गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

168. जोसेफ़ डोक के घर पर उपचार

 गांधी और गांधीवाद

168. जोसेफ़ डोक के घर पर उपचार



1908 जनवरी-फरवरी

फीनिक्स आश्रम में रह रही कस्तूरबा को सारी बातों का पता भी न चलता था। किसी ने आकर बताया कि गांधीजी पर मुकदमा चलाया गया, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि जो ख़ुद दूसरों के मुकदमे लड़ता है, उस पर क्यों मुकदमा चलाया जा रहा है? फिर उन्हें ख़बर मिली कि उन्हें अपराधियों के साथ जेल में डाल दिया गया है। कस्तूरबा की चिंता बढ़ गई। जेल के अंदर गांधीजी के साथ क्या हो रहा था, यह ख़बर न तो अखबारों में आता, और न ही कोई उन्हें बता ही पाता था। भय और चिंता से कस्तूरबा घुली जा रही थीं। उन्हें ईश्वर पर पूरा भरोसा था, और वे मन को तसल्ली दे लेतीं कि वही उनकी रक्षा करेगा। इस तरह अपनी सारी चिंताओं को दरकिनार कर वे पूरे आश्रम की सेवा में लग जातीं। गांधीजी की अनुपस्थिति में उन्होंने पूरे आश्रम का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया और जिस साहस, धैर्य और इरादों का परिचय उन्होंने दिया वह एक मिसाल है।

बात उन दिनों की ही है जब गांधीजी को जेल भेजा गया था। आश्रम में अन्नानास की खेती की गई थी, ताकि उसे बेच कर प्राप्त धन को इंडियन ओपिनियन’ को सुचारू ढंग से चलाया जा सकने के काम में लगाया जा सके। फल पक चुका था और उसके काटने की तैयारी चल रही थी। किचन का काम समाप्त कर कस्तूरबा, अपनी गर्भवती पुत्रवधु गुलाब, पंदरह वर्षीय मणिलाल, नौ वर्षीय रामदास और सात वर्षीय देवदास के साथ इस काम में लग गईं। हरिलाल प्रेस के काम में लगे हुए थे। खेत में काम करते-करते एक एक कर परिवार के बाक़ी सदस्य वापस चले गए, सिर्फ़ कस्तूरबा और मणिदास डटे रहे। कुछ देर के बाद मणिदास को ज़ोर से प्यास लगी। उन्होंने मां से इस बाबत कहा। मां ने कहा, इतने अन्नानास हैं, इनसे अपनी प्यास बुझा ले। मणिदास फलों की ढेर की तरफ़ बढ़ गए। कुछ देर के बाद कस्तूरबा की नज़र उन पर गई तो देखा वे अब भी फल खाए जा रहे थे। तब तक वे अट्ठारह अन्नानास खा चुके थे। मां ने कहा, अब तक तेरी प्यास नहीं बुझी? मां की मुस्कान से मणिलाल आश्वस्त हुए। एक दिन इसी तरह फलों की कटाई हो रही थी, मणिलाल एक अखबार हाथ में लहराते हुए आए और चिल्लाने लगे, “मां, मां, बापू जेल से छूट गए हैं!

सबके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। कस्तूरबा ने कहा, “यह तो बड़ी ख़ुशी की बात है! लेकिन अब हमें सबसे पहले अपना काम ख़त्म करना चाहिए। इस तरह सब फिर से फलों को काटने में लग गए। आश्रम की ख़ुशी ज़्यादा दिन ठहर न सकी। दस दिनों के बाद जोहान्सबर्ग से एक तार आया। ख़बर थी, गांधीजी पर जानलेवा हमला हुआ है। कस्तूरबा काफ़ी चिंतित हो गईं। किसी ने कहा उन्हें जोहान्सबर्ग जाना चाहिए। उन्होंने कहा, “मैं ऐसा नहीं कर सकती। फीनिक्स आश्रम की माली हालत बहुत ख़राब है। अपने स्वार्थ के लिए, उस पर मैं अपनी यात्रा का बोझ नहीं डाल सकती। अल्बर्ट वेस्ट ने कहा, “हम इस ख़र्च का वहन कर लेंगे। आप चिंता न करें। मुझे लगता है आपको जाना ही चाहिए। किंतु कस्तूरबा ने दृढ़तापूर्वक कहा, “इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। वहां उनके कई मित्र हैं। वे उनकी देख-भाल कर ही रहे होंगे। आप सब जानते हैं, सार्वजनिक सम्पत्ति के उचित इस्तेमाल के प्रति वे कितने सतर्क रहते हैं। मैं उनके सिद्धांतों के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती। कस्तूरबा की चिंता दो दिनों बाद ही कम हुई जब हेनरी पोलाक का एक लम्बा पत्र आया जिसमें उन्होंने बताया था कि गांधीजी पादरी जोसेफ़ डोक के यहां स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं।

