शनिवार, 18 जनवरी 2025

235. साबरमती आश्रम-1

राष्ट्रीय आन्दोलन

235. साबरमती आश्रम-1



1915

एक बार आश्रम की परिभाषा करते हुए गांधीजी ने उसे धार्मिक आचरण वाला सामूहिक जीवन बताया था। धार्मिक शब्द का प्रयोग यहां उसके सर्वाधिक व्यापक और उदार अर्थ में किया गया है। आश्रमवासी किसी विशेष धर्म अथवा उसके विधि-विधान से बाध्य नहीं थे। लेकिन उनके लिए व्यक्तिगत आचरण के कुछ सीधे-सादे नियमों का पालन अनिवार्य ही नहीं उनका धर्म था। आश्रम में किये जाने वाले कुछ संकल्पों, उदाहरणार्थ सत्य, अहिंसा और पुण्यशीलता का सार्वभौमिक महात्म्य था और कुछ उदाहरणार्थ, अस्पृश्यता-निवारण, शारीरिक श्रम और निर्भीकता; उस समय के भारतीय समाज की विशिष्ट स्थिति में आवश्यक थे, क्योंकि वह समाज जात-पात से जर्जर था, हाथ से काम करने को अपमानजनक समझता था और विदेशी शासन से आतंकित था।

कोचरब में आश्रम की स्थापना

मद्रास से अहमदाबाद लौटने पर उनका मन पक्का हो चुका था। अपने फीनिक्स साथियों के लिए गांधीजी को एक स्थायी आवास बनाने की ज़रूरत थी। गोखले ने फिनिक्स जैसा आश्रम शुरु करने के लिए आर्थिक सहायता देने की बात भी कही थी। दुर्भाग्यवश एक महीने के भीतर ही 19 फरवरी 1915 को गोखले का देहावसान हो गया। आश्रम खोलने के लिए राजकोट, कलकत्ता, हरिद्वार आदि से आमंत्रण आए। पर गांधीजी को गुजरात के अहमदाबाद के पास कोचरब नामक गांव की जगह बहुत पसंद आई। जीवनलाल देसाई नाम के बैरिस्टर ने कोचरब में स्थित अपना बंगला गांधीजी को भाड़े पर दे दिया था। उसी में 25 मई 1915 को सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। अहमदाबाद के कपड़ा उद्योगपतियों की मदद से जल्द ही वे अपने अनुयायियों के लिए दो या तीन और बंगले बनवाने में सफल हो गए, जिनमें लगभग बीस तमिल और तेलुगु थे, जिनमें से अधिकांश फीनिक्स सेटलमेंट और टॉल्स्टॉय फार्म से आए शरणार्थी थे।

अहमदाबाद में ही क्यों

अहमदाबाद कपड़ा उद्योग का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। यह बम्बई से आसानी से पहुँचा जा सकता था और काठियावाड़ के करीब था। अहमदाबाद के प्रति गांधीजी का झुकाव था। गुजराती होने के नाते उन्हें लगा कि वह गुजराती भाषा के माध्यम से देश की सबसे बड़ी सेवा कर पाएंगे। और फिर, चूंकि अहमदाबाद हथकरघा बुनाई का एक प्राचीन केंद्र था, इसलिए यह हाथ से कताई के कुटीर उद्योग के पुनरुद्धार के लिए सबसे अनुकूल क्षेत्र होने की संभावना थी। यह भी उम्मीद थी कि शहर गुजरात की राजधानी होने के कारण, यहां के धनी नागरिकों से आर्थिक मदद कहीं और की तुलना में अधिक उपलब्ध होगी। अनेक धनी लोगों ने गांधीजी से वहीँ आश्रम बनाने का आग्रह किया।

