राष्ट्रीय आन्दोलन
260. गांधीजी का जनाकर्षण
प्रवेश
उस समय के एक बहुत ही
बड़े राष्ट्रीय नेता ने गांधीजी को ‘राजनैतिक बच्चा’ कहा था। देखते ही देखते यह
राजनैतिक बच्चा देश की राजनीतिक आकाश पर एक प्रकाश पुंज के समान उभरा
और तेजी से फैलते-फैलते सारे आकाश में छा गया। जब
तक गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं आये थे (1915), यहाँ की जनता के लिए लगभग अजनबी
और अपरिचित थे। धीरे-धीरे वह भारत की मिट्टी में घुलते-मिलते गए। उनकी संयमित आदतें,
साधुवत सम्मोहन, अंग्रेज़ी की अपेक्षा भारतीय भाषाओं का प्रयोग और धार्मिक प्रवचन से
भारतीय जनता का परिचय हुआ। इन सबका जनता पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने लोगों के दिल
में जगह बना लिया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि गांधीजी ने अपनी जड़ें
भारतीय जमीन में गड़ायी और फलतः उन्होंने अपार जनाकर्षण का फल प्राप्त किया। गांधीजी ने ब्रिटिश हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जो आवाज उठाई थी वह बिलकुल
जुदा थी। यह एक शांत और धीमी आवाज़ थी, कोमल और मधुर आवाज़ थी, लेकिन
उसमें फौलादी ताक़त थी। शांति और मित्रता की उनकी भाषा में शक्ति और कर्म की छाया थी, अन्याय
के सामने सिर न झुकाने का संकल्प था। लंबे-लंबे भाषणों से बिलकुल
अलग, यह एक नई आवाज़ थी। लोग रोमांचित थे, क्योंकि गांधी जी की राजनीति
कर्म की राजनीति थी, बातों की नहीं।
गांधीजी के जीवन का लक्ष्य उनके
व्यापक जनाकर्षण का प्रमुख कारण
दक्षिण अफ़्रीका में
रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष के दौरान उन्होंने अपने आंदोलन के दर्शन का विकास किया
था। इसके प्रमुख तत्व थे – सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह। सत्याग्रह की परिभाषा करते
हुए उन्होंने कहा था कि वह आत्मा की शक्ति या प्यार की शक्ति है, जो सत्य और
अहिंसा से जन्मी है। मानव जीवन का लक्ष्य सत्य की खोज है। एक सत्याग्रही हर उस चीज़
के सामने झुकने से इंकार करेगा जो उसकी दृष्टि में ग़लत होगी। वह सारी उत्तेजनाओं
के बीच शांत रहेगा। उनकी
समझ में देश की स्थिति को सुधारने का एकमात्र तरीक़ा अहिंसा का तरीक़ा था। उन्हें
इस बात का दृढ़ विश्वास था कि यदि उसका
उचित रूप से पालन किया जाए तो वह एक अचूक तरीक़ा था। उनके जीवन का यही
लक्ष्य उनके व्यापक जनाकर्षण का प्रमुख कारण बना। दक्षिण अफ्रीका में
उनकी सफलता की ख्याति भारत पहुँच चुकी थी, और देश के लोग उनकी एक झलक को लालायित
हो उठे थे।
आम जनता से निकटता
स्वदेशी उनका संकेत
शब्द था। उन्होंने उसकी परिभाषा करते हुए कहा था कि – “स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूर की चीज़ों को छोड़कर अपने आस-पास की चीज़ों के इस्तेमाल और सेवा तक सीमित करती है।” अतः उन्होंने
शारीरिक श्रम पर बल दिया, जिसे उन्होंने रोटी के लिए मेहनत और चरखा कहा। गांधीजी
के सत्याग्रह के चंपारण, खेड़ा एवं अहमदाबाद के प्रयोगों ने उन्हें आम जनता के
अत्यंत निकट ला दिया। उसमें ग्रामीण क्षेत्रों के किसान भी थे और शहरी क्षेत्र के
मज़दूर भी। राष्ट्रीय आंदोलन को यह गांधीजी की एक महान देन थी और उनके व्यापक
जनाकर्षण का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक।