सज्जन और मधुर स्वभाव वाले जोसेफ़ डोक बैपटिस्ट संप्रदाय के पादरी थे। उनकी उम्र उस समय 46 वर्ष थी। अपने पंथ के गोरों के लिए वे जोहान्सबर्ग के ग्राहम्स टाउन में एक गिरजाघर चलाते थे। दक्षिण अफ़्रीका आने के पहले वे न्यूज़ीलैंड में थे। छह महीने पहले 1907 में वे गांधीजी से उनके दफ़्तर में मिले थे। उन दिनों गांधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन का आरंभ किया था। वे गांधीजी का साक्षात्कार लेना चाहते थे। उन्होंने गांधी जी की जो छवि मन में बसा रखी थी वह एक लंबे-चौड़े और राजसी व्यक्ति की थी। लेकिन जब वे गांधीजी से मिले तो उन्होंने अपने अनुभव लिखते हुए कहामुझे एक साहसपूर्ण और गर्वोन्मत्त मुखड़े से मुलाक़ात की आशा थी, लेकिन इसकी बजाय मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मेरे सामने एक छोटा-सा, कोमल और दुर्बल व्यक्ति खड़ा था और एक परिष्कृत, गंभीर मुखड़ा मेरे मुखड़े को देख रहा था। त्वचा का रंग काला था, आंखें काली थीं, लेकिन चेहरे को आलोकित करने वाली मुस्कान और वह सधी हुई, बेख़ौफ़ निगाह बस एक झटके में व्यक्ति का दिल जीत लेती थी। उसके बाद से पादरी डोक गांधीजी के न सिर्फ़ प्रशंसक हो गए, बल्कि अनन्य मित्र भी हुए। वे गांधीजी के पहले जीवनीकार भी हुए। 1909 में लिखी जीवनी आज भी गांधीजी के व्यक्तित्व और जीवन के सर्वोत्तम विवरण ग्रंथों में एक है। उन्होंने गांधीजी के जीवन और लालन पालन और दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को बेहतर समझ पाने में टॉल्सटॉय की सहायता की थी।

10 फरवरी 1908, को एक भारतीय पठान ने गांधीजी पर हमला कर दिया। वह गांधीजी से इसलिए नाराज़ था कि गांधीजी ने सरकार से एक समझौता कर लिया था। रास्ते से जा रहे कुछ यूरोपवासी घटनास्थल पर पहुंचे। उन्होंने भाग रहे पठानों को पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। नज़दीक के एक कार्यालय में गांधीजी को लाया गया। एक डॉक्टर ने उनके घाव और चोटों की मरहम पट्टी की। पादरी रेवरेंड जोसेफ डी. डोक उस दिन शहर में ही घूम रहे थे। जब वे रिसिक स्ट्रीट पहुंचे तो देखा कि हेनरी पोलाक गांधीजी के दफ़्तर के बाहर खड़े हैं। वे पोलाक से बात करने लगे। कुछ ही क्षणोपरान्त एक लड़का दौड़ा-दौड़ा बदहवास सा उधर आया और हांफते हुए बोलने लगा कि कुछ लोगों ने गांधीजी की बुरी तरह से पिटाई की है और वे गंभीर रूप से घायल हो गए हैं। यह सुन कर जोसेफ डोक और पोलाक वान ब्रान्डिस स्ट्रीट की तरफ़ दौड़ पड़े।

जब वे घटना स्थल पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि सैकड़ों लोग अर्नाट एण्ड गिब्सन नामक एक दुकान को घेरे खड़े हैं। भीड़ को चीड़ डोक और पोलाक दुकान में पहुंचे। गांधीजी को दुकान के मालिक जे.सी. गिब्सन के दफ़्तर में बिठाया गया था। एक डॉक्टर, ख़ून से लथपथ गांधीजी का प्राथमिक उपचार कर रहा था। थाम्बी नायडू और यूसुफ़ मियां की चोट उतनी गंभीर नहीं थी जितनी गांधीजी को। गांधीजी का चेहरा तो पहचाना ही नहीं जा रहा था। ऊपरी होंठ फट चुका था, आंखों के ऊपर गूमड़ निकला हुआ था, ललाट पर गहरा जख़्म था, छाती की हड्डियों पर इतने प्रहार हुए थे कि सांस लेने में काफ़ी तकलीफ़ हो रही थी। कोई कह रहा था, इसे जल्द अस्पताल ले जाओ। गंभीर रूप से घायल गांधीजी को देखकर पादरी डोक ने लोगों से, जब तक ख़तरा टल न जाए गांधीजी को अपने साथ ले जाने की मंशा जताई। गांधीजी ने भी अस्पताल जाने के बदले पादरी डोक के यहां जाना ही पसंद किया।