आश्रम का नाम

सबसे पहले हमें आश्रम का नाम तय करना था। गांधीजी ने मित्रों से सलाह ली। सुझाए गए नामों में 'सेवाश्रम' (सेवा का निवास), 'तपोवन' (तपस्या का निवास) आदि थे। गांधीजी को 'सेवाश्रम' नाम पसंद आया, लेकिन सेवा की पद्धति पर जोर नहीं दिया गया। 'तपोवन' एक दिखावटी शीर्षक लगा, क्योंकि यद्यपि तप उन्हें प्रिय था, फिर भी वह तपस्वी (तपस्या करने वाले व्यक्ति) होने का दावा नहीं कर सकते थे। उनका पंथ सत्य के प्रति समर्पण था, और उनका काम सत्य की खोज और उस पर जोर देना था। वह भारत को उस पद्धति से परिचित कराना चाहता था, जिसे उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में आजमाया था, और वह भारत में यह परीक्षण करना चाहते थे कि इसका अनुप्रयोग किस हद तक संभव हो सकता है। इसलिए उन्होंने और उनके साथियों ने 'सत्याग्रह आश्रम' नाम चुना, क्योंकि यह उनके लक्ष्य और सेवा की पद्धति दोनों को व्यक्त करता था। उस समय उनके दल में लगभग तेरह तमिल थे। पाँच तमिल युवा उनके साथ दक्षिण अफ़्रीका से आए थे, और बाकी देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे। वे कुल मिलाकर लगभग पच्चीस पुरुष और महिलाएँ थीं। सभी एक परिवार की तरह रहते थे और एक ही रसोई में खाना खाते थे। उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा गया था- प्रबंधक, उम्मीदवार और छात्र। आश्रम का उद्देश्य मातृभूमि की सेवा करना था। अपनी यात्राओं और अन्य व्यस्तताओं के बीच उन्होंने आश्रम के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार किया था, जिसकी प्रतियाँ उन्होंने कई मित्रों को उनकी टिप्पणियों के लिए भेजी थीं। इसमें आश्रम के सदस्यों द्वारा पालन की जाने वाली प्रतिज्ञाओं की सूची थी। 25 मई को आश्रम में एक स्कूल शुरू किया गया। चार साल से अधिक उम्र के लड़के और लड़कियों दोनों को छात्र के रूप में प्रवेश दिया जाना था। माता-पिता को अपने बच्चों पर पूरा नियंत्रण छोड़ना था। छात्रों को व्रतों का पालन करना सिखाया जाना था। उन्हें धर्म, कृषि, हथकरघा बुनाई और साहित्य के सिद्धांत सिखाए जाने थे।

गांधीजी को स्कूल के लिए शिक्षकों की आवश्यकता थी। दो शिक्षक, डॉ. महादेव प्रसाद और भोगीलाल कंथारिया, पहले दिन से ही उपलब्ध हो गए। गांधीजी ने कुछ विषय स्वयं पढ़ाए। फिर 1915 में काका कालेलकर और स्वामी आनंद भी आए। काका साहब संस्कृत पढ़ाते थे। वे बहुत अच्छे शिक्षक थे। नरहरी पारीख, महादेव देसाई और विनोबा भावे जैसे अन्य लोग बाद में आए। विनोबा जून 1916 में आए, हालांकि वे उस समय लंबे समय तक आश्रमवासी के रूप में नहीं रहे। महादेव देसाई अगस्त 1917 में आए।

आश्रम शहर के बाहर होने की ज़रुरत

सत्याग्रह आश्रम अहमदाबाद के निकट छोटे से गांव कोचरब में था। इसके आस पास बहुत गंदगी फैली रहती थी। लोग प्लेग के शिकार हो जाया करते थे। 1917 में इस गांव में प्लेग फैल गया था और गांधीजी ने आश्रम के बच्चों की सुरक्षा को स्पष्ट खतरा देखा। कोचरब के आश्रम में उन्होंने समाज सुधार के प्रयोग आरंभ किए, जिसके कारण उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। गांधी जी आश्रम इस जगह से हटाना चाहते थे। उन्होंने सोचा कि शहर के बीच रहकर समाज-सुधार के प्रयोगों को शहरावासियों पर लादना अन्याय होगा। उन्होंने तय किया कि आश्रम शहर के बाहर होना चाहिए। उसकी ज़मीन स्वतंत्र होनी चाहिए ताकि भविष्य में किसी विपदा की पुनरावृत्ति न हो। उनका आदर्श यह था कि आश्रम शहर और गांव दोनों से सुरक्षित दूरी पर हो, और फिर भी दोनों से ही प्रबंधनीय दूरी पर हो। आश्रम-योग्य जगह की खोज होने लगी।