ग़रीब और पददलित वर्ग के प्रतीक
राष्ट्रीय आंदोलन को
एक सक्रिय नेतृत्व गांधी जी के द्वारा ही मिला। उनके आने के साथ-साथ जनता सहसा
आन्दोलन की सक्रिय भागीदार बन गयी। गांधीजी ही एकमात्र नेता थे जिनका व्यक्तित्व
ग्रामीण जनता के साथ पूरी तौर पर एकाकार हो गया था। उन्होंने अपने निजी जीवन को
जिस ढर्रे पर चलाया उससे ग्रामीण परिचित थे। उन्होंने उस भाषा का प्रयोग किया जिसे
वे आसानी से समझ सकते थे। समय के साथ-साथ वह ग्रामीण भारत में बहुत बड़ी संख्या में
रहने वाले भारतीयों के ग़रीब और पददलित वर्ग के प्रतीक बन गये। इस अर्थ में वह भारत
के सच्चे प्रतिनिधि थे।
आंदोलन
में सामान्य जन की भागीदारी
1915 में जब महात्मा गाँधी दक्षिण
अफ्रीका से भारत आए थे, तो उस समय का भारत, 1893 में जब वे यहाँ से गए थे, तब के समय से, अपेक्षाकृत अलग था। हालाकि यह अभी
भी एक ब्रिटिश उपनिवेश था लेकिन अब यह राजनीतिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्रिय हो गया
था। उनकी पहली महत्वपूर्ण सक्रिय सार्वजनिक उपस्थिति 5 फ़रवरी 1916 में बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में हुई। महात्मा गांधी ने जो भाषण दिया
था, उसने भी बहुत से भारतवासियों का ध्यान खींचा था। समारोह
भारी शान-शौकत से भरा हुआ था। मंच पर मौजूद लोगों को गाँधीजी की स्पष्टवादिता
नागवार गुज़री और मंच के सभापति ने उन्हें अपना भाषण रोक देने के लिए कहा। सभा में आए लोगों का वैभव प्रदर्शन गांधीजी को
बहुत अखरा। गाँधीजी ने स्वयं को बधाई देने के सुर में सुर मिलाने की
अपेक्षा लोगों को उन किसानों और कामगारों की याद दिलाना चुना जो भारतीय जनसंख्या
के अधिसंख्य हिस्से का निर्माण करने के बावजूद वहाँ के श्रोताओं में अनुपस्थित थे।
गांधीजी का भाषण पूरा न हो पाया। बनारस में गाँधीजी का भाषण मात्र इस वास्तविक
तथ्य का ही उद्घाटन था कि भारतीय राष्ट्रवाद वकीलों, डॉक्टरों
और जमींदारों जैसे विशिष्ट वर्गों द्वारा निर्मित था। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखा
जाए तो यह वक्तव्य उनकी मंशा भी जाहिर करता था। यह भारतीय राष्ट्रवाद को सम्पूर्ण
भारतीय लोगों का और अधिक अच्छे ढंग से प्रतिनिधित्व करने में सक्षम बनाने की
गाँधीजी की स्वयं की इच्छा की प्रथम सार्वजनिक उद्घोषणा थी, जो उनके जनाकर्षण का
महत्त्वपूर्ण कारण बनने वाली थी। लोगों को लगा कि
गरीबों की तरह रहने वाला एक संत, पहली बार अमीरों के खिलाफ, गरीबों के पक्ष में
बोल रहा है। गांधीजी ने अहिंसा को असहयोग आंदोलन में एक शस्त्र की भांति उपयोग
किया। उनके आंदोलन में सामान्य जन, कृषक, मजदूर, आदिवासी, महिलाओं
की भूमिका आम जनता के राष्ट्रवाद को स्पष्ट करती है और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को
जन आंदोलन में परिणीत करती है।
स्थानीय
मुद्दों और स्थानीय नेताओं को महत्त्व प्रदान करना
1915 में दक्षिण अफ़्रीका से भारत
लौटने के बाद अगले तीन वर्षों में गांधीजी ने अद्भुत ख्याति प्राप्त कर ली थी।
चंपारण, अहमदाबाद और खेड़ा के उनके प्रयासों ने यह
प्रदर्शित कर दिया था कि आम जन को आकर्षित करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। उनकी
