गांधी और गांधीवाद
160. सत्याग्रह शब्द की खोज
1906 के बाद गांधीजी ने जो अज्ञेय आंदोलन शुरू किया , उसे ' सिद्धांत' का नाम दिया गया। इसका सबसे पहले इस्तेमाल एशियाई पंजीकरण संस्थानों के खिलाफ किया गया था। दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने अपने हॉस्टल के गोदामों और खदानों में काम करने के लिए हजारों गिरिया मजदूरों को भारत से बुलाया था। वहां की संपत्ति में ज्यादातर भारतीयों की मेहनत से संभव हुई थी। धीरे-धीरे उनमें से कई स्वतंत्र किसान और व्यापारी आगे बढ़ने लगे। ऐसे किसानों और आदिवासियों को गोरे अपने बीच में नहीं देखना चाहते थे। सूअर युद्ध की शुरुआत बहुत से भारतीय परिवार ट्रांसवाल से हो रही थी। युद्ध की समाप्ति के बाद वे वापस आये। अन्य लेक्चरर ट्रांसवाल के गोरों ने अपने यहां ' एशियावासी के अवशेष ' का होआ खड़ा कर रखा था। वे इस बा को बढ़ावा दे रहे हैं कि प्रवासी भारतीय बहुत बड़ी संख्या में दक्षिण अफ़्रीका में बसने के लिए घुसेड़ें आ रहे हैं। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका के गोरों की भावनाओं को नापसंद करते थे, इसलिए उनके संदेह को कायम रखने के लिए उन्होंने भारतीय मजदूरों के आगमन पर रोक लगाने के लिए राजी कर लिया था। लेकिन उनका कहना था कि भले ही नए गिरमिटिया मजदूरों को न आना दिया जाए, लेकिन पढ़ें-लिखे भारतीयों की सीमित संख्या में आना न छोड़े जाएं क्योंकि भारतीय भोजन को कलरकी और मुनीमी के लिए ऐसे भारतीयों की जरूरत थी।
दूसरा मामला था लाइसेंस लेकर व्यापार करने का। इस मामले में गांधीजी का कहना था कि नियमों के तहत ही लाइसेंस के तहत स्थानीय शासन दे पर इस काम को उच्च न्यायालय में देखा जा सकता है। तीसरा मामला था मिट्टी के
मसाले और रहने की जगह के अधिकार के बारे में। गांधीजी का कहना था कि भारतीय-स्थानीय और स्वावलंबी शासन के सिद्धांतों को तैयार किया जाना चाहिए, लेकिन वे नियम केवल भारतीयों पर ही गोरों पर भी लागू नहीं होने चाहिए। चौथे गांधीजी फ्रेंचाइजी की मांग नहीं कर रहे थे, बल्कि वे चाहते थे कि ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य प्रजाओं के साथ शांति और मेल-मिलाप से और इज़्ज़त और आत्म-सम्मान से अस्तित्व का अधिकार दिया जाए। लेकिन साउथ अफ्रीका के गोरे लोग ऐसा नहीं चाहते थे। जनरल स्मट्स ने तो यहां तक घोषणा कर दी थी, "कितनी ही मुश्किल क्यों न आए, हम इसे गोरों का साथ रखेंगे।"
उन भारतीयों के चले जाने से गोरों का करोबार थप हो जाता है। फिर भी समय-समय पर उनके गलत तरह-तरह के क़ानून तय होते रहते हैं। शुरुआत में गोरों ने इन भारतीयों को धोखा दिया था कि उनके प्रति न्यायोचित और मानवोचित व्यवहार किया जाएगा। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका की घरेलू नीति बस गोरों के हितों को ध्यान में रखते हुए तय की गई थी। इसका वास्तविक कारण आर्थिक प्रतिद्वन्द्विता ही थी। एक बार लायनल कर्टिस नेगांधीजी ने कहा था, "इस देश के गोरों को भारतीयों के दुर्गुणों से ज़रा भी डर नहीं लगता, ये असली डर तो आप लोगों के विचारों से हैं। "
