शनिवार, 18 जनवरी 2025

236. साबरमती आश्रम-2

राष्ट्रीय आन्दोलन

236. साबरमती आश्रम-2


कोचरब सत्याग्रह आश्रम

1915

आश्रम के समुदाय में सभी तरह के लोग थे। छोटे-छोटे बच्चे थे, तो अस्सी-अस्सी वर्ष के बूढ़े भी; यूरोपीय और अमरीकी विश्वविद्यालयों के स्नातक थे, तो संस्कृत के प्रकांड पण्डित भी, गांधीजी के कट्टर भक्त भी थे और हर बात में भीतर ही भीतर गांधीजी पर संदेह करने वाले शंकालु भी। आश्रम तो मानो एक ऐसी प्रयोगशाला थी, जहां के निवासियों पर गांधीजी अपनी नैतिक और आध्यात्मिक धारणाओं का परीक्षण किया करते थे। उनके अपने लिए उस आश्रम का वही महत्व था जो अधिकतर लोगों के लिए परिवार का होता है। वह विश्व के तुमुल कोलाहल से उन्हें मुक्त रखने वाला आश्रय-स्थल था। वह परिवार, रक्त या सम्पत्ति के बंधनों से नहीं, समान उद्देश्यों में निष्ठा से बंधा हुआ था। गांधीजी आश्रम पर शासन करते थे। पूरे देश के समान ही, आश्रम में भी उनका यह शासन केवल नैतिक था। जब कोई गलती हो जाती या कोई आश्रमवासी गंभीर अपराध कर बैठता तो वह सारा दोष अपने सिर ले लेते और उपवास कर उसका प्रायश्चित्त भी करते थे।

साझी रसोई

आश्रम का एक नियम यह था कि सारे आश्रम वासिओं के लिए एक साझी रसोई हो। आश्रम के सारे लोग सामूहिक रसोई में ही भोजन करते थे। महादेव देसाई ने इस नियम का विरोध किया था और उन्हें घर पर अलग रसोई बनाने की छूट थी। दूसरा नियम यह था कि जहां तक हो सके आश्रम में पैदा होने वाली साग-भाजी ही खाने के काम में लायी जाए। बाहर से कोई साग-भाजी मंगाई जाए। इसके लिए आश्रम में सब्जी का बगीचा था। इसकी अलावा बगान, खेत, दुग्धशाला, बढ़ई, चमड़े के काम और कपड़ा बुनाई के शेड, आदि कार्यस्थल थे।

समय की पाबंदी

गांधीजी की समय की पाबंदी का ख्याल बड़ी कट्टरता से करते थे। आश्रम की दैनिक गतिविधियों के संचालन के लिए घंटी लगी थी। भोजन के समय तीन बार घंटी बजती थी। पहली घंटी लोगों को भोजन के कमरे में पहुंचने का संकेत होती थी। दूसरी घंटी इस कमरे के दरवाज़े बंद किए जाने के ठीक पहले बजती थी। तीसरी घंटी का संकेत होता था कि अब मंत्रोचारण के साथ भोजन शुरू किया जाए। आश्रम की घंटी दिन भर में छप्पन बार बजती थी। सर्वव्यापी घंटी बजते ही प्रातः 4.30 बजे प्रार्थना शुरू हो जाती थी। शुरू में संस्कृत के श्लोक पढ़े जाते, इसके बाद भजन गाए जाते। संगीत का निर्देशन आश्रमवासी संगीतकार पंडित खरे करते। भजन के बाद भगवत्‌ गीता का पाठ किया जाता। प्रायः रोज़ ही गांधीजी आध्यात्मिक विषय पर पंद्रह-बीस मिनट का प्रवचन दिया करते। प्रार्थना समाप्त होते ही आश्रमवासी अपने-अपने काम में जुट जाते।