उस घटना को याद कर जोसेफ डोक कहते हैं, पठानों ने उस पर हमला किया था, उसे नीचे गिरा दिया था और उसे बर्बरता से पीटा था। जब उसे होश आया, तो वह पास के एक कार्यालय में लेटा हुआ था, जहाँ उसे ले जाया गया था। मैंने उसे कुछ क्षण बाद देखा। वह असहाय था और खून बह रहा था, डॉक्टर उसके घावों को साफ कर रहा था, पुलिस अधिकारी उसके बगल में देख रहे थे और सुन रहे थे, जबकि वह अपनी थोड़ी सी ताकत का उपयोग करके इस बात पर जोर दे रहा था कि उसके संभावित हत्यारों को दंडित करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।

जब गांधीजी को होश आया, तो उन्होंने देखा कि मिस्टर डोक उनके ऊपर झुके हुए हैं। ‘तुम्हें कैसा लग रहा है?’ उन्होंने गांधीजी से पूछा। गांधीजी ने कहा, ‘मैं ठीक हूं, लेकिन दांतों और पसलियों में दर्द है। मीर आलम कहां है?’

‘उसे बाकी लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया है।’

‘उन्हें रिहा किया जाना चाहिए।’

‘यह सब तो ठीक है। लेकिन यहाँ आप एक अजनबी के दफ़्तर में हैं और आपके होंठ और गाल बुरी तरह से जख्मी हैं। पुलिस आपको अस्पताल ले जाने के लिए तैयार है, लेकिन अगर आप मेरे घर आएंगे, तो श्रीमती डोक और मैं आपकी यथासंभव मदद करेंगे।’

'हाँ, कृपया मुझे अपने घर ले चलो। पुलिस को उनके प्रस्ताव के लिए धन्यवाद लेकिन उन्हें बता दो कि मैं तुम्हारे साथ जाना पसंद करूँगा।'

इतने में उस दफ़्तर में एशियाटिक अधिकारी मौण्टफ़ोर्ट चमनी (Montfort Chamney) भी आ गया। गांधीजी को स्मिट स्ट्रीट स्थित पादरी डोक के घर ले जाया गया। ऊपरी मंजिल पर पादरी डोक के पन्द्रह वर्षीय पुत्र के बेडरूम में ले जाकर उन्हें लिटा दिया गया। डॉक्टर को बुलाया गया। गांधीजी ने चमनी से कहा, “मेरी तो इच्छा थी कि आपके दफ़्तर जाकर दसों उंगलियों की निशानी देकर पहला परवाना अपने नाम निकलवाऊंगा। यह ईश्वर को मंजूर नहीं था। फिर भी मेरा आपसे निवेदन है कि आप ज़रूरी काग़ज़ात मंगवा लें और मेरा रजिस्ट्री कर लें।

चमनी ने कहा, “ऐसी क्या उतावली है? अभी डॉक्टर आ रहे हैं, आप अपना उपचार करवाएं। फिर आराम करें, रजिस्ट्रेशन तो होता रहेगा।

गांधीजी ने कहा, “ऐसा नहीं हो सकता। मैंने प्रतिज्ञा की है कि मैं जीवित रहा और ईश्वर को मंजूर हुआ तो सबसे पहले मैं ख़ुद ही परवाना लूंगा।

कागज़ मंगवाया गया। गांधीजी ने औपचारिकता पूरी की।

उसके बाद उन्होंने सरकार से अपील की कि हमलावरों को छोड़ दिया जाए। मीर आलम के मामले में गांधीजी की बात न सुनी गई। उसे और उसके एक साथी को अपराधी मानकर मुकदमा चलाया गया जिसमें गांधीजी की गवाही न ली गई और उसे तीन महीने की कड़ी क़ैद की सज़ा सुनाई गई।

