’ दिया गया। इस पुस्तक में रस्किन का कहना था कि किसी समुदाय की सच्ची सम्पत्ति उसके सभी सदस्यों के
कल्याण में निहित होती है और व्यक्ति का कल्याण समष्टि के कल्याण का अंग होता है – ‘उसी तरह आखिरी
व्यक्ति तक जिस तरह तुम तक’। सत्याग्रह की ही तरह सर्वोदय शब्द भी लंबे समय तक
प्रयोग में लाया जाने वाला था, न सिर्फ़ दक्षिण अफ़्रीका में बल्कि भारत में भी।
कुछ ही दिनों के बाद गांधीजी
को फिर से फीनिक्स छोड़ना पड़ा। एक बार फिर उन्होंने अपने आपको सार्वजनिक कामों के
प्रति सौंप दिया। ‘इंडियन ओपिनियन’ द्वारा की गई गांधीजी की अपील का आदर करते हुए 18 मार्च 1908 तक जोहान्सबर्ग में स्वेच्छा से निशान देने वालों की संख्या 5090 पार कर गई। 9 मई स्वेच्छा से पंजीकरण कराने का
अंतिम दिन था। तब तक कुल 8700 आवेदन प्राप्त हुए जिनमें से 6000 स्वीकृत किए गए। इस तरह प्रवासी भारतीयों ने समझौते की अपनी शर्तों
को पूरा कर दिखाया। अब ख़ूनी क़ानून को
रद्द करना ट्रांसवाल की सरकार का फ़र्ज़ था। लेकिन ट्रांसवाल की गोरी सरकार ने अपनी
शर्तों का पालन करने से इंकार कर दिया। ख़ूनी क़ानून रद्द करने की बजाय जनरल स्मट्स
ने नया क़दम उठाया। सरकार ने एक और क़ानून बनाया, जिसका मकसद प्रवासी भारतीयों को क्षेत्र विशेष तक प्रतिबंधित रखना
था। इस बिल के ज़रिए ख़ूनी क़ानून को बहाल रखा गया और अपनी मर्ज़ी से लिए हुए परवाने
को क़ानून के अनुकूल माना गया। बिल के अंदर एक दफ़ा यह भी रख दी गई कि जिसने परवाना
लिया है, उसके ऊपर वह क़ानून लागू नहीं होगा। इसका मतलब यह हुआ कि एक ही
उद्देश्य वाले दो क़ानून साथ-साथ चलते रहें और नए आने वाले या बाद में परवाना लेने
वाले भारतीय भी ख़ूनी क़ानून द्वारा शासित हों। सरकार की इस नई उद्घोषणा ने यह जतला
दिया था कि भारतीयों
को समझौते के नाम पर बेवकूफ़ बनाया जा रहा है। स्मट्स के साथ जो सम समझौता
गांधी ने किया था उसको पूरा करने के लिए उन्होंने अपनी जान भी जोख़िम में
डाल दी थी, लेकिन उसने विश्वासघात किया। काले क़ानून को रद्द करने की बात तो दूर
एक और क़ानून बना दिया। 12 मई को तार द्वारा, एसियाई विभाग के रजिस्ट्रार, चमनी ने गांधीजी को सूचना दी कि 9 मई के बाद उपनिवेश में प्रवेश करने वाले सभी एशियावासियों को Transvaal Asiatic Registration Act (TARA) के तहत पंजीकरण करवाना होगा।
गांधीजी को अचंभा हुआ। कौम को
वे क्या जवाब देंगे? जिन पठानों
ने पिछली सभा में उनपर हमला किया था और कठोर आक्षेप लगाए थे, उनके तर्कों को तो और भी बल मिल गया।
लेकिन गांधीजी का सत्याग्रह पर से विश्वास इस धक्के से ढीला न होकर और भी दृढ़ हो
गया। उन्होंने अपनी कमेटी की बैठक बुलाई और उसे स्थिति समझाई। इसमें गांधीजी ने
फिर से यह बात दुहराई कि एशियाई मूल के लोग भी ब्रिटिश साम्राज्य का एक अविभाज्य
अंग हैं और उन्हें विश्वास है कि वे अपनी प्रजा के साथ भेद-भाव का रवैया नहीं
अख्तियार करेंगे। इस सभा में उन्हें अनेक साथियों से यह ताना सुनना पड़ा कि आप बहुत
सीधे हैं, और बहुत जल्दी लोगों की बातों में आ जाते हैं। गांधीजी ने शांत भाव
से मुस्कुराते हुए अपनी स्वाभाविक शैली में कहा,
“जिसे आप मेरे सिधाई और बातों में आ जाना कहते हैं, वह मेरे स्वभाव में है। हमें मनुष्य