संध्या प्रार्थना के पहले हाजिरी लगाई जाती थी। गांधीजी हमेशा नीम के पेड़ के नीचे बैठते। अकसर उनकी गोद में कोई बच्चा बैठा होता। कभी-कभी दो बच्चों में गोद के लिए लड़ाई होती, तो वे दोनों को अपने दोनों घुटनों पर बैठाकर झगड़ा सुलझाते। उनके सामने पुरुष एक ओर बैठते, और महिलाएं दूसरी ओर। जब कोई नाम पुकारा जाता तो वह शख्स बताता कि उसने दिन में कितना सूत काता। भजन, और गीता, गुरु ग्रंथ साहब, क़ुरान या बाइबिल के अंशों के पाठ के बाद गांधीजी सभा में उपस्थित लोगों से सवाल पूछने के लिए कहते। ये सवाल नितान्त व्यक्तिगत भी हो सकते थे। प्रार्थना सभा के बाद गांधीजी और आश्रमवासिओं के बीच अनौपचारिक संवाद हमेशा गंभीर नहीं होते थे, उनमें हंसी-मज़ाक़ भी चलता था।

क़रीब दो सौ पुरुषों, महिलाओं और बच्चों वाला आश्रम शारीरिक श्रम, मौन और प्रार्थनाओं में तपोवन वाला जीवन जीने वाले समुदाय था, किंतु वहां अकसर आपसी कलह भी आए दिन होते रहते थे। आखिर अधिकतर महिलाओं और बच्चों ने स्वेच्छा से इस जीवन को नहीं चुना था। क्योंकि उनके पति या पिता ने गांधीजी के साथ रहने और उनके सामाजिक, राजनैतिक या त्याग के आदर्शों को अपनाने का फैसला किया था। यहां लोग पड़ोसी तो थे मगर क़रीबी नहीं। गांधीजी सामुदायिक जीवन के सपने को साकार करने के लिए आश्रमवासियों को सीख और फटकार देने के साथ-साथ उन्हें पुचकारते भी रहते थे। ये उनका अब तक का सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग था। बाधाएं न तो उन्हें हतोत्साहित करतीं न ही कमज़ोर। वे एक स्वप्नदर्शी थे। वे लोगों को, वे जो हैं उससे कहीं आगे इस रूप में देखते थे कि वे क्या बन सकते हैं! वे चाहते थे कि लोग नैतिक जीवन जिएं, जिसमें सच्चाई, ईमानदारी और सरलता के कड़े मानदंडों का पालन किया जाता हो। यह वह आश्रम था जहां वे चरखा कातने के चार घंटों को वे दिन का सबसे लाभकारी हिस्सा मानते थे। जब वे चरखे के पहिए को घुमा रहे होते थे तो उनका दिमाग स्थिर रहता था। जहां प्रार्थना उनके हृदय का दैनिक शुद्धिकरण था। प्रार्थना को वे भोजन से भी ज़्यादा ज़रूरी मानते थे। आश्रम को चलाने या स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व के लिए वे प्रार्थना को अपरिहार्य मानते थे। ब्रह्मचर्य की उनकी धारणा में केवल यौन निषेध नहीं शामिल था, बल्कि सभी तरह के आत्मानुशासन और आत्मसंयम शामिल था।

बापू साबरमती अश्रम में आहार के नए-नए प्रयोग किया करते थे। बिना पकाया अन्न खाने के प्रयोग, मूंगफली के दूध का प्रयोग, नीम के कड़वे पत्ते खाने के प्रयोग, विविध प्रकार से स्नान करने के प्रयोग, पेट और सिर पर मिट्टी की पट्टी रखने के प्रयोग, आदि। हर प्रयोग में गांधीजी प्रमुख सलाहकार होते थे। आश्रम के जीवन में नियमितता और संयम था। चिकित्सा के नए-नए प्रयोग तो होते ही रहते थे, लेकिन गांधीजी की निजी देखभाल और उनकी निष्ठा से मरीज़ों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ता था।

सत्याग्रह आश्रम में गांधीजी, कस्तूरबा, मणीलाल, रामदास के अलावे कुल पच्चीस स्त्री-पुरुष उस आश्रम में थे। उसमें से तेरह तमिल थे। बाद में गांधीजी की बड़ी बहन गोकी जो विधवा थी, अपनी विधवा पुत्री फूली और विधवा पुत्रवधु निर्मला के साथ आश्रम में रहने चली आईं।

