राष्ट्रीय आन्दोलन
238. पंडित मदन मोहन
मालवीय
महामना मदन
मोहन मालवीय (25 दिसंबर 1861 - 12 नवंबर 1946)
इस युग के आदर्श पुरुष थे। मालवीयजी का जन्म प्रयागराज में 25 दिसम्बर
1861 को पं. ब्रजनाथ व मूनादेवी के यहाँ हुआ था। पाँच
वर्ष की आयु में उन्हें उनके माता-पिता ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा
लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश के महाजनी पाठशाला में भर्ती करा दिया
जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके
पश्चात वे एक अन्य विद्यालय में भेज दिये गये जिसे प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा
संचालित करती थी। यहाँ से शिक्षा पूर्ण कर वे इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने गये। 15 वर्ष
के किशोर वय में ही उन्होंने काव्य रचना आरम्भ कर दी थी जिसे वे अपने उपनाम मकरन्द से
पहचाने जाते रहे। 1879 में उन्होंने
म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से, जो आजकल इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता है, मैट्रीकुलेशन
(दसवीं की परीक्षा) उत्तीर्ण की। 1880 में उन्होंने
हिन्दू समाज की स्थापना की। हैरिसन स्कूल के
प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर कलकत्ता
विश्वविद्यालय भेजा जहाँ से उन्होंने म्योर सेन्ट्रल
कॉलेज से 1884 में बी.ए. की
उपाधि प्राप्त की। उनका विवाह मिर्जापुर के पं. नन्दलाल जी की
पुत्री कुन्दन देवी के साथ 16 वर्ष की आयु में हुआ था। जुलाई 1884 इलाहाबाद
जिला स्कूल में अध्यापक के रूप में कार्यभार संभाला।
मालवीयजी प्रयाग
हिन्दू सभा की स्थापना कर समसामयिक समस्याओं के
संबंध में विचार व्यक्त करते रहे। 1884 में वे हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा
के सदस्य बने। 1885 में इन्डियन यूनियन का
सम्पादन किया। 1889 में हिन्दुस्तान का
सम्पादन किया। 1891 में इण्डियन ओपीनियन का
सम्पादन कर उन्होंने पत्रकारिता को नई दिशा दी। 1891 में
इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करते हुए अनेक महत्वपूर्ण व विशिष्ट मामलों में अपना
लोहा मनवाया था। 1913 में वकालत छोड़ दी और राष्ट्र की सेवा का
व्रत लिया ताकि राष्ट्र को स्वाधीन देख सकें। 1907 में बसन्त
पंचमी के शुभ अवसर पर एक साप्ताहिक हिन्दी पत्रिका अभ्युदय नाम से
आरम्भ की, साथ ही अंग्रेजी पत्र लीडर के साथ
भी जुड़े रहे।
उन्हें महामना की
सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। महात्मा गांधी ने उन्हें 'महामना' की
उपाधि दी थी और भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. एस.
राधाकृष्णन ने उन्हें 'कर्मयोगी' की
उपाधि दी थी।
उन्हीं दिनों
प्रयाग में वायसराय लॉर्ड रिपन का
आगमन हुआ। स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण रिपन भारतवासियों में
लोकप्रिय थे। प्रिंसिपल हैरिसन के कहने पर उनका स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने
प्रयाग वासियों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।
देश के प्रति उनकी
अनेक सेवाएं थीं, लेकिन बनारस
हिंदू विश्वविद्यालय, जिसे
हिंदी में काशी विश्व विद्यालय कहा जाता है,
को हमेशा उनकी सबसे बड़ी और सर्वश्रेष्ठ रचना माना जाना चाहिए। यह बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय के नाम से अधिक लोकप्रिय है। पं. मदन मोहन
मालवीय जी के व्यक्तित्व पर आयरिश महिला एनीबेसेण्ट का अभूतपूर्व प्रभाव पड़ा, जो
हिन्दुस्तान में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु दृढ़प्रतिज्ञ रहीं। वे वाराणसी नगर
के कमच्छा नामक स्थान पर सेण्ट्रल हिन्दू कालेज की
स्थापना सन् 1889 में की, जो बाद