ट्रांसवाल में भारतीयों के पंजीकरण के प्रश्न को लेकर स्थिति ने विकट रूप
धारण कर लिया। वहां अभी तक परवानों पर दस्तख़त लेने, और दस्तख़त न कर सकने वालों के
अंगूठे का निशान लेने का नियम था। बाद में फोटो लेने और नए परवाने निकलवाने की बात
जोड़ दी गई। गांधीजी को पंजीकरण का तरीक़ा बहुत अपमानजनक और सताने वाला लगा। 22 अगस्त, 1906 के ‘ट्रांसवाल गजट’ में
उन्होंने भारतीय पंजीकरण
विधेयक का मसविदा पढ़ा। इस अध्यादेश के तहत ट्रांसवाल में
भारतीयों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था। ट्रांसवाल में रहने वाले हर भारतीय
पुरुष, स्त्री और आठ बरस या इससे ऊपर के बच्चों को पंजीकरण और परवाना लेना
अनिवार्य था। हर प्रार्थी को अपनी सभी अंगुलियों के निशान देने थे। बच्चों की
अंगुलियों के निशान देने की जिम्मेदारी उनके माता-पिता की थी। पंजीकरण पत्र न रखने
पर ज़ुर्माने में जेल या देश निकाला तक की सज़ा थी। किसी भी भारतीय को कहीं भी
परवाना दिखाने को कहा जा सकता था। परवाने की जांच के लिए पुलिस किसी भारतीय के घर
में घुस सकती थी। यह पत्र हर भारतीय को हमेशा साथ रखना होता था। इस परवाने के
क़ानून को ‘कुत्ते के गले का पट्टा’ कहा गया। इसके औचित्य के पीछे यह तर्क दिया गया कि ट्रांसवाल में भारतीयों
की बेतहाशा ग़ैर क़ानूनी आमद को रोकना है। लेकिन ऐसा कुछ था ही नहीं। वहां पर प्रवेश
संबंधी क़ानून पहले से ही सख़्त थे। असल मकसद तो वहां के पढ़े-लिखे और संपन्न
भारतीयों को अपमानित करना था। गांधीजी को लगा कि यदि यह विधेयक पारित हो गया तो
भारतीयों की उस देश में हस्ती ही मिट जाएगी। इस क़ानून के आगे सिर झुकाने से बेहतर
है मर मिट जाना।
अब इस काले क़ानून के द्वारा
हज़ारों लोगों को क़ैदियों की तरह रखना, अंगुलियों के ठप्पे लगवाना, प्रवेश के लिए अनुमति पत्र लेने पर विवश करना, कौन-सा न्यायोचित और मानवोचित
व्यवहार था? इस काले क़ानून को लाकर असत्य और अन्याय की हद कर दी गई थी। इस
अध्यादेश के तहत वहां के निवासी भारतीयों को पंजीकरण कराना होता, तथा प्रमाण पत्र लेना होता, जिस पर उनका नाम एवं अंगुलियों का
निशान आवश्यक था। यह पत्र हर भारतीय को हमेशा अपने साथ रखना होता।
बोअर के युद्ध में अंग्रेज़ों की विजय के बाद भारतीयों की दशा में
कुछ भी सुधार तो हुआ ही नहीं, उलटे यह पहले से और भी हीन और विपन्न हो गई थी।
नागरिक अधिकारों के लिए गांधीजी ने नेटाल और ट्रांसवाल में जो भी किया था उस पर
पानी फिर गया था। जनमत को जगाकर प्रवासी भारतीयों की स्थिति को सुधारने की उनकी
सारी आशाएं विफल हो गई थीं। भारत में इस सवाल पर काफ़ी सहानुभूति थी। कभी-कभार कुछ
अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं से भी कुछ सहानुभूति मिल जाया करती थी। लेकिन
इंग्लैण्ड का उपनिवेश-मंत्रालय हमेशा दक्षिण अफ़्रीका के गोरों का ही पक्ष लेता था।
इसका साफ मतलब था कि उपनिवेश अपने घरेलू मामलों में मनचाहा करने और भारतीय प्रजा
को दमन की चक्की में पीसने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसी परिस्थिति में इस काले क़ानून
का विरोध गांधीजी को अकेले दम पर करना था।
शिष्ट-मंडल उपनिवेश सचिव से मिला
इस काले क़ानून के ख़िलाफ़ 11 सितम्बर 1906 को एम्पायर
थियेटर में हुए ऐतिहासिक सभा ने राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष के एक नए सिद्धान्त को
जन्म दिया। उस सभा में भारतीय समुदाय के लोगों ने जिस प्रकार के व्यवहार का
प्रदर्शन किया था वह गांधीजी के दक्षिण अफ़्रीका में 1893 से चलाए जा रहे संघर्ष की परिणति थी। यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि
उस विराट सभा के बाद लोग चुपचाप बैठे रहने वाले नहीं थे। शपथ लिए जाने का समाचार
चारों तरफ़ फैल गया। जगह-जगह सभाएं आयोजित की गईं,
पर्चे बांटे गए और सभी जगह प्रतिज्ञाएं दुहराई गईं कि इस
काले क़ानून को स्वीकार नहीं किया जाएगा। प्रादेशिक सरकार से मिलने के प्रयत्न किए
गए। इसी क्रम में उपनिवेश सचिव डंकन के पास एक शिष्ट-मंडल भेजा गया। शिष्ट-मंडल
में सेठ हाजी हबीब भी थे, जिन्होंने एम्पायर थियेटर में हुए सभा में बड़ा जोशीला भाषण दिया था
और कहा था ‘हमें चाहिए कि नामर्द बनकर इस क़ानून के सामने कभी सिर न झुकाएं।’ सेठ
हाजी हबीब ने डंकन से कहा, “कोई अफसर मेरी स्त्री की उंगलियों के निशान लेने आया तो मैं अपने
गुस्से को ज़रा भी क़ाबू में न रख सकूंगा। मैं उसको वहीं मार डालूंगा और फिर
अपने-आपको ख़त्म कर लूंगा।” यह सुनकर डंकन सेठ हाजी हबीब के मुंह की ओर ताकते रहे। फिर आश्वासन
देते हुए बोले, “इस क़ानून से स्त्रियों से संबंध रखने वाली धाराएं वापस ले ली जाएंगी।” स्त्रियों को उस क़ानून से मुक्त रखने के इरादे के लिए सरकार को
धन्यवाद देकर शिष्ट-मंडल वापस आ गया। इस सफलता ने आंदोलनकारी लोगों का उत्साह बढ़ाया।
11 सितम्बर 1906 को गांधी जी की
अध्यक्षता में ट्रांसवाल/जोहांसबर्ग के एंपायर थियेटर में भारतीय प्रवासियों की एक
विशाल सभा हुई। इसमें एक स्वर से प्रस्तावित “दि एशियाटिक
रजिस्ट्रेशन अध्यादेश” का विरोध किया गया और क़ानून न मानने का निर्णय लिया गया। उन्होंने लोगों को
बता दिया कि विरोध करने वालों को जेल भी जान पड़ सकता है। कोड़े खाने पड़ सकते हैं।
लेकिन अंत तक डटे रहना होगा। लोगों के हाथ उठाकर प्रतिज्ञा की कि यह क़ानून पास हो
गया तो हम उसके आगे सिर नहीं झुकाएंगे। गांधीजी ने श्रोताओं से कहा, “मेरे लिए सिर्फ़
एक रास्ता बचा है, यानी मरना लेकिन कभी भी इस क़ानून को स्वीकार न करना, भले ही सब
पीछे ठहर जाएं और मुझे अकेला छोड़ दें।”
विरोध के इस आंदोलन का क्या नाम हो?
