राष्ट्रीय आन्दोलन
237. राजनीति
से दूर रहे
1915
1915 में, जो उनकी उम्मीदवारी अथवा परीक्षा का वर्ष था, गांधीजी पूरी तरह राजनीति से दूर रहे। अपने
भाषणों और लेखों में उन्होंने अपने को व्यक्ति और समाज के सुधार तक सीमित रखा और
भारत के राजनैतिक प्रसंगों पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। इस नियंत्रण का एक
कारण तो स्वयं अपने ऊपर लगाया गया प्रतिबंध था, और दूसरी यह बात कि वह अभी देश की राजनैतिक
स्थिति का पूरा अध्ययन कर लेना चाहते थे।
जबकि गांधीजी देश की राजनैतिक स्थिति पर अभी अपने विचार
कायम नहीं कर पाए थे, उनकी तात्कालिक समस्या दक्षिण अफ्रीकी संघर्ष के उन
साथी-सम्बन्धियों को बसाने की थी। उन्हें उन्होंने पहले अहमदाबाद के निकट कोचरब
गांव में एक आश्रम में बसाया बाद में वह आश्रम साबरमती नदी के किनारे अधिक स्थायी
स्थान पर स्थापित हो गया। गांधी जी आश्रम में रहते और वहीँ से अपनी गतिविधियां संचालित
करते। सत्याग्रह आश्रम बहुत जल्द ही देशी-विदेशी लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया।
भारत लौटने पर उन्होंने देखा कि राष्ट्रवादी, युद्ध में बिना शर्त सहायता देने का विरोध कर
रहे है। युद्ध में सहायता देना राजभक्ति का लक्षण माना जाता था। बिना शर्त
राजभक्ति का परिचय देना राजनैतिक पिछड़ेपन का लक्षण और सरकारी पिट्ठुओं का काम था, देशभक्तों का नहीं। लेकिन गांधीजी का मत था कि
युद्ध में सरकार से सहयोग करने की कोई कीमत नहीं मांगनी चाहिए। उन्होंने कहा “हमने सरकार के संकटकाल में उसकी वफादारी की, इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि हम स्वराज्य के
योग्य हो गए। राजभक्ति स्वतः कोई बड़ी बात नहीं है; यह तो दुनिया भर में नागरिकता की एक अनिवार्य
शर्त है।”
गोखले जैसे उदार नेता से सम्बन्ध होने के कारण वह खतरनाक
राजनीतिक कार्यकर्ता नहीं समझे गए। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने असंवैधानिक
आन्दोलन जरूर चलाया था जिसमें लोगों ने कानून की अवहेलना की और जेल गए थे। लेकिन
उस आंदोलन का कारण जितना राजनीतिक था उतना ही मानवीय भी। सभी भारतीयों और
वर्ण-द्वेष अथवा राजनैतिक कारणों से जिनका मन दूषित नहीं हो गया था, ऐसे सभी अंग्रेजों की सहानुभूति उस आंदोलन से
थी। फिर जब भारत के वाइसराय लार्ड हार्डींग ने भी सत्याग्रह-आंदोलन का समर्थन कर
दिया तब तो उस पर से विद्रोह का कलंक अवश्य ही हट गया था।
गांधीजी राजनीति में कूदने को उतावले नहीं थे। भारत में
उनके राजनीतिक गुरु गोखले थे, जिन्होंने शुरू में ही गांधीजी से वचन ले लिया था कि वह
पूरे एक साल तक भारत की सार्वजनिक समस्याओं पर अपनी राय जाहिर नहीं करेंगे। यह एक
वर्ष गांधीजी के लिए ‘उम्मीदवारी
का समय’ या ‘परीक्षण का काल’ था।
भारत के राष्ट्रीय
आंदोलन में प्रवेश
1915 तक, यानी जब तक वह भारत नहीं आये
थे, जनता के लिए अजनबी, अपिरिचित एवं अराजनैतिक लगते थे। लेकिन यह अपिरचय एक वरदान
था। उन्हें लेकर लोग भ्रम का शिकार इसलिए नहीं हुए कि वह नरम पंथी थे और कुछ दूर
