राष्ट्रीय आन्दोलन
232. शांतिनिकेतन
की यात्रा
जब गांधीजी दक्षिण अफ़्रीका में थे तो उन्होंने
ट्रांसवाल में फीनिक्स
स्कूल नाम की एक शिक्षा-संस्था स्थापित की थी। वे जब भारत आए तो फीनिक्स फार्म से
गांधी के प्रस्थान के साथ ही, अन्य परिवारों के साथ उनका अपना
परिवार भी दक्षिण अफ्रीका से भारत के लिए रवाना हो गया। गांधीजी चाहते थे कि वे
सभी एक साथ रहें और फीनिक्स में जिस तरह का जीवन जी रहे थे,
वैसे ही
जिएं। फीनिक्स परिवार को भारत आने पर
सबसे पहले गुरुकुल कांगड़ी में ठहराया गया, जहाँ महात्मा मुंशीराम ने उन्हें
अपने बच्चों की तरह पाला। बाद में उन्हें टैगोर के शांतिनिकेतन में रखा गया जहाँ
कवि और उनके लोगों ने उन पर वही स्नेह बरसाया। सुशील रुद्र के पास कोई आश्रम नहीं था,
लेकिन
उन्होंने फीनिक्स परिवार के सदस्यों के लिए अपना घर खोल दिया था। इस समूह के
लड़कों के अस्थायी प्रवास के लिए सबसे अच्छी जगह के रूप में गांधीजी ने
शांतिनिकेतन को चुना, जो पूर्वी भारत के बंगाल में एक
स्कूल है, जिसका संचालन भारत के महान उपन्यासकार और कवि
रवींद्रनाथ टैगोर करते थे, जिन्होंने 1913 में साहित्य के
लिए नोबेल पुरस्कार जीता था। दीनबन्धु सी.
एफ़. एन्ड्रूज़ के निवेदन पर गुरुदेव ने छात्रों और अध्यापकों को
शांतिनिकेतन आने का निमंत्रण दिया। वे लोग शांतिनिकेतन आ गए। ये छात्र और अध्यापक
सादगी और त्यागमय जीवन जीते थे। इसका प्रभाव शांतिनिकेतन के छात्रों पर भी पड़ा। उन
दिनों पूर्वी बंगाल में बाढ़ आई हुई थी। उन लोगों ने निश्चय किया कि अपने भोजन में
आटा और चीनी का प्रयोग छोड़ देंगे। इससे जो बचत होगी वह बाढ़-पीड़ित जूट के किसानों की सहायता के लिए देंगे। ऐसा ही किया
भी गया।
राजकोट और पोरबंदर में अपने संबंधियों से संक्षिप्त मुलाक़ात के बाद गांधीजी ने
शांतिनिकेतन में रह रहे अपने लगभग पच्चीस अनुयाइयों से मिलने के लिए शान्तिनिकेतन
जाने का कार्यक्रम बनाया। राजकोट से गांधीजी कस्तूरबा को साथ लेकर शांतिनिकेतन के
लिए ट्रेन द्वारा चले। उनके आने का समाचार पाकर शान्तिनिकेतन के छात्र और अध्यापक
उनका स्वागत करने के लिए बोलपुर स्टेशन पहुंचे। ट्रेन के आने पर सभी गांधीजी को
उतारने के लिए प्रथम श्रेणी के डिब्बों की ओर गए। गांधीजी वहां नहीं दिखे। फिर वे
दूसरे दर्ज़े के डिब्बों की ओर गए पर गांधीजी फिर भी नहीं दिखे। उन लोगों ने सोचा
कि किसी कारण से गांधीजी न आ पाए। निराश होकर वे लौटने लगे। तभी उनकी नज़र तीसरे
दर्ज़े के डिब्बे की ओर गई जहां
से गांधीजी कस्तूरबा के साथ उतर रहे थे।
गांधीजी और कस्तूरबाई 17 फरवरी, 1915 को शांतिनिकेतन पहुंचे,
लेकिन टैगोर से नहीं मिल पाए, जो उस समय दौरे पर थे। महाकवि को जल्द ही लौटना था।
एंड्रयूज को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा: "मुझे उम्मीद है कि महात्मा और
श्रीमती गांधी बोलपुर पहुंच गए होंगे।" गांधीजी का स्वागत कवि के सबसे बड़े
भाई द्विजेंद्रनाथ ने किया,
जो गणितज्ञ और दार्शनिक थे। शांतिनिकेतन
के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने उन पर अपना प्रेम बरसाया। स्वागत की विधि में