ऐसी परिस्थिति में गांधीजी ने
जिस नई कार्यविधि का विकास किया, उसे कौन-सा नाम दिया जाए, यह प्रश्न सबके सामने था। विरोध के इस आंदोलन को क्या नाम दिया जाए, शायद उस समय गांधीजी ख़ुद भी नहीं
जानते थे। उस समय वे सिर्फ़ इतना जानते थे कि राजनैतिक और सामाजिक बुराइयों से लड़ने
के लिए किसी नई चीज़ का जन्म हो चुका है और यह तो तय था ही कि आंदोलन का रूप अहिंसक
होगा। उस वक़्त वे उसे “पैसिव रेजिस्टेंस” या “निष्क्रिय
प्रतिरोध” कहते थे, बाद में उसका परिचय सविनय अवज्ञा से दिया गया। इस आंदोलन में शाब्दिक और शारीरिक बल-प्रदर्शन की पूरी
मनाही थी। लेकिन शांतिपूर्ण प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा कोई भी शब्द उन्हें संतुष्ट नहीं कर सका। उन्हें लगता था कि उनके मन
में जिस संघर्ष की कल्पना है उसे इनमें से कोई भी शब्द पूरी तरह व्यक्त नहीं करता।
उनकी कल्पना का प्रतिरोध प्रेम और सत्य की एक सकारात्मक धारणा पर आधारित था। वे
भारतीय मूल के किसी शब्द को वरीयता देने के पक्ष में थे। “पैसिव रेजिस्टेंस” शब्द को गांधीजी
सही नहीं पाते थे। इसमें काफ़ी क्रियाशीलता होती है। हालांकि अहिंसा इसका मुख्य अंग
है फिर भी अहिंसा केवल विरोध का अभाव मात्र नहीं है। गोरों की एक सभा में गांधीजी
ने देखा “पैसिव रेज़िस्टेन्स” का प्रयोग संकुचित अर्थ में
किया जाता है, उसे कमज़ोरों का हथियार, ‘लाचारी में निर्बल का विरोध’ माना जाता है।
निर्बलों का हथियार या आत्मबल
हुआ यूं कि जर्मिस्टन में
रहने वाले गोरों ने गांधीजी का भाषण सुनने की इच्छा प्रकट की। सभा में हॉस्किन, जो ट्रांसवाल संसद के एक
प्रमुख सदस्य थे, और जोहान्सबर्ग का एक धनाढ़्य जो कई खदानों का मालिक था, ने गांधीजी के आंदोलन और उनका परिचय
देते हुए कहा, “ट्रांसवाल के भारतीयों ने न्याय-प्राप्ति के लिए, दूसरे उपाय निष्फल हो जाने पर “पैसिव रेजिस्टेंस” का अवलंबन किया
है। उन्हें चुनाव में मत देने का अधिकार नहीं है। उनकी संख्या थोड़ी है। वे निर्बल
हैं, उनके पास हथियार
नहीं है। इसलिए उन्होंने “पैसिव रेजिस्टेंस” को, जो निर्बलों का हथियार है, ग्रहण किया है।” यह सुनकर गांधीजी चौंके। वे जो लोगों को बताना चाहते थे, उसने तो दूसरा ही रूप ले लिया था।
उन्होंने हॉस्किन की दलील का खंडन किया। उन्होंने “पैसिव रेजिस्टेंस” को ‘सोल-फोर्स’ यानी आत्मबल
बताया। उन्हें लगा कि “पैसिव रेजिस्टेंस” का जो अर्थ बताया जा रहा है, कमज़ोरों का हथियार, यानी ‘लाचारी में निर्बल का विरोध’, उससे उसमें द्वेष हो सकता है।
हो सकता है उसका अंतिम स्वरूप हिंसा में प्रकट हो। भारतीयों के इस आंदोलन में
हथियार के लिए तो कहीं और किसी भी स्थिति में स्थान ही नहीं था। दूसरी बात यह थी
कि इंग्लैंड की महिलाओं ने मताधिकार पाने के लिए इसी नाम
का उपयोग कर उग्र शब्दों और शारीरिक बल-प्रयोग और हिंसा का भी प्रयोग किया था।
इसलिए गांधीजी को यह नाम उचित नहीं लगा। इसलिए