राजनीति पद्धति उस समय की कांग्रेस और होमरूल लीग की पद्धति से बिल्कुल भिन्न थी।
कांग्रेस अखिल भारतीय मुद्दों को उठाती थी और काम का आरंभ ऊपर से होता था। लेकिन
गांधीजी समस्या को जड़ से पकड़ते थे और स्थानीय मुद्दों को अखिल भारतीय स्तर पर ले
जाते थे और स्थानीय नेताओं को अपने कार्यक्रम में भागीदार बनाते थे। कुछ विद्वानों
ने इसे ‘सब-कांट्रैक्टर्स’ कहा है। चंपारण में राजेन्द्रपसाद, अनुग्रहनारायण सिन्हा, गुजरात में
वल्लभभाई पटेल, महादेव देसाई, इंदुलाल याज्ञिक और शंकरलाल बैंकर जैसे कार्यकर्ताओं
ने गांधीजी का साथ दिया और आगे चलकर उनके अनुयायी बने। गांधीजी के इन आरंभिक
आंदोलनों से पता चलता है कि उनके आंदोलन में नीचे से आने वाला दवाब विद्यमान रहता
था। परिणामस्वरूप आम लोगों के बीच उन्हें ख्याति, स्वीकृति और प्रसिद्धि मिली। धीरे-धीरे वे कांग्रेस के जनाकर्षण की सबसे
बड़ी शक्ति बने।
निर्धनों और शोषितों के प्रति दर्द
गांधीजी के हृदय में निर्धनों और
शोषितों के प्रति दर्द था। जहां भी इनके ऊपर अन्याय होता, वे उसके ख़िलाफ़ खड़े हो
जाते। उनकी कार्य-पद्धति का सबसे पहला प्रदर्शन चम्पारण में हुआ। चंपारण में गांधीजी किसानों की लड़ाई तो लड़ ही रहे थे, सामाजिक दूरियों को भी पाटने की कोशिश कर रहे थे। आम आदमी जैसे दिखने वाले गांधीजी ने यह सब किया अहिंसा और
सत्य के सहारे। अपनी राजनीति को उन्होंने कसौटी पर कसा। चंपारण आंदोलन ने गांधीजी
को भारत की आम जनता में विश्वास जगाया था।
गांधीजी ने चंपारण में किसानों की ओर से जो साहसिक काम किया और इन कामों में
उन्हें जो सफलता मिली उससे लोगों में उत्साह की एक लहर दौड़ गई। लोगों में उनके
तरीक़ों में सफलता की आशा दिखाई दी।
अद्भुत राजनीतिक शैली
गांधीजी के सिद्धांत में जो खास बात थी वह
यह कि शांतिवाद तो था ही, उसके अलावा इसमें गजब की स्फूर्ति और कर्मण्यता थी। चंपारण, अहमदाबाद और
खेड़ा कृषक आंदोलन ने संघर्ष के गांधीवादी तरीक़ों को आजमाने का अवसर दिया था, साथ
ही साथ गांधीजी को देश की जनता के नज़दीक आने, उसकी समस्याएं समझने का भी अवसर मिला
था। गांधीजी ने भारतीय जनता में अपनी पहचान बनायी। अनुभव और लोकप्रियता ने गांधीजी
को अदम्य साहसी बना दिया। इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होंने फरवरी 1919 में रोलेट एक्ट
के ख़िलाफ़ देश-व्यापी आन्दोलन किया। किसानों के बीच गांधीजी की लोकप्रियता बढ़ाने में उनकी
राजनीतिक शैली भी पर्याप्त सहायक सिद्ध हुई। उनके द्वारा तीसरे दर्जे में यात्रा किया
जाना, बोलचाल में हिन्दी भाषा का रोचक और आसान शैली में प्रयोग करना, अत्यंत
कम वस्त्र पहनना, आदि ने जनमानस में गहरा प्रभाव उत्पन्न किया। गांधीजी किसान, आदिवासी, श्रमिक और अन्य सभी प्रकार के आंदोलनों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन
का अभिन्न अंग बनाया। गांधीजी ने स्थानीय मुद्दों को लक्ष्य बनाकर अखिल भारतीय
लोकप्रियता हासिल की। उन्होंने आम जनता की आकांक्षाओं को पूरा
करते हुए, उन्हें सफल नेतृत्व और सही दिशा देने का कार्य किया। इन सब
क्रिया-कलापों के परिणामस्वरूप समय के साथ उनका जनाकर्षण बढ़ता गया।
राष्ट्रीय आंदोलन की दशा और दिशा में बदलाव
भारत का राष्ट्रीय आंदोलन धनिक वर्ग