साबरमती में आश्रम की स्थापना

अहमदाबाद के एक व्यापारी सरदार पंजाबभाई हीराचंद आश्रम के निकट संपर्क में आए थे और कई मामलों में शुद्ध और निस्वार्थ भावना से आश्रमवासियों की सेवा करते थे। उन्हें अहमदाबाद के बारे में व्यापक अनुभव था और उन्होंने गांधीजी को उपयुक्त भूमि दिलाने के लिए स्वेच्छा से काम किया। शहर से दूर केन्द्रीय कारागार के पास चंद्रभागा और साबरमती नदी के संगम पर बबूल की कंटीली झाड़ियों के जंगल से भरी ज़मीन का चयन किया गया। करीब आठ दिन में बिक्री पूरी हो गई। जमीन पर कोई इमारत नहीं थी और न ही कोई पेड़। लेकिन नदी के किनारे पर स्थित होना और एकांत होना बहुत फ़ायदेमंद था। शुरू में सत्याग्रहियों को तंबू लगाकर रहना पड़ा। इस समय तक आश्रमवासियों की संख्या चालीस तक पहुंच गई थी। उन्हें हटाना तो था ही, और हमेशा की तरह इसे लागू करने का काम मगनलाल पर छोड़ दिया गया। स्थायी आवास मिलने से पहले कठिनाइयाँ बहुत बड़ी थीं। बारिश होने वाली थी और चार मील दूर शहर से खाद्य सामग्री लानी पड़ती थी। बंजर जमीन पर साँपों का आतंक था और ऐसे हालात में छोटे बच्चों के साथ रहना कोई छोटा जोखिम नहीं था। उन लोगों ने जंगल साफ किया। उसे रहने लायक बनाया गया। इस प्रकार कोचरब "सत्याग्रह आश्रम" की स्थापना के दो वर्ष के पश्चात् जुलाई 1917 में जो आश्रम साबरमती नदी के किनारे पर बनाया गया, वह बाद में साबरमती आश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दधीचि मुनि का आश्रम

गांधी जी ने साबरमती के तट पर आश्रम के लिए स्थान का चयन काफ़ी सावधानी से किया था। इस आश्रम में पहुंचने के पहले दूधेश्वर का श्मशान घाट पड़ता था। प्रसिद्ध दधीचि मुनि का आश्रम साबरमती के तट पर उसी स्थान पर था। हिंदू पौराणिक कथा के दधीचि मुनि के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि देवराज इंद्र ने असुर राजा को मारने लायक हथियार बनाने के लिए ऋषि दधीचि की हड्डियां दान में मांगी थी। ऋषि ने इंद्र का अनुरोध स्वीकार कर अन्न त्यागकर देहत्याग किया। उनकी पसली की हड्डियों से इंद्र ने वज्र का निर्माण किया था और दानवों को पराजित किया था। नारायण देसाई ने सही ही कहा, ‘प्राचीन काल के उस ऋषि के आत्म-समर्पण की कहानी जितनी अद्भुत है, उससे कम रोमहर्षक आधुनिक काल में उसी स्थान पर आश्रम की स्थापना करनेवाले महात्मा की गाथा नहीं है।’

