सोमवार, 13 जनवरी 2025

225. राष्ट्रवादी विदेश नीति का विकास

राष्ट्रीय आन्दोलन

225. राष्ट्रवादी विदेश नीति का विकास



अपने साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के दौरान, भारतीय लोगों ने साम्राज्यवाद के विरोध की नीति विकसित की और साथ ही दुनिया के अन्य हिस्सों में साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों के साथ एकजुटता की अभिव्यक्ति और स्थापना की। शुरू से ही, भारतीय राष्ट्रवादियों ने अन्य देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने और ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने, विस्तार करने के लिए भारतीय संसाधनों का उपयोग करने की ब्रिटिश नीति का विरोध किया।

राष्ट्रवादी विदेश नीति का व्यापक आधार राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभिक वर्षों में रखा गया था। 1878 के बाद से, भारत सरकार ने भारत की सीमाओं के बाहर कई बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान चलाए। ये अभियान भारत के सैन्य व्यय में तीव्र और भारी वृद्धि का एक प्रमुख स्रोत थे। भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने भारतीय लोगों के वित्तीय बोझ के कारण और राजनीतिक नैतिकता के आधार पर कि इनमें भारतीय हितों और उद्देश्यों को शामिल नहीं किया गया था, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी योजनाओं को शामिल किया गया था, इन युद्धों और अभियानों में भारत की भागीदारी की निंदा की। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि भारत के हितों को शांति की नीति से सबसे अच्छी तरह से सुरक्षित किया जा सकता है। दूसरा अफ़गान युद्ध (1878-80) के बारे में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने सार्वजनिक रूप से युद्ध को सरासर आक्रामकता का कार्य बताया और ‘इतिहास के पन्नों को काला करने वाले सबसे अधर्मी युद्धों में से एक’ बताया। चूंकि यह अन्यायपूर्ण युद्ध साम्राज्यवादी उद्देश्यों और नीतियों के अनुसरण में लड़ा गया था, इसलिए ब्रिटेन को युद्ध का पूरा खर्च उठाना चाहिए।

1882 में भारत सरकार ने कर्नल अरबी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी विद्रोह को दबाने के लिए इंग्लैंड द्वारा मिस्र भेजे गए अभियान में भाग लिया। मिस्र में ‘आक्रामक’ और ‘अनैतिक’ ब्रिटिश नीति की निंदा करते हुए भारतीय राष्ट्रवादियों ने कहा कि मिस्र में युद्ध ब्रिटिश पूंजीपतियों, व्यापारियों और बांड धारकों के हितों की रक्षा के लिए छेड़ा जा रहा था। 1885 के अंत में भारत सरकार ने बर्मा पर हमला किया और उसे अपने में मिला लिया। भारतीय राष्ट्रवादियों ने एक स्वर में बर्मी लोगों पर युद्ध की निंदा की और इसे अनैतिक, अनुचित, अन्यायपूर्ण, मनमाना और अनावश्यक आक्रमण बताया। राष्ट्रवादियों ने बर्मा के विलय का विरोध किया और बाद के वर्षों में बर्मी लोगों द्वारा की गई गुरिल्ला लड़ाई की प्रशंसा की। 1903 में लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत पर हमला किया। राष्ट्रवादी नेताओं ने इसे 'अनावश्यक, क्रूर और बेकार युद्ध' कहा और इस हमले की निंदा की और कहा यह वाणिज्यिक लालच और क्षेत्रीय विस्तार से प्रेरित था।

1890 के दशक में भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमांत क्षेत्र में सरकार द्वारा अपनाई गई विस्तारवादी नीति ने भारतीयों के गुस्से को भड़काया। भारत सरकार हर साल विद्रोही जनजातियों के खिलाफ़ 60,000 से ज़्यादा सैनिकों की तैनाती के लिए महंगे अभियानों में शामिल रही, जिसके कारण ज़्यादा से ज़्यादा नए इलाकों पर कब्ज़ा किया गया और साथ ही, भारतीय खजाने को लगातार खाली किया गया। राष्ट्रवादियों ने सीमांत जनजातियों द्वारा अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किए गए प्रतिरोध को सही ठहराया। उन्होंने इस सरकारी प्रचार को स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि सरकार की सशस्त्र कार्रवाइयां सीमावर्ती आदिवासियों की अराजकता और रक्तपात के कारण हुई थीं, उन्होंने आदिवासी विद्रोहों को दबाने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए बर्बर उपायों की निंदा की। भारतीयों ने विस्तारवाद नीति के बजाय शांति की नीति की वकालत की।

