बुधवार, 15 जनवरी 2025

229. भारत में विधायिकाओं की स्थिति

राष्ट्रीय आन्दोलन

229. भारत में विधायिकाओं की स्थिति



भारत में विधान परिषदों के पास 1920 तक कोई वास्तविक आधिकारिक शक्ति नहीं थी। वे सरकार के जनविरोधी कामों पर विचार नहीं कर सकती थीं। फिर भी, राष्ट्रवादियों द्वारा उनमें किए गए कार्यों ने राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में मदद की। उनमें उन्हीं लोगों का बोलबाला था, जो भारत में अँग्रेज़ी राज के वफ़ादार थे। वित्तीय दबाव और प्रशासनिक सख्ती राजनीतिक रूप से खतरनाक साबित हो रही थी। अंग्रेजों को और अधिक भारतीय सहयोगियों को अपने साथ जोड़ना पड़ा। नामांकन, प्रतिनिधित्व और चुनाव की प्रणालियाँ भारतीयों को साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए काम करने के लिए भर्ती करने के साधन थे। इसके अलावा स्थानीय स्वशासन के विकास में वित्तीय और राजनीतिक पहलुओं को बड़े करीने से जोड़ा गया था। प्रक्रिया कंजर्वेटिव मेयो के तहत शुरू हुई थी। मुख्य उद्देश्य स्थानीय आवश्यकताओं के लिए शुल्क को नए स्थानीय करों पर स्थानांतरित करके वित्तीय कठिनाइयों से निपटना था। मेयो ने महसूस किया कि 'हमें धीरे-धीरे इस देश की सरकार में अधिक से अधिक स्थानीय तत्वों को अपने साथ जोड़ना चाहिए।’

1961 के इंडियन काउंसिल एक्ट के अनुसार गवर्नर जनरल कार्यपालिका परिषद का दायरा बढ़ा दिया गया। गवर्नर जनरल अपनी कार्यपालिका में 6-12 सदस्य और बढ़ा सकता था। इसमें कम से कम आधे ग़ैर सरकारी व्यक्ति, भारतीय या ब्रिटिश होने चाहिए थे। इस परिषद को इंपीरियल विधान परिषद कहा जाता था। यह विधान परिषद पूरी तरह से शक्तिहीन था। यह न तो बजट पर बहस कर सकता था, न ही किसी वित्तीय विषय पर अपने विचार रख सकता था। यहां तक कि यह प्रशासन के कामों पर भी अपने विचार नहीं रख सकता था। इस तरह सरकार की सत्ता निरंकुश थी। इस परिषद में भारतीय सदस्यों की संख्या बहुत ही कम होती थी। इसे किसी तरह की संसद के रूप में नहीं देखा जा सकता था। भारत सरकार 1858 से पहले की तरह ही एक विदेशी तानाशाह बनी रही। भारत के राज्य सचिव चार्ल्स वुड ने कहा था, अनुभव से हमें पता चलता है कि जहां एक प्रमुख जाति दूसरी जाति पर शासन करती है, वहां सरकार का सबसे नरम रूप निरंकुशता है। भारत में मौजूद ऐसी स्थिति के लिए एकमात्र उपयुक्त सरकार घर से नियंत्रित निरंकुशता है।