डॉ. थ्वाइट्स ने गांधीजी की जांच की और गाल और ऊपरी होंठ पर लगे घावों पर टांके लगाए। उन्होंने पसलियों पर लगाने के लिए कुछ दवा लिखी और जब तक टांके नहीं हट जाते, उन्हें चुप रहने का आदेश दिया। उन्होंने गांधीजी के आहार को केवल तरल पदार्थों तक सीमित कर दिया। उन्होंने कहा कि कोई भी चोट गंभीर नहीं है, कि वह एक सप्ताह में बिस्तर से उठकर अपनी सामान्य गतिविधियाँ शुरू कर सकेंगे, लेकिन उन्हें सावधान रहना चाहिए कि वह दो महीने तक ज़्यादा शारीरिक तनाव न लें। यह कहकर वे चले गए।

गांधीजी को पादरी डोक के उस घर में असीम शांति और अलौकिक सुख का आनंद प्राप्त हुआ। गांधीजी ने स्लेट पर लिखकर डोक से पूछा कि क्या आपकी पुत्री ओलिव हमारे लिए लीड काइण्डली लाइट गाएगी? डोक की बेटी ओलिव डोक जब अपनी सुरीली आवाज़ में कार्डिनल न्यूमैन (Cardinal Newman) रचित ‘लीड काइन्डली लाइट’ गाने लगी, तो वे एक स्वप्निल संसार में खो गए।

Lead, kindly Light,

Amid the encircling gloom,

Lead thou me on!

The night is dark,

And I am far from home,

Lead thou me on!

Keep thou my feet,

I do not ask to see,

The distant scene,

One step enough for me.

I was not ever thus,

Nor prayed that thau

Shouldst lead me on …

गांधीजी दस दिनों तक पादरी जोसेफ़ डोक के घर पर उपचार के लिए रहे। बोलने की पाबंदी थी, लेकिन वे हाथ से काम करते रहे। 15 फरवरी को इंडियन ओपिनियन में A Dialogue on the Compromise” शीर्षक लेख का प्रकाशन कर एशियावासियों से भी गुजारिश कीमेरे रक्त से सिंचकर एकता का वृक्ष और हरियाला हो। आक्रमणकारी निर्दोष हैं। जो होना था सो हो चुका है। कुछ ही दिनों में मैं काम पर लौट आऊंगा। आप सब स्वेच्छा से अंगुलियों के निशान दें। ”

गांधीजी रेवरेंड डोक के करीबी दोस्त कभी नहीं रहे। वे पहले तीन या चार बार मिले थे, हमेशा अनौपचारिक रूप से, और आंदोलन की प्रगति के बारे में आमतौर पर कुछ विनम्र प्रश्न होते थे। दिन-रात परिवार का कोई न कोई सदस्य उनकी सेवा में लगा रहता। घर में उपचार के समय रात के दौरान रेवरेंड डोक बीच-बीच में कमरे में झांककर देखते थे कि सब ठीक है। श्रीमती डोक उन्हें पट्टी बांधने और पट्टियों को धोने के प्रभारी थीं। बच्चे घर में पंजों के बल चलते थे, ताकि गांधीजी की नींद न टूट जाए। सुबह आगंतुकों का तांता लग जाता था, और उन्हें एक-एक करके बहुत विनम्रता से ऊपर के बेडरूम में ले जाया जाता था। एक ही सुबह में पचास से अधिक भारतीय आते थे। बैपटिस्ट चर्च के यूरोपीय पैरिशियन आश्चर्य करते थे कि रेवरेंड डोक को "एक भारतीय विद्रोही" के बारे में क्यों परेशान होना पड़ा। उन्होंने मांग की कि वे गांधीजी से छुटकारा पाएं, अन्यथा वे उनका वेतन देने से इनकार कर देंगे। पादरी बस अपना कर्तव्य निभाते रहे, उन्हें अपने अनुयायियों का ज़रा भी डर नहीं था। उन्होंने कहा, “मेरा पालनहार ईश्वर है, और कोई भी मेरी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। गांधीजी उनसे बहुत प्रभावित हुए। इससे पहले उन्होंने कभी किसी ऐसे ईसाई से मुलाकात नहीं की थी जो इतना विनम्र, इतना समर्पित और इतना दयालु हो। उनकी मेहमाननवाज़ी भरी छत के नीचे रहते हुए, गांधीजी को कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि यह उनका घर नहीं है, या कि उनके सबसे करीबी और प्रियतम डोक से बेहतर उनकी देखभाल कर सकते थे।