दादाभाई नौरोजी ने अगस्त 1904 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस के हेग अधिवेशन में भाग लिया और साम्राज्यवाद को बर्बरता की एक प्रजाति बताते हुए घोषणा की कि भारतीय लोगों ने ब्रिटिश राजनीतिक दलों और संसद में अपना सारा विश्वास खो दिया है और वे केवल ब्रिटिश मजदूर वर्ग से सहयोग की उम्मीद करते हैं। लाजपत राय ने 1917 में उविश्व युद्ध के साम्राज्यवादी चरित्र के कारण अमेरिका की भागीदारी का विरोध किया।

भारतीय राष्ट्रवाद का विकास एक लोकतांत्रिक, प्रगतिशील और शांति-कामी विदेश नीति के विकास का माध्यम भी बना। जून 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ। लोकमान्य तिलक सहित भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रयासों का समर्थन करने का निर्णय लिया। शायद इसके पीछे साम्राज्य के प्रति वफ़ादारी की भावना और उसकी हिफ़ाज़त करने की इच्छा रही हो। लेकिन ब्रिटिश उद्देश्यों के प्रति सहानुभूति कम ही थी। उदारवादी और उग्रवादी दोनों ने जर्मनी की जीत को संतुष्टि के साथ देखा। फिर भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति वफ़ादारी इस उम्मीद से दिखाई जा रही थी कि युद्ध में विजय के बाद कृतज्ञतावश ब्रिटेन कुछ आर्थिक और राजनीतिक रियायतों की घोषणा कर दे जिससे भारत को स्वशासन की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ने का अवसर मिले। भारतीय नेताओं को उम्मीद थी कि ब्रिटेन भारत पर भी लोकतंत्र के उस सिद्धांत को लागू करेगा, जिसकी रक्षा के नाम पर वह तथा उसके मित्र राष्ट्र युद्ध में भाग लेने का दावा कर रहे थे।

लोकमान्य तिलक, लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल - ने 1917-18 के दौरान रूसी क्रांति के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, क्योंकि वे इसे उत्पीड़ित लोगों की सफलता के रूप में देखते थे। अन्य कांग्रेसी नेता, उदाहरण के लिए, सी.आर. दास और गांधीजी भी सोवियत संघ के मित्र थे, लेकिन वे हिंसा की भूमिका पर कम्युनिस्टों के जोर के कारण इससे दूर हो गए थे। 1930 के दशक में सोवियत संघ के प्रति सद्भावना, प्रशंसा और समर्थन में काफी वृद्धि हुई, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, किसान सभाएं और ट्रेड यूनियनें विकसित हुईं और अपने प्रचार और आंदोलन में उन्होंने सोवियत संघ को एक उदाहरण के रूप में पेश किया कि मजदूरों और किसानों की शक्ति क्या हासिल कर सकती है।