उन्होंने उसका विरोध किया। इस सभा के बाद से उन्होंने भारतीयों की लड़ाई का सच्चा
स्वरूप लोगों को समझाना शुरू किया। तब जाकर उन्हें लगा कि उन्हें अपनी उस लड़ाई का
परिचय देने के लिए नए शब्द की ज़रूरत है। उनके मन में जिस संघर्ष कल्पना थी, उसे इसमें से कोई शब्द पूरी तरह
व्यक्त नहीं करता था।
नये शब्द के लिए प्रतियोगिता
अब प्रश्न था कि विरोध के इस
आंदोलन को कौन सा नाम दिया जाए। गांधीजी कोई शब्द-शास्त्री नहीं थे। उन्हें
वैसा कोई स्वतंत्र शब्द नहीं सूझ रहा था। वे चाहते थे
कि उनके विरोध के इस आंदोलन में वीरता होनी चाहिए। इसलिए नये शब्द के लिए उन्होंने नाममात्र का इनाम रखकर “इंडियन ओपिनियन” में विज्ञापन देकर पाठकों से
प्रतियोगिता करवाने का निर्णय लिया। 28 दिसंबर, 1907 के इंडियन
ओपिनियन में उनका एक नोट छपा था, जिसमें पाठकों से
गुजराती, उर्दू या संस्कृत में
ऐसे पर्यायवाची सुझाने को कहा गया था, जो अंग्रेजी
शब्दों 'पैसिव रेजिस्टेंस' और 'सिविल डिसओबिडीएंस' को शामिल कर सकें। उन्होंने उपयुक्त नाम सुझाने वाले को 2 पाउंड का
छोटा सा पुरस्कार देने की पेशकश की। इस प्रतियोगिता
के परिणामस्वरूप मगनलाल
गांधी ने सत्+आग्रह की संधि कर के एक शब्द सुझाया – ‘सदाग्रह’। इस शब्द को पसंद करने का कारण
बताते हुए उन्होंने लिखा था, “भारतीय क़ौम का यह आंदोलन एक भारी आग्रह है और यह आग्रह ‘सद्’
अर्थात् शुभ है।” इनाम उन्हें मिला। गांधीजी ने सोचा, सदाग्रह कहूंगा तो सत् की व्याख्या करना मुश्किल है। उन्हें एकदम
सूझा, सत् और आग्रह के बीच में ‘य’ अक्षर जोड़कर इसे ‘सत्याग्रह’ कर दो। इस प्रकार आंदोलन को एक
उपयुक्त नाम दिया गया (जनवरी 1908 में) जिसने इसके चरित्र को परिभाषित किया। गांधीजी ने सत्य में शांति का अंतर्भाव माना और आग्रह किसी भी वस्तु
का किया जाए तो उसमें बल उत्पन्न होता है। अतः आग्रह में बल का भी समावेश किया
गया। आत्मबल का एकमात्र अस्त्र सत्य और एकमात्र शस्त्र प्रेम है। सत्य और प्रेम
सबकी आत्मा में है। सत्याग्रह का अर्थ है सत्य बल या प्रेम-बल। सत्य
और प्रेम आत्मा के गुण हैं, इसलिए सत्याग्रह
आत्मा-बल का दूसरा शब्द है। इनके जागृत होने
पर, न्याय सहज सिद्ध
हो जाता है। यदि अन्यायी के प्रति प्रेम भाव रखकर सत्य पर आग्रह किया जाए, तो अंततः उसकी मति अन्याय का संग छोड़
देगी। पशुबल और भौतिक शक्ति के मद में अन्यायी सत्याग्रही को पीड़ा पहुंचाएगा।
सत्याग्रही का धर्म है कि वह प्रेम सहित पीड़ा को सहता रहे। परिणाम अंततः यह होगा
कि दुराग्रही अन्यायी हार मानेगा और उसके अंतःकरण में सत्य की जय होगी। इस प्रकार
सत्याग्रह से पापी का उद्धार और पाप का प्रतिकार अवश्यंभावी है। गांधीजी के
प्रख्यात जीवनीकार डॉ. आर. आर. दिवाकर बताते हैं: "सत्याग्रह जीवन
जीने का एक नया तरीका है। नैतिक शक्ति अहिंसक कार्यशैली का प्रमुख संसाधन थी।
नैतिक उद्देश्य ने इसे अजेयता का तत्व दिया।"
सत्याग्रह सदन, 15 पाइन रोड, ओर्चार्ड्स, जोहान्सबर्ग