कई ब्रिटिश अधिकारियों और राजनेताओं का मानना ​​था कि 1857 के विद्रोह का एक कारण यह था कि भारतीयों के विचार शासकों को ज्ञात नहीं थे। व्यवहार में, परिषद ने यह उद्देश्य भी पूरा नहीं किया। भारतीय सदस्यों की संख्या बहुत कम थी, 1862-92 तक के कुल 30 वर्षों में 45 भारतीय सदस्य नामांकित हुए थे। इनमें से सिर्फ़ सैय्यद अहमद ख़ान (1878-82), कृष्टो दास पाल (1883), वी.एन. मांडलिक (1884-87), के.एल. नुलकर (1890-91), और रासबिहारी घोष (1892) ही ऐसे राजनीतिक चेहरे थे जिन्हें नामित किया गया था। ज़्यादातर सदस्य ऐसे थे, जो न भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करते थे और न ही राष्ट्रवादी विचारधारा का। वे पूरी तरह सरकार का साथ देते थे। ये सामान्यतः राजे-रजवाड़ों के शासक या उनके प्रतिनिधि हुआ करते थे या फिर बड़े ज़मींदार, बड़े व्यापारी या अवकाश प्राप्त उच्चाधिकारी। बलरामपुर के राजा दिग्विजय सिंह की एक दिलचस्प कहानी है - जिन्हें परिषद में दो बार मनोनीत किया गया था - जिन्हें अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं आता था। जब उनके एक रिश्तेदार ने उनसे पूछा कि उन्होंने किस तरह से वोट दिया, तो उन्होंने जवाब दिया कि वे वायसराय को देखते रहे और जब वायसराय ने अपना हाथ उठाया तो उन्होंने भी ऐसा ही किया और जब उन्होंने अपना हाथ नीचे किया तो उन्होंने भी वैसा ही किया! इधर राष्ट्रवादी राजनीतिक सुझाव देते वक़्त बहुत सावधानी बरतते थे। उन्हें इस बात का हमेशा डर रहता था कि सरकार उनकी गतिविधियों को राजद्रोह न करार दे दे और उन पर दमन शुरू कर दे। यह स्थिति 1892 तक बनी रही।

परिषद में भारतीय प्रत्याशियों का मतदान रिकॉर्ड खराब था। जब वर्नाक्यूलर प्रेस बिल परिषद के समक्ष आया, तो केवल एक भारतीय सदस्य महाराजा जोतेंद्र मोहन टैगोर, ज़मींदारी-प्रधान ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के नेता मौजूद थे। उन्होंने इसके पक्ष में मतदान किया। 1885 में, परिषद में ज़मींदारों के दो प्रवक्ताओं ने बंगाल काश्तकारी विधेयक के काश्तकार समर्थक चरित्र को कमज़ोर करने में मदद की। उस समय सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे राष्ट्रवादी नेता इसे और अधिक काश्तकार समर्थक बनाने के लिए आंदोलन कर रहे थे। 1882 में, कलकत्ता के बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि जोतेंद्र मोहन टैगोर और दुर्गा चरण लाहा ने नमक कर में कमी का विरोध किया और इसके बजाय व्यापारियों और पेशेवरों पर लाइसेंस कर में कमी की सिफारिश की। राष्ट्रवादी इसके विपरीत मांग कर रहे थे। 1888 में, बड़े ज़मींदारों और बड़े व्यापारियों के प्रतिनिधि क्रमशः पीरी मोहन मुखर्जी और दिनशॉ पेटिट ने भारत में ब्रिटिश व्यापार का प्रतिनिधित्व करने वाले गैर-आधिकारिक ब्रिटिश सदस्यों के साथ नमक कर में वृद्धि का समर्थन किया। मदन मोहन मालवीय ने 1890 के राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में कहा था: ‘हम चाहते हैं कि परिषदों में कोई भी गैर-सरकारी सदस्य न हो, बजाय इसके कि ऐसे सदस्य हों जो लोगों के साथ बिल्कुल भी संपर्क में न हों और जो...उनके प्रति सहानुभूति की क्रूर कमी दर्शाते हों।’

1892 में लॉर्ड डफ़रिन द्वारा तैयार भारतीय परिषद अधिनियम (इंडियन काउंसिल एक्ट) आया तो कुछ परिवर्तन हुए। प्रांतीय परिषदों में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 6 से बढ़ाकर 16 कर दी गई। हालाँकि चुनावों को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया गया, लेकिन इसने भारतीय अधिकारियों को सदस्यों को नामित करने में स्थानीय निकायों, विश्वविद्यालय सीनेट, वाणिज्य मंडलों और जमींदार संघों से परामर्श करने का अधिकार दिया। सदस्यों को वार्षिक बजट पर बहस करने का अधिकार भी दे दिया गया। हां वे बजट पर मतदान में भाग नहीं ले सकते थे। सवाल तो पूछ सकते थे, पूरक सवाल नहीं। जवाबों पर बहस भी नहीं कर सकते थे। ‘सुधारित’ शाही विधान परिषद 1909 तक अपने कार्यकाल के दौरान, औसतन वर्ष में केवल तेरह दिन ही मिलती थी, और उपस्थित अनौपचारिक भारतीय सदस्यों की संख्या चौबीस में से केवल पाँच थी!