गांधी जी ने घोषणा कर दी कि आश्रम की स्थापना सत्य के प्रयोग, सत्य के आचरण और सत्य की खोज के लिए की गई है। वहां रह रहे आश्रमवासियों को सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय, अस्वाद, अपरिग्रह, शरीर श्रम, स्वदेशी, अभय, अस्पृश्यता निवारण और सहिष्णुता का पालन करना होता था। ये संकल्प निरे यांत्रिक ढंग से नहीं, बुद्धिपूर्वक रचनात्मक ढंग से पालन करने के लिए बनाए गए थे। इनका उद्देश्य नैतिक और आध्यात्मिक विकास था।

सत्य का व्रत: यह पर्याप्त नहीं है कि व्यक्ति सामान्यतः असत्य का सहारा न ले; उसे यह भी पता होना चाहिए कि देश की भलाई के लिए भी छल-कपट नहीं करना चाहिए, सत्य के लिए माता-पिता और बड़ों का विरोध भी करना पड़ सकता है। प्रह्लाद के प्रसिद्ध उदाहरण पर विचार करें। इनमें निहित सत्य को पुरातन काल से मान्यता प्राप्त है और जब तक मानव जाति इन्हें अपने दैनिक आचरण का अंग नहीं बना लेती, इनकी आवश्यकता और महत्व बने ही रहेंगे। इस आश्रम में सत्य ही ईश्वर था। दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान उन्होंने आंदोलन के दर्शन का विकास किया था। इसके प्रमुख तत्व थे – सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह। इस दर्शन के विकास के पीछे कुछ श्रेय इमर्सन, थोरो और तॉलतॉय को भी जाता है। लेकिन गांधीजी के दर्शन में पर्याप्त मौलिकता थी। इसकी परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा कि वह आत्मा की शक्ति या प्यार की शक्ति है जो सत्य और अहिंसा से जन्मी है। मानव जीवन का लक्ष्य सत्य की खोज है। एक सत्याग्रही हर उस चीज़ के सामने झुकने से इंकार करेगा जो उसकी दृष्टि में ग़लत होगी। वह सारी उत्तेजनाओं के बीच शांत रहेगा। वह पाप का विरोध करेगा लेकिन पापी से घृणा नहीं करेगा। वह सत्य का प्रतिपादन करेगा, लेकिन विरोधी को आघात पहुंचाकर नहीं, वरन्‌ स्वयं को पीड़ित करके। उन्हें उम्मीद थी कि ऐसा करके वह पापी की अंतरआत्मा को जगाएगा। सफलता के लिए आवश्यक है कि सत्याग्रही भय, घृणा और असत्य से पूरी तौर पर मुक्त रहे। सत्याग्रह, उनके अनुसार बलवानों का हथियार था।

अहिंसा व्रत: किसी भी जीव का प्राण न लेना ही पर्याप्त नहीं है। इस व्रत का पालन करने वाला व्यक्ति उन लोगों को भी चोट नहीं पहुँचा सकता जिन्हें वह अन्यायी मानता है; वह उन पर क्रोधित नहीं हो सकता, उसे उनसे प्रेम करना चाहिए: इस प्रकार वह माता-पिता, सरकार या अन्य किसी के अत्याचार का विरोध करेगा, लेकिन अत्याचारी को कभी चोट नहीं पहुँचाएगा। क्रोध को भी हिंसा का एक रूप माना जाता था। सत्य और अहिंसा का पालन करने वाला व्यक्ति प्रेम से अत्याचारी को जीत लेगा, वह अत्याचारी की इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करेगा, लेकिन जब तक अत्याचारी स्वयं पराजित नहीं हो जाता, तब तक वह अपनी इच्छा की अवज्ञा करने के लिए मृत्यु तक की सजा भुगतेगा। उनकी समझ में देश की स्थिति को सुधारने का एकमात्र तरीक़ा अहिंसा का तरीक़ा था। यदि उसका उचित रूप से पालन किया जाए तो वह एक अचूक तरीक़ा था। उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास था कि अहिंसा की पद्धति एक सर्वव्यापी और अचूक पद्धति है। बाह्य परिस्थितियों के प्रतिकूल होने पर भी, यहां तक कि झगड़े और हिंसा के समय भी, उसका अवश्य प्रयोग होना चाहिए।

