राष्ट्रीय आन्दोलन
195. शहीद खुदीराम बोस
1908
जज किंग्सफोर्ड से
भारतीयों और खासकर क्रांतिकारियों को
सख्त नफरत थी। 19 जुलाई, 1905 को जैसे ही लॉर्ड कर्ज़न ने
बंगाल विभाजन का फ़ैसला किया, बंगाल ही नहीं पूरे भारत के
लोगों के मन में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आक्रोश भड़क उठा। हर जगह विरोध मार्च, विदेशी
सामान के बहिष्कार और अख़बारों में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लेखों की एक तरह से बाढ़
आ गई। उसी
ज़माने में स्वामी विवेकानंद के भाई भूपेंद्र नाथ दत्त ने 'जुगाँतर' अख़बार में एक लेख लिखा
जिसे सरकार ने राजद्रोह माना। कलकत्ता प्रेसीडेंसी के मजिस्ट्रेट डगलस किंग्सफोर्ड
ने न सिर्फ़ प्रेस को ज़ब्त करने का आदेश दिया, बल्कि भूपेंद्र नाथ दत्त को ये लेख लिखने के आरोप में एक
साल की कैद की सज़ा सुनाई। इस फ़ैसले ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह में आग में
घी का काम किया। यही नहीं किंग्सफोर्ड ने बन्दे मातरम का नारा बुलंद करने वाले एक
15 वर्षीय छात्र को 15 बेंत लगाने की कठोर सज़ा सुना दी। 1908 में ‘युगांतर दल’ ने कलकत्ता के चीफ
प्रेसीडेंसी डगलस किंग्सफोर्ड, जो देशप्रेमी बंगालियों का महान शत्रु था, की हत्या की योजना बनाई। इसे पूरा करने का
दायित्व खुदीराम बोस (03 दिसम्बर, 1889-11 अगस्त 1908) और प्रफुल्ल चाकी को सौंपा गया।
खुदीराम बोस का जन्म पश्चिम
बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता काम
बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। त्रैलोक्यनाथ बोस
नराजोल इस्टेट के तहसीलदार थे। उनका नाम खुदीराम क्यों पडा इसके पीछे भी एक कहानी
है। कहा जाता है कि जब लक्ष्मीप्रिया देवी को कोई पुत्र न हुआ तो उन्होंने अपने घर
के सामने की सिद्धेश्वरी काली मन्दिर में तीन दिनों तक लगातार पूजन किया। तीसरी
रात को काली माता ने उन्हें दर्शन देकर पुत्ररत्न की प्राप्ति का आशीर्वाद तो दिया
लेकिन यह भी कहा कि यह पुत्र बहुत यशस्वी तो होगा लेकिन अधिक दिन जीवित नहीं रहेगा।
उन दिनों के रिवाज़ के हिसाब से नवजात शिशु का जन्म होने के बाद उसकी सलामती के
लिये कोई उसे खरीद लेता था। लक्ष्मीप्रिया देवी के पुत्र के जन्म के बाद उसे तीन
मुट्ठी खुदी (टूटा चावल) देकर उसकी दीदी ने खरीद लिया। इस कारण उनका नाम पडा – खुदीराम
पडा।
उनका बचपन काफी कष्टमय
बीता। जब वह मात्र 6 वर्ष के थे, तब पहले मां
और फिर पिता चल बसे। विवाहित दीदी अपरूपा देवी ने
बालक खुदीराम की देख रेख की। दीदी के यहाँ ही वह तमलुक शहर के हेमिल्टन स्कूल में
पढने लगे। वह स्कूल के दिनों से ही बहुत साहसी थे। उनके साहसिक कारनामों के कई
किस्से मशहूर हैं। हाई स्कूल की पढ़ाई के लिए उनका मिदनापुर कालेजियेट स्कूल में
दाखिल कर दिया गया। पढ़ाई में उनका मन नहीं लगता था। वह देश की सेवा करना चाहते थे। राष्ट्रप्रेम और देश को स्वतंत्रता दिलाने के जज़्बे
