बुधवार, 15 जनवरी 2025

230. गांधीजी का भारत आगमन

 राष्ट्रीय आन्दोलन

230. गांधीजी का भारत आगमन



1915

1893 में अपरिपक्व और अनुभवहीन बैरिस्टर परेशानी की हालत में सुख-समृद्धि की तलाश में दक्षिण अफ्रीका गया था जब पहला विश्वयुद्ध छिड़ा तो गांधीजी इंग्लैंड होते हुए देश लौट रहे थे। उनका विचार इंग्लैंड में कुछ सप्ताह ठहरने का भी था। 6 अगस्त 1914 को वह इंग्लैंड पहुंचे और तुरन्त भारतीयों का एक एम्बुलेंस-दल बनाने के लिए सभा की। इस दलील का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा कि साम्राज्य का संकट भारत के लिए सुअवसर है। बाद में गांधीजी ने लिखा था : मैं भारतीय और अंग्रेज की स्थिति में अन्तर तो जानता था लेकिन मुझे यह विश्वास नहीं था कि हम पूरी तरह गुलाम बन गए हैं। तब मेरा विचार था कि दोष अधिकतर व्यक्तिगत अधिकारियों का है, न कि अंग्रेजी तंत्र का और हम प्यार से इन अफसरों का हृदय-परिवर्तन कर सकते हैं। अगर अंग्रेजों की सहायता और सहयोग से हम अपनी स्थिति सुधार सकते थे तो हमारा कर्तव्य था कि जरूरत पड़ने पर उनकी मदद कर हम उनकी सहायता प्राप्त करें।

लेकिन इंग्लैंड में गांधीजी को पसली के दर्द की बीमारी (प्लूरीसी) न हुई होती तो शायद वह अपने द्वारा संगठित एम्बुलेंस-दल में स्वयं भी भरती हो जाते और उनका भारत लौटना अनिश्चित काल के लिए रुक जाता। दक्षिण अफ़्रीका से चलते समय गांधीजी ने कहा था, भारत मेरे लिए अनजाना देश है। भारत में न तो उन्हें बहुत ज़्यादा जाना जाता था और न ही वे भारत को जानते थे। पिछले छब्बीस सालों में से उन्होंने चार साल से भी कम भारत में बिताए थे। वह एक प्रवासी की नज़र से भारत को देखते रहे थे। जब वे भारत पहुंचे, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि वे उसे क्या दे सकते हैं, क्योंकि वे अपनी जड़ें खो चुके थे और उस समय के राष्ट्रीय माहौल से शायद ही परिचित थे। लेकिन भारत के लिए वे अपरिचित नहीं थे। 1912 में जब गोखलेजी दक्षिण अफ़्रीका की यात्रा से लौटे तो उन्होंने कहा था, गांधीजी ज़रूर उस धातु के बने हैं जिससे वीरों और शहीदों को गढ़ा जाता है

अपोलो बंदरगाह पर

तृतीय श्रेणी में सीट उपलब्ध न रहने के कारण गांधीजी को लन्दन से भारत की यात्रा द्वितीय श्रेणी में करना पड़ा। डॉ. जीवराज मेहता ने उनकी पसलियों पर 'मेडे प्लास्टर' की पट्टी बाँधी थी और लाल सागर पहुँचने तक इसे न हटाने को कहा था। दो दिनों तक उन्होंने इस तकलीफ़ को झेला। काफ़ी मुश्किल से वह प्लास्टर हटाने में कामयाब हुए और ठीक से नहाने-धोने की आज़ादी हासिल कर सके। जब जहाज स्वेज नहर में दाखिल हुआ तो शीतोष्ण क्षेत्र की शुद्ध हवा से उन्हें बहुत बेहतर महसूस हुआ। 9 जनवरी 1915 को जब एस.एस. अरबिया जहाज़ ने बम्बई के गेट वे ऑफ इंडिया के पास अपोलो बंदरगाह को छुआ, उस समय मोहनदास करमचंद गाँधी की उम्र थी 45 साल। उनके स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ था और कस्तूरबा भी जहाज पर अच्छी तरह से रह रही थीं। 12 साल से उन्होंने अपनी जन्म भूमि के दर्शन नहीं किए थे। उस ज़माने में सिर्फ़ ब्रिटिश सरकार के ख़ास आदमियों और राजा-महाराजाओं को ही अपोलो बंदरगाह पर उतरने की अनुमति दी जाती थी। गांधीजी को ये सम्मान सर फ़िरोज़शाह मेहता, बीजी हॉर्निमेन और गोपाल कृष्ण गोखले की सिफ़ारिश पर दिया गया था। जहाज पर उनका स्वागत नरोत्तम मोरारजी, जे.बी. पेटिट, बी.जी. हॉर्निमैन और अन्य लोगों के एक प्रतिनिधिमंडल ने किया। घाट पर उनका सैकड़ों लोगों ने स्वागत किया। लोगों ने जयकारे लगाए। जब गांधीजी और कस्तूरबा किनारे पर उतरे, तो उनका बार-बार जयकारा लगाया गया। लोगों की भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि वे बड़ी मुश्किल से अपनी मोटर-कार तक पहुँच पाए। उस समय तक वे अपने प्रशंसकों द्वारा उन पर डाली गई मालाओं के नीचे लगभग छिप गए थे।