मात्र का विश्वास करना चाहिए। मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। आप यदि मेरे गुणग्राहक
हैं, तो मेरे अवगुणों
को भी आपको स्वीकार करना होगा।” उन्होंने सत्याग्रहियों को समझाया कि जो हो गया सो हो गया। सत्याग्रह
आंदोलन फिर से छिड़ सकता है। इसके लिए हमें तैयार रहना होगा।
इस बैठक के बाद उन्होंने
स्मट्स को पत्र लिखकर समझौते की शर्तों पर ग़लतफ़हमी की वजहों का स्पष्टीकरण मांगा।
उन्होंने लिखा कि स्मट्स का नया बिल समझौते का भंग है। उन्होंने पत्र में स्मट्स
को यह भी याद दिलाई कि उसने अपने भाषण में उन दिनों कहा था, “... जब तक सभी एशियावासी ऐच्छिक
परवाना नहीं ले लेते तब तक क़ानून रद्द नहीं किया जा सकता।” स्मट्स साफ़ मुकर गया कि ऐसा आश्वासन देने की बात उसे याद नहीं आ रही
है। गांधीजी के लिए वचन का मूल्य जीवन से भी अधिक था। उन्हें गहरा धक्का लगा। दुःख
पहुंचा कि स्मट्स जैसे बहादुर सिपाही ने इस तरह अपने को पतित किया था। उस समय जनरल स्मट्स को
दक्षिण अफ्रीका में सबसे योग्य नेता माना जाता था,
और
शायद वह ब्रिटिश साम्राज्य के राजनेताओं और यहां तक कि दुनिया के राजनेताओं के
बीच एक उच्च स्थान रखता था। जनरल स्मट्स एक वकील के रूप में एक योग्य जनरल और
प्रशासक था। कई अंग्रेज मित्रों ने गांधीजी को जनरल स्मट्स से सावधान रहने को कहा
था,
क्योंकि
वह बहुत चालाक राजनीतिक खिलाड़ी था, जिसकी बातें अक्सर ऐसी
होती थीं कि कोई भी पक्ष उसे अपने अनुकूल अर्थ में व्याख्या कर सकता था। उपयुक्त
अवसर पर वह दोनों पक्षों की व्याख्याओं को अलग रख देता था, उन पर एक नई
व्याख्या करता था, उसे कार्यान्वित करता था और ऐसे चतुर तर्कों से उसका समर्थन करता था
कि उस समय दोनों पक्षों को यह लगने लगता था कि वे स्वयं गलत थे और जनरल स्मट्स ने
शब्दों की जो व्याख्या की थी, वह सही थी। भारतीयों ने ट्रांसवाल सरकार की संतुष्टि के लिए
स्वेच्छा से पंजीकरण कराया। लोगों को आशा थी कि सरकार अब ब्लैक एक्ट को निरस्त कर
देगी, और अगर उन्होंने ऐसा किया, तो सत्याग्रह संघर्ष
समाप्त हो जाएगा। लेकिन स्मट्स शतुर खिलाड़ी निकला। ब्लैक एक्ट को निरस्त करने के
बजाय जनरल स्मट्स ने एक नया कदम आगे बढ़ाया। गांधीजी ने कहा कि जनरल स्मट्स ने
हमारे साथ धोखा किया था। उसने ब्लैक एक्ट को क़ानून की किताब में बनाए रखा और
विधानमंडल में एक ऐसा उपाय पेश किया, जिससे स्वैच्छिक पंजीकरण
और उस अधिनियम के अनुसार सरकार द्वारा तय की गई तिथि के बाद जारी किए गए
प्रमाणपत्रों को वैध माना गया, स्वैच्छिक पंजीकरण प्रमाणपत्रों के धारकों को इसके संचालन से
बाहर कर दिया गया और एशियाई लोगों के पंजीकरण के लिए और प्रावधान किए गए। इस
प्रकार एक ही उद्देश्य वाले दो समवर्ती कानून लागू हुए और नए आने वाले भारतीयों के
साथ-साथ पंजीकरण के लिए बाद में किए गए आवेदन भी ब्लैक एक्ट के अधीन थे।
गांधीजी की समस्या थी कि वह समुदाय का सामना कैसे करेंगे। अब
उस पठान की आलोचना के लिए पर्याप्त अवसर था जिसने आधी रात की बैठक में उनकी कड़ी
आलोचना की थी। लेकिन इस आघात ने उन्हें हिलाने के बजाय, सत्याग्रह में उनके विश्वास को पहले से कहीं अधिक मजबूत कर दिया। उन्होंने
अपनी समिति की बैठक बुलाई और उन्हें नई स्थिति के बारे में बताया। कुछ सदस्यों ने