आश्रम में कुटियाओं का निर्माण

आश्रम की ज़मीन पर गारा, ईंटों और लकड़ी से कई कुटियाएं बनाई गई थीं जिनकी खपरैल की छतों को अलकतरे से पोता गया था ताकि बारिश में उनसे पानी न चुए। आश्रम बाहर से अधिक छोटा और जंगल जैसा था लेकिन वातावरण की दृष्टि से बहुत ही स्वच्छ और शान्त। आश्रम के फाटक पर कोई पहरेदार नहीं होता था। उसके ठीक बगल में इमली का एक बहुत बड़ा पेड़ था। बगीचे के बीच से ईंटों से बनी पगडंडी थी। नदी के तट के ठीक ऊपर 30 करोड़ भारतीय दिलों के निर्विवाद शहंशाह गांधी जी की कुटिया थी। उसका नाम हृदय कुंज था। उसका फाटक बांसों की खपचियों से बना था। सफ़ेद चूने से पुती उस कुटिया में तीन कमरे, एक रसोईघर और एक भंडार घर था। गांधीजी का कमरा लगभग एक कोठरी के आकार का था; इसकी एक खिड़की में लोहे की सलाखें थीं। कमरा एक छोटी सी छत पर खुलता था जहाँ गांधीजी सबसे ठंडी रातों में भी सोते थे और दिन में काम करते थे। जेल में कुछ अंतरालों को छोड़कर, गांधीजी सोलह साल तक उस कोठरी में रहे। कस्तूरबा पीछे के दो में से एक कमरे में रहती थीं, एक कमरा मेहमानों के लिए था। गांधीजी सामने वाले कमरे में रहते थे जिसके साथ एक बरामदा था, जिसका रुख नदी की ओर था। 200 वर्ग फुट की इस छोटी-सी जगह से वे आश्रम की गतिविधियों पर नज़र रखते थे, साथ ही भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष का भी संचालन करते थे।

मगनकुटी और हृदयकुंज के बीच प्रार्थना-भूमि थी। वहां दत्तात्रेय का एक छोटा-सा मंदिर था। गुरु-पूर्णिमा के दिन, रात को देर तक पंडित खरे के नेतृत्व में संगीत-कीर्तन का जलसा लगता था। प्रार्थना-भूमि पर तीन नीम के पेड़ थे। उत्तर की ओर के पेड़ के नीचे प्रार्थना के समय गांधीजी बैठते थे। साधु सुरेन्द्र पूर्व की तरफ़ के पेड़ के नीचे अपना डेरा जमाते थे। नदी की ओर ढलान वाले ऊंचे तट पर गांधीजी अपनी दैनिक प्रार्थना सभाएं करते थे। पास ही महात्मा गांधी के दूसरे चचेरे भाई मगनलाल गांधी की समाधि है, जो आश्रम का प्रबंधन करते थे और 1928 में उनकी मृत्यु हो गई थी। पत्थर पर लिखा है, 'उनकी मृत्यु ने मुझे विधवा बना दिया है - एम. ​​के. गांधी'

नदी घाट के पश्चिम में खेत था। दक्षिण दिशा के नदी के किनारे हृदयकुंज के पास एक छोटा-सा कमरा था, जिसमें मीरा बहन रहती थीं। विनोबाजी भी इसी जगह रहते थे। विनोबाजी के कमरे के उस पार ‘नन्दिनी’ में मेहमान रहते थे। नन्दिनी के पश्चिम में उद्योग मंदिर था। मुख्य उद्योग कताई-बुनाई का था। इसका उद्देश्य था वस्त्रों के लि विलायत पर निर्भरता कम हो और गरीब लोग इस काम में रोजगार पा सकें और आत्म निर्भर बन सकें। आश्रम के बीच से एक कच्ची सड़क थी। सड़क के दूसरी ओर सोमनाथ छात्रालय था, जहां लड़कियां रहती थीं।  छात्रालय के उत्तर में मकानों की दो कतारें थीं, जो कार्यकर्ता निवास था।