युद्ध समाप्ति के बाद राष्ट्रियतावादियों ने अपनी विदेश नीति का विकास राजनीतिक तथा आर्थिक साम्राज्यवाद के विरोध तथा विश्व शांति की दिशा में किया। 1919 में अपने दिल्ली अधिवेशन में कांग्रेस ने शांति सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधित्व की मांग की। अन्य देशों के स्वतंत्रता संघर्षों के प्रति सहानुभूति की अभिव्यक्ति का सिलसिला ज़ारी रहा। आयरलैंड और मिस्र की जनता और तुर्की की सरकार को सक्रिय समर्थन दिया गया। कांग्रेस के 1920 के कलकत्ता अधिवेशन में भारत के लोगों से अपील की गई कि वे पश्चिम एशिया में लड़ने के लिए सेना में भरती न हों। 1921 में गांधीजी ने कहा था कि यदि अफ़ग़ानिस्तान पर हमला हुआ, तो भारत के लोग उसका विरोध करेंगे। कांग्रेस ने 1921 में बर्मा के लोगों को स्वाधीनता संघर्ष के लिए बधाई दी। गांधीजी ने इस संदर्भ में 1922 में लिखा: 'मैं कभी भी इस तथ्य पर गर्व नहीं कर पाया कि बर्मा को ब्रिटिश भारत का हिस्सा बना दिया गया है। यह कभी नहीं था और कभी नहीं होना चाहिए। बर्मी लोगों की अपनी सभ्यता है।’ 1925 में जब सन यात-सेन के नेतृत्व में चीन की राष्ट्रियतावादी सेना ने मार्च शुरू किया तो कांग्रेस ने चीनी जनता के संघर्ष के प्रति सहानुभूति व्यक्त की। 1925 में गांधीजी ने निर्दोष चीनी छात्रों पर भारतीय सैनिकों द्वारा गोली चलाने को 'शर्मनाक और अपमानजनक तमाशा' बताया। चीनी जनता का दमन करने के लिए भारतीय सेनाओं के प्रयोग के विरुद्ध में एस. श्रीनिवास अय्यंगर ने जनवरी 1927 में केन्द्रीय धारा सभा में स्थगन प्रस्ताव प्रस्तुत किया। मद्रास कांग्रेस ने भारतीयों को सलाह दी कि वे चीन न जाएँ और चीनी लोगों के खिलाफ़ न लड़ें या काम न करें, जो साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष में साथी लड़ाके थे। डॉ. एम.ए. अंसारी ने 1927 के कांग्रेस अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस प्रकार व्यक्त किया था: 'यूरोप की ओर से इस परोपकारी डकैती का इतिहास कांगो से कैंटन तक खून और पीड़ा में लिखा गया है। . . एक बार भारत स्वतंत्र हो जाए तो (साम्राज्यवाद की) पूरी इमारत ढह जाएगी क्योंकि वह साम्राज्यवाद के मेहराब का मुख्य पत्थर है।' 1928 में कांग्रेस ने मिस्र, सीरिया, फिलीस्तीन, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को उनके राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम में अपना पूरा सहयोग देने का आश्वासन दिया।

फरवरी 1927 में नेहरू ने ब्रुसेल्स में आयोजित औपनिवेशिक दमन तथा साम्राज्यवाद के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से भाग लिया। नेहरू को अल्बर्ट आइंस्टीन, रोमेन रोलांड, मैडम सन यात-सेन और जॉर्ज लैंसबरी के साथ सम्मेलन के मानद अध्यक्षों में से एक चुना गया था। इस सम्मेलन में उन्होंने उपनिवेशवाद और पूंजीवाद के नज़दीकी रिश्तों एवं अंतर्राष्ट्रीयतावाद तथा दुनिया भर में चल रहे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों के प्रति भारतीय जनता की गहरी प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया। वे वहां लातिनी अमेरिका के प्रतिनिधियों के संपर्क में आए। उनके द्वारा उन्होंने अमरीकी साम्राज्यवाद को नज़दीकी से समझा। इससे विदेशी मामलों में भारत की समझ बदली। उन्हें मालूम हुआ कि किस तरह अमरीका का उदीयमान साम्राज्यवाद, अपने प्रभूत संसाधनों और बाहरी हमले की दुश्चिंता से मुक्ति के कारण, धीरे-धीरे मध्यवर्ती तथा दक्षिण अमरीका पर अपना प्रभुत्व कायम कर रहा है। ब्रुसेल्स सम्मेलन ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लीग की स्थापना का निर्णय लिया। नेहरू लीग की कार्यकारी परिषद के लिए चुने गए। कांग्रेस भी एक संबद्ध सदस्य के रूप में लीग से जुड़ी। वहां से लौटने के बाद सारी बातें नेहरूजी ने कांग्रेस के लोगों को बताई और कांग्रेस ने कलकत्ता अधिवेशन में घोषित किया कि भारत का संघर्ष साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी संघर्ष का ही अंग है। इसी अधिवेशन में एक विदेश विभाग स्थापित करने का निर्णय लिया गया जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ रहे राष्ट्रों और आंदोलनों से संपर्क बनाए रख सके। गांधीजी ने सितंबर 1933 में नेहरू को लिखा: 'हमें यह पहचानना होगा कि हमारा राष्ट्रवाद प्रगतिशील अंतर्राष्ट्रीयतावाद के साथ असंगत नहीं होना चाहिए। इसलिए, मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ और कह सकता हूँ कि "हमें दुनिया की प्रगतिशील ताकतों के साथ खुद को जोड़ना चाहिए।"