ब्रह्मचर्य व्रत: उपर्युक्त दोनों व्रतों का पालन करना लगभग असंभव है, जब तक कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन न किया जाए; इस व्रत के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि व्यक्ति किसी अन्य स्त्री को वासना की दृष्टि से न देखे, उसे अपनी पशु वासनाओं पर इतना नियंत्रण रखना होगा कि वे विचार में भी न हिलें; यदि वह विवाहित है, तो वह अपनी पत्नी के प्रति कामुक मन नहीं रखेगा, बल्कि उसे अपना आजीवन मित्र मानकर उसके साथ पूर्ण पवित्रता का संबंध स्थापित करेगा।

तालु पर नियंत्रण (अस्वाद): जब तक कोई व्यक्ति तालु के सुखों पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उपर्युक्त व्रतों का पालन करना कठिन है, विशेषकर ब्रह्मचर्य का। इसलिए तालु पर नियंत्रण को एक अलग पालन माना जाता है। देश की सेवा करने का इच्छुक व्यक्ति यह विश्वास करेगा कि भोजन केवल शरीर को बनाए रखने के लिए आवश्यक है; इसलिए वह प्रतिदिन अपने आहार को विनियमित और शुद्ध करेगा और अपनी क्षमता के अनुसार धीरे-धीरे या तुरंत ऐसे खाद्य पदार्थों को छोड़ देगा जो पशु वासनाओं को उत्तेजित करते हैं या अन्यथा अनावश्यक हैं।

चोरी न करने का व्रत: दूसरों की संपत्ति समझी जाने वाली चीज़ों को न चुराना ही काफ़ी नहीं है। अगर हम ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है तो यह चोरी है। प्रकृति हमें रोज़ाना ज़रूरतों के हिसाब से ही चीज़ें मुहैया कराती है, इससे ज़्यादा नहीं।

अपरिग्रह व्रत: बहुत कुछ न रखना और न रखना ही काफी नहीं है, बल्कि ऐसी कोई भी चीज न रखना जरूरी है जो हमारी शारीरिक जरूरतों के लिए बिल्कुल जरूरी न हो; इसलिए अगर कोई कुर्सी के बिना रह सकता है, तो उसे ऐसा करना चाहिए। इसलिए इस व्रत का पालन करने वाला व्यक्ति लगातार इस पर विचार करके अपने जीवन को सरल बनाएगा।

स्वदेशी: जिन वस्तुओं के विषय में अथवा जिनके बनाने वालों के विषय में छल-कपट की सम्भावना हो, उनका प्रयोग करना सत्य के साथ असंगत है। अतः उदाहरण के लिए सत्य का उपासक मैनचेस्टर, जर्मनी अथवा भारत की मिलों में बनी वस्तुओं का प्रयोग नहीं करेगा, क्योंकि वह नहीं जानता कि उनमें कोई छल-कपट नहीं है। इसके अतिरिक्त मिलों में मजदूरों को बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। मिलों में आग का प्रयोग करने से जीवन का बहुत बड़ा नाश होता है, साथ ही मजदूरों की असमय मृत्यु भी हो जाती है। विदेशी वस्तुएँ तथा जटिल मशीनों से बनी वस्तुएँ, इसलिए अहिंसा के उपासक के लिए वर्जित हैं। आगे विचार करने पर पता चलेगा कि ऐसी वस्तुओं के प्रयोग से चोरी न करने तथा अपरिग्रह की प्रतिज्ञा का उल्लंघन होगा। हम अपने हथकरघे से बनी साधारण वस्तुओं के स्थान पर विदेशी वस्तुएँ पहनते हैं, क्योंकि रीति-रिवाजों के अनुसार उनमें अधिक सुन्दरता होती है। शरीर का कृत्रिम सौन्दर्यीकरण ब्रह्मचारी के लिए बाधा है; इसलिए वह किसी भी साधारण वस्तु के अलावा किसी भी वस्तु के उपयोग से बचेगा। इसलिए स्वदेशी के व्रत के लिए साधारण और सरल तरीके से बने कपड़ों का उपयोग करना आवश्यक है, यहाँ तक कि बटन, विदेशी कट आदि का भी उपयोग नहीं करना चाहिए, और इस तरह स्वदेशी जीवन के हर क्षेत्र में लागू होगा। स्वदेशी उनका संकेत शब्द था। उन्होंने उसकी परिभाषा करते हुए कहा था कि – स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूर की चीज़ों को छोड़कर अपने आस-पास की चीज़ों के इस्तेमाल और सेवा तक सीमित करती है। अतः उन्होंने शारीरिक श्रम पर बल दिया जिसे उन्होंने रोटी के लिए मेहनत और चरखा कहा।