समय के साथ, गांधीजी के शिष्य बनने की इच्छा रखने वाले भारतीयों के लिए नए घर बनाए गए। स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ सबसे सक्रिय नेताओं ने साबरमती में महात्मा के चरणों में अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। बस्ती की आबादी शुरुआत में 30 से लेकर अधिकतम 230 तक थी। किशोरलाल मशरूवाला वहां कुछ दिन रहे थे। छगनलाल गांधी, नरहरि पारिख, पंडित खरे, मथुरादास आसर, तोतारामजी, छगनलाल जोशी, भगवनजीभाई पंड्या, माधवलालभाई और अनेक कार्यकर्ता अपने परिवारजनों के साथ इसमें रहते थे। दोनों कतारों के बीच नारणदास गांधी का मकान था। मकानों में से आगे की कतार के उत्तर में इमाम साहब का मकान था। उसके पीछे जमनाकुटी थी। सबसे पीछे साथ कोठरी थी। जमनाकुटी में कुछ दिन जमनालाल बजाज के परिवार के सदस्य आकर रहे थे। जेल की तरफ़ जाने वाली सड़क पर प्राणजीवनदास मेहता के पुत्र रतिलाल का लाल बंगला था। वहीं पास में बुधाभाई का सफेद बंगला था। इमाम साहब के मकान के पास महादेव देसाई का ‘आनन्द निवास’ था।  नारायणदास आश्रम के व्यवस्थापक थे।

हृदयकुंज में गांधीजी

सत्याग्रह आश्रम में रहने वाले इस विशाल कुटुम्ब के गांधीजी ‘कुलपति’ थे। गांधी जी फ़र्श पर एक गोलाकार सफ़ेद गद्दे पर बैठते थे। उनके पैर पीछे की ओर मुड़े होते थे। उनके सामने लकड़ी की एक डेस्क होती थी, जिस पर कुछ क़ाग़ज़, सरकंडे की क़लम, दावात और स्याहीसोख पैड रखी होती थी। बाक़ी कमरा लगभग ख़ाली होता था। उसके फ़र्श पर चटाई बिछी होती थी। कोने में मिट्टी का एक घड़ा होता था, पानी के लिए। उस पर पकी हुई मिट्टी का ढक्कन रखा रहता था। उसके ऊपर शीशे का एक गिलास उलट कर रखा होता था। दूसरे कोने में एक चरखा होता था, जो कमरे की खासी जगह घेरे रहता था। उसके साथ बांस की एक टोकरी रखी रहती थी जिसमें दिन भर का काता सूत और रूई के गोले होते थे जिनसे सूत कातना होता था। गांधीजी का कमरा हमेशा खुला रहता था और लोग बिना बताए कमरे में आ जाया करते थे। गांधीजी को इसकी आदत पड़ चुकी थी।

डेस्क की बगल में एक युवक खड़ा होता था जो गंजेपन की ओर बढ़ रहा था। उसकी आंखों पर काले फ़्रेम का चश्मा चढ़ा रहता था। वह अकसर कुर्ता-पाजामा पहने रहता था। गांधीजी जब बोलते ते वह उसे एक डायरी में नोट करता। गांधीजी के प्रति आदर दिखाने के लिए वह कमर से कभी झुक जाता, कभी सीधा हो जाता। वह युवक महादेव भाई देसाई थे। जब कभी गांधीजी को लिखने का मन करता तो वे घुटने मोड़कर बैठ जाते, लकड़ी की एक तख़्ती घुटनों पर रख लेते और उस पर काग़ज़ रख कर लिखा करते। दिन भर की डाक डेस्क के बगल में रखी होती।