के कारण उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में भाग लेने लगे। खुदीराम बोस रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वन्दे मातरम् पंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सत्येन
बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। 1905 में बंगाल के विभाजन (बंग-भंग) के विरोध में चलाये गये आन्दोलन में
उन्होंने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। पिकेटिंग से लेकर जनसभाओं के आयोजन और
स्वयंसेवकों की सेवा और उनकी देखभाल का काम वे नि:स्वार्थ भाव से करते थे। 1906 में मिदनापुर में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी के दौरान उनका एक पुलिस वाले से ‘सोनार बांगला’ नामक पम्फलेट बांटने ले कारण झगड़ा हो गया और उन्होंने उसे घूंसा
मारा। अंग्रेज़ों के एक पिट्ठू
रामचरण सेन ने उनको शासन विरोधी पर्चा बांटते देख लिया। उसने इसकी सूचना वहां
तैनात एक सिपाही को दे दी। सिपाही ने खुदीराम को पकड़ने का प्रयास किया। खुदीराम
ने उस सिपाही के मुंह पर एक घूंसा जड़ दिया। उन्होंने कहा, "ख़याल रखना, मेरे शरीर को मत छूना! मैं
देखता हूँ कि तुम मुझे बिना वारंट के कैसे गिरफ़्तार कर सकते हो।" जिस
पुलिसवाले को घूँसा लगा था, वह फिर आगे बढ़ा; लेकिन खुदीराम वहाँ नहीं थे।
वह भीड़ के बीच में गायब हो गए थे। बाद में राजद्रोह के आरोप लगाकर सरकार ने एक्ट 121 के अंतर्गत (साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध छेडने के
आरोप में) मुकद्दमा चलाया गया किन्तु गवाही न मिलने से खुदीराम निर्दोष छूट गये। 6 दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर
की विशेष ट्रेन पर हमला किया परन्तु गवर्नर बच गया। सन 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और
पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले।
बंग-भंग
के विरोध में सड़कों पर उतरे अनेकों भारतीयों को उस समय के कलकत्ता के मॅजिस्ट्रेट
किंग्सफोर्ड ने क्रूर दण्ड दिया था। वह बहुत ही क्रूर अधिकारी था और उसने अनेक क्रान्तिकारियों
को बहुत कष्ट दिया था। उसके विरूद्ध
क्रांतिकारियों में तीव्र असंतोष था। युगान्तर’ समिति ने एक गुप्त बैठक में किंग्सफोर्ड
को ही मारने का निश्चय किया। इस काम को अंजाम देने के
लिए खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार चाकी का चुना गया। खुदीराम को एक बम और पिस्तौल दी
गयी। प्रफुल्लकुमार को भी एक पिस्तौल दी गयी। क्रांतिकारियों से सुरक्षा करने के लिए सरकार ने किंग्सफोर्ड
का स्थानान्तरण मुजफ्फरपुर (बिहार) कर दिया था। युगांतर क्रांतिकारी दल के नेता
वीरेंद्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुजफ्फरपुर (बिहार) में ही
मारा जाएगा। 18 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी अपने मिशन पर मुज़फ्फ़रपुर
पहुंचे। दोनों मुजफ्फरपुर पहुंचकर मोती झील क्षेत्र में एक धर्मशाला में आठ दिन
रहे। उन्होंने किंग्सफोर्ड के