का आंदोलन था। गांधीजी ने इस आंदोलन की इस दशा और दिशा में बदलाव लाया। वे आम जनता
का प्रतिनिधित्व करते थे। गांधीजी जन-साधारण की आवाज़ बन कर सामने आए। भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से ढालने की आवश्यकता गांधीजी ने अनुभव की। गांधीजी
का मानना था कि देश को वार्षिक समारोहों और लच्छेदार भाषण करने के मंचों की नहीं, जनता के सतत
सम्पर्क में रहने वाले जीवन्त और लड़ाई कर सकने की योग्यता वाले संगठन की आवश्यकता
थी। उन्होंने कांग्रेस के विधान में पूर्ण परिवर्तन कर दिया। अब तक कांग्रेस उच्च
और मध्यम वर्ग की ही बपौती थी, लेकिन अब पहली बार इसके
दरवाजे गांवों और शहरों में बसने वाली उस जनता के लिए खोल दिए गए, जिसकी राजनैतिक चेतना गांधीजी जगा रहे थे। उन्होंने दलित, पिछड़े, ग़रीब,
निराश जनता को ऐसा बना दिया जिसमें आत्म-सम्मान की भावना जाग
उठी। उन्होंने न केवल राष्ट्रीय जागृति की शुरुआत की, बल्कि
ठोस कार्यक्रमों के आधार पर जर्जर राष्ट्र को निर्भय बनाया। एक बड़े हित के लिए सब
मिलकर काम करने लगे। उनमें खुद पर भरोसा जगा। गांधीजी ने उन्हें इस योग्य बना दिया
कि वे अब देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं पर भी विचार करने लगे। यह एक अद्भुत
मनोवैज्ञानिक परिवर्तन था। इस काल में
अद्भुत जन-जागृति हुई। अब सामाजिक समस्याओं को गंभीरतापूर्वक
देखा जाने लगा। उसे महत्व दिया जाने लगा। चाहे उससे धनी वर्ग को नुकसान ही क्यों न
पहुंचता हो, आम जनता को ऊपर उठाने की बात बार-बार ज़ोर देकर कही जाने लगी। राष्ट्रीय आंदोलन की प्रकृति में यह जबर्दस्त
परिवर्तन था। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा दिखाई और आम लोग उनकी तरफ खिंचते
चले आए। गांधीजी का नारा लोगों के लिए संकल्प हो जाता था,
उनका प्रस्ताव लोगों के लिए प्रेरणा बन जाता था, उनका बयान
सबके लिए व्यवहार हो जाता था।
अफवाहों की भूमिका
गांधीजी की लोकप्रियता को बढाने में
अफवाहों ने भी अच्छी-खासी भूमिका निभाई। तनाव के दौर से गुजर रहे अशिक्षित समाज
में अफवाहों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय लोगों के विभिन्न वर्गों ने
गांधीजी की अपनी छवियाँ गढ़ीं। अधिकांश
लोगों के लिए चमत्कारिक शक्तियों वाले एक पवित्र व्यक्ति की तरह नज़र आए। चंपारण, खेडा और अहमदाबाद की सफलताओं की खबर भारत
के विभिन्न भागों में फैलने के बाद भारत के विभिन्न वर्गों के लोगों ने अपने मन
में गांधीजी की अपनी अलग छवियां बना ली थी। लोगों को लगने लगा कि गांधीजी एक
चमत्कारिक पुरुष हैं। कोई
उन्हें संत, कोई महात्मा, कोई देवता तो कोई महामानव मानता था। विशेष रूप से आरंभ में जब अधिकतर लोगों
ने दूर से उनकी एक झलक भर देखी थी या उनकी आवाज भर सुनी थी, या उनके चमत्कारी पुरुष होने की कहानी मात्र सुनी थी। सामान्य लोगों को विश्वास
हो गया था कि गांधीजी उनकी समस्याओं को दूर कर देंगे। किसानों को लगने लगा कि
गांधीजी ज़मींदारी प्रथा समाप्त कर देंगे, मज़दूरों को लगने लगा कि वे उन्हें जोत दिला देंगे। उनके असहयोग आन्दोलन के आह्वान को सुनकर
चाय बागान के मज़दूरों ने सामूहिक रूप से बागान छोड़ दिया था। लोगों को लगता था कि
गांधीजी सत्य बोलते हैं और जो वे कहते हैं उसको मानना उनका कर्त्तव्य है। एक चमत्कारिक