अपोलो बंदरगाह पर काठियावाड़ी अंगरखा, धोती और सफेद साफा में उतरे। उनसे मिलने आए लोगों ने या तो यूरोपियन सूट पहने हुए थे या फिर वो राजसी भारतीय पोशाक में थे. ... तब गांधीजी न तो महात्मा थे और न ही बापू। हालाकि दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने कोई ख़ास धन नहीं कमाया, और जो कमाया उसे सार्वजनिक कार्यों के लिए ट्रस्ट को दे दिया था, लेकिन वे अपने साथ एक अदृश्य और अक्षुण्ण समृद्धि अवश्य लेकर लौटे थे यह एक ‘भिखारी का भेष धरे एक महान आत्मा (महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था) की संपत्ति थी इसलिए बहुतों को उम्मीद थी कि ये शख़्स अपने ग़ैर-परंपरागत तरीकों से भारत को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद करा लेगा। ... और यह संभव होने वाला था, क्योंकि गांधीजी के पास एक सूटकेस था, जिसमें एक अति महत्वपूर्ण चीज़ थी। यह कागजों का एक पुलिंदा थी, जिसमें गांधीजी के हस्त लिखित पद्य थे। इसका नाम था, हिन्द स्वराज ! इंडियन होम रूल जो उनका अगला लक्ष्य था। भारत में, भारतीयों का अपना शासन हो। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के ख़िलाफ़ वे एक लड़ाई लड़ चुके थे। भारत में भी उन्होंने वही रणनीति अपनानी थी। दक्षिण अफ्रीका के अनुभव एक बार फिर काम आने वाले थे, एक व्यापक उद्देश्य के लिए ... ... ...

भारत ने उनका स्वागत एक नायक के रूप में किया। अपोलो बंदरगाह पर अपार भीड खड़ी थी। जनता ने बड़ी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। दक्षिण अफ़्रीका में उनके संघर्षों और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में बहुत लोकप्रिय बना दिया था एक राष्ट्रीय वीर जैसा ही उनका स्वागत हुआ। बीमार होते हुए भी उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले पुणे से उनसे मिलने बंबई बंदरगाह पर आए थे। साथ में हरिलाल गांधी भी थे। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा, मैं अपना शेष जीवन भारतीय समस्याओं के अध्ययन में लगाना चाहता हूं। यदि कोई अनपेक्षित परिस्थिति मुझे बाध्य नहीं कर देती तो मैं अपने पिछले कार्यक्षेत्र में वापस नहीं जाना चाहता।

गांधीजी सांताक्रूज में प्राणजीवनदास मेहता के बड़े भाई रेवाशंकर झावेरी के घर में रुके थे।