1936 के बाद कांग्रेस की विदेश नीति में काफी विस्तार हुआ। दुनिया में घट रही शायद ही कोई घटना हो जिसपर कांग्रेस ने अपनी प्रतिक्रिया नहीं दी हो। इटली, जर्मनी और जापान में फासीवाद की जीत हो चुकी थी और अब वह दुनिया के अन्य भागों में अपने पैर पसारना चाह रहा था। कांग्रेस ने फासीवाद को साम्राज्यवाद तथा नस्लवाद का सबसे घृणास्पद रूप बताया। इसने फासीवादी आक्रमण के ख़िलाफ़ इथियोपिया, स्पेन, चीन और चेकोस्लोवाकिया की जनता के संघर्ष को अपना पूरा समर्थन दिया। 1936 के लखनऊ कांग्रेस में नेहरू ने फासीवाद के ख़िलाफ़ ज़ोरदार वकालत की। गांधीजी ने भी फासीवाद का तीव्र विरोध किया। उन्होंने यहूदियों के क़त्ले-आम को अमानवीय कृत्य करार दिया। हिटलर की पुरज़ोर भर्त्सना की। जब 1936 की शुरुआत में इथियोपिया पर फासीवादी इटली ने हमला किया, तो कांग्रेस ने इथियोपिया के लोगों के संघर्ष को सभी शोषित लोगों के स्वतंत्रता संघर्ष का हिस्सा घोषित किया। कांग्रेस ने 9 मई को इथियोपिया दिवस घोषित किया, जिस दिन पूरे भारत में इथियोपिया के लोगों के साथ सहानुभूति और एकजुटता व्यक्त करते हुए प्रदर्शन और बैठकें आयोजित की गईं। इटली से लौटते समय नेहरू ने मुसोलोनी से मिलने से इंकार कर दिया था। कांग्रेस ने स्पेनिश गृहयुद्ध में फासीवादी फ्रेंको के साथ जीवन-मरण के संघर्ष में लगे स्पेनिश रिपब्लिकन के लिए मजबूत समर्थन व्यक्त किया।

1937 में जब जापान ने चीन पर हमला किया, तो कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर जापान की भर्त्सना की। इसने चेतावनी दी कि चीन पर आक्रमण ‘विश्व शांति और एशिया में स्वतंत्रता के भविष्य के लिए सबसे गंभीर परिणामों से भरा हुआ है।’ चीनी लोगों के साथ अपनी एकजुटता की अभिव्यक्ति के रूप में, 12 जून को पूरे भारत में चीन दिवस के रूप में मनाया गया। कांग्रेस ने चीनी सशस्त्र बलों के साथ काम करने के लिए डॉ. एम. अटल की अध्यक्षता में एक चिकित्सा मिशन भी भेजा। इसके एक सदस्य, डॉ. कोटनीस को माओत्से तुंग की कमान के तहत आठवीं रूट सेना के साथ काम करते हुए अपना जीवन बलिदान करना पड़ा।

फिलीस्तीन में एक तरफ़ अरब ब्रिटिश साम्राज्यवाद से संघर्ष कर रहे थे, तो दूसरी तरफ़ यहूदी, जिन्हें नाज़ी जर्मनी में चुन-चुन कर मारा जा रहा था। भारतीयों को यहूदियों से सहानुभूति थी। नाज़ी उनकी जाति को ही ख़त्म कर देना चाहते थे। 27 सितंबर 1936 को कांग्रेस की ओर से फलस्तीन दिवस मनाया गया। गांधीजी ने हरिजन में लेख लिखकर यहूदियों के प्रति अपने संवेदना प्रकट की।