पुरुष की बातों को आदेश मानकर लाखों-लाख लोग उनकी ओर खिंचे चले आते थे। लोगों के
ऊपर गांधीजी का जबर्दस्त प्रभाव था। बल्कि यूं कहें कि गांधीजी का जादू था।
सटीक मुद्दों और प्रतीकों का चयन
गांधीजी का नमक आंदोलन और दांडी
पदयात्रा आधुनिक काल के शांतिपूर्ण संघर्ष का सबसे अनूठा उदाहरण है। यह गांधीजी के
ही नेतृत्व और प्रशिक्षण का चमत्कार था कि लोग अंग्रेजी हुकूमत की लाठियों के
प्रहार को अहिंसात्मक सत्याग्रह से नाकाम बना गए। यह एक ऐसा सफल आंदोलन था जिसने न
सिर्फ ब्रिटेन को बल्कि सारे विश्व को स्तब्ध कर दिया था। नमक अपने आप में कोई
बहुत महत्वपूर्ण चीज नहीं था, लेकिन यह राष्ट्रीयता का प्रतीक बन गया। इस यात्रा को जो भारी जनसमर्थन मिला, उसने अंग्रेज शासकों को बेचैन कर दिया। भारतीय जनता को सामूहिक आन्दोलन के
लिए संगठित करने की गांधीजी की कुशलता का ही यह परिणाम था की उन्हें अभूतपूर्व
प्रसिद्धि और जनाकर्षण मिला। गांधीजी ने नमक के द्वारा जहां एक तरफ़ ग्रामीण लोगों
को स्वराज्य के मुद्दे से जोड़ा, वहीं दूसरी तरफ़ शहरी लोगों का भी इसके प्रति
समर्थन प्राप्त किया। नमक के मुद्दे ने स्वराज्य के आदर्श को गांवों के ग़रीबों की
एक ठोस और व्यापक शिकायत से जोड़ दिया। इसने किसानों को एक अवसर दिया कि वे अपनी
सहायता ख़ुद करते हुए कुछ अतिरिक्त आय कर सकें। गांधीजी के नगरीय समर्थकों को इसका
मौक़ा मिला कि वे प्रतीक के रूप में जनता के व्यापक कष्टों से स्वयं को एकाकार कर
सकें। गांधीजी की जनता में प्रेरणा भरने की
इस विस्मयकारी शक्ति को बहुत पहले ही श्री गोखले जी ने भांप लिया था और कहा था, “इनमें मिट्टी के घोंघे से बड़े-बड़े बहादुरों
का निर्माण करने की शक्ति है।” महात्मा गांधी के पास उन मुद्दों
को पहचानने की शक्ति थी, जो लोगों को जागृत कर सकते थे। नमक से
ऐतिहासिक आंदोलन खड़ा करने और दांडी मार्च करने के लिए प्रतिभा की आवश्यकता होती
है। वह हर किसी को एकजुट करना जनते थे। खादी, चरखा, नमक आदि मुद्दों और प्रतीकों का चयन व्यापक जनाकर्षण का आधार बना.
उपसंहार
अपनी कार्यशैली, अपने विचार, अपनी सादगी, अपने त्याग और अपने सिद्धांतों से अटूट
रूप से जुड़े रहने के कारण गांधीजी ने भारतीय जनता के दिल के तारों को झनझना दिया
था। साहस और त्याग की अपील पर लोगों ने अपने को न्यौछावर कर दिया, क्योंकि गांधीजी स्वयं भी साहस और त्याग की सजीव मूर्ति थे। लोगों को लगा
कि वे किसी शिखर से उतरे मानव नहीं बल्कि देश के करोड़ों लोगों में से ही प्रकट हुए
हैं। उनकी भाषा, उनकी बोली, उनके हाव-भाव लोगों को आकर्षित करते। मुसलमानों ने भी
कम उत्साह नहीं दिखाया। सच तो यह था कि अली-बंधुओं के नेतृत्व में ख़िलाफ़त कमेटी ने
सत्याग्रह के कार्यक्रम को कांग्रेस से पहले ही अपना लिया था। थोड़े ही दिनों में
जनता के अपार उत्साह और आन्दोलन की प्रारंभिक सफलता ने पुराने कांग्रेसी नेताओं को
भी अपनी ओर खींच लिया था। बड़ौदा के एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, अब्बास तैयाबजी ने एक गांव से लिखा था : “लगता है, मेरी आयु बीस वर्ष कम हो गई है।…हे भगवान ! कैसा
विलक्षण अनुभव है। साधारण व्यक्ति के लिए मेरे हृदय में प्यार उमड़ रहा है और
स्वयं भी साधारण व्यक्ति हो जाना कितने बड़े सम्मान की बात है। यह फकीरी पहनावे का