“सत्याग्रह” शब्द की उत्पत्ति
इस तरह “सत्याग्रह” शब्द की उत्पत्ति
हुई। इस आंदोलन का पूरा शास्त्र,
सिद्धांत और कार्यपद्धति तो बाद के कई बरसों में
धीरे-धीरे विकसित होकर सामने आए,
क्योंकि गांधीजी सिद्धांत को कार्य का अनुचर का मानते थे।
गांधीजी के दृष्टिकोण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह भी था कि वे व्यवहार को सिद्धांत
से, तथा कर्म को विश्वास से अलग नहीं करते थे। उनके सत्य और अहिंसा केवल
गुंजायमान भाषणों और लेखों के लिए नहीं अपितु दैनिक जीवन के लिए थे। आने वाले महीनों और वर्ष़ों में गांधीजी के सिद्धान्त और कार्य-विधि
दोनों धीरे-धीरे विकसित होने को थे। इस आन्दोलन के प्रवर्तक के लिए सिद्धान्त और
आचरण, दोनों का परस्पर अटूट संबंध था। इस नामाकरण के बाद भारतीय
प्रतिरोध आंदोलन में स्पष्ट रूप से एक अतिरिक्त नैतिक विषय-वस्तु और गतिशीलता की
एक बड़ी मात्रा परिलक्षित हुई। चाहे निष्क्रिय प्रतिरोध को सत्याग्रह नाम दिए जाने
से पहले की अवधि हो या उसके बाद, गांधीजी के लिए 'निष्क्रिय' विशेषण का अर्थ 'अहिंसक' के अलावा और कुछ नहीं था। लेकिन नए नाम
के माध्यम से वे जो संदेश देने में सक्षम थे, वह
महज अहिंसक प्रतिरोध से कहीं अधिक था। इसमें साध्य और साधन दोनों की ही सार्थकता
समान रूप से समाहित थी। इसमें बुराई के खिलाफ लड़ाई सत्य के द्वारा किया जाना था, किसी हिंसक कार्रवाई से नहीं, बल्कि पीड़ा और सहनशीलता के माध्यम से। सत्य के नियम और प्रेम के नियम, सत्याग्रह इन दो महान सिद्धांतों पर आधारित था। सत्य समानता और न्याय को समाहित करता है। प्रेम बुराई के खिलाफ कड़वे अंत तक
प्रतिरोध को नहीं रोकता।
सत्याग्रही से अपेक्षा
सत्याग्रह का अर्थ है ‘सत्य पर डटे रहना’। इसमें निष्क्रियता नहीं होती, बल्कि इसमें काफ़ी क्रियाशीलता होती है। हालाकि अहिंसा इसका
मुख्य अंग है फिर भी वह केवल विरोध का अभाव मात्र नहीं है। सत्याग्रह के उनके अनूठे तरीक़े के अच्छे परिणाम निकले थे। सत्याग्रह को
ताकतवरों का हथियार माना गया है और इसमें किसी भी रूप में हिंसा और घृणा का
इस्तेमाल नहीं किया जाता। सत्याग्रह सत्य की निरंतर खोज और अहिंसक साधनों के
माध्यम से सत्य सिखाने का दृढ़ संकल्प है। यह सत्य-बल है। आदर्श सत्याग्रही से अपेक्षा की गई कि वह सत्यनिष्ठ तथा पूर्णतया
शान्तिमय हो, परन्तु साथ ही वह जिस चीज़ को ग़लत समझे उसको स्वीकार नहीं करे। वह
अन्यायी के ख़िलाफ़ संघर्ष के क्रम में यातनाएं सहने के लिए तैयार रहे। उसका संघर्ष
उसके सत्यप्रेम का भाग हो। मगर बुराई के ख़िलाफ़ लड़ते हुए भी वह बुरा करने वाले को
प्यार करे। घृणा एक सच्चे सत्याग्रही के स्वभाव के विपरीत होनी चाहिए। इसके अलावा
वह बिल्कुल निडर हो। वह बुराई के आगे कभी नहीं झुके और इसके परिणाम की परवाह न
करे। गांधीजी की नज़रों में अहिंसा कमज़ोर तथा कायर व्यक्तियों का हथियार नहीं।