तक उग्रपंथी भी। उनकी संयमित आदतें, साधुवत सम्मोहन, अंग्रेज़ी की अपेक्षा भारतीय
भाषाओं का प्रयोग और धार्मिक प्रवचन – इन सबका जनता पर असर पड़ा और उसने उन्हें
अपने हृदय में बैठा लिया। गांधीजी ने अपनी जड़ें भारतीय जमीन में गड़ायी और उसी से
उन्होंने अपार शक्ति का सचय किया।
आर्थिक
अंतर्दृष्टि
गांधी जी में एक आर्थिक अंतर्दृष्टि भी थी।
उन्होंने बड़ी मेहनत के साथ जनता की ग़रीबी और दुर्दशा के आंकड़े एकत्रित किए थे।
उन्हें विश्वसनीय बनाया था। उसके लिए उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किये उनका कोई
उत्तर नहीं था।
राष्ट्रीय आंदोलन
को एक सक्रिय नेतृत्व
राष्ट्रीय आंदोलन को एक सक्रिय नेतृत्व गांधी जी के
द्वारा ही मिला। उनके आने के साथ-साथ जनता सहसा आन्दोलन की सक्रिय भागीदार बन गयी।
गांधीजी ही एकमात्र नेता थे जिनका व्यक्तित्व ग्रामीण जनता के साथ पूरी तौर पर
एकाकार हो गया था। उन्होंने अपने निजी जीवन को जिस ढर्रे पर चलाया उससे ग्रामीण
परिचित थे। उन्होंने उस भाषा का प्रयोग किया जिसे वे आसानी से समझ सकते थे। समय के
साथ-साथ वह ग्रामीण भारत में बहुत बड़ी संख्या में रहने वाले भारतीयों के ग़रीब और
पददलित वर्ग के प्रतीक बन गये। इस अर्थ में वह भारत के सच्चे प्रतिनिधि थे।
राष्ट्रवाद के इतिहास में प्राय: एक
अकेले व्यक्ति को राष्ट्र-निर्माण के साथ जोड़कर देखा जाता है। उदाहरण के लिए, हम
इटली के निर्माण के साथ गैरीबाल्डी को, अमेरिकी स्वतंत्रता
युद्ध के साथ जॉर्ज वाशिंगटन को और वियतनाम को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने के
संघर्ष से हो ची मिन्ह को जोड़कर देखते हैं। इसी तरह महात्मा गाँधी को भारतीय
राष्ट्र का ‘पिता’ माना
गया है।
चूंकि गाँधीजी स्वतंत्रता संघर्ष में
भाग लेने वाले सभी नेताओं में सर्वाधिक प्रभावशाली और सम्मानित हैं अत: उन्हें
दिया गया उपर्युक्त विशेषण गलत नहीं है। हालांकि, वाशिंगटन
अथवा हो ची मिन्ह की तरह महात्मा गाँधी का राजनीतिक जीवन-वृत्त उस समाज ने ही
संवारा और नियंत्रित किया, जिस समाज में वे
रहते थे। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही महान क्यों न हो वह न केवल इतिहास बनाता है
बल्कि स्वयं भी इतिहास द्वारा बनाया जाता है।
मोहनदास करमचंद गाँधी विदेश में दो दशक
रहने के बाद जनवरी 1915 में अपनी गृहभूमि वापस आए। इन वर्षों
का अधिकांश हिस्सा उन्होंने दक्षिण अफ़्रिका में बिताया। यहाँ वे एक वकील के रूप
में गए थे और बाद में वे इस क्षेत्र के भारतीय समुदाय के नेता बन गए। जैसाकि
इतिहासकार चंद्रन देवनेसन ने टिप्पणी की है कि दक्षिण अफ़्रिका ने ही गाँधी जी को ‘महात्मा’ बनाया।
दक्षिण अफ़्रिका में ही महात्मा गाँधी ने पहली बार सत्याग्रह के रूप में जानी गई
अहिंसात्मक विरोध की अपनी विशिष्ट तकनीक का इस्तेमाल किया, विभिन्न
धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने का प्रयास किया तथा उच्च जातीय भारतीयों को निम्न
जातियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव वाले व्यवहार के लिए चेतावनी दी। 1915 में