निर्भयता की शपथ: निर्भयता की शपथ लेने वालों को यह वचन देना पड़ता था कि वे राजाओं, लुटेरों, बाघों या मौत के सामने कभी भी डर का ज़रा भी लक्षण नहीं दिखाएंगे और कभी भी बल का सहारा नहीं लेंगे, बल्कि हमेशा आत्मबल से अपनी रक्षा करेंगे। गांधीजी ने कहा, "जिस पर भय हावी हो जाता है, वह सत्य अहिंसा का पालन नहीं कर सकता।" "इसलिए, प्रबंधक राजाओं, लोगों, जाति, परिवारों, चोरों, लुटेरों, बाघ जैसे खूंखार जानवरों और यहां तक ​​कि मौत के डर से मुक्त होने का प्रयास करेंगे। एक सच्चा निडर व्यक्ति सत्य बल या आत्म बल द्वारा दूसरों के खिलाफ खुद का बचाव करेगा।"

अछूतों को स्वीकार करने की शपथ: अछूतों को स्वीकार करने की शपथ सबसे अंत में आई, लेकिन यह गांधी के विचारों में सबसे आगे थी। देखते-देखते आश्रम में गांधी जी के विचारों में आस्था रखनेवालों की बड़ी संख्या जमा हो गई। आश्रमवासियों के लिए गांधी जी महात्मा से बापू बन गए और कस्तूरबा गांधी बाबन गईं।

सुधार का गांधीजी का प्रथम प्रयोग

हिन्दू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का निवारण और स्त्रियों की मर्यादा का उत्थान तीन ऐसे मसले थे जिनमें गांधी जी की बहुत गहरी रुचि थी। उन्होंने तथाकथित अस्पृश्यों को हरिजन रूप में संबोधित किया। अपने सपनों के भारत के बारे में उन्होंने एक बार लिखा था, मैं एक ऐसे भारत के लिए काम करूंगा जिसमें ग़रीब से ग़रीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह देश उनका है, कि उसके निर्माण में उनकी आवाज़ भी प्रभावकारी है। ऐसा भारत जिसमें ऊंची और नीची जाति के लोग नहीं होंगे। उसमें सभी संप्रदायों के लोग पूरे सामंजस्य के साथ रहेंगे। ऐसे भारत में छुआछूत के अभिशाप की गुंजाइश नहीं होगी, स्त्रियां भी पुरुषों के समान अधिकार का उपयोग करेंगी! यही है मेरे सपनों का भारत!

गांधीजी मानते थे कि हिंदू धर्म की सबसे बुरी बात उसकी अस्पृश्यता की समस्या है। सवर्णों का दलितों के प्रति जो दुर्व्यवहार था वह गांधीजी के लिए असहनीय था। उन्होंने घोषणा कर दी कि कोई योग्य दलित परिवार आश्रम के नियमों का पालन करने को तैयार होगा, तो आश्रम में उसका स्वागत होगा। ठक्कर बापा (अमृतलाल ठक्कर) ने जब यह सुना, तो उन्होंने काठियावाड़ के एक दलित परिवार को गांधीजी के पास भेजा। सितंबर,1915 में आश्रम में पहले दलित आए। दूदाभाई, जो बंबई में शिक्षक थे, अपनी पत्नी दानीबहन और पुत्री लक्ष्मी के साथ आश्रम के नियमों का पालन करने का वचन देकर वहां रहने लगे। भारत में समाज सुधार का गांधीजी का प्रथम प्रयोग प्रारंभ हुआ।