शानदार स्वागत-समारोह

सोमवार, 11 जनवरी को बॉम्बे के उपनगर घाटकोपर में गांधीजी और कस्तूरबा के लिए एक स्वागत समारोह आयोजित किया गया। गांधीजी को एक चांदी के बक्से में बंद एक पता दिया गया, जिसमें सोने की बेड़ियाँ थीं। राव बहादुर वासनजी खिमजी ने अध्यक्षता की। उपहार स्वीकार करते हुए गांधीजी ने चांदी के बक्से और बेड़ियों को ऐसे व्यक्ति के लिए कुछ हद तक अनुपयुक्त बताया, जिसके सिर पर न तो छत हो और न ही उसके घर के दरवाजे बंद हों। गांधीजी ने वहीं पर उपहारों की नीलामी की। बाद के दिनों में सार्वजनिक सभाओं में उपहारों की नीलामी उनके लिए एक प्रचलन बन गई थी।

12 जनवरी, 1915 को बम्बई के धनी-मानी व्यक्ति सर जहांगीर जी पिटीट के पेडर रोड पर माउंट पेटिट, भव्य भवन में नागरिकों की ओर से उनके सम्मान में एक शानदार स्वागत-समारोह किया गया। इस सभा में कुल उपस्थिति संभवतः 800 से अधिक थी। इसकी अध्यक्षता बंबई के बेताज बादशाह सर फीरोजशाह मेहता ने की थी। उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वीर कहकर गांधीजी का अभिनंदन किया। सर फिरोजशाह मेहता ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि दर्शकों को गांधीजी के जीवन और काम के बारे में कुछ बताना ज़रूरी है। पिछले कुछ सालों से पूरा देश उनके महान कार्यों, उनके साहस और उनके महान नैतिक गुणों, दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए उनके श्रम और उनके कष्टों की कहानी से गूंज रहा था, जिससे उन्हें अपना आत्म-सम्मान बनाए रखने में मदद मिली। इसलिए, वे सभी श्री गांधी पर गर्व करते थे और वह यह कहने की इजाज़त लेते हैं कि उन्हें श्रीमती गांधी पर और भी ज़्यादा गर्व है।

इसी कड़ी में गुजराती समाज ने भी एक सम्मान सभा आयोजित की थी इसका आयोजन उत्तमलाल त्रिवेदी ने किया था। इसे इतिहास की विडंबना ही कहा जाएगा कि जब गांधीजी भारत लौटे तो उनके इस स्वागत-समारोह कार्यक्रम की अध्यक्षता गुजराती मूल के बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना ने की थी। ये अलग बात है कि पांच साल के भीतर ही गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से आने वाले इन धुरंधरों ने अलग-अलग राजनीतिक रास्ते अख्तियार किए और भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कहलाए। जिन्ना ने अंग्रेजी में स्वागत भाषण दिया। इस समारोह में गांधीजी ने गुजराती में आभार व्यक्त किया था। इस समारोह में एक साल पहले जेल से छूट कर आए बाल गंगाधर तिलक भी मौजूद थे। इस समारोह में जब गांधीजी की तारीफ़ों के पुल बांधे जा रहे थे तो उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा था, "भारत के लोगों को शायद मेरी असफलताओं के बारे में पता नहीं है। आपको मेरी सफलताओं के ही समाचार मिले हैं। लेकिन अब मैं भारत में हूं तो लोगों को प्रत्यक्ष रूप से मेरे दोष भी देखने को मिलेंगे। मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करेंगे। अपनी तरफ़ से एक साधारण सेवक की तरह मैं मातृभूमि की सेवा के लिए समर्पित हूं।"

कैसरे-हिंद का ख़िताब

गांधीजी को सम्मानित करने में भारत सरकार भी पीछे न रही। दक्षिण अफ़्रीका में अपना लोहा मनवाने के बाद गांधीजी की ख्याति भारत भी आ पहुंची थी और अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गंभीरता से लेने का फ़ैसला लिया था। शायद सरकार भी गाँधीजी को अपने ख़िलाफ़ नहीं करना चाहती थी, इसलिए उनके भारत आने के कुछ समय के भीतर ही उसने दक्षिण अफ़्रीका में की गई उनकी सेवाओं के लिए कैसरे-हिंद के ख़िताब से नवाजा था। 1915 के नए साल के खिताबों में उन्हें सरकार की ओर से कैसर-ए-हिन्द स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।