राष्ट्रवादी 1892 के अधिनियम से पूरी तरह असंतुष्ट थे। उन्हें इसमें अपनी मांगों का मज़ाक नज़र आया। सरकार की सत्ता अब भी निरंकुश ही थी। उन्होंने गैर-सरकारी निर्वाचित सदस्यों के लिए बहुमत की मांग की, जिन्हें बजट पर वोट देने का अधिकार था और इस तरह सार्वजनिक खजाने में हिस्सेदारी भी। उन्होंने नारा दिया 'प्रतिनिधित्व के बिना कोई कराधान नहीं।' धीरे-धीरे उन्होंने अपनी मांगें उठाईं। दादा भाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने स्वशासन की मांग रखना शुरू कर दिया था। अंग्रेजों द्वारा विधान परिषद को एक उपकरण की तरह इस्तेमाल किया गया, जहां मुखर भारतीय राजनीतिक नेता बोलकर अपनी राजनीतिक भावनाओं को व्यक्त कर सकते थे। वे जानते थे कि परिषदों के सदस्यों के पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी; वे केवल शब्दाडंबर पूर्ण भाषण दे सकते थे और खोखली बयानबाजी कर सकते थे, और नौकरशाही उन पर कोई ध्यान देने की कोई ज़रुरत नहीं थी।

लेकिन ब्रिटिश नीति निर्माताओं ने भारतीय नेताओं की राजनीतिक क्षमताओं को नजरअंदाज कर दिया था। भारतीय नेताओं ने जल्द ही शक्तिहीन और नपुंसक परिषदों को, लोकप्रिय शिकायतों को व्यक्त करने, नौकरशाही प्रशासन की खामियों और कमियों को निर्दयतापूर्वक उजागर करने, लगभग हर सरकारी नीति और प्रस्ताव की आलोचना और विरोध करने और बुनियादी आर्थिक मुद्दों को उठाने के लिए मंचों में बदल दिया। 1893 से 1909 तक कुछ बड़े नेताओं ने विधान परिषदों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। 1845 में बंबई में जन्मे फीरोजशाह मेहता ने लंदन से वकालत की पढ़ाई की थी। वहां वे दादा भाई नौरोजी के संपर्क में आए। उन्होंने विधान परिषद का इस्तेमाल कर उसमें जान फूंक दी। वे 1890 से 1915 में मृत्यु होने तक कांग्रेस पर छाए रहे। वे संस्था को अपने ढंग से चलाते थे। वे एक शक्तिशाली वक्ता थे। अपनी ठोस दलीलों, तगड़े तर्कों और ओजस्वी भाषणों द्वारा उन्होंने औपनिवेशिक विधायिका की भूमिका और चरित्र ही बदल डाला। वे जब भी विधान परिषद में बोलने के लिए उठते, तो उनके तीक्ष्ण प्रहारों से नौकरशाही बिलबिलाने लगती। जब बंबई की विधान परिषद में किसानों का भूमि स्वामित्व का अधिकार छीन लेने वाला विधेयक पेश किया गया तो उन्होंने उसकी जम कर ख़िलाफ़त की। जब सरकार अपने बहुमत के बल पर इस विधेयक को पारित कराने पर अड़ गई, तो मेहता ने गोखले, जीके पारेख, बालचन्द्र कृष्ण और डीए खरे के साथ परिषद का बायकाट कर दिया। यह उस समय के हिसाब से अभूतपूर्व और ऐतिहासिक कदम था। 1901 में स्वास्थ्य के आधार पर उन्होंने परिषद से सेवानिवृत्ति ले ली। अपनी जगह उन्होंने गोखले जी को नामित करवाया। गोखले जी सुधारक नामक पत्रिका का संपादन करते थे। वे पूना सार्वजनिक सभा के सचिव भी थे। उन्होंने कांग्रेस में नवजीवन का संचार किया। अपनी साहस, दृढ़ता और योग्यता के बल पर गोखलेजी भारतीय राष्ट्रीय क्षितिज पर छाए रहे। उन्हें विपक्ष के नेता की सम्माननीय उपाधि मिली। गांधीजी ने उन्हें अपना राजनीतिक गुरु माना।