बँगले की निगरानी की। उसकी बग्घी तथा उसके घोडे का रंग देखा। किंग्सफोर्ड को उसके
कार्यालय में जाकर ठीक से देख आए। उसके बंगले के पास ही क्लब था। अंग्रेजी अधिकारी और उसके
परिवार के लोग शाम को वहां जाते थे। दोनों ने योजना बनाई कि क्लब से वापसी के समय किंग्सफोर्ड
की बग्घी पर बम फेंककर उनकी हत्या कर दी जाए।
30
अप्रैल, 1908 को दोनों क्रान्तिकारी किंग्सफोर्ड के बँगले के बाहर घोड़ागाड़ी से
उसके आने की राह देखने लगे। बँगले की निगरानी के लिए मौजूद पुलिस के गुप्तचरों ने उन्हें हटाना भी चाहा परन्तु वे दोनों
उन्हें कुछ जवाब देकर वहीं रुके रहे। रात में साढ़े आठ बजे के आसपास क्लब से किंग्सफोर्ड
की बग्घी की तरह दिखने वाली गाडी आते हुए देखकर खुदीराम गाडी के पीछे भागने लगे।
रास्ते में बहुत ही अँधेरा था। उन्होंने उस बग्घी पर यह
समझ कर बम फ़ेंका की इसमें बदनाम जज किंग्स्फोर्ड सवार है। उनका अंदाज ग़लत निकला। भाग्यवश
बग्घी में वह नहीं था। किंग्सफोर्ड थोड़ी देर के बाद क्लब से बाहर निकला था। उस
दिन किंग्सफ़ोर्ड अंग्रेज़ बैरिस्टर प्रिंगल कैनेडी की पत्नी और बेटी के साथ ब्रिज
खेल रहा था। शाम साढ़े आठ बजे जब खेल ख़त्म हुआ तो दोनों अंग्रेज़ महिलाएं श्रीमती
कैनेडी और ग्रेस कैनेडी घोड़े की एक बग्घी पर सवार हुईं। ये बग्घी किंग्सफोर्ड की
बग्घी से बहुत कुछ मिलती जुलती थी। दूसरी बग्घी में किंग्सफोर्ड और उनकी पत्नी
सवार हुए। उन महिलाओं ने वही सड़क ली जो किंग्सफोर्ड के घर के सामने से होकर जाती
थी। बग्घी में सवार उसके मित्र कैनेडी की पत्नी और उसकी पुत्री मृत्यु के शिकार हो
गए। खुदीराम तथा प्रफुल्लकुमार दोनों ही यह सोचकर भाग निकले कि किंग्सफोर्ड मारा
गया है। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी वहां से भाग तो निकले लेकिन जल्दबाज़ी में
खुदीराम के जूते वहीं रह गए। ज़िला प्रशासन ने ये भी घोषणा की थी कि जो शख़्स इन
लोगों के बारे में सूचना देगा उसे 5000 रुपए का इनाम दिया जाएगा। रातों-रात भागते हुए 24 मील दूर स्थित समस्तीपुर के पास वैनी गाँव (पूसा रोड रेलवे स्टेशन के पास) जाकर
विश्राम किया। स्टेशन के बाहर दोनों
क्रांतिकारी एक-दूसरे से गले मिलकर इस संकल्प के साथ अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े
कि अगर जीवन रहा तो कलकत्ता में फिर मिलेंगे।
अंग्रेज
पुलिस उनके पीछे लग गयी। पूसा रोड रेलवे स्टेशन (अब
यह स्टेशन खुदीराम बोस के नाम पर है) पर खुदीराम पहुंचे। वहां मौजूद दो सिपाही
जिनके नाम फतेह सिंह और शेव पार्षद थे उन्हें खुदीराम के हाव-भाव पर शक हुआ। वे
चाय की दुकान पर पानी मांग रहे थे। उनके कपड़े मैले थे। थकान की वजह से उनका बुरा
हाल था। उनके पाँव नंगे थे। उन्होंने सुना कि लोग आपस में रात की घटना की चर्चा कर
रहे हैं। उसमें से किसी ने कहा, 'वो किंग्सफोर्ड तो नहीं
मरा इस बम से, लेकिन अंग्रेज़ मां-बेटी
मारी गई'।" यह सुनकर खुदीराम को धक्का लगा। उनके मुंह से अनायास
निकला, 'तो क्या किंग्सफोर्ड नहीं
मरा?'