बंबई से पूना पहुंचे

दक्षिण अफ़्रीका से गांधीजी अपने साथ सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य जैसे व्रत अपने साथ लाए थे। फीनिक्स आश्रम तो वहीं पीछे छूट गया था लेकिन उनके कुछ सत्याग्रही मित्र भी भारत आए थे। यहां आने पर उन्हें पता चला कि उनके बेटे मणिलाल, रामदास, देवदास और भतीजे मगनलाल गांधी समेत लगभग बीस सत्याग्रही गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के शांतिनिकेतन आश्रम में थे। इन बच्चों को दीनबंधु चार्ली एफ़ एण्ड्रूज शांतिनिकेतन ले गए थे। गांधीजी इन बच्चों से मिलने को आतुर थे, पर बीमार होकर बिस्तर पकड़े गोखले चाहते थे कि बंबई के स्वागत-समारोह से निपटकर गांधीजी पूना उनसे मिलने जाएं।

भारत में अपनी नई पारी की शुरुआत वे गोखलेजी के निर्देशानुसार ही करना चाहते थे निर्वाह-योग्य वेतन पर देश और समाज की सेवा में पूरा समय और शक्ति लगाने वाले कुछ चुने हुए समाज सेवियों और विद्वानों की गोखले जी की एक संस्था थी, ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’। 1905 में स्थापित यह सोसाइटी अच्छे कार्यों और भारत की राजनीतिक शिक्षा के लिए समर्पित थी। वे चाहते थे कि गांधीजी उसके आजीवन सदस्य बन जाएं। गांधीजी बंबई से सीधे पूना पहुंचे। गांधीजी को संस्था का सदस्य बनाने पर मतभेद था। समिति की अंतरंग मंडली को पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक विज्ञान के प्रति गांधीजी का आलोचनात्मक रुख, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को धार्मिक पैमाने से नापने-जोखने की प्रवृत्ति और राजनैतिक संघर्ष के लिए सत्याग्रह का उपयोग आदि बातें पसंद नहीं थी। इसलिए सदस्यता का प्रश्न टाल दिया गया। फीनिक्स सेटलमेंट में रहने वाले अधिकांश युवा भारतीय अब शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित स्कूल के मेहमान के रूप में बंगाल में थे। अनिवार्य रूप से गांधीजी उन्हें कहीं और अपने आश्रम में स्थापित करना चाहते। गांधीजी ने गोखले को अपने इरादे बताए। चाहे मुझे सदस्य के रूप में स्वीकार किया जाए या नहीं, मैं एक आश्रम बनाना चाहता था, जहाँ मैं अपने फीनिक्स परिवार के साथ बस सकता था। गोखलेजी ने उन्हें कहा कि खर्चे की चिंता मत करो, गुजरात या तुम्हारा जहां मन करे आश्रम खोल लो। ख़र्चे की जिम्मेदारी मेरी है। गांधीजी का दिल खुशी से भर गया। धन जुटाने की जिम्मेदारी से मुक्त होना और यह महसूस करना कि उन्हें अकेले काम करने के लिए बाध्य नहीं होना चाहिए, बल्कि जब भी वह मुश्किल में पड़ें, तो उन्हें एक निश्चित मार्गदर्शक पर भरोसा करने में सक्षम होना चाहिए, यह उनके लिए खुशी की बात थी।

साथ ही गोखले ने यह परामर्श भी दिया था कि अपने किसी आगामी कार्यक्रम का निर्धारण करने के पहले कम से कम एक साल मौन रह कर वह देश की तत्कालीन स्थिति का पूरी तरह अध्ययन कर लें, क्योंकि भारत दक्षिण अफ़्रीका नहीं है और यहां बहुत संभल कर चलने की ज़रूरत है। जब तक कि वे परिवीक्षा का वर्ष पूरा नहीं कर लेते, तब तक कोई राय व्यक्त नहीं करनी चाहिए। उन्हें सार्वजनिक प्रश्नों पर बहस या भाषण नहीं देना था। गोखले को गांधीजी का राजनीतिक गुरु कहा जाता है। गांधीजी उनके निर्देशानुसार पूरे साल भर तक अपना कान खुले और मुंह बंद किए रहे तथा देश-गांव घूम-घूम कर भारत की जनता एवं अवस्था को समझते रहे। उस वर्ष के दौरान कम से कम चालीस भाषण दिए, जिनमें उन्होंने अहिंसा के बारे में शायद ही कभी बात की और स्वराज के बारे में तो बिलकुल भी नहीं। गांधीजी ने उन बारह महीनों में अतीत और वर्तमान के बारे में जो सीखा, उसे भविष्य की उन उम्मीदों से जोड़ा, जिन्हें उन्होंने 1909 में लिखी किताब 'हिंद स्वराज या इंडियन होम रूल' में तैयार कर लिया था। छिहत्तर पृष्ठों का यह पैम्फलेट उनका सामाजिक सिद्धांत है। गांधीजी ने इस पुस्तक में कहा है, 'अगर हम न्यायपूर्ण तरीके से काम करेंगे, तो भारत जल्दी ही स्वतंत्र हो जाएगा। आप यह भी देखेंगे कि अगर हम हर अंग्रेज को दुश्मन मानकर उससे दूर रहेंगे, तो होम रूल में देरी होगी। लेकिन अगर हम उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे, तो हमें उनका समर्थन मिलेगा... यह भविष्यवाणी थी।