साबरमती आश्रम सत्य के प्रयोग की प्रयोगशाला

साबरमती आश्रम सत्य के गांधीजी के प्रयोग की सबसे महत्वपूर्ण प्रयोगशाला थी। वह इस ग़रीब देश के लोगों के दान पर चल रही थी। इसलिए वे सबसे कहा करते थे, आप एक भी पैसे की फ़िजूलख़र्ची न होने दें। पैसा, समय और हमारा मस्तिष्क तौर शरीर तक, हर चीज़ एक ‘पवित्र अमानत’ है। ये सब हमारी चीज़ें नहीं हैं कि हम चाहे जैसे उपयोग करने का फैसला करें। ग़रीबों की सेवा करने के लिए हमें उनके बीच ग़रीब बन कर रहना चाहिए। लोग आपके जीवन से सीखते हैं, आपके विचारों से नहीं।

गांधीजी के लिए अहिंसा और सत्य के उच्चतम आदर्शों का विकास करने के लिए संघर्षरत महिलाओं और पुरुषों के एक समुदाय का विकास देश के लिए राजनीतिक आज़ादी हासिल करने के समान ही महत्वपूर्ण था। इसी कमरे में वे हर दिन कम से कम एक घंटा चरखा काटते थे। यहीं से गांधीजी पहले अँग्रेज़ी यंग इंडिया और बाद में गुजराती नवजीवन का संपादन करते थे। ढेर सारी चिट्ठियों का जवाब देते थे। रोज़-रोज़ के आश्रम में उठने वाली समस्याओं पर अपने भतीजे और आश्रम के प्रशासक मगनलाल गांधी को सलाह देते थे। साथ ही कांग्रेस के नेताओं के साथ राजनैतिक रणनीतियों पर विचार-विमर्श भी करते थे। निरन्तर आने वाले मेहमानों से भी मिलते थे।

आश्रम के नियम

आश्रम के नियम सख्त और कठोर थे। उन नियमों के कारण कइयों ने आश्रम छोड़ दिए थे। आश्रम की दिनचर्या में सादगी और अनुशासन पर ज़ोर था। चार बजे भोर में घंटी बजते ही आश्रमवासियों को उठना पड़ता था। जो कोई सुबह देर से उठता था, उसको उठने की घंटी बजाने का काम सौंप दिया जाता था। आधे घंटे बाद प्रातःकालीन प्रार्थना होती थी, जिसमें उपनिषद की स्तुति, एक भजन, रामधुन और सात दिन में गीता पारायण का क्रम था। पंडित नारायण मोरेश्वर खरे, जो पंडित विष्णु दिगंवर पलुसकर के शिष्य थे, प्रार्थना करवाते थे। नाश्ता 6.30 बजे होता था। 10.30 बजे दिन का भोजन होता था। इसमें चावल, सब्जी, दूध, रोटी आदि हुआ करते थे। रात का भोजन 6.30 या 7.00 बजे होता था। मौसम के हिसाब से रात का भोजन हलका होता था। इसमें दूध नहीं होता था। गांधीजी का मानना था कि यह सुपाच्य नहीं होता और नींद में खलल डालता है। रात को नौ बजे तक सब अपने-अपने कमरे में पहुंच जाते और 9.30 बजे बत्तियां बुझा दी जाती थीं। खेतों, बागों, डेरी और कार्यशालाओं में दिन भर काम करना होता था। आश्रमवासियों का जीवन अत्यंत संयत था। वहां का जीवन व्यस्त भी था। वहां कुछ-न-कुछ शारीरिक श्रम तो सभी को करना पड़ता था। कताई और बुनाई के विभाग थे, गौशाला थी और बड़े खेत थे। जूठे बरतनों की सफाई और कपड़ों की धुलाई हर आश्रमवासी खुद करता था। नौकर वहां कोई था ही नहीं। आश्रम का वातावरण किसी महंत के मठ या अखाड़े का नहीं, किन्तु कस कर काम लेने वाले दयालु कुलपति की छत्रछाया में जीवन बिताने वाले एक बड़े परिवार का सा था। गांधीजी उस परिवार के पिता या बापूथे, कस्तूरबा बाया मां थी

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मनोज कुमार

 

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संदर्भ : यहाँ पर

 

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