सादगी, कला और प्रेम का सुन्दर मिश्रण था। शिक्षकों और छात्रों
द्वारा प्रस्तुत स्वागत समारोह के उत्तर में गांधीजी ने कहाः "आज मैं जो
प्रसन्नता महसूस कर रहा हूँ,
वह मैंने पहले कभी अनुभव नहीं की।
यद्यपि गुरुदेव रवींद्रनाथ यहाँ उपस्थित नहीं हैं, फिर भी हम अपने
हृदय में उनकी उपस्थिति महसूस करते हैं। मुझे यह देखकर विशेष प्रसन्नता हुई कि
आपने भारतीय रीति-रिवाज से स्वागत की व्यवस्था की है। बम्बई में हमारा बहुत धूमधाम
से स्वागत किया गया, लेकिन इसमें हमें प्रसन्न करने वाली कोई बात नहीं थी।
क्योंकि वहाँ पश्चिमी तौर-तरीकों का सावधानीपूर्वक अनुकरण किया गया था। हम अपने
लक्ष्य की ओर पूर्व की रीति-रिवाज से बढ़ेंगे, पश्चिम की
रीति-रिवाज से नहीं, क्योंकि हम पूर्व के हैं। हम भारत के सुंदर तौर-तरीकों और
रीति-रिवाजों में पले-बढ़े होंगे और उसकी भावना के अनुरूप भिन्न-भिन्न आदर्श रखने
वाले देशों से मित्रता करेंगे। वास्तव में, अपनी प्राच्य
संस्कृति के माध्यम से भारत पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध
स्थापित करेगा। आज मैं बंगाल के इस आश्रम से बहुत घुल-मिल गया हूँ, मैं आपके लिए कोई अजनबी नहीं हूँ। मुझे सुदूर अफ्रीका भी
पसंद आया, क्योंकि वहाँ के भारतीयों ने अपनी राष्ट्रीय आदतें नहीं
छोड़ी हैं और प्रथाएँ भी।" गांधीजी और कस्तूरबा ने अपनी पहली रात बाहर ही
बिताई। फीनिक्स परिवार को एक अलग इमारत में रखा गया था। उन्होंने खाना पकाने से
लेकर सफाई और कूड़ा बीनने तक अपना सारा काम खुद ही किया। रामदास गांधी
भी उस समय शांतिनिकेतन में थे।
शांतिनिकेतन शैक्षणिक संस्था थी, लेकिन रहन-सहन की वही पुरानी पद्धति थी। शांतिनिकेतन
में गांधीजी के मंडल को अलग से ठहराया गया था। उसमें पियर्सन और सी.एफ़. एण्ड्र्यूज़
भी शामिल थे। वहां मगनलाल
गांधी उस मंडल को संभाल रहे थे।
वे फीनिक्स आश्रम के सारे नियमों का पालन सूक्ष्मता से करते-कराते थे।
उन्होंने प्रेम, ज्ञान और उद्योग के कारण शांतिनिकेतन में अपनी सुगन्ध फैला दी थी।
शांतिनिकेतन में गांधीजी का काका कालेलकर, आचार्य कृपलानी, मामा फड़के, आपा
पटवर्धन आदि से परिचय हुआ। तब गांधीजी पता चला कि कालेलकर को 'काकासाहेब'
क्यों कहा जाता था। केशवराव देशपांडे, जो गांधीजी के घनिष्ठ मित्र थे और जिन्होंने बड़ौदा राज्य
में 'गंगानाथ विद्यालय'
नामक विद्यालय चलाया था, ने विद्यालय में पारिवारिक माहौल बनाने के उद्देश्य से
शिक्षकों को पारिवारिक नाम दिए थे। कालेलकर, जो वहां शिक्षक
थे, 'काका'
(शाब्दिक अर्थ में चाचा) कहलाने लगे।
फड़के को 'मामा'
(शाब्दिक अर्थ में मामा) और हरिहर शर्मा
को 'अन्ना'
(शाब्दिक अर्थ में भाई) कहा जाने लगा।
अन्य लोगों को भी ऐसे ही नाम मिले। काका के मित्र के रूप में आनंदानंद (स्वामी) और
मामा के मित्र के रूप में पटवर्धन (अप्पा) बाद में परिवार में शामिल हो गए और समय
के साथ-साथ एक के बाद एक सभी गांधीजी के सहकर्मी बन गए। देशपांडे खुद 'साहब'
कहलाते थे। जब विद्यालय को भंग करना
पड़ा, तो परिवार भी टूट गया, लेकिन उन्होंने
कभी भी अपने आध्यात्मिक रिश्ते या अपने कल्पित नामों को नहीं छोड़ा।