अगले वर्ष भी, उन्होंने राजनीतिक मामलों से अपनी दूरी बनाए रखी, जिसमें उस समय जोर पकड़ रहा होमरूल आंदोलन भी शामिल था। उनकी अपनी राजनीतिक समझ भारत में उस समय सक्रिय किसी भी राजनीतिक धारा से मेल नहीं खाती थी। ‘मध्यम’ तरीकों में उनका विश्वास बहुत पहले ही खत्म हो चुका था, न ही वे होम रूलर्स से सहमत थे कि होम रूल के लिए आंदोलन करने का सबसे अच्छा समय वह था जब प्रथम विश्व युद्ध के कारण अंग्रेज मुश्किल में थे। इसके अलावा, उन्हें इस बात पर गहरा यकीन था कि राजनीतिक संघर्ष के इन तरीकों में से कोई भी वास्तव में व्यवहार्य नहीं था; इसका एकमात्र जवाब सत्याग्रह में था।

चूंकि गांधीजी शांतिनिकेतन के लिए रवाना होने वाले थे, इसलिए गोखले ने 13 जनवरी को उनके लिए विदाई पार्टी रखी। सर्वेंट्स ऑफ इंडिया हाउस के एक प्रांगण में रखी मेजों पर फल, मूंगफली और खजूर रखे गए थे, मेहमान आ गए, लेकिन गोखले का कोई पता नहीं था, वे इतने बीमार थे कि बिस्तर से उठ नहीं पा रहे थे। अचानक, जब पार्टी सुस्ता रही थी, गोखले प्रांगण में लड़खड़ाते हुए दिखाई दिए, वे गांधीजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए दृढ़ संकल्पित थे। यह प्रयास उनके लिए बहुत ज्यादा था। वे बेहोश हो गए और उन्हें वापस उनके बिस्तर पर लेटा दिया गया। जब वे होश में आए तो उन्होंने संदेश भेजा कि पार्टी जारी रहनी चाहिए।

लॉर्ड विलिंगडन से मुलाक़ात

गोखलेजी ने यह भी बताया कि बंबई के गवर्नर लॉर्ड वी विलिंगडन गांधीजी से मिलना चाहते हैं। 4 जनवरी को वे गवर्नमेंट हाउस में लॉर्ड विलिंगडन से मिले। लॉर्ड विलिंगडन ने गांधीजी से आश्वासन चाहा कि सरकार के विरोध में कोई क़दम उठाने के पहले गांधीजी उसको पूर्व सूचना दें और प्रश्न का समाधान खोजने में गवर्नर की मदद करें। गांधीजी ने जवाब दिया कि वे आसानी से वादा कर सकते हैं, क्योंकि एक अच्छा सत्याग्रही हमेशा अपने इरादे पहले ही घोषित कर देता है। आप जब चाहें मेरे पास आ सकते हैं,” लॉर्ड विलिंगडन ने कहा, “और आप देखेंगे कि मेरी सरकार जानबूझकर कुछ भी गलत नहीं करती है। यह वह विश्वास है जो मुझे बनाए रखता है,” गांधीजी ने उत्तर दिया।

जनवरी के अंत में गांधीजी राजकोट के लिए निकल पड़े। कस्तूरबा पहले ही जा चुकी थीं।

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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