पुलिस
वाले ने खुदीराम से कुछ सवाल पूछे। जवाब ठीक से ना मिलने से दोनों पुलिस वालों का
शक गहरा गया। उन्होंने उनको पकड़ लिया। खुदीराम ने उनसे छुड़ाने का काफी प्रयास
किया लेकिन वो असफल रहे और आखिरकार उन्हें पकड लिया गया।
दूसरी
ओर अपने सहकर्मी खुदीराम से बिछड़ ने के बाद प्रफुल्लकुमार काफी दूर तक भागने में
कामयाब रहे। तकरीबन दोपहर के वक्त एक व्यक्ति त्रिगुणचर्न घोष ने उन्हें अपनी और
भागते हुए देखा। उसे बमबारी के घटना के बारे में जानकारी मिल चुकी थी। वह समझ चुका
था की यह शख्स उन क्रांतिकारियों में से एक है। उन्होंने प्रफुल्ल को पनाह देने का फैसला किया। उसी रात वो
खुद प्रफुल्ल के साथ कोलकाता छोड़ने निकले। 1 मई की शाम 6 बजे सब-इंस्पेक्टर नंदलाल बनर्जी ने सिंहभूम जाने के लिए
ट्रेन पकड़ी। समस्तीपुर स्टेशन पर नंदलाल ने प्लेटफ़ॉर्म पर एक बंगाली युवक को नए
कपड़े और जूते पहने हुए देखा। उनकी वेशभूषा से उन्हें कुछ शक़ हुआ। वो उस डिब्बे
में घुस गया जहां वह युवक बैठा था। उसने उस युवक से बातचीत करने की कोशिश की जिससे
वो युवक नाराज़ हो गया। वह युवक डिब्बा छोड़कर दूसरे डिब्बे में चला गया। मोकामा
घाट स्टेशन पर नंदलाल फिर उस डिब्बे में आ गया जिसमें वो युवक बैठा हुआ था। इस बीच
सब-इंस्पेक्टर ने अपने शक़ के बारे में मुज़फ़्फ़रपुर पुलिस को तार दे दिया।
मोकामा स्टेशन पर उसे जवाबी तार मिला कि वो उस युवक को शक़ के आधार पर तुरंत
गिऱफ़्तार कर ले। जैसे ही युवक को पता चला कि उसे पकड़ा जा रहा है वो प्लेटफ़ॉर्म
पर कूद गया। युवक लेडीज़ वेटिंग रूम की तरफ़ भागा जहां जीआरपी के एक जवान ने उसे
पकड़ने की कोशिश की। तभी उस युवक ने पिस्टल निकाल कर उस जवान की तरफ़ फ़ायर किया
लेकिन उसका निशाना चूक गया। घेर लिए जाने के बाद उसने अपने आप को दो गोलियां मारीं, एक कॉलर बोन के पास और दूसरी गले में। वो व्यक्ति
वहीं गिर गया और उसी स्थान पर उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना के पांच महीने बाद 9 नवंबर, 1908 को, प्रफुल्ल चाकी को गिरफ़्तार करने के लिए पीछे पड़ने वाले,
नंदलाल बनर्जी की कलकत्ता में श्रीशचंद्र पाल और गनेंद्रनाथ गांगुली ने गोली मारकर
हत्या कर दी।
सरकार
इस घटना से बौखला उठी थी। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और खुदीराम बोस पर अपर
सत्र न्यायाधीश एचडब्ल्यू कॉर्नडफ की अदालत में हत्या का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने
अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफोर्ड को मारने का प्रयास किया
था। लेकिन, इस बात पर बहुत अफसोस है
कि निर्दोष श्रीमती कैनेडी तथा उनकी बेटी गलती से मारे गए। उन्हें फांसी की सज़ा दी गई। 13 जून को जब मृत्यु दंड
सुनाया गया तो बालक खुदीराम के चेहरे पर मुस्कान थी। जज को लगा कि शायद इस नवयुवक
ने अर्थ ठीक से समझा नहीं! जज कॉर्नडॉफ ने खुदीराम
से सवाल किया गया कि क्या तुम फांसी की सजा का मतलब जानते हो? इस पर उन्होंने कहा कि इस सजा और मुझे बचाने के लिए
मेरे वकील साहब की दलील दोनों का मतलब अच्छी तरह से जानता हूं। मेरे वकील साहब ने
कहा है कि मैं अभी कम उम्र हूं। इस उम्र में बम नहीं बना सकता हूं। जज साहब, मेरी आपसे गुजारिश है कि आप खुद मेरे साथ चलें। मैं