ताना मारते हुए कहा, 'आप यहाँ हैं। हम अक्सर
आपसे कहते रहे हैं कि आप बहुत भोले हैं, और किसी की भी
हर बात पर विश्वास करते हैं। अगर आप अपने निजी मामलों में इतने सरल होते तो कोई
बात नहीं, लेकिन सार्वजनिक मामलों
में आपके भोलेपन के कारण समुदाय को नुकसान उठाना पड़ता है। अब हमारे लोगों में
पहले जैसी भावना जगाना बहुत मुश्किल है। आप जानते हैं कि हम भारतीय किस मिट्टी से
बने हैं, जिनके क्षणिक उत्साह को
बाढ़ में बहा देना चाहिए। अगर आप अस्थायी ज्वार की उपेक्षा करते हैं, तो आपका काम तमाम हो जाएगा।'
गांधीजी ने जवाब दिया: 'ठीक है, जिसे आप मेरी भोलापन कहते हैं, वह मेरा अभिन्न
अंग है। यह भोलापन नहीं बल्कि भरोसा है और यह हम सभी का कर्तव्य है कि हम अपने साथियों पर भरोसा करें। और यह मानते
हुए भी कि यह वास्तव में मुझमें एक दोष है, आपको मुझे मेरे
गुणों से कम नहीं, बल्कि मेरे दोषों के साथ
भी स्वीकार करना चाहिए। महान संघर्षों में हमेशा उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। विरोधी
के साथ आपकी समझ चाहे कितनी भी स्पष्ट क्यों न हो,
उसे
विश्वासघात करने से कौन रोक सकता है? फिर भी उनके
विरुद्ध मुकदमा दायर किया जाना चाहिए; वे मुकदमों का
विरोध करेंगे और सभी प्रकार के बचाव प्रस्तुत करेंगे। मैं आपको सलाह दूंगा कि आप
हमारे सामने मौजूद समस्या से धैर्यपूर्वक निपटें। हमें इस बात पर विचार करना होगा
कि यदि संघर्ष को फिर से शुरू करना पड़े तो हम क्या कर सकते हैं, अर्थात् प्रत्येक सत्याग्रही दूसरों के आचरण की परवाह किए बिना क्या
कर सकता है। यदि हम स्वयं के प्रति सच्चे रहें, तो दूसरों में
कमी नहीं पाई जाएगी, और भले ही वे कमज़ोर हों, वे हमारे उदाहरण से मजबूत होंगे।’ यूसुफ मियां मुश्किल हालात में
कमान संभालने के लिए तैयार नहीं थे। सबने एक स्वर से कछलिया को अपना कप्तान घोषित
किया और तब से लेकर अंत तक वे अपने जिम्मेदार पद पर अडिग रहे। उन्होंने निडरता से
उन कठिनाइयों को झेला जो उनकी जगह किसी और व्यक्ति को डरा सकती थीं। जैसे-जैसे
संघर्ष आगे बढ़ा, एक समय ऐसा आया जब कुछ लोगों के लिए जेल जाना एकदम आसान काम था और यह
उनके लिए आराम पाने का एक साधन था, जबकि बाहर रहकर सभी
चीजों पर बारीकी से नज़र रखना, विभिन्न व्यवस्थाएँ करना और सभी प्रकार के लोगों और
परिस्थितियों से निपटना बहुत कठिन था।
14 मई को गांधीजी ने अलबर्ट कार्टराइट मिलकर बताया कि उनकी मध्यस्थता की
फिर ज़रूरत पड़ेगी और अपनी बातचीत की याद दिलाते हुआ कहा कि आपने आश्वासन दिया था कि
ऐसी कभी ज़रूरत पड़ी तो मध्यस्थता करेंगे। कार्टराइट सारी बातें सुनकर स्तब्ध रह गया। उसने कहा, “सचमुच मैं इस आदमी को समझ नहीं सकता।
एशियाटिक क़ानून रद्द कर देने की बात मुझे अच्छी तरह याद है। न्होंने एशियाई अधिनियम
को निरस्त करने का वादा किया था, मैं अपनी पूरी कोशिश
करूँगा, लेकिन आप जानते हैं कि
जनरल स्मट्स ने एक बार जो रुख अपनाया है, उसे कोई नहीं
बदल सकता। मुझे डर है कि मैं आपकी बहुत मदद नहीं कर सकता।” गांधीजी के लिए वचन का मूल्य जीवन से ज़्यादा था। स्मट्स द्वारा वचन भंग
किए जाने पर उन्हें गहरा धक्का लगा। लेकिन उन्होंने विरोधी को निंदा करने की बात मन
में लाई भी नहीं। उन्होंने अपना अगला कार्यक्रम निर्धारित किया।