19 फरवरी को गोखले की
मृत्यु
गांधीजी का इरादा कुछ समय शांतिनिकेतन में रहने
का था, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। गांधीजी
शांतिनिकेतन में मुश्किल से दो दिन रुके थे, कि शान्तिनिकेतन में गांधीजी का वास समाप्त हो गया। पूना से एक तार प्राप्त होने पर कि गोखले का
देहान्त हो गया, गांधीजी को कस्तूरबा और मगनलाल के साथ शान्तिनिकेतन से
तुरन्त लौटना पड़ा। क्षण भर के लिए तो वह स्तम्भित रह गए। शोक व्यक्त करने के लिए 20
फरवरी को एक बैठक बुलाई गई। गांधीजी ने कहा, "मैं एक सच्चे नायक की तलाश में निकला था और मुझे पूरे भारत
में केवल एक ही मिला।" "वह नायक गोखले थे।" बैठक
के बाद, गांधीजी, कस्तूरबाई और मगनलाल के साथ पूना के लिए रवाना हुए। एंड्रयूज
गांधीजी के साथ बर्दवान तक गए। उन्होंने गांधीजी से पूछा, 'क्या आपको लगता है कि भारत में सत्याग्रह का
समय आएगा? और यदि ऐसा है, तो क्या आपको पता है कि यह कब आएगा?' 'यह कहना कठिन है,' गांधीजी ने कहा। 'एक वर्ष तक मुझे कुछ नहीं करना है। क्योंकि
गोखले ने मुझसे वादा लिया था कि मैं अनुभव प्राप्त करने के लिए भारत में यात्रा
करूँगा और परिवीक्षा अवधि पूरी होने तक सार्वजनिक प्रश्नों पर कोई राय व्यक्त नहीं
करूँगा। एक वर्ष बीत जाने के बाद भी मैं बोलने और राय व्यक्त करने में जल्दबाजी
नहीं करूँगा। और इसलिए मुझे नहीं लगता कि पाँच वर्ष या उससे अधिक समय तक सत्याग्रह
का कोई अवसर आएगा।'
शान्तिनिकेतन से लौटते समय वे टिकट लेने में होने वाली
धक्का मुक्की का ज़िक्र करते हुए अपनी आत्मकथा में कहते हैं कि टिकट खिड़की पर बलवान लोग मेरे जैसे कमजोर
को धकियाकर बार बार पीछे कर देते
थे। गाड़ी आने पर उसमें चढने
के लिए भी गाली गलौज होती थी। जो अंदर घुस जाते थे वे बाहर
वालों को घुसने नहीं देते थे। गांधीजी ने लिखा है कि
कस्तरूबा के साथ भीड़ के कारण
वे तीसरे दर्जे के डिब्बे में नहीं घुस पाए और तीसरे दर्जे के टिकट पर दूसरे
दर्जे के डिब्बे में बैठ
गये तो गार्ड ने ज्यादा
टिकट वसूली के बाद ही दम लिया। गांधीजी ने यह कहकर विरोध किया कि तीसरे
दर्जे में बैठने की जगह ही नहीं है, तो
उसने नीचे उतारने की धमकी दे दी। मुगलसराय स्टेशन पर गांधीजी तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठ गये तो भी उसने उनसे वसूला अधिक किराया वापस नहीं किया।
गोखले उनके लिए क्या थे इसका पता उनकी 'आत्मकथा' के इस वाक्य से चलता है—“भारतवर्ष के तूफानी समुद्र में कूदते
हुए मुझे एक कर्णघार की आवश्यकता थी और गोखले-सरीखे कर्णधार के
नीचे मैं सुरक्षित था।” 1
साल भर तक उन्होंने गोखले के देहावसान का शोक
मनाया, नंगे पैर रहे। गोखलेजी की शोक सभा में बंबई का गवर्नर लॉर्ड
विलिंगडन भी शामिल हुआ। गोखलेजी के बाद श्रीनिवास शास्त्री को सर्वेन्ट्स इंडिया
सोसायटी का अध्यक्ष बनाया गया।
पूना से गांधीजी 5 मार्च को
शांतिनिकेतन के लिए वापस चले। गांधी जी 6 मार्च 1915 को शान्ति निकेतन पहुंचे। गुरुदेव उनका गर्मजोशी से
स्वागत करने के लिए वहां मौजूद थे। गांधीजी वहां 10 मार्च तक रहे। शान्तिनिकेतन में गांधीजी का स्वागत ‘सादगी, कला और प्रेम का सुंदर समन्वय’ था। अपने स्वभाव