में चलकर हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का केन्द्र बना। पंडित जी ने तत्कालीन
बनारस के महाराज श्री प्रभुनारायण सिंह की सहायता से सन् 1904 में
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना का मन बनाया। सन् 1905 में
बनारस शहर के टाउन हाल मैदान की आमसभा में श्री डी.एन. महाजन
की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित कराया।
सन् 1911 ई0 में एनीबेसेण्ट
की सहायता से एक प्रस्तावना को मंजूरी दिलाई जो 28 नवम्बर
1911 में एक सोसाइटी का स्वरूप
लिया। इस सोसायटी का उद्देश्य बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी की
स्थापना करना था। 25 मार्च 1915 को सर
हरकोर्ट बटलर ने इम्पिरीयल लेजिस्लेटिव एसेम्बली में एक बिल लाया, जो 1 अक्तूबर, को ऐक्ट के रूप में मंजूर कर लिया गया।
4 फरवरी, 1916 को दि
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, की नींव डाल दी गई। इस अवसर पर एक भव्य
आयोजन हुआ। जिसमें देश व नगर के अधिकाधिक गणमान्य लोग, महाराजगण
उपस्थित रहे।
1916-18
तक वह औद्योगिक आयोग के सदस्य थे। 1918 में उन्होंने बॉयज़
स्काउट्स एसोसिएशन का गठन किया। फ़रवरी 1919 में उन्होंने परिषद
में रोलेट बिल पर बहस की और परिषद से इस्तीफ़ा दे दिया। 1919-1939
तक वह बीएचयू के कुलपति के रूप में कार्यरत रहे। अगस्त 1926 में
उन्होंने लाला लाजपत राय के साथ कांग्रेस स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। 1930 में
उन्होंने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें
छह महीने की सजा हुई। मार्च 1932 में उन्होंने अखिल भारतीय स्वदेशी संघ
का गठन किया और भारतीय
सामान खरीदने के लिए घोषणापत्र जारी किया। नवंबर 1939 में
उन्हें बीएचयू का आजीवन रेक्टर नियुक्त किया गया।
वे अपने
अनुयायियों के सेवक थे। उन्होंने उन्हें उनकी इच्छानुसार कार्य करने की अनुमति दी।
यह समायोजन की भावना उनके स्वभाव का अंग थी।
मालवीय जी ने
काशी विश्व विद्यालय में अपनी एक अमर स्मृति छोड़ी है। इसे एक स्थिर आधार पर
स्थापित करना, इसके क्रमिक
विकास को सुरक्षित करना, निश्चित
रूप से महान देशभक्त की स्मृति में हमारे द्वारा बनाया जाने वाला सबसे उपयुक्त
स्मारक होगा। उन्होंने अपने प्रिय बच्चे के लिए एक बड़ा संग्रह करने में कोई कसर
नहीं छोड़ी। जो कोई भी उनकी स्मृति का सम्मान करता है, वह संग्रह को जारी रखने के श्रम में मदद
कर सकता है।
वर्ष 1909,
वर्ष 1918, वर्ष 1932 और
वर्ष 1933 में कुल चार बार कांग्रेस कमेटी
के अध्यक्ष के रूप में चुने गए। वर्ष 1930 में जब महात्मा
गांधी ने नमक
सत्याग्रह और सविनय
अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, तो
उन्होंने इसमें सक्रिय रूप से भाग लिया और गिरफ्तारी भी दी। मदन मोहन मालवीय देश
से जातिगत बेड़ियों को तोड़ना चाहते थे। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश
निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया।
12 नवंबर,
1946 को 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। 24 दिसम्बर, 2014 को भारत के राष्ट्रपति प्रणब
मुखर्जी ने पंडित मदनमोहन मालवीय को मरणोपरांत
देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से
नवाजा। उनका आंतरिक जीवन पवित्रता का आदर्श था। वे दयालुता और सौम्यता के भंडार
थे। धार्मिक शास्त्रों का उनका ज्ञान बहुत अधिक था। वे वंशानुगत रूप से एक महान
धार्मिक उपदेशक थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी और उनका जीवन जितना सरल था उतना ही
स्वच्छ भी था।
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मनोज कुमार
पिछली कड़ियां- राष्ट्रीय आन्दोलन
संदर्भ : यहाँ पर
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