14 मई को गांधीजी ने, जनरल स्मट्स के निजी सचिव, लेन को पत्र लिखा कि एशियावासियों के उपनिवेश लौटने के लिए किए गए
समझौते की शर्तों में तीन महीने की समय सीमा तय नहीं की गई थी। उन्होंने स्मट्स को
भी पत्र लिख कर निवेदन किया कि नए पहुंचने वालों को स्वैच्छिक पंजीकरण किया जाए और
कानून को रद्द किया जाए। 15 मई को लेन ने गांधीजी को जवाबी पत्र में बताया कि उपनिवेश सचिव पहले लिए
गए निर्णय से नहीं फिरेंगे। 16 मई को स्मट्स ने एच्छिक पंजीकरण की समय सीमा बढ़ाने से इंकार कर दिया। गांधीजी
ने इसे ‘Foul-play’ की संज्ञा दी। गांधीजी ने
स्मट्स के विरोध में “विश्वासघात” शीर्षक से ‘इंडियन ओपिनियन’ में कई लेख प्रकाशित किया। उन्हें अभी भी
विश्वास था कि विधेयक वापस ले लिया जाएगा।
विरोधी दल, जो समझौते से नाराज़ थे, ने अपना हमला ज़ारी रखा। ब्रिटिश
इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष यूसुफ़ मियां पर लाठी से वार किया गया। उनकी नाक टूट
गई। वे बेहोश होकर गिर पड़े। उन्होंने मीर आलम के ख़िलाफ़ गवाही दी थी। इस घटना में
मूसा इब्राहिम पटेल और कछालिया सेठ को भी चोट आई थी। 20 मई को गांधीजी ने इंडियन ओपिनियन
में आलेख लिखकर पठान समुदाय से अपील की कि वे अहिंसा का रास्ता न अपनाएं। 21 मई स्मट्स को पत्र लिखकर मांग की
कि TARA को रद्द किया जाए। 22 मई लेन ने जवाब दिया कि जनरल स्मट्स निवेदन को स्वीकार करने में असमर्थ
हैं। एशियावासी विषय से संबंधित रजिस्ट्रार ने ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन को पत्र
लिखकर सूचित किया कि उपनिवेश में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का प्रवेश TARA के तहत दंडनीय
अपराध है। 23 मई को ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष ने पत्र लिखकर बताया कि चूंकि
एशियावासियों ने स्वेच्छा से पंजीकरण करवाया है इसलिए TARA एक ‘डेड लेटर’ के
समान है। इसलिए इसका लागू किया जाना समझौते की शर्तों का उल्लंघन है। 26 मई को ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन
ने पत्र लिखकर उपनिवेश सचिव को बताया कि चूंकि ऐच्छिक पंजीकरण की शर्तें तोड़ दी
गईं हैं, इसलिए पंजीकरण का आवेदन वापस ले लिया जाएगा। गांधीजी और उनके
सहयोगियों ने स्वैच्छिक पंजीकरण के आवेदन को लौटा देने की मांग की।
जहां एक तरफ़ जनरल स्मट्स से
समझौते की शर्तों का पालन करने के लिए निवेदन किया जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ कौम को फिर से जगाने
के उद्देश्य से जगह-जगह सभाएं की जा रही थीं। इस सबका परिणाम यह हुआ कि हर जगह लोग
लड़ाई फिर से शुरू करने और जेल जाने के लिए तैयार थे। ‘इंडियन ओपिनियन’ तो
सत्याग्रह का मुख्य-पत्र ही था। इसमें रोज़ ही आन्दोलन के अपडेट्स दिए जा रहे थे। 30 मई को इंडियन ओपिनियन के द्वारा
यह घोषणा की गई कि सत्याग्रह फिर से शुरू होगा। इससे स्थानीय सरकार को यह समझ में
आया कि भारतीय अडिग हैं, निर्भय हैं और जेल जाने को भी तैयार हैं।
गांधीजी ने स्मट्स को पत्र
लिखकर उन दोनों के बीच काले क़ानून विषय पर हुए पत्राचार को सार्वजनिक करने की
अनुमति मांगी। चार दिनों तक कोई जवाब नहीं आया, तो गांधीजी ने एक रिमांइडर भेजा। स्मट्स को लग रहा था कि इन पत्रों