इस तरह इन राष्ट्रवादी नेताओं ने विशुद्ध साहस, वाद-विवाद कौशल, निर्भीक आलोचना, गहन ज्ञान और आंकड़ों के सावधानीपूर्वक प्रबंधन द्वारा उन्होंने परिषदों में सरकार के खिलाफ निरंतर अभियान चलाया, जिससे उसके राजनीतिक और नैतिक प्रभाव को कमजोर किया गया और एक शक्तिशाली साम्राज्यवाद-विरोधी भावना पैदा हुई। उनके भाषणों की समाचार पत्रों में विस्तार से रिपोर्टिंग होने लगी और विधायी कार्यवाही में व्यापक जन रुचि विकसित हुई। नई परिषदों ने कुछ सबसे प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं को आकर्षित किया। बंगाल से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कालीचरण बनर्जी, आनंद मोहन बोस, लाल मोहन घोष, डब्ल्यू.सी. बनर्जी और रास बिहारी घोष, मद्रास से आनंद चार्लू, सी. शंकर नायर और विजयराघवाचार्य, उत्तर प्रदेश से मदन मोहन मालवीय, अयोध्यानाथ और बिशम्बर नाथ, बम्बई से बाल गंगाधर तिलक, फिरोजशाह मेहता, आर.एम. सयानी, चिमनलाल सीतलवाड़, एन.जी. चंद्रावरकर और गोपाल कृष्ण गोखले तथा मध्य प्रांत से जी.एम. चिटनावीस 1893 से 1909 तक प्रांतीय या केंद्रीय विधान परिषदों के सदस्य रहे।

संवैधानिक सुधार के नाम पर 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट आया। इससे कांग्रेस को निराशा ही हाथ लगी। निर्वाचित काउंसिलों की संख्या तो बढ़ाई गई थी, लेकिन अधिकांश चुनाव अप्रत्यक्ष ही होना था। केन्द्रीय काउंसिल के 68 सदस्यों में से 36 सरकारी थे, 5 ग़ैर सरकारी, जिनका नामांकन किया जाता था। 27 निर्वाचित प्रतिनिधियों में से छह का चुनाव बड़े ज़मींदार करते थे, और 2 का चुनाव अंग्रेज़ पूंजीपति। प्रस्ताव रखने और सवाल करने का अधिकार तो मिला लेकिन व्यावहारिक रूप से कोई अधिकार नहीं था। मॉरले-मिंटो सुधार के नाम पर अंग्रेज़ों ने राष्ट्रवादी खेमे में फूट डालने की चाल चली। निर्वाचन क्षेत्रों का बंटवारा जातीय और धार्मिक पर किया गया। मुसलमानों के लिए सुरक्षित सीटें बनाई गईं। यहां मुसलमान केवल मुसलमान उम्मीदवारों को वोट दे सकते थे। अंग्रेज़ों ने सांप्रदायिकता के बीज बो दिए थे।

तथाकथित 'संवैधानिक सुधार' की प्रक्रिया आधिकारिक नीति के दो अन्य प्रमुख पहलुओं से जुड़ी हुई थी: उदारवादियों को एकजुट करने के लिए समय-समय पर किए जाने वाले प्रयास और फूट डालो और राज करो की तकनीकों का कुशल उपयोग। रिपन की उच्च आशाओं के बावजूद स्थानीय स्वशासन पहले उद्देश्य को प्राप्त करने में विशेष रूप से सफल नहीं रहा, क्योंकि नगर पालिकाओं और जिला बोर्डों को बहुत कम वास्तविक शक्ति या वित्तीय संसाधन दिए गए थे। राष्ट्रवादियों ने ऐसे निकायों में प्रवेश किया, उनके संरक्षण की संभावनाओं का कुछ उपयोग किया, लेकिन आम तौर पर अपनी ऊर्जा को नीतियों के सुधार तक सीमित रखने से इनकार कर दिया। 1892 के सुधारों ने संभवतः कुछ वर्षों के लिए कांग्रेस के आंदोलन की गति को कम करने में मदद की। 1894 और 1900 के बीच कांग्रेस के सत्रों के एजेंडे में परिषद सुधार की सामान्य मांगें बहुत प्रमुख नहीं थीं। प्रभाव काफी अल्पकालिक था, हालांकि, उन्हीं वर्षों में उग्रवाद की पहली हलचल देखी गई। कांग्रेस एक बार फिर से विधायी सुधार की एक और बड़ी खुराक की मांग कर रही थी।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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