आपको भी बम बनाना सिखा दूंगा। 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर में उन्हें फांसी दे दी गयी। मुजफ्फरपुर
जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने उन्हें फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे
की तरह निडर होकर फांसी के तख्ते की ओर बढ़े थे। मात्र 18 वर्ष की आयु में वह भारत की स्वतन्त्रता के लिए हाथ में भगवद गीता लेकर हंसते-हंसते हुए फाँसी पर चढ़ गये। ऐसा माना जाता है कि वह फाँसी पर चढ़ने
वाले सबसे कम उम्र के युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे। किंग्सफोर्ड ने घबराकर नौकरी
छोड दी और जिन क्रान्तिकारियों को उसने कष्ट दिया था उनके भय से उसकी शीघ्र ही मौत
भी हो गयी।
खुदीराम
बोस के समर्थन में बाल गंगाधर तिलक ने बहुत से लेख लिखे थे और इसके लिए बाल गंगाधर तिलक
को वर्ष 1908 से लेकर 1914 तक राजद्रोह के मामले में बर्मा के जेल में 6 साल तक रखा गया। उस समय बाल गंगाधर तिलक का केस
मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा था, जो बाद में भारत के विभाजन
और पाकिस्तान का निर्माण का कारण बना। पुणे से प्रकाशित मराठा के 10 मई, 1908 के अंक में उन्होंने लिखा, "यह चरम प्रतिवाद को साकार रूप में प्रस्तुत करने के
लिए चरम विद्रोह का मार्ग है और इसके लिए अंग्रेज़ सरकार ही ज़िम्मेदार है।"
बलिदानी
देशभक्त प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस की
मौत पर हजारों आँखें रोईं। इन पर लोकगीत लिखे गए। पूरे देश की जनता इन गीतों को
गुनगुनाने लगीं। खुदीराम बोस बंगाल के राष्ट्रवादियों के लिये वीर शहीद और
अनुकरणीय हो गया। विद्यार्थियों तथा अन्य लोगों ने शोक मनाया। कई दिन तक स्कूल
कालेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था। उनकी शहादत से समूचे
देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। हिंदुस्तानियों में आजादी की जो ललक पैदा हुई
उससे स्वाधीनता आंदोलन को नया बल मिला।
बंगाल की धरती पर इस महान संतान के प्रभाव को एक
बाऊल गायक के अमर गीत से समझा जा सकता है जिसे मानो खुदीराम ने फांसी पर चढते हुए
ही गाया हो-
“ एक बार विदाय दे मा, घुरे आशी,
हांसी-हांसी पोरबो फांशी,
देखबे भारोत बासी।”
(एक बार विदा तो दे मां, ताकी मैं घूम कर आ जाऊं। हंसते-हंसते फांसी चढूँगा, देखेगा सारा भारत वासी।)
यह गीत 1910 में एक स्वदेशी धोती में छपा हुआ पाया गया था जिसमें
खुदीराम अपनी मातृभूमि को अपने विदा गीत में अंत में कहते हैं कि मां फिर मैं
आऊंगा और तुम्हारी कोख से जन्म लूंगा। अगर
तुम पहचान न पाओ तो उसकी गर्दन को देखना वहां तुम्हें (फांसी की डोरी के) निशान
मिलेंगे!
दश माश दश
दिन पोरे,
जन्मो नेबो माशीर
घरे
मा गो, तॉखोन जोदी ना
चीनते पारिश,
देखबी गोलाए फांशी
(ओ मां, आज से 10 महीने 10 दिन के बाद मैं मौसी के घर
फिर जन्म लेकर लौटूंगा, अगर मुझे न पहचान पाओ तो
मेरे गले में फांसी से फंदे का निशान देखना।)
आज भी इस गीत को सुनकर कौन होगा जिसकी आंखें नम
न हो जाये ?
*** *** ***
मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- गांधी और गांधीवाद
संदर्भ : यहाँ पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।