के प्रकाशन से लोगों के बीच ग़लत संदेश जाएगा। 1 जून को टेलीफोन के द्वारा गांधीजी को सूचित किया गया कि भारतीयों के सवाल
को लेकर स्मट्स ने कैबिनेट की बैठक बुलाई है और इसका परिणाम शीघ्र ही सूचित किया
जाएगा। 4 जून को, छह जून को स्मट्स से मिलने के लिए गांधीजी को निमंत्रण पत्र भेजा
गया। 6 जून को गांधीजी जनरल स्मट्स से मिले। स्वैच्छिक पंजीकरण की वैधता को लेकर
विचार विमर्श हुआ। विधेयक के संशोधन के ड्राफ़्ट को गांधीजी को दिखाया गया। स्मट्स
ने माना कि TARA में कई खामियां थीं और इससे उद्देश्य की कोई पूर्ति नहीं होती।
एशियावासियों के वर्गीकरण और डोमिसाइल के अधिकार को लेकर मतभेद उभर कर सामने आए। गांधीजी
ने TARA को रद्द करने की मांग दुहराते हुए कहा कि अगर ऐसा न हुआ तो वे आवेदन
की वापसी के लिए सर्वोच्च न्यायालय की शरण लेंगे। कार्टराइट को पत्र लिखकर उनकी
मध्यस्थता की मांग की। 12 जून स्मट्स को पत्र लिखकर बताया कि वे सर्वोच्च न्यायालय जा रहे हैं। स्मट्स ने दूसरे
दिन मिलने को कहा। 13 जून को स्मट्स से मिले। उसने एक सप्ताह के भीतर अपना फैसला सुनाने की बात
कही। सर्वोच्च न्यायालय जाने का प्रस्ताव एक सप्ताह के लिए मुल्तवी कर दिया गया। 20 जून को फिर से स्मट्स से मिले।
उसने 22 तारीख को मिलने के लिए कहा। 22 जून ट्रांसवाल के लीडर अखबार में समाचार छपा कि TARA वापस ले लिया जाएगा।
2 जून, 1908 को बातचीत एक महत्वपूर्ण चरण में पहुँच गई, जब गांधीजी और स्मट्स के बीच महत्वपूर्ण चर्चा हुई। इस समय तक
ट्रांसवाल सरकार के कानूनी विशेषज्ञों ने अपना काम कर दिया था। जनरल अब यह कहने
में सक्षम थे कि सरकार एशियाई पंजीकरण अधिनियम को निरस्त करने का इरादा रखती है, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। सरकार द्वारा प्रस्तावित आव्रजन प्रतिबंध
अधिनियम में संशोधन का मसौदा गांधीजी को दिखाया गया। जहाँ तक स्वैच्छिक पंजीकरण के
वैधीकरण का सवाल था, यह विधेयक ठीक था, लेकिन इसमें बोअर-युद्ध शरणार्थियों और पुराने पंजीकरण प्रमाणपत्रों
और परमिट धारकों के लिए हानिकारक प्रावधान थे, जो भारत या
अन्यत्र ट्रांसवाल लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे,
साथ
ही भविष्य में सुशिक्षित अप्रवासियों के लिए भी। गांधीजी चाहते थे कि ये खामियाँ
दूर की जाएँ, जिसे जनरल स्मट्स करने
को तैयार नहीं थे। उन्होंने स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए आवेदनों के विरुद्ध परमिट न
दिए जाने की स्थिति में न्यायिक प्राधिकारी के समक्ष अपील करने के प्रावधान के
बारे में गांधीजी के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था। अपनी शर्तों पर समझौता करने
में विफल होने के बाद, स्मट्स ने एशियाई
पंजीकरण अधिनियम को बनाए रखने और स्वैच्छिक पंजीकरण को वैध बनाने के लिए उचित कदम
उठाने के अपने निर्णय की पुष्टि की। इस प्रकार वार्ता अचानक समाप्त हो गई। गांधीजी
स्मट्स के कार्यालय से पूरी तरह आश्वस्त होकर निकले कि भारतीयों को बिना और संघर्ष
के न्याय नहीं मिलने वाला। उन्होंने प्रेस
इंटरव्यू में कहा कि वे सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाएंगे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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