इन दलितों के आश्रम में आने से तहलका मच गया। आश्रम में मगनलाल गांधी की पत्नी संतोष रोने लगी। बहन गोकी अपनी बेटी और बहू को लेकर आश्रम छोड़कर चली गई। अहमदाबाद में हंगामा हो गया। ऐसा करके उन्होंने कपड़ा उद्योग के उन दिग्गजों को नाराज़ किया जिन्होंने इसे वित्तपोषित करने में मदद की थी। एक-एक करके उन्होंने अपना समर्थन वापस ले लिया, जब तक कि वह समय नहीं आया जब आश्रम के पास बिल्कुल भी पैसा नहीं था। जुलूस निकला और नारे लगे। खबर आई कि समाज गांधीजी का बहिष्कार करेगा।  आश्रम बंद होने की नौबत आ गई। आसपास के लोगों ने गाली देना शुरू कर दिया और दूदा भाई का जीना हराम कर दिया। लेकिन गांधीजी अपने फ़ैसले से टस से मस नहीं हुए। उन्होंने धैर्य से काम लिया। गांधीजी ने घोषणा कर दी कि हम अहमदाबाद नहीं छोड़ेंगे, और ज़्यादा कष्ट हुआ तो भंगी बस्ती में जाकर रहेंगे। कष्ट बढ़ता रहा। कुंए के मालिक ने पानी देना बंद कर दिया और गालियां दी। आश्रम की आर्थिक स्थिति बदतर होती जा रही थी।

जब गांधीजी को यह पता चला कि कस्तूरबा जाने-अनजाने आश्रम की अन्य महिलाओं का केंद्र बन गई हैं और दूदा भाई को आश्रम में रखने का विरोध कर रही हैं तो उन्होंने कहा कि यह नहीं होगा। उन्होंने बहुत ऊंची आवाज़ में कस्तूरबा से कहा कि वो अपना फ़ैसला नहीं बदलेंगे। उन्होंने कस्तूरबा से यहां तक कह दिया कि अगर वो चाहें तो अपना अलग रास्ता अपना सकती हैं। इसे झगड़ा नहीं माना जाएगा लेकिन अब वो दोनों एक साथ नहीं रह सकते। यह उनका तलाक़ होगा। यह नाराज़गी ज़ाहिर करने के बाद गांधीजी ने दो चीज़ें कीं। एक तो उन्होंने ईश्वर से हाथ जोड़कर माफ़ी मांगी कि ग़ुस्सा उनकी एक समस्या है और वो इससे कैसे निपटेंगे नहीं जानते। दूसरा, उन्होंने अपने एक मित्र को पत्र लिखकर पूरी घटना की जानकारी दी और कहा कि यह बात एक अछूत व्यक्ति को आश्रम में रखने की वजह से हुई है और उन्होंने कस्तूरबा से कह दिया है कि अब उनके रास्ते अलग हो चुके हैं। यह बात वो सार्वजनिक करते हैं।

एक दिन एक कार आश्रम के पास आई और इतनी देर तक रुकी कि किसी ने गांधी के हाथों में एक लिफाफा दिया। अचानक आए यह सज्जन सेठ अंबालाल साराभाई थे लिफ़ाफ़े में तेरह हज़ार की आर्थिक मदद थी। इस राशि ने आश्रम को बचा लिया। इस घटना के बाद तो कई धनाढ्यों ने आश्रम की सहायता की।  दूदा भाई आश्रम में रहे और उनकी पत्नी भी रहीं। सब कुछ ठीक ठाक हो गया। जो धन बंद हो गया था वो दूसरे स्रोत से आने लगा था लेकिन गांधीजी दलितों को मुख्यधारा में लाने के लिए जो कुछ भी कर सकते थे उन्होंने किया। इस हद तक किया कि अगर इससे उनका परिवार प्रभावित हो जाए या उनका वैवाहिक जीवन छिन्न भिन्न हो जाए उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता था।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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