जादू है, जिससे सारे भेद-भाव समाप्त हो गए हैं।” चर्चिल
ने कहा था, वह “नंगे फकीर” थे और उनकी इस फकीरी, संयम और आत्म-त्याग के कारण ही भारत की जनता उन्हें अपने प्राणों के
इतना निकट अनुभव करती थी। उनकी प्रेरणा पाकर देश में ऐसे “फकीरों” की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी। वैभवपूर्ण जीवन का परित्याग कर
गांधीजी के नेतृत्व में जेल जाने वालों की कतार अंतहीन थी।
गांधीजी के इस लोकव्यापी आकर्षण का
एक और ऐसा पक्ष है, जिसकी अनदेखी करना सरल नहीं है। गांधीजी केवल जनता को आन्दोलन
के लिए प्रेरित ही नहीं करते थे, बल्कि एक नियंत्रित जन आंदोलन चलाना चाहते थे। वे चाहते थे कि उनके अनुयायी उनके द्वारा तय किए हुए रास्ते पर दृढ़ता से अनुशासित
ढंग से चले। लेकिन जनता ने उनके द्वारा तय की गई सीमाओं का बार-बार उल्लंघन किया। जनता
उनके द्वारा स्थापित आदर्शों से अलग हटी। गांधीजी के
लिए साध्य के साथ-साथ साधन का पवित्र होना भी महत्वपूर्ण था। ऐसे में एक विशाल
जनसमूह को अनुशासन में रखना और नियंत्रित आंदोलन का संचालन गांधीजी जैसे करिश्माई
व्यक्तित्व से ही संभव था। गांधीजी ने आत्म-शुद्धि पर
बार-बार ज़ोर दिया। आंदोलन के नैतिक और आध्यात्मिक पक्ष पर लोगों का ध्यान आकर्षित
किया। इसी करिश्माई व्यक्तित्व का परिणाम उनके व्यापक जनाकर्षण में दिखता है। 1919-20
में गांधीजी देश के सबसे बड़े राजनैतिक नेता बन गए, क्योंकि उन्होंने लोगों को मोहित कर लिया था। ‘महात्मा गांधी की जय’ के
ऊंचे-ऊंचे नारे लगते। लोग उन्हें ‘महात्मा’ के रूप में श्रद्धा और भक्ति अर्पित करते। इनमें से कई गाँधीजी के प्रति
आदर व्यक्त करते हुए उन्हें अपना ‘महात्मा’ कहने लगे। लोगों ने इस बात की प्रशंसा की कि गाँधीजी उनकी ही तरह के
वस्त्र पहनते थे, उनकी ही तरह रहते थे और उनकी ही भाषा में
बोलते थे। अन्य नेताओं की तरह वे सामान्य जनसमूह से अलग नहीं खड़े होते थे बल्कि वे
उनसे समानुभूति रखते तथा उनसे घनिष्ठ संबंध भी स्थापित कर लेते थे। सामान्य जन के
साथ इस तरह की पहचान उनके वस्त्रों में विशेष रूप से परिलक्षित होती थी। स्वेच्छा
से अपनाई हुई गरीबी, सादगी, विनम्रता
और साधुता आदि गुणों के कारण वह कोई ऐसे अतीतकालीन ऋषि प्रतीत होते थे, जो मानो देश की मुक्ति के लिए महाकाव्यों के बीते काल से वर्तमान में चले
आए हों। देश के लाखों-करोड़ों लोग उन्हें अवतार मानने लगे थे। लोग उनका सन्देश
सुनने ही नहीं, किन्तु दर्शन कर पुण्य अर्जित करने भी आते
थे। उनके दर्शन का पुण्यफल करीब-करीब काशी की तीर्थ-यात्रा के ही बराबर माना जाने
लगा था। महात्मा गांधी की लोकप्रियता इतनी अद्भुत, विलक्षण और चमत्कारिक थी कि महान
वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन को कहना पडा, “भविष्य
में शायद ही लोग यकीन कर पाएं कि हाड़-मांस का कोई ऐसा इंसान इसी धरती पर जन्मा था.” उनका जनाकर्षण इतना व्यापक था कि देश के
ही नायकों का आन्दोलन नहीं बल्कि मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे
महानायकों का आंदोलन भी गांधीजी से प्रेरित रहा.
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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