श्रीमती डोक शांत स्वभाव की महिला थीं और उन्होंने और परिवार के अन्य सदस्यों ने गांधीजी की काफ़ी सेवा की। पादरी डोक की चुटीली बातें उनका मन बहलाया करती थीं। भारतीय लोग आकर गांधीजी का हालचाल पूछ लिया करते थे, लेकिन उस इलाक़े के गोरों को यह सब नहीं सुहाता था। घाव का भरना काफ़ी धीमा था कि और गांधीजी अपने चेहरे पर लिपटी पट्टियों से तंग आ चुके थे। एक दिन उन्होंने स्लेट पर लिख कर डोक परिवार को बताया, “मेरी पट्टियां खोल दी जाएं। मैं डॉक्टर के इलाज से तंग आ चुका हूं। मैं इन पट्टियों की जगह कीचड़ की पुलटिस लगाऊंगा।

यह पढ़कर बालक डोक बाग की तरफ़ भागा। उसके हाथ में कुदाल थी और वह ताज़ी मिट्टी खोदकर ले आया। इसके बाद गांधीजी का ख़ुद का उपचार शुरू हो गया। श्रीमती डोक ने कीचड़ की पुलटिस लगाई। यह सब देखकर इलाज कर रहे डॉक्टर ने काफ़ी नाराज़गी जाहिर करते हुए कहा, “इस मरीज की जिम्मेदारी मैं नहीं ले सकता। लेकिन दो दिनों में ही गांधीजी बारामदे में आराम कुर्सी पर बैठे फल खा रहे थे। वह कुर्सी हमेशा के लिए पादरी डोक के ड्राइंग रूम में यादगार के तौर पर रही और वह उसे महात्मा गांधी की कुर्सी कहते थे।

कुछ दिनों में ही गांधीजी काफ़ी स्वस्थ हो गए और पादरी डोक के घर से विदा लेकर पोलाक के घर चले आए। इस घर को लगभग एक वर्ष पहले अभिभावक और सहबाला बनकर उन्होंने ही बसवाया था। पोलाक पैसे की तंगी के कारण जब विवाह करने में असमर्थता प्रकट कर रहे थे, तब गांधीजी ने ही अपने सहयोगी से कहा था कि प्रेम में कमी हो तो और बात है, किंतु धन की कमी से विवाह न करना ग़लत बात है। यहां पर उन्होंने श्रीमती पोलाक की देख-रेख में स्वास्थ्य लाभ किया। उन दिनों को याद करते हुए श्रीमती पोलाक लिखती हैंस्वास्थ्य लाभ के उस काल में गांधीजी ने वह शक्ति विकसित की जिसे उन्होंने आगे भी बचाए रखा कि वे जहां काम करते थे वहीं बैठे-बठे सो जाते थे और कुछ क्षण बाद तरोताजा होकर और चिंतन की धारा में कोई बाधा डाले बिना जाग उठते थे। मैं कमरे में बैठी हूं और वे अपने सचिव को कुछ बोलकर लिखा रहे हैं कि उसे इसी काम के लिए दफ़्तर बुलाया गया है, और एकाएक आवाज़ रुक जाती है और आंखें बंद हो जाती हैं। सचिव और मैं ख़ामोश बैठे हैं, और फिर उतने ही अचानक ढंग से गांधीजी की आंखें फिर खुलती हैं और आवाज़ उसी जगह से लिखवाना ज़ारी करती है जहां पर वह रुकी थी। मुझे याद नहीं कभी उन्होंने पूछा हो  मैं कहां था? या मैं क्या कह रहा था?”

ठीक होने के बाद गांधीजी ने बराबर यह प्रचार किया कि रजिस्ट्री के बारे में उन्होंने जो समझौता किया है, उस पर ईमानदारी से अमल करना चाहिए। इसी क्रम में 22 फरवरी1908 को इंडियन ओपिनियन में उन परिस्थितियों के बारे में विस्तार से लिखा जिसके तहत उन्होंने समझौता स्वीकार किया था। उनके इन प्रयासों का ही फल था कि 29 फरवरी तक स्वेच्छा से दिए जाने वाले आवेदनों की संख्या 3400 तक हो गई।

उपसंहार

जोसेफ डोक कहते हैं, उनमें एक शांत, आश्वस्त शक्ति, एक महान हृदय, एक पारदर्शी ईमानदारी थी, जिसने मुझे तुरंत उस भारतीय नेता की ओर आकर्षित किया। हम दोस्त बनकर सदैव रहे। लोग उन पर आश्चर्य करते हैं, उनकी अजीब निःस्वार्थता पर क्रोधित होते हैं, और गर्व और विश्वास के साथ उनसे प्यार करते हैं। वह उन बेहतरीन किरदारों में से एक हैं, जिनके साथ बात करना एक उदार शिक्षा है, जिन्हें जानना प्यार करना है।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद

संदर्भ : यहाँ पर

 

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