सिर्फ़ शक्तिशाली और बहादुर लोग ही अहिंसा को अपना सकते हैं। उनके अनुसार कायरता से
हिंसा श्रेयस्कर है। सत्याग्रह में आत्म-अनुशासन,
आत्म-नियंत्रण
और आत्म-शुद्धि की आवश्यकता होती है।
सत्याग्रह आंदोलन का अर्थ
गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन
का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा था, “सत्याग्रह का सही और सीधा अर्थ आत्मबल है। यदि हम स्वयं को निर्बल और
लाचार मानकर, हाथ बांधे विरोध प्रकट करते हैं, तो लड़ाई में हम कभी अपनी या
दूसरों की दृष्टि में बलवान नहीं बन सकते। फिर जब कभी अनुकूल अवसर आएगा हम तुरंत
अन्य उपायों से काम लेने लगेंगे। इसके विपरीत यदि हम सत्याग्रही हैं और आत्मबल के
कारण स्वयं को बलवान समझकर सत्याग्रह करते हैं, तो इसके दो परिणाम निकलते
हैं। एक तो यह कि आत्मबल के भरोसे सत्याग्रह करते रहने से हम नित्य प्रति अधिक बली
बनते जाते हैं और दूसरा यह कि आत्मबल की दिनोदिन वृद्धि से सत्याग्रह की सफलता में
वृद्धि होती जाती है। तब हम मौक़ा पाकर सत्याग्रह से मुंह नहीं मोड़ते। लाचारी में
हाथ बांधकर विरोध प्रकट करने में प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं होती। सत्याग्रह में
घृणा का भाव तो है ही नहीं, प्रेम ही सत्याग्रह की प्राणशक्ति है।”
उपसंहार
जब हम गांधीजी के बहुआयामी
व्यक्तित्व पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि उन्होंने एक खास प्रयोगशाला में बहुत
खास खोज की। प्रयोगशाला थी, दक्षिण अफ़्रीका और खोज ‘सत्याग्रह’। नियति ने उन्हें दक्षिण
अफ़्रीका भेज दिया था, जहां की परिस्थितियों ने उन्हें उनके जीवन दर्शन के विकास में मदद
की। इसी धर्म के साथ उन्होंने अपना सारा जीवन जिया। अब गांधीजी तैयार थे, एक युद्ध की घोषणा करने के लिए, एक ऐसा युद्ध जो भारत को स्वतंत्रता
दिलाने के बाद ही थमने वाला था। इस युद्ध में किसी शस्त्र का इस्तेमाल नहीं किया
जाने वाला था। सत्याग्रहियों का शस्त्र तो उसके भीतर है, - उसका आत्मबल! उसका धैर्य!! उसकी
सहनशीलता!!! यहां आंख के बदले आंख की बात नहीं होने वाली थी, यहां तो यदि कोई एक गाल पर चांटा
मारे तो उसके सामने दूसरा गाल हाजिर किया जाने वाला था। गांधीजी
ने इसका पहला
प्रयोग दक्षिण
अफ़्रीका में
किया था।
इस अहिंसात्मक युद्ध
से न सिर्फ़
दक्षिण अफ़्रीका
बल्कि भारत
के लोग भी
चकित रह
गए। भारतवासियों को
यह जानकर काफ़ी
हर्ष और
गौरव का
अनुभव हुआ
कि दक्षिण अफ़्रीका
मे प्रवासी भारतीय
हज़ारों की
संख्या में
हंसते-हंसते
जेल जा रहे
हैं। सारे
भारत में
राजनैतिक चेतना
जाग उठी। भारत
से प्रचुर मात्रा
में आर्थिक सहयोग
दक्षिण अफ़्रीका
पहुंचने लगा।
यह संघर्ष तब
तक बंद नहीं
हुआ जब तक
कि गांधी जी
और दक्षिण अफ़्रीका
की सरकार में
समझौता नहीं
हो गया। सत्याग्रह के उनके अनूठे तरीक़े के अच्छे परिणाम निकले थे।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
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