जब महात्मा गाँधी भारत आए तो उस समय का भारत 1893 में
जब वे यहाँ से गए थे तब के समय से अपेक्षाकॄत भिन्न था। यद्यपि यह अभी भी एक
ब्रिटिश उपनिवेश था लेकिन अब यह राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्रिय हो गया था।
अधिकांश प्रमुख शहरों और कस्बों में अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की शाखाएँ थीं। 1905-07
के स्वदेशी आंदोलन के माध्यम से इसने व्यापक रूप से मध्य वगों
के बीच अपनी अपील का विस्तार कर लिया था। इस आंदोलन ने कुछ प्रमुख नेताओं को जन्म
दिया, जिनमें
महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, बंगाल के विपिन
चंद्र पाल और पंजाब के लाला लाजपत राय हैं। ये तीनों ‘लाल, बाल
और पाल’ के
रूप में जाने जाते थे। इन तीनों का यह जोड़ उनके संघर्ष के अखिल भारतीय चरित्र की
सूचना देता था क्योंकि तीनों के मूल निवास क्षेत्र एक दूसरे से बहुत दूर थे। इन
नेताओं ने जहाँ औपनिवेशिक शासन के प्रति लड़ाकू विरोध का समर्थन किया वहीं ‘उदारवादियों’ का
एक समूह था जो एक क्रमिक व लगातार प्रयास करते रहने के विचार का हिमायती था। इन
उदारवादियों में गाँधीजी के मान्य राजनीतिक परामर्शदाता गोपाल कॄष्ण गोखले के साथ
ही मोहम्मद अली जिन्ना थे, जो गाँधीजी की ही
तरह गुजराती मूल के लंदन में प्रशिक्षित वकील थे।
1915 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत लौटने के बाद अगले तीन वर्षों में गांधीजी ने
अद्भुत ख्याति प्राप्त कर ली थे। चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा के उनके प्रयासों ने यह
प्रदर्शित कर दिया था कि वे मामलों को अपने हाथ में लेकर कुछ-न-कुछ ठोस कर ही लेते
थे। उनकी राजनीति पद्धति उस समय की कांग्रेस और होमरूल लीग की पद्धति से बिल्कुल
भिन्न थी। कांग्रेस अखिल भारतीय मुद्दों को उठाती थी और काम का आरंभ ऊपर से होता
था। लेकिन गांधीजी स्थानीय मुद्दों को अखिल भारतीय स्तर पर ले जाते थे और स्थानीय
नेताओं को अपने कार्यक्रम में भागीदार बनाते थे। कुछ विद्वानों ने इसे
‘सब-कांट्रैक्टर्स’ कहा है। चंपारण में राजेन्द्रपसाद, अनुग्रहनारायण सिन्हा, गुजरात में वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई, इंदुलाल याज्ञिक और शंकरलाल
बैंकर जैसे कार्यकर्ताओं ने गांधीजी का साथ दिया और आगे चलकर उनके अनुयायी बने।
गांधीजी के इन आरंभिक आंदोलनों से पता चलता है कि उनके आंदोलन में नीचे से आने
वाला दवाब विद्यमान रहता था।
बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन
भारत
का राजनीतिक वातावरण गांधीजी का इंतज़ार कर ही रहा था। बंबई में कांग्रेस का
अधिवेशन हुआ। लेकिन इस अधिवेशन में गांधीजी को विषय समिति का सदस्य नहीं चुना गया।
गांधीजी किनारे कर दिए गए। सभी को मालूम था कि गांधीजी गोखले के काफ़ी करीबी थे।
इसलिए सभापति सर सत्येन्द्र प्रसन्न सिंह ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए
उन्हें सदस्य नामित कर दिया।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ
पर
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