के कारण गांधीजी विद्यार्थियों और शिक्षकों में घुल मिल गए। शांतिनिकेतन में काम
के लिए नौकरों का रखा जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा। गांधीजी ने उन सब को रसोईघर में काम करना, शौचालयों की सफ़ाई, कूड़ा-करकट साफ़ करने की ठीक व्यवस्था और सादा जीवन बिताना सिखाया।
गुरुदेव गांधीजी को इतनी लगन से सारे काम करते देखकर चकित रह गए। गांधीजी विद्यार्थियों
और शिक्षकों और कविगुरु के साथ स्वपरिश्रम
के विषय में चर्चा करने लगे। उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि रसोइयों के बदले शिक्षक
और विद्यार्थी अपनी रसोई खुद बना लें। ऐसा करने से वे स्वावलंबन का व्यावहारिक पाठ
सीखेंगे। गांधीजी के अनुरोध पर गुरुदेव ने सम्मति दी और कहा, “जो काम मैं आजतक नहीं करा पाया, वह गांधीजी ने एक दिन में
कर दिखाया। इसमें स्वराज्य की चाबी मौज़ूद है।” शान्तिनिकेतन रातोंरात फीनिक्स बन गया। एक दस्ता बर्तन
धोता, तो दूसरा दस्ता काम की नीरसता को दूर करने के लिए उनके
वास्ते सितार बजाता। पियर्सन ने प्रयोग को सफल बनाने के लिए काफी कड़ी मेहनत की। उन्होंने
पूरे जोश के साथ खुद को इसमें झोंक दिया। सब्ज़ियाँ काटने के लिए एक समूह बनाया
गया, अनाज साफ करने के लिए एक और समूह बनाया गया। नागेनबाबू और
अन्य लोगों ने रसोई और उसके आस-पास की सफ़ाई देखने का बीड़ा उठाया। सभी ने उत्साह
के साथ इस काम को अपनाया और शांतिनिकेतन एक व्यस्त समूह बन गया।
जे. बी. कृपलानी उस समय बिहार के मुजफ्फरपुर में एक
कॉलेज में पढ़ा रहे थे और गांधीजी से मिलने के लिए उत्सुक थे। काका कालेलकर ने
उन्हें शांतिनिकेतन में गांधीजी की मौजूदगी की सूचना दी और कृपलानी गांधीजी से
मिलने वहां गए। वे शाम को जल्दी पहुंचे, जब गांधीजी भोजन कर रहे थे, क्योंकि उनका यह रिवाज था कि वे
दिन का आखिरी भोजन शाम ढलने से पहले कर लेते थे। गांधीजी ने कृपलानी को अपने साथ
बैठने के लिए आमंत्रित किया और सीधे बातचीत में शामिल हो गए। दोनों पक्षों की
बातचीत व्यक्तिगत थी। इस पहली मुलाकात में राजनीति का कोई जिक्र नहीं हुआ। कृपलानी
लिखते हैं, "लेकिन कभी-कभी उनकी मेरी ओर देखने से मुझे लगा कि वे मुझे जानने और
मापने की कोशिश कर रहे हैं,"
यह अजीब बात ही है कि आधुनिक भारत के इन दो महान प्रतिनिधियों (टैगोर और गांधी) के बीच संपर्क सूत्र का काम एक अँग्रेज़ चार्ल्स फीयर एंड्रयूज ने किया था।शांतिनिकेतन, जिसका अर्थ है “शांति का निवास”, की स्थापना रवींद्रनाथ टैगोर ने सदी के अंत में विद्यार्थियों की रचनात्मक प्रतिभा को बढ़ाने के लिए एक प्रयोगात्मक विद्यालय के रूप में की थी। धीरे-धीरे कलकत्ता के उत्तर में बोलपुर के कठोर, धूल भरे मैदानों में स्थापित यह छोटा सा संस्थान कला के प्रति समर्पित एक संपन्न समुदाय के रूप में विकसित हो गया। वहां लगभग एक सौ पच्चीस विद्यार्थी और बीसेक शिक्षक थे।
जब गांधीजी और कविगुरु एक दूसरे के आमने सामने थे तो एक अद्भुत दृश्य था। गांधी
और टैगोर समकालीन थे और भारत के बीसवीं सदी के पुनरुद्धार के मुख्य एजेंट के रूप