स्पेन में जब फासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाइ लड़ी जा रही थी, तब नेहरू कृष्ण मेनन के साथ 1938 में स्पेन के युद्ध मोरचे पर गए और लगातार हो रही बमबारी के बीच वहां पांच दिन रहे। गांधीजी ने स्पेन के प्रधान मंत्री जुआन नेग्निन को संदेश भेजा, मैं तहेदिल से आपके साथ हूं। आपकी पीड़ा से सच्ची स्वतंत्रता का जन्म हो। जब 1938 के आख़िर में हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया के ख़िलाफ़ कूटनीतिक और राजनीतिक हमला शुरू किया, तो कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित कर घोषणा की, जर्मनी द्वारा चेकोस्लोवाकिया की आज़ादी छीनने या उसे नपुंसक बना देने की निर्लज्ज कोशिश पर हम गहरी चिंता प्रकट करते हैं। चेकोस्लोवाकिया की बहादुर जनता के प्रति हमारी गहरी सहानुभूति है। गांधीजी ने हरिजन में लिखा: 'चेक लोगों को पता चले कि जब उनके विनाश का फैसला किया जा रहा था, तब कार्यसमिति ने खुद को पीड़ा में डाल लिया था।' अपने बारे में बोलते हुए, गांधीजी ने लिखा कि चेक लोगों की दुर्दशा ने 'मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान कर दिया।' नेहरू ब्रिटिश सरकार से नाराज़ थे, क्योंकि वह जर्मनी का साथ दे रही थी। नेहरू उस समय यूरोप में थे। उन्होंने जर्मनी जाने से इंकार कर दिया। 1939 की शुरुआत में त्रिपुरी में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें उसने खुद को 'ब्रिटिश विदेश नीति से पूरी तरह से अलग कर लिया, जिसने लगातार फासीवादी शक्तियों की सहायता की है और लोकतांत्रिक देशों के विनाश में मदद की है।'

दूसरे विश्वयुद्ध की काली घटा छा रही थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने घोषणा कर दी थी कि हम फासीवाद का पूर्ण विरोध करेंगे और साथ ही साम्राज्यवाद का भी। हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्राणपन से कृत-संकल्प हैं। अगस्त 1939 के दूसरे सप्ताह में जब युद्ध शुरू होने वाला था, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में घोषणा की गई, लोकतंत्र की रक्षा के लिए, दूसरे स्वाधीन देशों की कतार में खड़े स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपने संसाधनों का अर्पण करने में हमें ख़ुशी होगी। अहिंसा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण गांधीजी इस मामले में बुनियादी रूप से असहमत थे, लेकिन वे भी इसी रास्ते पर चलने के लिए राज़ी हो गए। कांग्रेस ने 1936-39 के दौरान बार-बार घोषणा की कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सेवा के लिए युद्ध में भारतीय पुरुषों, धन और संसाधनों का उपयोग करने के हर प्रयास का विरोध करेगी। राष्ट्रवादी स्थिति का सारांश देते हुए नेहरू ने 18 अप्रैल 1939 को लिखा: 'भारत में हमारे लिए हमारा रास्ता साफ है। यह फासीवादियों के पूर्ण विरोध का रास्ता है; यह साम्राज्यवाद के विरोध का भी रास्ता है। हम उन संसाधनों को लोकतंत्र की रक्षा के लिए खुशी-खुशी पेश करेंगे, एक स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र की रक्षा के लिए जो अन्य स्वतंत्र देशों के साथ पंक्तिबद्ध है।’ अहिंसा के प्रति इस प्रतिबद्धता के कारण, गांधीजी इस दृष्टिकोण से बुनियादी रूप से असहमत थे। लेकिन वे साथ चलने के लिए सहमत हो गए।

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मनोज कुमार

 

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

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