में एक दूसरे से जुड़े हुए थे। दोनों भारत और मानवता के प्रति अपने प्रेम से एकजुट
थे। बीसवीं सदी के पहले भाग के महानतम भारतीय टैगोर और गांधी एक दूसरे का आदर करते
थे। एक था फ़कीर, संन्यासी, व्यस्त, ईमानदार, विनीत, तो दूसरा था चिंतक, कवि,
गायक, एकांतवासी, सुंदर,
भव्य। वे बाहरी बातों से भिन्न थे, पर दोनों में इतना आंतरिक साम्य था कि कवि में गांधी जी ने
‘गुरुदेव’ देखा तो गुरुदेव ने गांधी में महात्मा के दर्शन किए और टैगोर ने कहा था, 'भिखारी के वेश
में महान आत्मा'। उन्हें सर्वप्रथम “महात्मा” कहकर संबोधित किया। तब से गांधीजी का
नाम “महात्मा” पड़ा। गांधीजी ने टैगोर को 'महान प्रहरी'
कहा था। दोनों एक दूसरे से मिलकर बड़े
प्रभावित हुए। गुरुदेव के लिए सुंदर सत्य का एक पक्ष था जबकि गांधीजी सत्य
के अलावा किसी सुंदर की कामना नहीं करते थे। टैगोर एक राजसी कलाकार थे और बाद में
उनके विचार जनतंत्रीय बने और श्रमहारा श्रेणी के लोगों के साथ उनकी सहानुभूति हो
गई। वह जीवन को उसके पूर्ण वैभव के साथ स्वीकार करते थे और उसे कलापूर्ण ढंग से
बिताने में विश्वास करते थे। गांधीजी जनता के आदमी थे, भारतीय किसान की
प्रतिमूर्ति थे। भारत की त्याग और संन्यास की पुरातन परम्परा का प्रतिनिधित्व करते
थे। टैगोर एक विचारक थे, तो गांधीजी सतत क्रियाशील। दोनों के विचार अंतर्राष्ट्रीय
थे, लेकिन दोनों कट्टर भारतीय थे। दोनों एक दूसरे के पूरक थे।
हालाँकि फरवरी और मार्च में शांतिनिकेतन में गांधीजी
का प्रवास संक्षिप्त था, लेकिन वे घटनापूर्ण नहीं थे।
दक्षिण अफ्रीका में जीवन के कुछ नियमों का पालन करते हुए गांधीजी ने नौकरों से
छुटकारा पा लिया था। शांतिनिकेतन में उन्होंने अपना कमरा साफ किया, अपना बिस्तर बनाया और बाकी लोगों
की तरह अपने बर्तन और कपड़े धोए। इसने शांतिनिकेतन के छात्रों पर गहरा प्रभाव डाला
और उनमें से अधिकांश गांधीजी के उदाहरण का अनुसरण करने के लिए उत्सुक थे।
शांति निकेतन के पाठ्यक्रम में 10 मार्च 1915 से एक नया पाठ ‘स्वावलंबन’ जोड़ दिया गया। इसके अनुसार वहां के छात्र अपना सब
काम खुद करने का अभ्यास करने लगे। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “उन लोगों को कुदाली से काम करते देख कर मेरा हृदय नाच उठा। मेरा विश्वास यह है
कि इस जगद्-विख्यात संस्था ने थोड़े समय के लिए भी इस प्रयोग को अपनाकर कुछ खोया नहीं और
उससे प्राप्त अनेक अनुभव उसके लिए उपयोगी सिद्ध हुए थे।” जब गांधीजी शान्तिनिकेतन
से चले गए, तो यह प्रयोग विफल हो गया।
10 मार्च को गांधीजी की देखरेख में छात्रों को
आत्मनिर्भरता का प्रशिक्षण देने के लिए यह प्रयोग शुरू किया गया था, जिसमें सभी "रसोइयों, नौकरों और सफाईकर्मियों" की
मदद नहीं ली गई थी। इस दिन की यादगार
में हर वर्ष 10 मार्च को शांति निकेतन में ‘गांधी दिवस’ के रूप में मनाया
जाता है। उस दिन सभी कर्मियों को छुट्टी दे दी जाती है और सब काम छात्र स्वयं करते
हैं।
*** *** ***
मनोज
कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय
आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपका मूल्यांकन – हमारा पथ-प्रदर्शक होंगा।